Monday 31 December 2018

बाग़ी भी आते-जाते रहे, नास्तिक ग्रुप भी चलता रहा...

ग्रुप से निकले दो लोगों के मैसेज, एक खुद निकले, दूसरे को निकालना पड़ा ; मैसेज मुझे भेजे गए हैं लेकि कुछ आरोप लगाए हैं तो सोचा आप सबको बता दूं---
(जवाब जितना ज़रुरी होगा, कमेंट्स् में लगा दूंगा।)

Praveen Kumar Pathak
मुझे दुख है कि आपका यह group नास्तिक The Atheist अभी परिपक्व नहीं हुआ है। जहाँ नफ़रत और अपशब्दों की भाषा में बात की जाए, ऐसे group से अलविदा।

Vhw Baagee
हहहह्हहहहहहाहा....ग्रोवर साहब कुछ भी हो आप भी पाखंडी ही निकले.....शब्दों को चाशनी में लपेट कर पेश करने वाले.....हहहहहहहहाहा.....एक बागी को ब्लोक करना आपकी मानसिकता यही साबित करती है.........शिकायत कमजोर लोग किया करते है, और बागी कहीं से भी कमजोर नहीं है, तुम्हे भी चापलूसों की फ़ौज पसंद है.......हहहहहहह्हहहहाहा...दिल पर ना ले.......बागी, तो बागी ही रहेगा.....एकदम बेबाकी से लिखने वाला.....जरूरत से ज्यादा सभ्य होने का दिखावा करने वाला भी समाज के लिए घातक होता है, और उसमे के तुम हो........बाय फिर मिलेंगे.....तुम भी बागी को याद रखोगे कि बागी भी टकरा था, जिसने मेरे जमीर को हिला कर रख दिया था.

Vhw Baagee
अगर हिम्मत हो तो बागी के इस मैसेज का जवाब जरुर देना.......हहहहहहहहहहहह्हा........बाकी मै जानता हूँ तुम मुर्दों में से हो. जो सिर्फ चापलूसों की फ़ौज को पसंद करता है.....मैंने आपके कई कमेन्ट और पोस्ट देखि है.....उनसे तो यही मालूम पड़ता है.........बाय मिस्टर ग्रोवर.

Sanjay Grover 
पाठक जी, ख़ुद ही छोड़कर गए। परिपक्वता की क्या बात करें, वे एक पुस्तकविशेष में से लेकर उद्धरण चेपे जा रहे थे जिनमें कोई तार्किकता और नयापन नहीं था, फिर भी एक बार भी उन्हें नहीं टोका, इसे अपरिपक्वता ही समझ लें। दूसरे, अगर उन्हें गैम्बलर स्मृति में नफ़रत दिखाई दे रही थी तो हज़ारों सालों से जो मनु-स्मृति चली आ रही है, उसपर भी कुछ कहना चाहिए था। मुझे नहीं मालूम गैम्बलर साहब कौन हैं, मगर उन्होंने सिर्फ़ दो-तीन किस्तें लगाईं थीं, वो बिलकुल उसी अंदाज़ में थी जैसा कि दीपा अग्रवाल ने मनु स्मृति के कुछ अंश लगाए थे। जब हज़ारों सालों से उस स्मृति से नफ़रत नहीं फ़ैली तो तीन दिन और तीन क़िस्तों से इस स्मृति से कैसे फैल जाएगी !

Sanjay Grover 
बाग़ी साहब या तो कुछ सुभाषित (सदा सत्य बोलो) टाइप के पोस्ट कर रहे थे। या फिर एक-दो नास्तिकता से संबंधित पोस्ट लगाईं तो उनमें तर्क कम ग़ाली-ग़लौच ज़्यादा थी। आयडेंटिटी छुपाकर ग़ाली-गलौच करना उन्हें बग़ावत लगती होगी। मुझे तो ठीक से मालूम भी नहीं कि बग़ाबत होती क्या है!? मैंने तो ग्रुप शुरु किया कि एक प्रयास करके देखना चाहिए, शायद हमारा प्रयास कुछ लोगों की सोच बदलने में काम आ जाए।

और यह झूठ है कि मैंने उन्हें ब्लॉक किया है। वैसे मैं कभी-कभी करता हूं, मगर इन्हे अभी तक नहीं किया था।

अगर किसीका उत्साह बढ़ाना चापलूसी है, तो चापलूसी की शुरुआत तो इस ग्रुप में मैंने की। सुधीर कुमार जाटव जी, किरन सागर सिंह जी और दूसरे लोगों की तारीफ़ मैंने की। आप चाहें तो मुझे इन सब का चमचा कह सकते हैं। वैसे न तो ये लोग किसी ऐसे पद या स्थिति में है और न मैं कि हम एक-दूसरे की चमचागिरी करें। अपनी आदत तो मुझे मालूम है, मैंने फ़ेसबुक पर जिन भी लोगों की अबतक तारीफ़ की है उनमें आपके या पारंपरिक नज़रिए से हैसियतदार सिर्फ़ उदयप्रकाश हैं। मेरी आदत है कि मैं किसीका पद, हैसियत, सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, शिक्षा आदि देखे बिना सिर्फ़ विचार के और साहस के आधार पर किसीकी भी तारीफ़ करता हूं, प्रोत्साहन दे देता हूं और मैं यह करता रहूंगा। जहां तक मुझे याद है मुझसे काफ़ी छोटी उम्र के मेरे मित्र अंजुले के बेबाक़ स्टेटसों पर उनकी दो-तीन साल पहले ही अच्छी-ख़ासी तारीफ़ कर दी थी। आजकल वे ऐसा नहीं लिख रहे तो नहीं भी कर रहा।

फिर आप तो क्या ग़ज़ब के बाग़ी है, आप क्या किसी टुच्चे-मुच्चे ग्रुप के मोहताज़ हैं! इससे पहले भी तो कहीं क्रांति कर ही रहे होंगे! पूरा इंटरनेट और फ़ेसबुक खुला पड़ा है क्रांति वगैरह के लिए। लात मारिए हमें और खुले में शुरु हो जाईए।


-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)

4 August 2013

अगर सभी कहने लगें कि दुनिया को हमारी लिखी क़िताब के हिसाब से चलाओ तो

ऐसा कई बार होता है कि बहस के दौरान कुछ लोग कहते हैं कि पहले फ़लां-फ़लां क़िताब पढ़के आओ फ़िर बात करना। ऐसा कहने की एक वजह यह होती है कि इन लोगों का अकसर चिंतन से वास्ता नहीं होता, पढ़ी-पढ़ाई, संुनी-सुनाई बातों को ही ये लोग बतौर तर्क ठेलते रहते हैं। जैसे ही कोई नया सवाल सामने आता है ये लोग घबरा जाते हैं और ‘यह पढ़ो‘, ‘वह पढ़ो’ करने लगते हैं। बचपन में हम देखते कि जब कोई कमज़ोर लड़का किसी ताक़तवर से पंगा ले लेता और हारने लगता तो वह ‘छोड़ूंगा नहीं, कल चाचा को बुलाके लाऊंगा’, ‘साले, तू जानता नहीं है, फ़लां पहलवान मेरा दोस्त है’, ‘मेरे मामा थानेदार हैं......’ जैसी घुड़कियां देने लगता। यह ‘फ़लां क़िताब पढ़के आओ’ भी कुछ-कुछ ऐसी ही हरकत लगती है।

मैं अपनी ज़िंदगी उस आदमी की लिखी क़िताब के हिसाब से चलाऊं!! क्यों चलाऊं? जिसे पसंद है वे पढ़ें, मानें, कौन मना करता है!? मगर मैं क्यों? मेरा क्या लेना?

दूसरी बात(अगर कोई कथित धर्मग्रंथ पढ़ने की सलाह दे), किसीने पांच-दस हज़ार साल पहले कोई क़िताब लिखी, उससे मेरा क्या लेना-देना!? क्या मेरे से पूछके लिखी? क्या लिखते समय किसी बात पर मेरी सलाह ली? पता नहीं कौन आदमी था, क्या स्वभाव था, किससे खुंदक खाता था, किसपे अंधश्रद्धा रखता था? और मैं अपनी ज़िंदगी उस आदमी की लिखी क़िताब के हिसाब से चलाऊं!! क्यों चलाऊं? जिसे पसंद है वे पढ़ें, मानें, कौन मना करता है!? मगर मैं क्यों? मेरा क्या लेना? 

दुनिया-भर में न जाने कितने लोग क़िताब लिखते हैं, मैं भी लिखता हूं। अगर सभी कहने लगें कि दुनिया को हमारी लिखी क़िताब के हिसाब से चलाओ तो!? फिर तो मुश्क़िल खड़ी हो जाएगी! कौन लेखक कहेगा कि उसकी क़िताब महत्वपूर्ण नहीं है, कालजयी नहीं है, समाज को दिशा देनेवाली नहीं है, नीतिनिर्धारक नहीं है, मन-मस्तिष्क को मथ देनेवाली नहीं है? कोई कहेगा!?

एक सभ्य और लोकतांत्रिक दुनिया में इस तरह की बातें ज़्यादा दिन नहीं चल सकतीं।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
19 May 2013

यही सफ़लता है ?

अगर आपका साहित्य और पत्रकारिता में ज़रा-सी भी रुचि या लगाव रहा है तो यह कोई दूर की बात नहीं कि आपको भी किन्हीं ऐसे लोगों के उदाहरण याद आ जाएं जो किन्हीं नास्तिक और प्रगतिशील विचारधाराओं से जुड़े रहे और बाद में प्रचलित अर्थों में सफ़ल भी हो गए। किसीकी संपादकी अच्छी चल गई, कोई चैनल का मालिक हुआ, किसीकी वेबसाइट हिट हो गयी, किसीका और कुछ हो गया। मगर सोचने की बात यह है कि इस तथाकथित सफ़लता के बाद वे कर क्या रहे हैं !? कहीं वे अपनी पत्रिका में पंचांग तो नहीं छाप रहे ? कहीं वे अपने चैनल पर किसीको भगवान तो नहीं बना रहे ? कहीं वे अपने ही जैसे सफ़ल किसी अभिनेता से उसीके बताए सवाल तो नहीं पूछ रहे ? कहीं उन्होंने कमाई के चक्कर में झूठे भविष्यवक्ता तो नहीं बिठा रखे ?

सफ़लता मतलब अपना स्वभाव छोड़कर दूसरों जैसे हो जाना ? क्या सफ़लता आदमी को डरपोक बनाने के लिए होती है कि आदमी ख़ुलकर वह बात भी न कह सके जो वह तब ज़्यादा आसानी से कह सकता था जब असफ़ल था ? यह सफ़लता है ? क्या सफ़लता इस बात की हिम्मत देने के लिए होती है कि आप ख़ुलकर झूठ बोल सकें ?

आगे सोचने की बात यह है कि क्या यह सफ़लता है ? यही सफ़लता है ? सफ़लता मतलब अपना स्वभाव छोड़कर दूसरों जैसे हो जाना ? क्या सफ़लता आदमी को डरपोक बनाने के लिए होती है कि आदमी ख़ुलकर वह बात भी न कह सके जो वह तब ज़्यादा आसानी से कह सकता था जब असफ़ल था ? यह सफ़लता है ? क्या सफ़लता इस बात की हिम्मत देने के लिए होती है कि आप ख़ुलकर झूठ बोल सकें ?

अगर कोई कलका नास्तिक ‘सफ़ल’ होने के बाद आज किसी तथाकथित भगवान का प्रचार कर रहा है तो एक बात बिलकुल साफ़ है ; या तो वह नास्तिक था ही नहीं, किसी मजबूरी, किसी चालाकी के तहत हो गया था, या फ़िर अगर नास्तिक था तो सफ़ल होने के बाद या सफ़ल होते-होते, वह या तो डर गया या कहीं एडजस्ट कर गया। और इतना भी क्या एडजस्ट करना कि आप, आप ही न रहो !?

कुछ भी कर-कराके, जोड़-तोड़ करके, बस पैसे और नाम जोड़ लेना क्या वाक़ई बहुत बड़ी बात है ?

यह सफ़लता है कि असफ़लता !?

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
1 December 2013

स्वस्थ शरीर में बेईमान दिमाग़!

बचपन से लेकर जवानी तक एक वाक्य से अकसर सामना होता रहा-‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है’। लेकिन स्वस्थ शरीर वालों की बातें और क्रिया-कलाप देखकर मन यह मानने को कभी राज़ी न हुआ। उस वक्त चूंकि स्वास्थ्य ज़रा-ज़रा सी बात पर ख़राब हो जाया करता था सो यह भी लगता कि कहीं यह स्वस्थ लोगों से मेरी चिढ़ या खीज तो नहीं है!? लेकिन विचार परिपक्व होते-होते यह बिलकुल ही साफ़ हो गया कि जड़ और यथास्थितिवादी समाजों में स्वस्थ और पढ़े लिखे होने से चीज़ों को जोड़कर देखना अत्यंत ख़तरनाक है। फ़िर तो कहीं-कहीं, कभी-कभी स्वस्थ मस्तिष्क तो क्या मस्तिष्क के होने पर भी शंका होने लगी।

बचपन से लेकर जवानी तक एक वाक्य से अकसर सामना होता रहा-‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है’। लेकिन स्वस्थ शरीर वालों की बातें और क्रिया-कलाप देखकर मन यह मानने को कभी राज़ी न हुआ। उस वक्त चूंकि स्वास्थ्य ज़रा-ज़रा सी बात पर ख़राब हो जाया करता था सो यह भी लगता कि कहीं यह स्वस्थ लोगों से मेरी चिढ़ या खीज तो नहीं है!?

नास्तिकता कोई आसान विषय नहीं है। इस ग्रुप को थोड़े ही दिन हुए हैं पर यहां कुछ उपलब्धियां भी हुईं हैं। कम-अज़-कम मेरे लिए व्यक्तिगत रुप से तो हैं ही। सुधीर कुमार जाटव और किरनपाल सिंह जैसे हमारे मित्रों के सशक्त तर्क और व्यंग्यपूर्ण भाषा ‘मेरिट’ की पुरानी धांधलेबाज़ स्थापनाओं को साफ़-साफ़ झुठला रहे हैं, कितने ही नए नास्तिक मित्रों से मैं यहां परिचित हुआ हूं। लेकिन हमारा समाज अभी भी नए को स्वीकार करने का अभ्यस्त नहीं हुआ है। तिस पर इंटरनेट के आगमन ने पुराने धाकड़ों के लिए हालात कुछ ख़राब कर दिए हैं। लोग यहां विचार पर ध्यान देने लगे हैं, पद-पदवियां-सामाजिक स्टेटस आदि सब अब पीछे खिसक रहे हैं। ऐसे में तरह-तरह की अजीबो-ग़रीब स्थितियां सामने आएंगी ही आएंगी।

मैं यह तो नहीं कहूंगा कि मेरी बात सौ प्रतिशत सच है पर कई बार देखा है कि जिन लोगों की नीयत ठीक होती है वे अपनी बात को समझाने के लिए तर्क रखते हैं, तथ्य देते हैं, उदाहरण दे-देकर तरह-तरह से अपनी बात समझाने की कोशिश करते हैं। इसके विपरीत जो लोग जेनुइन नहीं होते वे तरह-तरह से डराते हैं, क्लिष्ट से क्लिष्ट भाषा बोलेंगे, संस्कृतनुमा हिंदी बोलेंगे, बड़े-पुराने विद्वानों के उद्धरण देंगे, तर्क से नहीं क़िताबों के हवाले से ख़ुदको सही ठहराने की कोशिश करेंगे, कई बार तो बीच-बीच में, इशारों-इशारों में छोटे-मोटे लालच भी देंगे, फिर भी कुछ नहीं बचेगा तो ‘अकेले पड़ जाओगे’ कहकर डराना शुरु कर देंगे। कई बार लगता है कि बहस इनकी मजबूरी है, करना ये कुछ और ही चाहते हैं।

बहरहाल नास्तिकता अपनी नयी और अलग़ सोच-समझ से हर स्थिति को संभालेगी और निपटेगी।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
8 July 2013

बच्चे के पक्ष में नास्तिकता

नास्तिकता पर बात करते हुए हिंदू-मुस्लिम की बात क्यों आ जाती है? और यह एकतरफ़ा नहीं है, कथित मुस्लिम कट्टरता पर कोई कुछ कहे तो कुछ लोग संघी घोषित करने लगते हैं, कथित हिंदू रीति-रिवाजों पर कहे तो कुछ दूसरे आरोप और आक्षेप लगने लगते हैं। 

दूसरों के बारे में दूसरे बताएंगे, मैं तो अपने बारे में बता सकता हूं कि मेरी नास्तिकता किसी धर्म के भीतर से नहीं आई। ईश्वर मेरे लिए निहायत अजीब-सी चीज़ है, इसके होने का कोई भी मतलब मेरी समझ में नहीं आता। और मैं देखता हूं कि ईश्वर, धर्म और उससे जुड़ी अनेकानेक धारणाएं और मान्यताएं, कर्मकांड, रीति-रिवाज मेरे जैसे लोगों पर, किसी न किसी रुप में, जबरन थोपे जाते हैं या ऐसी कोशिश की जाती है। मुझे यह कष्टप्रद, अन्यायपूर्ण, अतार्किक और तानाशाहीपूर्ण लगता है। इसीलिए मैं कथित ईश्वर और कथित धर्म के इस रुप का विरोध करता हूं।

मेरे लिए यह अत्यंत आश्चर्य की बात है कि किस तरह एक मासूम बच्चे को दुनिया में ले आया जाता है, बिना उससे कुछ पूछे और बताए, और बाद में उसपर तरह-तरह की चीज़ें थोपने की कोशिश की जाती है, जैसे उसे पैदा करके उसपे अहसान किया गया हो। जबकि उसके पैदा होने में उसके सिवाय बाक़ी सभी संबद्ध लोगों की सहमति होती है, बस उसीकी नहीं होती। मेरी समझ में तो यह आपराधिक कृत्य है और इसके खि़लाफ़ क़ानून बनना चाहिए। 


मेरे लिए यह अत्यंत आश्चर्य की बात है कि किस तरह एक मासूम बच्चे को दुनिया में ले आया जाता है, बिना उससे कुछ पूछे और बताए, और बाद में उसपर तरह-तरह की चीज़ें थोपने की कोशिश की जाती है, जैसे उसे पैदा करके उसपे अहसान किया गया हो। जबकि उसके पैदा होने में उसके सिवाय बाक़ी सभी संबद्ध लोगों की सहमति होती है, बस उसीकी नहीं होती। मेरी समझ में तो यह आपराधिक कृत्य है और इसके खि़लाफ़ क़ानून बनना चाहिए। 

मेरे जैसे कुछ दूसरे लोग भी होंगे, वे भी मेरी तरह परेशान होते होंगे, होते ही हैं, यह बात भी मुझे नास्तिकता के पक्ष में लिखने को प्रेरित करती है। इससे भी आगे, मैं यह मानता हूं कि अगर आप दुनिया में अपनी तरह के बिलकुल अकेले भी हैं और आपको लगता है कि आप तार्किक हैं, सही हैं, तो आपको अपनी बात रखते रहना चाहिए, इसमें मुझे कुछ भी ग़लत नहीं लगता।

अब बताईए, इसमें हिंदू-मुसलमान की बात कहां से आती है!?

आप चाहें तो आप भी नास्तिकता के अपने कारणों के साथ अपनी बात यहां रख सकते हैं।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
29 June 2013


दूसरी तरह की सामाजिकता

कम-अज़-कम दो तरह की सामाजिकता समझ में आती है-एक जो सीखी हुई या रटी हुई सामाजिकता है जिसमें हमारे माता-पिता, क़िताबों, गुरुओं, बुज़ुर्गों ने जो सिखा दिया है उसे हम किसी कर्मकांड की तरह बिना सोचे-समझे निभाते जाते हैं, बिना यह जानने की कोशिश किए कि इससे वास्तव में समाज का कुछ भला भी हो रहा है या उल्टे कहीं कुछ बुरा तो नहीं हो रहा! दूसरी जो नास्तिक की सामाजिकता कही जा सकती है, रोज़ाना, घटनाओं के आधार पर बिना पूर्वाग्रहों के, अपनी समझ से तय की जानेवाली सामाजिकता। बिना यह जाने कि सामनेवाला मेरा रिश्तेदार, दोस्त या जानकार है या नहीं, इससे मुझे कोई फ़ायदा होगा या नहीं, मैं सामनेवाले की मदद कर दूं। पहली सामाजिकता के अनुसार आप सिर्फ़ उन लोगों के काम आएंगे जिनके बारे में आपके माता-पिता, आपके शास्त्रों ने तय कर दिया है। इसके तहत आपको एक ऐसे परिचित की ऐसी शवयात्रा में जाना ज़रुरी लगेगा जिसमें बड़ी मात्रा में लोग आनेवालें हैं और जहां आपके न जाने से शायद रत्ती-भर भी फ़र्क नहीं पड़नेवाला मगर आपका वहां होना ‘गिना’ ज़रुर जाएगा। दूसरी सामाजिकता में आप एक ऐसे आदमी की मदद को भी खड़े हो जाएंगे जिससे आप पहले कभी मिले भी नहीं मगर आपको लगता है कि इसे आपकी सचमुच ज़रुरत है, यह अकेला है या सच्चा है और आपके होने मात्र से इसे हौसला मिलेगा। वहां आप यह नहीं देखेंगे कि वहां आपको कुछ मिलेगा कि नहीं, कहीं आपका कुछ नुकसान तो नहीं हो जाएगा।

समाज कुछ चीज़ें तय कर देता है कि यह अच्छाई है, यह बुराई है, इस तरह का आदमी सामाजिक है, उस तरह का असामाजिक है, इस तरह के लोगों के सामने फ़लां तरह की शारीरिक क्रियाएं करना या पोज़ बनाना आदर है और न बनाना निरादर है.........

पहली सामाजिकता के अनुसार आप सिर्फ़ उन लोगों के काम आएंगे जिनके बारे में आपके माता-पिता, आपके शास्त्रों ने तय कर दिया है। इसके तहत आपको एक ऐसे परिचित की ऐसी शवयात्रा में जाना ज़रुरी लगेगा जिसमें बड़ी मात्रा में लोग आनेवालें हैं और जहां आपके न जाने से शायद रत्ती-भर भी फ़र्क नहीं पड़नेवाला मगर आपका वहां होना ‘गिना’ ज़रुर जाएगा।

धीरे-धीरे ये चीज़ें कर्मकांडों फ़िर रुढ़ियों में बदल जातीं हैं और इनसे ज़्यादा लाभ औसत बुद्धि के लोगों को होता है जो ख़ुदका दिमाग़ लगाकर सोचने-समझने में यक़ीन नहीं रखते। उनसे भी ज़्यादा लाभ पाखंडियों को होता है। जहां यह मान लिया गया हो कि सुबह चार बजे मंदिर जानेवाला आदमी अच्छा आदमी होता है तो ऐसे में बुरे आदमी का काम बहुत आसान हो जाता है। जो भी उसे सुबह मंदिर जाते देखेगा, अच्छा आदमी मानेगा। उसके बाद वह दिन भर चाहे किसी ग़रीब को पीटे, पैसे मारे, बिल न चुकाए, कुछ भी करता फिरे।

इस सबमें सबसे ज़्यादा नुकसान एक तो यह होता है कि जहां सब कुछ पहले से तय होता है वहां मानव मस्तिष्क के प्रयोग और विकास की संभावनाएं क्षीण होती जातीं हैं। नए विचार के लिए कोई रास्ता नहीं बचता। दूसरा, अच्छा कहलाने के लिए आपको कोई भी अच्छा काम करना और ख़ासकर जोखि़म-भरा काम करना ज़रुरी नहीं होता बल्कि कुछ कर्मकांड ही करने होते हैं जो कि अपेक्षाकृत निहायत आसान और जोखि़मरहित होते हैं। इसके विपरीत दूसरे तरह की सामाजिकता में आपको बात-बात पर आपको विरोध सहना पड़ सकता है, नुकसान उठाना पड़ सकता है, अकेला हो जाना पड़ सकता है। चूंकि आपकी बात नयी है, अलग़ है तो आपको उसके पक्ष में बारम्बार तर्क और उदाहरण देने पड़ सकते हैं।

इसके अलावा कोई तीसरे तरह की सामाजिकता समझ में आती है तो ज़रुर यहां बताएं।



-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
7 July 2013

जुड़े हुए को तोड़ के फिर जोड़ने की बधाई

आप ख़रगोश को देखेंगे और पहचान जाएंगे कि ख़रगोश है। बैल दिखे, घोड़ा दिखे, कबूतर दिखे, रीछ दिखे, सबको आसानी से पहचान लेंगे। उनकी कुछ आदतें हैं, रंग-रुप है, स्वभाव है, जो सामने है ; थोड़ा-बहुत फ़र्क होगा, लेकिन पहचान लेंगे। और आदमी को भी पहचान लेंगे, वह भी साफ़ दिखाई पड़ता है कि यह जो सामने से चला आ रहा है, आदमी है। स्त्री-पुरुष भी पहचान लेंगे। लेकिन आदमी के अलग-अलग धर्म, जातियां, नागरिकता !? अगर उनकी कहीं लिखा-पढ़ी न हो रखी हो, कोई प्रतीक न हो और वह ख़ुद न बताएं तो क्या है कोई ऐसा तरीक़ा कि कोई बता दे कि यह किस धर्म, किस जाति का आदमी है!? साइंस के पास भी ऐसा कोई टैस्ट नहीं है। ऐसा इसलिए है कि शेर वास्तविकता है, बिल्ली वास्तविकता है, आदमी वास्तविकता है, स्त्री-पुरुष वास्तविकता हैं मगर धर्म और जातियां या तो गढ़े गए हैं या गढ़ गए हैं। इन्हें आप पहचानते हैं कुछ बाहरी चीज़ों से, कुछ प्रतीकों से, कुछ तीज-त्यौहारों से, कुछ कपड़ों से, कुछ रीति-रिवाजों से....।

 मगर आप देखते हैं कि यह भी पूरा सच नहीं है। आप देखते हैं कि अगर किसी कथित धर्म का प्रतीक दाढ़ी, मूंछ, सर के बाल या ऐसा ही कुछ और है तो कभी आप यह भी देखते हैं कि कोई उस कथित धर्म का कट्टर विरोधी भी ठीक वैसे ही प्रतीक धारण किए होता है। मुझे इसमें कोई हैरानी नहीं होती। क्योंकि थोपी गई चीज़ें थोपी हुई ही रहेंगी। कभी भी आदमी का मन उससे उकता सकता है। 

कई जगह पढ़ा और सुना था कि हर स्त्री एक दिन फ़लां रंग का जोड़ा पहनना चाहती है, वहां अर्थ यह था कि शादी करना चाहती है। मगर फ़िर कहानियों में, फ़िल्मों में और फ़िर जीवन में देखा कि कुछ दूसरे धर्मों/संप्रदायों की स्त्रियां शादी के वक्त किसी और रंग के कपड़े पहने हुए हैं। समझ में आया कि यह बनाई हुई बात है, ज़रुरी नहीं कि यह स्त्रियों का स्वभाव हो। अब तो यह धारणा भी टूट रही है कि हर स्त्री शादी करना चाहती है, एक की होके रहना चाहती है, चूल्हा-चक्की करना चाहती है, बच्चे पैदा करना चाहती है।
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है।

कोई तीज-त्यौहार पर किसीको बधाई दे, ज़रुर दे, अच्छी बात है, दूसरे को क्या एतराज़ हो सकता है? मैंने तो कभी आपत्ति की नहीं। मैं तो आपत्ति करुंगा तो यह कहूंगा कि भाई जो बधाई न दे, उसे मूर्ख मत समझो/कहो। हो सकता है उसकी इंसानियत की समझ आपसे ज़्यादा गहरी हो। हो सकता उसकी बीमारी की समझ आपसे अलग हो, हो सकता है वह उस कुंए में कभी गया ही न हो जिससे बाहर निकलने के तरीक़े आप बता रहे हैं।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
9 August 2013

Saturday 23 June 2018

भगवान और उद्देश्य!

photo by Sanjay Grover


लोग कहते हैं कि भगवान हमें किसी विशेष उद्देश्य से धरती पर भेजता है।

कभी-कभी मैं सोचता हूं कि हो सकता है बात सही हो।

अंततः भगवान को समझ में आता है कि ये लोग उद्देश्य को पूरा करने में अक्षम हैं इसलिए इन्हें वापस बुला लेता है। 

इससे पता चलता है कि भगवान भी अपने तजुर्बों से कुछ नहीं सीखता 
इसलिए पहले  इन्हें बनाए चला जाता है फिर वापिस मंगाए चला जाता है।

हे भगवान! भगवान ऐसा क्यों है ?

ऐसा भगवान है क्यों ?

वैसे है क्या ?


(कृपया सीरियसली न लें, काल्पनिक भगवान के बारे में कभी-कभी हम यहां मज़ाक़ करते हैं।)


-संजय ग्रोवर
24-06-2018


Tuesday 22 May 2018

गंगा-जमुनी धर्मनिरपेक्षता न तो प्रगतिशीलता है न नास्तिकता

तब तक दिल्ली नहीं आया था। दूरदर्शन और उसके बाद में खुल गए निजी चैनलों पर बहस के कार्यक्रम शौक़ से देखता था। कुछ खटकता था जब देखता था कि मेरे प्रिय वक़्ता उन बातों का ऐसा जवाब नहीं दे रहे जैसा देना चाहिए था या जैसा मुझ जैसे अज्ञानी-अनाथ को भी बड़ी आसानी से सूझ रहा है। जैसे कि जब पहली बार गणेश की मूर्तियों ने तथाकथित तौर पर दूध पिया तो गांव से लेकर स्टूडियो तक एक ही बहस चल रही थी कि ‘पिया या नहीं पिया’ ! उधर मैं सोच रहा था कि ये लोग यह क्यों नहीं सोचते कि ‘पी भी लिया तो क्या हो गया ? किसका फ़ायदा हो गया ? जहां ग़रीब लोगों के पास पीने को पानी नहीं है, वहां यह कैसा भगवान है जो बचा-खुचा दूध भी पिए ले रहा है ? दूध पी रहा है तो मुंह खोलने में क्या कष्ट है, चम्मच बिलकुल मुंह से क्यों सटाना पड़ता है ?’

बहस के ऐसे तमाम कार्यक्रमों को देखते हुए ऐसे कुछ न कुछ शक़, सवाल मन में पैदा हो जाते और फिर बने ही रहते। समाज या भीड़ के डर से अपने मन से मैंने कभी भी ऐसे सवालों या शक़ों को नहीं निकाला जिनका कोई 
तार्किक आधार था, जो हर बार खटकते थे।

 समस्या यह थी कि उस वक़्त मैं भी धर्मरिपेक्ष लोगों को प्रगतिशील तो समझता ही था, कभी-कभी अपनी तरह नास्तिक भी समझ लेता था। दिल्ली आने के बाद, उसके बाद फिर इंटरनेट पर आने के बाद मुझे एक खुला स्पेस दिखाई दिया जहां अपने विचारों को खुलके व्यक्त किया जा सकता था। धीरे-धीरे मैंने अपनी बात कहनी शुरु की और जब स्वीकृति मिलनी शुरु हुई तो विचारों को मेरे मन में, और बाहर भी, विस्तार मिलने लगा। आज मैं विचारों से इतना भरा हूं कि 7-8 साल से, लगभग, बिना अख़बार, क़िताब पढ़े, लगातार लिख रहा हूं।

आज मैं बहुत स्पष्टता से कह सकता हूं कि धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता में बहुत बड़ा अंतर है ; और नास्तिकता इन दोनों से भी बड़ी है। धर्मनिरपेक्षता दरअसल धर्म के ही ज़्यादा क़रीब है। एक धर्म के माननेवाले को धार्मिक कहते हैं तो कई धर्मों के माननेवाले को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं। यहां दिलचस्प और बहुत बड़ा विरोधाभास यह है कि तथाकथित प्रगतिशील एक तरफ़ तो दूध पीने की घटना को अंधविश्वास बताता है, दूसरी तरफ़ ऐसे सभी त्यौहारों पर बधाईयां भी देता है, शामिल भी होता है और मौक़ा लग जाए तो खाता-पीता भी है। अब सवाल यह है कि इन त्यौहारों और कर्मकांडों में सिवाय सामूहिक भोज और उत्सव के ऐसा क्या है कि इन्हें किसी तार्किक, वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी समझा जा सके !? देश में दो बार मूर्तियों के कथित दुग्धपान की घटना इतने बड़े पैमाने पर हुई कि अच्छा-ख़ासा विज्ञापन हो गया और तथाकथित प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने कहा कि यह अंधविश्वास है। लेकिन उससे पहले और बाद में जो दूध फैलाया जा रहा था (या है), वो क्या है ? उसे क्या आप प्रगतिशीलता कहेंगे ? आप देखते होंगे कि तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी ऐसे छोटे से छोटे त्यौहारों पर बधाईयों की बाढ़-सी छोड़ देते हैं। एक दिन दूध फैलता है तो अंधविश्वास और रोज़ फैलता है तो बधाई! बात कुछ समझ में नहीं आई!  मेरी समझ में त्यौहारों और कर्मकांडों का आधार अकसर अंधविश्वास या दोहराव ही होता है। जहां तक सामूहिकता और उत्सव की बात है, उसके लिए दूसरे भी तरीक़े हैं, उसके लिए अंधविश्वास को बढ़ावा देना ज़रुरी तो नहीं है !

प्रगतिशीलता और नास्तिकता, पिछला अगर व्यर्थ लगता है तो, उसको छोड़कर आगे बढ़ जाने का साहस है। मुझे कोई हैरानी नहीं हुई जब नास्तिक ग्रुप के उत्थान के समय में तथाकथित प्रगतिशीलों की ऐसी अपीलें पढ़ीं कि ‘भैया, ज़्यादा हो तो धर्मनिरपेक्ष बन जाना मगर नास्तिकता की तरफ़ ग़लती से भी न जाना’। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि धर्मनिरपेक्षता में न तो वर्णव्यवस्था का कुछ बिगड़ा था न अंधविश्वासों का, ऊपर से ‘अनेकता में एकता’ का भ्रम भी बरकरार था। यह मेरे लिए अद्भुत भी था और सुखद भी कि नास्तिक ग्रुप में दलित तेज़ी से जुड़ रहे थे। यह नास्तिकता मात्रा-व्याकरण-शिल्प-शैली की परवाह किए बिना खुलकर विचार करने की स्वतंत्रता की नास्तिकता थी। इसमें न तो इतिहास का कोई बंधन था न बिना तर्क की परंपराओं का बोझ लादे फिरने की कोई मजबूरी थी। 

इसमें आपको ऐसा कोई कोल्हू का बैल नहीं बनना था कि अगर किसी मंच पर एक शायर दहेज में दासियां लाने का महिमामंडन कर रहा है और बराबर में खड़ा उसका दूसरा कवि दोस्त अपने महान ख़ानदान का अतार्किक रुढ़िवादी रोना रो रहा है और तीसरा कोई मां की बेतुकी भावुक तारीफ़ कर रहा है जिसमें उसके लिए तो मां ने काफ़ी कुछ किया पर उसने मां के लिए कविता-आरती के अलावा क्या किया यह पता ही नहीं चल रहा ऊपर से तुर्रा यह कि ये तीनों कट्टरपंथीं प्राणी अगर एक साथ मंच पर आ जाएं तो किसी ‘गंगा-जमुनी परंपरा/संस्कृति के तहत आपको इन्हें प्रगतिशील भी मानना पड़ेगा। इनकी दोस्ती अच्छी है, इसमें कोई बुराई नहीं मगर ऐसे लोगों को प्रगतिशील मानने का अच्छा-ख़ासा नुकसान हमने झेला है और झेल रहे हैं।

हां, लोकप्रियता के लिए गंगा-जमुनी सभ्यता भी अच्छी है और धर्मनिरपेक्षता भी, खाने-पीने की वैराइटी बढ़ जाती है, जुगाड़-क्षमता में भी इज़ाफ़ा होता है, ख़ामख़्वाह में लोग आपको प्रगतिशील भी समझने लगते हैं।

जहां तक मेरी बात है, मैं इसको बिलकुल भी ज़रुरी नहीं समझता कि कहीं लोग मुझे ग़लत, ईर्ष्यालु और घृणालु न समझ लें सिर्फ़ इसलिए हर जाति, धर्म, देश, पेशा, वर्ग, लिंग, वर्ण, संप्रदाय...के कम-अज़-कम एक-एक व्यक्ति से दोस्ती ज़रुर रखूं-एक क्रिश्चियन, एक रशियन, एक जर्मन, एक लड़का, एक लड़की, एक जवान, एक बुज़ुर्ग, एक अंकल, एक आंटी, एक मद्रासी, एक बंगाली, एक अखबारवाला, एक केबलवाला..........बाबा रे बाबा....यह कैसी ज़िंदगी हो जाएगी...हम दुनिया में सहज ढंग से जीने आए हैं या कोई दुकान खोलने या मंत्रीमंडल बनाने आए हैं... आखि़र आदमी के लिए कोई एक तो ठिकाना ऐसा होना चाहिए जहां दुनियादारी या राजनीति न हो... 

मैं तो बस आदमी की तरह मिलता हूं और आदमी की ही तरह अगर कोई अच्छा लगता है तभी आगे की सोचता हूं।

अब यह धर्मनिरपेक्षता क्या है ?

-संजय ग्रोवर
22-05-2018

Thursday 3 May 2018

रीतियों के रखवाले



अपने-अपने धर्म का बैनर लगाकर जो लोग समाजसेवा का प्रदर्शन करते हैं वे दरअसल समाज के विभाजन और सांप्रदायिकता में हिस्सेदरी की नींव रख रहे होते हैं। हैरानी होती है जब यही लोग सांप्रदायिक एकता के मसीहा का काम भी संभाल लेते हैं।

हैरानी होती है कि जिन्हें साल में एक दिन आलू-मैदा बांटने के लिए भी किसी धर्मविशेष की छत्रछाया की ज़रुरत पड़ जाती है वे अपने दम पर अगर किसीकी मदद करनी पड़ जाए तो कैसे करेंगे !?

मदद धर्म से होती है या इंसान में मौजूद इंसानियत, संवेदना और बुद्धि के फलस्वरुप पैदा हुए तर्क और चिंतन की वजह से !?

धर्म और परंपरा से भी मदद होती है, पर कैसे होती है !? आप किसी लड़की की शादी में लिफ़ाफ़े में कुछ पैसे डालकर वहां पटक आते हैं। धर्म और परंपरा आपको इतना भी सोचने का मौक़ा नहीं देते कि लड़कियों की ही शादी में पैसे क्यों देने पड़ते हैं ? यह रिवाज बनाया किसने ? यह तो ऐसे ही हुआ जैसे पहले तो आप ही किसीकी टांग तोड़ दें फिर आप ही मलहम लेकर पहुंच जाएं ! 

जो तथाकथित बुद्धिजीवी ऐसे लोगों को ‘प्रोत्साहित’ करते हैं, हैरानी होती है कि क्या वे इतने कम बुद्धिजीवी हैं कि वे ऐसे नाज़ुक मसलों का भी सिर्फ़ एक ही पहलू देख पाने में सक्षम होते हैं ?

(जारी)

-संजय ग्रोवर



Saturday 21 April 2018

सर्वाइवल ऑफ़ द रेपिस्ट

(पिछला हिस्सा)



मंदिर में बलात्कार हुआ, इसमें हैरानी की क्या बात है !?
गाना नहीं सुना आपने-ःभगवान के घर देर है अंधेर नहीं है.....’
और कहावत-‘भगवान जो भी करता है अच्छा ही करता है......’
एक और कहावत-‘जैसी भगवान की मर्ज़ी’

मानता हूं तो लगता है कि कहावतें बुद्धिमानों ने बनाईं हैं। सोचता हूं तो लगता है कहीं बलात्कारियों ने तो नहीं बनाईं !?

ऐसी कहावतों से फ़ायदा आखि़र किसका है ? 

मंदिरों में आखि़र होगा क्या ? वहां ज़बरदस्ती के अलावा और हो भी क्या सकता है !?

बच्चों को बचपन से अगर डराया न जाए तो वो क्या झांकेंगे भी वहां जाके !?

आप क्या सोचते हैं कि बलात्कारी भगवान को नहीं मानते !?

सच तो यह है कि भगवान को माने बिना ऐसी ठसबुद्धि की हरक़तें, ऐसी ज़बरदस्ती संभव ही नहीं लगती। भगवान वह पहला हथौड़ा है जो बच्चे की बुद्धि को कमज़ोर करने के लिए चलाया जाता है। उसके बाद तो बस छोटी-मोटी चोटें ही करनी होतीं हैं।

धर्म, कर्मकांड और रीति-रिवाज ही ऐसी ज़बरदस्ती का आधार हैं। आप भारतीय शादी को देख लीजिए, पूरा कांड एकतरफ़ा ज़बरदस्ती पर आधारित है। आप बच्चे के ऊपर लादे जाने वाले जाति, धर्म, वाद, विचारधारा, स्टेटस आदि को देख लीजिए। सबमें मां-बाप और उनके पीछे छुपे खड़े समाजों की ज़बरदस्ती है। डरे हुए लोगों की अंतहीन दौड़-मां-बाप-बच्चे-शादी-नौकरी-दुकान-मकान..... मां-बाप-बच्चे-शादी-नौकरी-दुकान-मकान..... मां-बाप-बच्चे-शादी-नौकरी-दुकान-मकान.....
इसके अलावा और क्या करते देखा है आपने इन लोगों को !?

आपने भारतीय बारातें तो देखी होंगीं। इसमें बलात्कार से अलग क्या चीज़ है !? ये जहां से शुरु होतीं हैं उसका अंत बलात्कार में नहीं होगा तो कहां होगा ? इसमें सबसे अजीब बात तो यह है कि मैंने आज तक किसी लड़की को यह आवाज़ उठाते नहीं देखा कि शादी के बाद हमें ही घर क्यों छोड़ना पड़ता है, लड़कों को क्यों नहीं ? इतनी भारी असमानताओं पर जिन्हें कभी संदेह तक नहीं उठता, ज़ाहिर है कि उनके साथ क़दम-क़दम पर ज़बरदस्ती होती है। 

भारतीय बारातें। घोड़ी पर लड़का। क्यों ? एक मजबूर लड़की, पैसों, अंधविश्वासों और गंदे रीति-रिवाजों की वजह से जिसकी कहीं शादी नहीं हो पा रही थी, उससे इस लड़के ने शादी कर ली। क्या रीति-रिवाज तोड़के शादी की ? क्या लेन-देन छोड़ के शादी की ? बिलकुल भी नहीं। फिर यह घोड़े पर क्यों बैठा है ? घोड़ा इसे कहां तक ले जाएगा ? यह आदमी जब हर बेईमानी से एडजस्ट करने को तैयार हो ही गया तो अब अकड़ किस बात की दिखा रहा है ? वरना शादी से पहले सौ बार सोचता। एक ही ऑप्शन दिया था मां-बाप ने-बस शादी। दूसरा तो कोई आप्शन था ही नहीं। यह पहले ही आप्शन पे राज़ी हो गया। अब किराए की घोड़ी पर इतनी अकड़। सही बात यह है कि यह अकड़ भी ज़बरदस्ती की है। अभी बारात आधे रास्ते पहुंची हो और कोई सूचना दे दे कि रीति-रिवाज बदल गए हैं, दहेज का क़ानून लागू हो गया है, पोलिस रास्ते में खड़ी है......बस फिर देखना ज़रा...यह लड़का अभी घोड़ी से उलट जाए, अपनी ज़ुबान से पलट जाए, आधे रास्ते से छूट भागे। और घोड़ा किस बात का प्रतीक है ? हम लोग सड़क पर प्रतीकों का इतना प्रदर्शन क्यों करते हैं ? क्या हमारे पास प्रतीकों और रीति-रिवाजों के अलावा बाक़ी कुछ नहीं बचा !? असल में यह लड़का पहले तो ख़ुद दूसरों की ज़बरदस्ती में आ गया, अब उसी ज़बरदस्ती के साये में लड़की और उसके घरवालों से ज़बरदस्ती करेगा ?

इस बेचारे से भी ज़बरदस्ती हुई। जब यह कमज़ोर था, छोटा था, दूध-पानी, कपड़े-लत्ते के लिए मां-बाप पर निर्भर था तभी इससे कहा गया कि भगवान को मानो। फिर कहा गया कि मां-बाप को भगवान मानो। अब ज़रा सोचिए कि मां-बाप ही अगर बलात्कार में शामिल हों तो ? अब यह उनको भगवान माने कि बलात्कारी माने ? ज़्यादातर बलात्कारी या तो मां-बाप बन चुके होते हैं या बननेवाले होते हैं  और मां-बाप की पैदाइश तो सभी होते हैं।

इस लड़के को ज़बरदस्ती का स्वाद लग चुका है ? और यह उन्हीं रीति-रिवाजों, परंपराओं, संस्कृतियों की बदौलत लगा है जिन्हें आपने बहुत महान घोषित कर रखा है। 

 -संजय ग्रोवर
21-04-2018
(अगला हिस्सा)

Monday 16 April 2018

बलात्कार का स्वाद



मंदिर में बच्ची से बलात्कार की ख़बर क्या कुछ लोगों को चौंका सकती है ? क्या उन लोगों को भी जो कहते हैं ‘भगवान की मरज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता’! क्या उन लोगों को भी जो कहते हैं ‘बच्चे ईश्वर का रुप होते हैं’ ! लेकिन वही लोग यह भी कहते है कि ‘कण-कण में भगवान है’, ‘भगवान हर जगह मौजूद है
’, ‘भगवान की लाठी में आवाज़ नहीं होती’, ‘भगवान जो चाहता है वही होता है’.....  

सही बात यह है कि अगर हम मान भी लें कि भगवान होता है तो भी यह मानना पड़ेगा कि वह फ़िल्मों, कहानियों और कविताओं में ही कमज़ोरों के काम आता है। कमज़ोरों और ग़रीबों को वास्तविकता में उससे कभी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। हम थोड़ी अक़्ल लगाने को तैयार हों तो यह सोचने में क्या बुराई है कि भगवान ने स्त्रियों को ऐसा क्यों नहीं बनाया कि कोई उनसे बलात्कार की सोच ही न सके ? उसने बलात्कारियों को ऐसा क्यों नहीं बनाया कि बलात्कार की बात उनके दिल में आए ही नहीं ? जब-जब बलात्कार और अत्याचार होता है, भगवान छुट्टी पर क्यों चला जाता है ?

विचार के नाम पर हम कब तक रट्टा मारते रहेंगे ? कोई कह रहा है कि मेरे घर में भी स्त्रियां हैं इस नाते मैं बलात्कार का विरोध करता हूं। अरे भैया बलात्कारी के घर में भी स्त्रियां हैं। कोई कहता है कि जिनके घर में बेटियां हैं उनको बलात्कार का विरोध करना चाहिए। और जिनके घर में नहीं है उनको क्या समर्थन करना चाहिए ? 

सही बात यह है कि हमको ज़बरदस्ती का स्वाद लग चुका है ? 


(जारी)

(अगला हिस्सा)


-संजय ग्रोवर
16-04-2018

Saturday 7 April 2018

असमानता और अत्याचार का नृत्य

(पिछला हिस्सा)




आप चीज़ों को जब दूसरी या नई दृष्टि से देखते हैं तो कई बार पूरे के पूरे अर्थ बदले दिखाई देते हैं। बारात जब लड़कीवालों के द्वार पर पहुंचती थी तभी मुझे एक उदासी या अपराधबोध महसूस होने लगता था। गुलाबी पगड़ियों में पीले चेहरे लिए बारात के स्वागत लिए तैयार लोग कुछ घबराए-घबराए से लगते थे। जयमाला के लिए चलती हुई लड़की के साथ दाएं-बाएं दो सहेलियां बैसाखियों जैसी दिखाई पड़ती। नथनी-गहने-घूंघट आदि के बीच समझना मुश्क़िल था कि दुलहिन उदास है, परेशान है या ख़ुश है।
 


दो वजह से, ख़ासकर, बारात मुझे कोई सामाजिक कृत्य कभी लग नहीं पाया। पहली बात कि लड़कापक्ष और लड़कीपक्ष में गहरी असमानता या भेदभाव जो इन्हीं पक्षों ने आपस में मिल-जुलकर बनाए हैं, बनाए रखना चाहते हैं। समझ में नहीं आता कि ऐसे दो पक्ष एक साथ मिलकर ख़ुशी कैसे मना सकते हैं जिनमें से एक की हालत लगभग देनदार, कर्ज़दार, दास, ग़ुलाम जैसी है और दूसरे की मालिक़, लेनदार, बॉस, सर जैसी हो ! इन संबंधों में किसको क्या-क्या लेना-देना पड़ता है और किसकी हैसियत अपने संबंधी के समक्ष कैसी हो जाती है, ज़्यादातर भारतीय लोगों को पता ही होगा।

दूसरी बात, बारातें अकसर सड़क के नियमों का उल्लंघन करके निकाली जातीं जिसकी हमें आदत पड़ चुकी होती है। मैं जब ख़ुद बारात में नहीं होता था और साइकिल के सामने कोई बारात पड़ जाती थी तो कई बार सर नीचा करके भुनभुनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था। आए दिन सड़कों पर होने वाले गड़ढों और झगड़ों में भी बारातों और उत्सवों का अच्छा-ख़ासा योगदान होता है।

जब मैं पूरी नयी और व्यंग्य-दृष्टि से बारात को देखता हूं तो अजीब-अजीब चीज़ें दिखाई देने लगतीं हैं। मुझे नहीं समझ में आता कि आजकल की बारात में घोड़े का क्या महत्व है ? क्या शादीवाले दिन दूल्हा ज़्यादा थका हुआ होता है ? या उसे कहीं युद्ध करने जाना होता है ? अगर जाना ही होता है तो वो बारात में सबसे पीछे-पीछे क्यों चलता है ? फिर बारात में बच्चों और औरतों का क्या काम ? फिर माला और मिलनी का भी क्या काम ? दुश्मन भी भला कभी मिलते हैं ? लेने-देने, नाचने-झूमने, मुख-मुद्राओं के परस्पर विरोधी अंदाज़ में ये एक-दूसरे के दोस्त तो कतई नहीं लगते। जिससे सारा खर्चा लिया हो उसीके दरवाज़े पर जाकर उछल-उछलकर, कूद-कूदकर नाचना बहादुरी भी कतई नहीं लगती। मुझे कई बार लगता है कि जो लोग ज़िंदगी में हर मोर्चे पर एडजस्ट कर चुके हों, हर बेईमानी के सामने सर झुका चुके हों, सभी तरह के बहुरुपिएपन को अंगीकार कर चुके हों ; उनके सामने किसी कर्मकांड, किसी त्यौहार, किसी कविता, किसी फ़िल्म, किसी बारात में नक़ली बहादुरी का प्रदर्शन करने के अलावा चारा भी क्या है ?

बारातें, ज़ाहिर है कि, परंपराओं का हिस्सा हैं। मगर क्या इनसे परंपराएं तोड़ी भी जा सकतीं हैं ?

कैसे ?

(जारी)

-संजय ग्रोवर
07-04-2018
(अगला हिस्सा)

Thursday 5 April 2018

कुरीतियों का सर्कस



नाचने का मुझे शौक था। लेकिन शर्मीला बहुत था। कमरा बंद करके या ज़्यादा से ज़्यादा घरवालों के सामने नाच लेता था। उस वक़्त नाचने के लिए ज़्यादा मंच थे भी नहीं सो बारात एक अच्छा माध्यम था, समझिए कि बस खुला मंच था। एक किसी शादी का इनवीटेशन कार्ड आ जाए तो समझिए कि आपके लिए प्रतिष्ठा-प्रसिद्धि-पाँपुलैरिटी आदि का रास्ता खुल गया। बारात में सड़क पर नाचना अजीब तो लगता था पर एक प्रेरणा मिल गई थी-शराब। दो-चार पेग मारे कि झिझक मिट जाती थी। बस फिर क्या था-जितनी एनर्जी थी नहीं उससे काफ़ी ज़्यादा नाच जाता था। रास्ते में, सड़को पे, छज्जों पे खड़े लड़के-लड़कियां, औरतें-बच्चे उत्साह बढ़ा देते थे। उस समय रिएलिटी शोज़ जैसे जज वगैरह तो नहीं होते थे मगर कोई तथाकथित बड़ा, प्रतिष्ठित, स्टाइलिश आदमी तारीफ़ कर दे तो कहना ही क्या। अगली दो-चार और बारातों में नाचने के लिए ख़ुराक़ मिल जाती थी। हालांकि दहेज-वहेज, रीति-रिवाज शुरु से ही पसंद नहीं थे मगर नाचने में थोड़ा फ़ायदा लगता था। काफ़ी टाइम नाचते रहे। कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई।


आखि़र की दो बारातें दर्दनाक़ ग़ुज़री। जाने का मन भी नहीं था मगर पॉपुलैरिटी का लालच भी नहीं छूटता था। एक शादी की कॉकटेल में रात को नाचना शुरु किया था पर सुबह जब आंख खुली तो पाया कि रात को बेहोश हो गया था। बाद में एक दोस्त ने बताया कि दूसरे दोस्त ने मेरी शराब में काफ़ी ज़्यादा शराब मिला दी थी। क्यों मिला दी होगी ? वह आदमी भगवान के अस्तित्व पर बहस करते हुए अकसर तर्क में कम पड़ जाया करता था। दूसरी जगह भी कुछ ऐसा ही मामला निकला।

बाद में कोई समस्या भी नहीं हुई बल्कि आसानी ही हो गई क्योंकि नाचने और उससे मिलनेवाले फ़ायदे के अलावा बाक़ी सब रस्मो-रिवाजों से तो शुरु से ही परेशान रहता था। आज सोचता हूं कि शुरु से ही इतना साहस, तर्क, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास होता तो क्या इस तरह सड़क पर नाचना संभव होता ? 
HANS/Dec/2006

जवाब अकसर न में ही आता है।

वरना बाद में ऐसे शेर कैसे लिख पाता-

लड़केवाले नाच रहे थे, लड़कीवाले ग़ुमसुम थे
याद करो उस वारदात में अकसर शामिल हम-तुम थे 

उनपे हँसो जो बुद्ध कबीर के हश्र पे अकसर हँसते हैं

ईमाँ वाले लोगों को तो अपने नतीजे मालूम थे



(जारी)

-संजय ग्रोवर
06-04-2018

(अगला हिस्सा)






Saturday 31 March 2018

कर्ज़ जिनका मर्ज़ है उन्हींको ऐतराज़ है



बनियानें चिथड़े-चिथड़े हो गई थीं। भला हो सलीके-से रखे, सस्ते में बनें पुराने कपड़ों और स्वेटरों का जिनमें वे छिप जातीं थीं। दोनों तरफ़ के दांतों में कीड़े लग चुके थे, पानी पीने में भी इतना दर्द होता था कि बर्दाश्त नहीं होता था। सुबह दुकान खोलने से पहले दो-तीन केले और आधा लीटर दूध ख़रीदता और दुकान में रखे गैस-चूल्हे पर उबालकर नाश्ता करता। दोपहर में आठ रुपए के कुलचे-छोले। चबाते हुए दांतों में जो दर्द होता कि पसीने छूट जाते।

एक दिन पहले ही बैंक-अकाउंट से 4000 रु निकाले थे और अब सिर्फ़ 3000 रु ही बचे थे कि सुबह एक और मौत की ख़बर आ गई। मेरी आंखों के सामने अगले दिनों में होनेवाले रीति-रिवाजों के सर्कसनुमां मंज़र कौंधने लगे जो मुझे सख़्त नापसंद थे। दाढ़ी और बाल पूरे सफ़ेद हो रहे थे। मैं गया, एक दिन के रीति-रिवाज आधे-अधूरे निपटाए और मन उखड़ गया गया। बाक़ी सब बीच में ही छोड़के लौट आया।


अब दुकान जल्द से जल्द बेचनी थी। शीला दीक्षित सरकार के वक़्त में एक साल तक जो सीलिंग ड्राइव चली, उसके बाद हुए फ़ैसले में जनता फ़्लैट्स् में बनी दुकानें भी मंज़ूर हो गईं थीं, ना भी होतीं तो मैंने दुकान बंद करने का मन बना लिया था। मेरी सोच यही थी कि देश में संविधान का राज क़ायम करना है तो कुछ त्याग के लिए हमें यानि जनता को भी तैयार रहना चाहिए। मगर दुकान मंज़ूर हो ही गईं तो मैंने ख़ुद ही पूरी भाग-दौड़ करके रजिस्ट्री करा ली थी। क़तार में लगे-लगे धक्का-मुक्की में मेरा एकमात्र प्रिय चश्मा कुर्ते की जेब में ही चूर-चूर हो गया था। फिर भी दुकान का रजिस्ट्रेशन हो जाने की खुशी में मैं उसको भूल गया था। लेकिन सबके भले को ध्यान में रखकर ईमानदारी से जीने के लिए जो योजना बनाई थी वह किसी वजह से खटाई में पड़ गई थी। इस देश में पुरानी और रुढ़िवादी सोच से लड़ना कितना मुश्क़िल है, यह किन-किन रुपों में बार-बार सामने आ खड़ी होती है और आपको हर बार कितना अकेला और असहाय छोड़ जाती है, जो करता और झेलता है वही जानता है।

सबसे बड़ा डर यही था कि किसीके सामने हाथ फैलाने की नौबत न आ जाए। मेरे लिए यह मुश्क़ि़ल नहीं असंभव जैसा काम था। मुझे याद है एक बार एक रिश्तेदार ज़बरदस्ती अपने साथ अपने घर ले गए थे। मैं आसानी से कहीं जाता नहीं था। एक हफ़्ता वहां जैसे-तैसे बिताया और कहा कि बस अब मुझे वापिस जाना है। उन्होंने रात को मुझे 50 रुपए का नोट दिया। मुझे ये चीज़ें कभी समझ में नहीं आईं। मैं लेने को तैयार न हुआ तो उन्होंने ज़बरदस्ती मेरी छोटी-सी अटैची में डाल दिए। लेकिन थोड़ी और देर बाद मैंने उनके स्टोरनुमां कमरे में रखे दाल के डोंगों में अपने नाम की पर्ची के साथ वह नोट वापिस डाल दिया। फिर भी मैं डरता रहा कि सुबह मेरे निकलने से पहले इनको कहीं वह नोट दिख न जाए वरना फिर वही सब लेना-देना और लिफ़ाफ़ेबाज़ी.......। 

मेरे पिताजी के एक दोस्त थे जो उम्र में उनसे ख़ासे बड़े थे। अमीर आदमी थे। मैं बुज़ुर्गों से बात करने से, बल्कि उनके सामने पड़ने से भी बचता था। लेकिन जब कभी मैं उनके सामने दो-चार मिनट के लिए भी पड़ जाता, वे अकसर एक बात करके मुझे हैरानी में छोड़ जाते। वह बात थी कि ‘तेरे पिताजी का जो कुछ भी है सब तेरा ही तो है, फिर तू ऐसा क्यों सोचता है.....।’ मैं हैरान होता कि यह आदमी जो न तो बहुत पढ़ा-लिखा है, न मनोविज्ञान का जानकार है, न कभी मेरे से बातचीत हुई है फिर भी उस बात को कैसे जानता है जो मेरे साथ, आस-पास रहनेवाला किसी भी तरह का कोई व्यक्ति भांप तक न पाया!! 

यह बात बिलकुल सही थी कि ठीक होश संभालते से मैं अपने पिताजी से उस अधिकार-भाव से पैसे कभी नहीं ले पाया जैसे दूसरे बच्चे लेते हैं। ठीक बचपन से मेरे मन में एक अपराध-बोध बना रहता था। सही बात तो यह है कि बहुत कम अवसरों पर अपने मुंह से मैंने उनसे पैसे या कोई सामान मांगा। वे जो भी दे देते थे, मैं ले लेता था। भले, ईमानदार और मेहनती आदमी थे, शायद इसलिए भी मुझे संकोच होता हो। मुझे आज तक नहीं मालूम कि किस वक़्त में उनके पास कितना पैसा था। उन्होंने कभी बताया नहीं, मैंने कभी पूछा नहीं।

मेरी नज़र में एक और बहुत क़ाबिले-ज़िक़्र बात यह है कि दिल्ली में इसबार मैं पूरी तरह अपने दम पर जमा था। पिताजी ने फ़्लैट के लिए पैसे दिए थे। लेकिन माता-पिता के तमाम रिश्तेदार, जानकार, अमीर और ग़रीब, मेरे ख़ुदके पुराने मित्र...किसीके पास भी मुझे नहीं जाना पड़ा था। सब कुछ मेरे नये बने उन जानकारों ने कराया जो मुझे सिर्फ़ मेरी वजह से जानते थे। यू ंतो मैं दिल्ली में साहित्य, कला, टीवी डिबेट, मुशायरे....आदि-आदि को ध्यान में रखकर आया था मगर चूंकि किसी वजह से यह काम ठीक से शुरु ही न हो पाया तो ख़र्चापानी चलाने के लिए अगला काम मैंने पीसीओ खोलने का सोचा। मुझे लगा कि लोग आएंगे, फ़ोन करेंगे और तयशुदा दर से पैसे दे जाएंगे ; न कोई बेईमानी, न कोई झंझट ; साथ में अपना लिखने-पढ़ने का काम भी आराम से करते रहो। मुझे क्या मालूम था कि ईमानदारी से तो यहां किसी काम की शुरुआत तक नहीं हो सकती। बहरहाल, पीसीओ के दरवाज़े पर ही लिखे अब्राहम लिंकन के संदेश और मेरे व्यवहार ने ईमानदारी के लिए अच्छा-ख़ासा माहौल तैयार कर दिया। सुबह पांच बजे से रात को कम-अज़-कम बारह-एक बजे तक दुकान भरी रहती। जो लोग पहले कहते कि यहा अंदर फ़ोन करने कौन आएगा, उनकी दुकानों को भी अब मेरी दुकान की वजह से किराएदार आसानी से मिलने लगे।

बहरहाल, ज़िंदगी में पहली बार मेरे खर्चे यूं आसानी से निकलने लगे जैसा मैंने भी न सोचा था। दुकान की बक़ाया क़िश्तें, खाना-पीना, आना-जाना, रिश्तेदारियां-दुनियादारियां, अन्य खर्चे मज़े-मज़े में हो जाते। दिलचस्प बात यह है कि जब तक दिल्ली में सीलिंग ड्राइव शुरु नहीं हो गई, कभी स्पष्ट नहीं हो पाया था कि यह दुकानें वैध हैं या अवैध !!

और अब जब रजिस्ट्रेशन हो गया, मैंने दुकान बेचने का मन बना लिया था। सही बात यह है कि ज़िंदगी में कभी दुकानदार बनने का नहीं सोचा था पर फिर भी कई बार दुकानें खोली, अपनी तरह से, बिना पूजा-पाठ-अगरबत्ती के चलाई और अच्छी-खासी चलती हुई बंद कर दीं।

इधर बहुत दिनों से किसी मित्र से भी बात नहीं हुई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करुं, एक मित्र का फ़ोन आ गया। यूं ही हाल-चाल पूछना-पाछना चल रहा था कि मेरी आवाज़ डूबने-भीगने लगी। कुछ थोड़ा-बहुत मैंने बताया भी, उसे पता नहीं कितना समझ में आया पर कहा कि कोई ज़रुरत हो तो बता देना। उस दिन मैं नहीं बता पाया। पर दूसरा रास्ता भी दिखाई नहीं दे रहा था, दोबारा एक दिन फ़ोन करके डरते-डरते बताया कि बहुत थोड़े समय के लिए, जब तक दुकान बिक जाए, थोड़े-से पैसे, बस दस-बीस हज़ार रुपए चाहिए। डर यह भी था कि डीलरों को पता चल गया कि मेरी आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब है तो दुकान के आधे पैसे लगाने लगेंगे। मित्र ने कहा कि मैं ज़रुर प्रबंध करुंगा। कुछ दिन निकलने के बाद एक दिन सुबह मित्र का फ़ोन आया कि आज मैं पैसे ले आया हूं, शाम तक ले जाना। मैं पूरे दिन दुकान पर बैठा सोचता रहा, जाने की हिम्मत नहीं हुई। रात के नौ बज गए। अब क्या जाना था ? लेकिन क्या देखता हूं कि हल्की-हल्की बूंदा-बांदी में मित्र सर पर ब्रीफ़केस रखे ख़ुद चले आ रहे हैं। वे मेट्रो से आए थे। बीस हज़ार रुपए देके और यह कहके कि और ज़्यादा चाहिएं तो बता देना, वे निकल गए। इन मित्र ने पहले भी एक-दो बार मुझे चमत्कृत/हैरान किया था जब अपने माता-पिता की मृत्यु की सूचना सारे कर्मकांड पूरे हो जाने के बाद दूसरे दिन दी थी। फिर भी मैं नहीं गया तो रत्ती-भर बुरा नहीं माना था। इस समाज में जहां मौत में न आने पर लोग इतना बुरा मानते हैं, इन मित्र ने दोबारा कभी इस बात का ज़िक्र तक न किया।

जैसे भारत में आम-तौर पर सभी रखते हैं, मेरे माता-पिता ने भी मेरी शादी के लिए कुछ सामान रख छोड़ा था। मैंने सूझ-बूझ से काम लिया, शादी में मेरी वैसे भी हमेशा से बहुत कम दिलचस्पी रही है, मैंने अगले पंद्रह दिन में वह सामान उन्हीं मित्र के ज़रिए बेच दिया और बहुत-बहुत आभार के साथ उनके बीस हज़ार, उनके मना करते रहने के बावजूद, वापिस कर दिए। 

अब मैं कुछ राहत महसूस कर रहा था। जानकार प्रोपर्टी डीलर से मैंने कहा कि भले रेट कम मिलें पर मुझे ग्राहक व्हाइटमनी वाला चाहिए। मुझे किस तरफ़ जाना है, मैं तय कर चुका था। थोड़े दिन बाद ऐसा ग्राहक भी मिल गया। भले आदमी का व्यवहार भी भला था। मुझे थोड़ी और राहत मिली। मैं रोज सुबह 4-5 बजे दुकान पर जाता, सामान पैक करता, दो-तीन रिक्शे पकड़ता, उनके साथ सामान लदवाता, छै-सात बजे तक घर में उतरवा देता। दस-पंद्रह दिनों में यूं ही सारा सामान मैंने शिफ़्ट कर लिया। गाड़ीवाला एकमुश्त जो पैसे मांग रहा था, उसकी तुलना में काफ़ी पैसे मैंने बचा लिए थे।

माताजी कई महीनों से बीमार थे, ज़्यादा कुछ तो संभव नहीं था पर डॉक्टर ने जो कुछ भी खर्चा बताया, कर दिया। जहां मौतें हुईं थी वहां जाकर जितनी संभव थी, आर्थिक मदद की, मित्र के ही ज़रिए उस साल ढाई लाख रुपए इनकमटैक्स दिया। न भी देता तो कोई पूछनेवाला भी नहीं था। बाक़ी लगभग पैसा डाकखाने की मंथली इनकम स्कीम और स्टेट बैंक सेविंग्स बांड में लगा दिया। इस बीच भी तबियत लगातार ख़राब चलती रही। फ़्लैट की रजिस्ट्री के लिए जो ताज़ा फ़ोटो खिंचाया था, वह किसी 60-70 साल के आदमी का लगता था। हड्डियों की तीन गंभीर बीमारियों के नब्बे प्रतिशत लक्षणों के बीच सस्ती होम्योपैथिक दवाओं पर वक़्त गुज़ारता रहा। दो-तीन साल और निकाले। बिस्तर-कपड़े सब काले पड़ गए थे। कई बार बेहोश हुआ, गिरा, उठ गया, आवाज़ नहीं दी कभी किसीको। शुक्र है इतने पैसे थे कि बीच-बीच में रात को जाके कच्छे-बनियान के सेट ख़रीद लाता, कुछ दिन और निकल जाते। पूरे शरीर के जोड़ जैसे जाम हो गए थे, कभी-कभी लगता कि सिर्फ़ फ्रूट और सलाद खाने से शायद कुछ फ़ायदा हो और पैसे बच जाएं। घर के बिलकुल बराबर वाले सब्ज़ी के ठेलों तक जाने में 15-20 मिनट लग जाते। इतने तरह का दर्द होता कि डर लगता कि सभी दर्दों के लिए टैस्ट कराए तो लाखों रुपए लग जाएंगे और सड़क पर आ जाऊंगा। जिस आदमी ने सारी ज़िंदगी में कुल दो-तीन बार बीपी चैक कराया हो बल्कि डॉक्टर ने ज़बरदस्ती चैक किया हो वह आदमी इस-उस लफ़ड़े में ख़ामख़्वाह क्यों फंसना चाहेगा ! सब्ज़ीवालों से दो थैले फ़ूट-सलाद के भरकर रिक्शा में बैठकर पकड़ाने के लिए कहता तो वे मज़ाक़ में कहते कि ये सब आप ही खाओगे। मैं भी हंसकर कहता कि भैया, आता भी तो दो-दो महीने बाद हूं।

माताजी की मृत्यु पर घर में आखि़री बार पंडित आया था। मैंने निर्णय ले लिया था, अब और एक मिनट भी यह नपुंसकता का जीवन नहीं बिताना।

कई बार लगता कि पड़े-पड़े ही मर जाऊंगा। इस बीच अवैद्य मकान बनानेवालों के झंझट, हमले, बदकारियां, गंदे-कीचड़ जैसे पानी की समस्याएं, पुलिस केस, ईमानदारी के लिए अकेले अपनी जान दांव पर लगा देने के बावजूद ‘पागलपन बढ़ते जाने’ का खि़ताब, नाजायज़ मकान बनानेवालों से ‘कोई ईमान-धरम न होने’ का खि़ताब, बार-बार पेन कार्ड, आधार कार्ड, फ़ॉर्म 15 जी देने और करयोग्य आय न होने पर भी बार-बार इनकमटैक्स कट जाने का उपहार, ‘हंस’ जैसी पत्रिका का आजीवन चंदा देने के बावजूद कई सालों से (लगभग) एक भी प्रति न आने का ईनाम...ऊपर से नास्तिकता/तार्किकता/सच्चाई के साहस से चिढ़े साजिशकर्ताओं के प्रतीकात्मक इल्ज़ाम.....क्या-क्या नहीं झेला और झेल रहा।

दो-तीन साल में समझ में आ पाया कि ब्याज़ में खर्चा चल पाएगा या नहीं। शुरु में नौ-दस हज़ार रु महीने में काम चलाया, लैपटॉप और वॉशिंग मशीन ख़रीदे। अब लगभग चौदह हज़ार महीने में काम चला रहा हूं। बचत में से भी थोड़ी-बहुत बचत कर ली। सुबह एक टाइम नाश्ता करता हूं- अकसर कच्ची ब्राउन ब्रैड साथ में थोड़ी रोस्टेड नमकीन या बटर से सेंक लेता हूं। चार-से छै स्लाइस। शाम को खाना-अकसर दो-या तीन तंदूरी रोटी और एक सब्ज़ी जो कि कई बार बच भी जाती है। कभी-कभी थोड़ी मिठाई या एक लीटरवाला रियल जूस मंगा लेता हूं। अपनी पसंद की दारु भी लाकर रखता हूं, पर असलियत में पीता बहुत ही कम हूं। इस पूरी सर्दी में सिर्फ़ एक पेग पिया है।

एक मित्र(वही) और एक रिश्तेदार से एक-एक बार बीस हज़ार उधार लिए जो पंद्रह-पंद्रह दिन में वापिस कर दिए। सामूहिक-पारिवारिक कारणों से दो बार बड़ी राशियां जो लीं वो भी 4-6 महीनों में लौटा दीं। 

पिताजी की मृत्यु के बाद एक गैस कनेक्शन फ़ालतू हो गया था। डिलीवरी बॉय ने बताया कि बाज़ार में डेढ़-दो हज़ार में बिक जाएगा। मगर मैंने 900 रु में गैस एजेंसी को वापिस कर दिया क्योंकि मेरा रास्ता संभवतम ईमानदारी के साथ जीवन बिताने का था/है।  

14000 ब्याज के बदले में पूरे दिन लिखता हूं, कई विधाओं में लिखता हूं, नया, मौलिक, सच और तार्किक लिखने की कोशिश करता हूं, ‘नास्तिक’ और ’पागलखाना’ जैसे ग्रुप शुरु करके नास्तिकता और नयेपन को सहज-स्वीकार्य बनाने का काम करता हूं, टाइप करता हूं, ड्रॉइंग बनाता हूं, फ़ोटो खींचता हूं, नाश्ता बनाता हूं, कपड़े धोता हूं, कई बार कम्प्यूटर-प्रिंटर आदि ख़ुद ही ठीक कर लेता हूं, समाज और संचार माध्यमों में घुसे बैठे बेईमानों से निपटता हूं.....

घर साफ़ करने में जिन मित्रों ने भी वास्तविक मदद की उनका हर तरह से आभार व्यक्त करने के बाद अब मैं अकेला यह काम कर रहा हूं, आधे-से ज़्यादा कर चुका हूं, उम्मीद है बाक़ी भी जल्दी हो जाएगा। उसके बाद मरम्मत वगैरह का काम ही रह जाएगा।

जो लोग कहते हैं कि नास्तिक कर्ज़ लेकर घी पीते हैं उनको मैं बाक़ी नास्तिकों का तो नहीं पर अपना ज़रुर बता सकता हूं कि यह है मेरी ज़िंदगी।

न मैंने कभी बैंक से लोन लिया, न पुरस्कार का सोचा, न अपने या अपने किसी रिश्तेदार के लिए किसी सरकार से अस्पताल में बैड/वार्ड चाहा, न कभी किसी हिंदी-उर्दू अकादमी से सहायता मांगी, न देश-विदेश घूमने के लिए किसी नेता की कृपा चाही, साइकिल से ज़्यादा कभी कुछ चलाया नहीं, सेठों के मुशायरों या कवि-सम्मेलनों में जाने का जुगाड़ नहीं किया, नास्तिकता और मौलिकता के लिए की गई दूसरे की मेहनत हथियाने की नहीं सोची, न क़िताबों से रटा हुआ तर्क उल्टी की तरह उलटा.......

चाहता तो बेईमानों की बात मानकर उन्हींके खर्चे पर तीन अतिरिक्त नाजायज़ कमरे बनाता और किराए पर उठा देता पर यह भी नहीं किया। चाहता तो समाज की सबसे टटपूंजिया परंपरा अपनाकर शादी करता और ससुराल, साले-सालियों और अपने बच्चों पर शासन करता, माल खींचता, दहेज लेता, छेड़खानियां करता, बेईमानियां करता। 

ज़रा सोचो कि कौन है जो इस देश में जो परजीवियों, भिखारियों और बेरोज़गारों जैसा जीवन बिता रहा है। कौन है जो सरकारें बदलने का दावा करता है पर ख़ुद नहीं बदलता--

मैं इसी तरह लिखता रहूंगा।


-संजय ग्रोवर
29-03-2018


Wednesday 21 March 2018

वाद का अवसाद





राजेंद्र यादव ‘हंस’ में कविता सिर्फ़ दो पृष्ठों/पेजों में छापते थे।

मुझे याद नहीं ऐसा करने के लिए उन्होंने क्या कारण बताए थे।

लेकिन मैं कुछ हिंदी कवियों को पढ़ता रहा हूं, कुछ के साथ भी रहा हूं।

पहली बात तो यह मुझे समझ में आई कि हिंदी कवियों की प्रगतिशीलता लगभग झूठी है, इनमें से बहुत कम लोग स्वतंत्र रुप से कोई मौलिक सच बोलने में सक्षम हैं ; पुराना, घिसा-पिटा, तयशुदा सच बोलने के लिए भी इन्हें किसी बैनर, किसी वाद, किसी दल, किसी धर्म, किसी जाति का सहारा चाहिए होता है। वे कविता में बहादुर पर दरअसल बेहद कमज़ोर लोग हैं। अस्सी-नब्बे साल की उम्र में एम्स जैसे बड़े, जुगाड़ुओं के लिए ही बने, हॉस्पीटल में मरते हुए भी इन्हें लगता है कि कोई बहुत ही भीषण, विकट समय आ गया है।


सही बात यह है कि जिनके लिए कविता लिखने का इनका दावा होता है उन तक न इनकी कविता पहुंचती है, न उनकी समझ में आती है, न उनको इनकी मौत की ख़बर होती है। उन तक पहुंचने की ये कोई कोशिश करते भी नहीं हैं। दरअसल उनका भीषण-विकट समय हर सरकार, हर वाद, हर शासन में चलता है, उनके जीवन में इनकी कविताएं रत्ती-भर असर नहीं डाल सकतीं। इनकी कविताएं वैसे भी पुरस्कार, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, चेले और चेलियों के लिए लिखी गईं होतीं हैं, ‘उनके’ लिए नहीं।

दूसरी बात, कविता में बिंब, अलंकार, उपमा, भावुकता आदि तो होते हैं पर तर्क नहीं होता। कवियों और शायरों को भी आप अगर पूरे होश में, पूरी जागरुकता के साथ सुनें तो संभावना यही है कि आप इनको अकसर तर्करहित ही पाएंगे।

आप अगर मुझे इजाज़त नहीं भी दें तो मैं इस बात पर ठहाका लगाना चाहूंगा कि इतने अय्याशीपूर्ण ढंग से, तमाम जुगाड़ों, चमचों और सुख-सुविधाओं के बीच मरते हुए भी इनको लगता है कि कोई भीषण और विकट समय आ गया है। ऐसा लगता है कि भारत में कवि और साहित्यकार पहली बार मर रहे हैं। ऐसी अतिश्योक्तिपूर्ण मूर्खोक्तियों की वजह से ही मेरेे जैसा व्यक्ति भांप जाता है कि ज़रुर कोई प्रायोजित माफ़िया है जिसका काम बस अपने-अपने मालिकों के पक्ष में, दूसरों के मालिकों के विपक्ष में अपने-अपने हिस्से का विलाप/प्रलाप/नाटक करना है।

अपने मुहावरों, लोकगीतों, भक्तिगीतों, परंपराओं, वीरोक्तियों, रुदालियों को याद करो--न जाने कितने लाख बार तुमने बोला कि ‘संकट के समय में ही साहस का पता चलता है’। लेकिन तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि या तो संकट नक़ली है या साहस नक़ली है। 

कोई हैरानी नहीं होती जब तथाकथित प्रगतिशीलों को यह रोना रोते देखता हूं कि हाए, सारी परंपराएं तोड़ी जा रहीं हैं। बताईए, परंपराएं तोड़ना तो तुम्हारे हिस्से का काम था, यह भी भूल गए क्या ? क्या हो गया तुम्हारी स्मृति को ? लेकिन प्रगतिशीलता होती तब न ! कम-अज़-कम यह तो बताया होता कि कौन-सी परंपरा क्यों नहीं तोड़नी चाहिए या क्यों तोड़नी चाहिए !? या अतार्किक आकाशवाणियां करना ही तुम्हारी परंपरा है !? इनकी एक-एक हरक़त बताती है कि ये प्रगतिशीलता के नाम पर मौक़ापरस्ती के अभ्यस्त हैं।

मेरी माताजी की मृत्यु हुई जब मैं फ़ेसबुक पर आ चुका था, कई लोग जानते थे, कई जानने लगे थे। मुझे ख़्याल भी नहीं आया कि फ़ेसबुक पर डालना चाहिए। मेरे पिताजी का देहांत जीटीबी में हुआ। बहुत दबाव में मैंने दो-चार लोगों को कमरा/वार्ड आदि दिलवाने के लिए फ़ोन किया। मुझे कोई ख़ास बुरा नहीं लगा जब उन्होंने असमर्थता ज़ाहिर कर दी। जबसे मुझे अक़्ल आई तब से मैंने यह चाहना बंद कर दिया था कि मेरे पिताजी मेरे लिए किसीसे जुगाड़ लगाएं।



क्या हम इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद मर भी ईमानदारी से नहीं सकते !?

(आगे भी)

-संजय ग्रोवर
21-03-2018

Sunday 18 March 2018

जेएनयू पर एक डरी हुई टिप्पणी

जेएनयूवादियों को दुआ/प्रार्थना करते देखा तो दो पुराने फ़ेसबुक स्टेटस याद आ गए-

1.
पंडित जवाहरलाल नेहरु जे एन यू के छात्र थे। यही वजह है कि उन्होंने एक प्रगतिशील विचारधारा की नींव रखी। वरना और किसी तरह यह संभव नहीं था।

02-08-2013
(on पागलखाना facebook)


2.
जेएनयू से मेरे भी कुछ मित्र आते हैं इसलिए मुझे लगा कि जेएनयू पर टिप्पणी की जा सकती है। बिना मित्रता के हमारे यहां दुश्मन पर भी कुछ लिखने की परंपरा नहीं है। परंपरा से मैं भी डरता हूं; दरअसल यह होती ही डराने के लिए है। जे एन यू की भी ज़रुर कुछ परंपराएं होंगी हांलांकि इसे परंपरा तोड़ने के लिए भी जाना जाता है। परंपरा के चक्कर में कुछ प्रगतिशील भी कई बार डरावने ढंग से नाराज़ हो जाते हैं इसलिए मैं परंपरा से दोबारा-तिबारा डरता हूं।

जेएनयू के मार्क्सवादियों का और बाहर के राष्ट्रवादियों का विरोध जगजाहिर है। मैं इनकी समानताओं पर मिनी चर्चा करुंगा। राष्ट्रवादियों के पास गंगा नदी है तो जेएनयूवादियों के पास गंगा ढाबा है। सुनने में आता है कि इस ढाबे में तपस्या करके भी कई लोग सिद्धि प्राप्त करते हैं। सुना हैं यहां भी ऐसी आध्यात्मिक गिलहरियां पाई गईं हैं जैसी रामजी के पुल बनाने के किन्हीं वर्णनों में सुनी जाती रही हैं। गंगा ढाबा भी अब लगभग एक तीर्थस्थल के रुप में मान्यता प्राप्त कर रहा है या करवाया जा रहा है। अब दर्शक बड़ी बेसब्री से किसी जमुना नाम के खोखे का इंतज़ार कर रहे हैं।

राष्ट्रवादियों के अपने देवता हैं जिनके खि़लाफ़ एक लफ्ज़ भी सुनना उन्हें गंवारा नहीं है, जेएनयूवादियों के भी अपने देवता हैं। आपको विश्वास न हो तो आप हरिशंकर परसाईं के व्यंग्य में कोई कमी बताकर देखिए। मैंने आज तक परसांई की कोई ऐसी आलोचना नहीं पढ़ी जिसमें आलोचना हो। वहां अकसर प्रशंसा को ही आलोचना माना जाता है। हांलांकि पढ़ता मैं आजकल अनपढ़ो से भी कम हूं इसलिए अपवादस्वरुप कुछ मिल जाए तो उन्हें प्रक्षिप्त/विक्षिप्त अंश (जो भी है) मानकर मुझे क्षमा कीजिएगा।

राष्ट्रवादियों की अपनी कुछ क़िताबें हैं जिन्हें आपने न पढ़ा हो तो ये आपसे बात करने को तैयार नहीं होते, जेएनयूवादी भी कई क़िताबें बहस के बीच-बीच में प्रेसक्राइब करते रहते हैं, जिन्हें न मानने पर ये भी आपसे बहुत ज़्यादा ख़ुश नहीं होते।

एक और तरह के अनुभव भी मुझे और दूसरे लोगों को दोनों टीमों के बारे में हुए हैं। कि अगर आप एक दिन किसी बात पर इनका समर्थन करो तो ये भी आपको ‘अज़ीम शायर’, भविष्य का क़ैफ़ी आज़मी, कोहली जैसा व्यंग्यकार घोषित कर देते हैं। तीन दिन बाद किसी बहस में आप इनके खि़लाफ़ कोई तर्क दे दो तो ये वहीं हाथ के हाथ आपको गोबरगणेश का तमग़ा भी प्रदान कर देते हैं। दोनों टीमों में इस तरह के परिपक्व लोग मिलते-जुलते रहते हैं।

मार्क्सवाद जेएनयू के दरवाज़े पर ही धर्मरक्षक की तरह घूमता मिल जाता होगा, ऐसी मेरी कल्पना है। भीतर मार्क्स की चलती-फिरती मूर्तियां मिलती हैं, यह मेरी फ़ैंटसी है।

बाक़ी छोटी टिप्पणी में ज़्यादा क्या कहा जाए, आप तो जानते ही हैं कि मार्क्सवाद तो क्या भारतीय संस्कृति तो ख़ुलेआम सबको अपना लेती है। इस टिप्पणी से पता लगता ही है कि जेएनयू पर भी उसका अच्छा प्रभाव है।

बाद में दफ़ना भी देती हो तो इस बारे में मेरे कोई विचार नहीं है।

मुझे परंपरा का भी ख़्याल आ गया है।

-संजय ग्रोवर
03-07-2013

(on पागलखाना facebook)
https://www.facebook.com/groups/PaagalBachchePaagalAchchhe/

Tuesday 13 March 2018

आओ भक्तों दुआ करो






दुआ करो कि भारत से अंधविश्वास दूर हो जाए।
दुआ करो कि हम ऐसे ही अंधविश्वास फैलाते रहें फिर भी लोग हमें प्रगतिशील मानते रहें।

दुआ करो कि ‘हालांकि न तो दुआ में कोई ख़तरा है न मेहनत न संघर्ष’ फिर भी हमें दुआ तक न करनी पड़े।
हालांकि दुआ करते वक़्त असल में करना क्या पड़ता है, किसीको भी नहीं पता।
दुआ करो कि किसीको यह पता भी न चले वरना लोगों को यह भी पता चल जाएगा कि धार्मिक, धर्मपिरपेक्ष, कट्टरपंथी और प्रगतिशील एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

दुआ करो कि हम ज़िंदगी-भर ऐसे ही बदबूदार चुटकुले छोड़ते रहें फिर भी लोग हमें संजीदा और गंभीर और सीरियस और... मानते रहें।
इन सब शब्दों का एक ही मतलब है ठीक वैसे ही जैसे दुआ और अंधविश्वास का।
दुआ करने में कैसी शर्म ! क्या लिहाज़ !
इसके लिए न तो ताक़त चाहिए न बुद्धि।

और मूर्खता-
हां वो तो ज़र्रे-ज़र्रे, कण-कण में मौजूद है।
दुआ करो कि हमें कभी अक़्ल न आए।

वरना हम दुआ कैसे करेंगे !?

रोज़गार वालो, नौकरी छोड़ो, दुआ करो, 
इससे बेहतर कोई रोज़गार नहीं

दुआ करो कि छेड़खानी बंद हो जाए
बलात्कार ख़त्म हो जाए
दुआ करो कि
अपने-आप ग़ज़ल और नज़्म हो जाए

आप ख़ामख़्वाह समझ रहे हैं कि महापुरुषों ने स्वतंत्रता-संग्राम किया था
उन्होंने तो बस दुआ की थी
और अंग्रेज़ चले गए
फिर इतिहास भी बन गया

हालांकि, अगर आपके लिए होना संभव हो तो,
आप हैरान होंगे,
कि उन्होंने कभी इसलिए दुआ क्यों नहीं की
कि अंग्रेज़ कभी आएं ही न !

भगतसिंह, फांसी का फंदा छोड़ो वापस आओ
दुआ करो 
ग़लतियां हो जातीं हैं
पर उन्हें दुआ करके सुधारा भी तो जा सकता है

दुआ करो
यह कहीं भी की जा सकती है
दुकान में, मकान में, मैदान में,
वर्दी में, हमदर्दी में, सरदी में, जल्दी में

रसोई में, युक्ति में, मुक्ति में,
सुस्ती में, चुस्ती में, फुर्ती में, कुर्ते में, कुर्ती में
हवाई जहाज में, गंगा के बहाव में
भीड़ के दबाव में, ज़बरदस्ती के प्रभाव में
परदे पर, अकेले में 
जोश में, थकेले में

यह कभी भी की जा सकती है
होश में, मदहोशी में
शोर में, ख़ाम़ोशी में
नदी के किनारे पर
चालू चौबारे पर

दुआ करो कि गौरी लंकेश, नरेंद्र दाभोलकर, जज लोया, सुनंदा पुष्कर के हत्यारे पकड़े जाएं
लेकिन इससे पहले यह दुआ करो कि कोई यह न पूछ बैठे 
कि पहले तुमने यह दुआ क्यों नहीं की
कि इनकी हत्या कभी हो ही न  

 दुआ करो कि लोग समझ न जाएं
अंधविश्वास हटाने से पहले
ख़ुद ही फैलाना भी पड़ता है

एक तरफ़ धजरंगी हवन कर रहे हैं
दूसरी तरफ़ बुद्धिजीवी दुआ कर रहे हैं
कौन सबसे बड़ा है
आप ही बताओ



इसके लिए 
अक़्ल भी नहीं चाहिए
यहां तक कि ब्लैकमनी भी नहीं लगती

दुआ करो कि सब्ज़ी अपने-आप बन जाए
दुआ करो कि दाल अंगीठी पर रखे बिना गल जाए

दुआ करो कि बिना दांतों के खाना चब जाए
दुआ करो कि बिना आंतों के खाना पच जाए

दुआ करो कि बिना डॉक्टर के ऑपरेशन हो जाए
दुआ करो कि बिना दवाई के सैटिसफ़ैक्शन हो जाए
दुआ करो कि डॉक्टर को ऑपरेशन के लिए
ऑपरेशन तक न करना पड़े
दुआ करो कि अंधविश्वास दूर करने में
हमको कोई को-ऑपरेशन तक न करना पड़े

दुआ करो कि हम बिना हवाई जहाज के विदेश पहुंच जाएं
दुआ करो कि एक जेब में अंधविश्वास दूसरी में प्रगतिशीलता रखकर
हम कहीं भी पहूंच जाएं

दुआ करो कि दुनिया में किसीको दुआ के अलावा कुछ भी न करना पड़े
न लिखना पड़े न पढ़ना पड़े

दुआ करो कि लोगों के बिना पढ़े डिग्रियां मिल जाएं
दुआ करो कि लोगों की सारी डिग्रियां ग़ायब हो जाएं
अरे! जब दुनिया में दुआ से ही सब होना है
तो आज ही क्यों न सब हो जाए !? 

यह कैसी दुआ है जो पहले पासपोर्ट-वीज़ा का इंतेज़ार करती है
फिर हवाई जहाज़ का, फिर अच्छे डॉक्टर का अच्छे हॉस्पीटल का
फिर देखती है कि डॉक्टर सही कर रहा है कि ग़लत
अगर सही कर रहा है तो मैं जाकर लग जाती हूं
अगर ग़लत कर रहा है तो चुपके-से, छुप-छुपके लौट आती हूं

अरे आज या तो डॉक्टर रहेगा या दुआ
आज फ़ैसला हो ही जाए
अभी और कितने बरस हम परदा खुलने का इंतज़ार करेंगे
क्या हम भी बस सस्पेंस में ही मरेंगे !?

अरे अब आ ही गए हैं तो कुछ तो कर जाएं
प्रगतिशील ज़्यादा अंधविश्वासी होते हैं
या अंधविश्वासी ही बाई चांस प्रगतिशील निकल आते हैं
कम-अज़-कम यही पता कर जाएं 



दुआ करो कि बिना फ़िल्म के फ़िल्म बन जाए
दुआ करो कि बिना प्रमोशन फ़िल्म चल जाए
मैं तो कहता हूं दुआ करो कि बिना फ़िल्मों में काम किए स्टार बन जाएं
और बिना अभिनय किए ऑस्कर मिल जाए

बिना खाने के पेट भर जाए
बिना विज़ुअल बनाए
किसानों की समस्याएं हल हो जाएं

मुझे ख़ुशी है कि दुआ आज दस हज़ार साल की हो चुकी
हालांकि यह नहीं पता कि इससे हुआ क्या है




-संजय ग्रोवर
13-03-2018


Saturday 17 February 2018

तालियों का पिटना

आपकी किसी बात या रचना पर ताली बजना और उससे समाज में बदलाव आना दो बिलकुल अलग़-अलग़ बातें हैं। फ़ेसबुक के लाइकस् को भी हम इस श्रेणी में रख सकते हैं हालांकि वह तालियों जितना तुरंता और तात्कालिक नहीं है। जब तालियां बजती हैं तो माना जा सकता है कि आपके जीवन में ज़रुर कुछ बदलाव आता है, लोग आपको जानने लगते हैं, आपका कैरियर बनता है, आपके काम आसानी से होने लगते हैं, आप घर लौटकर कह सकते हैं कि मम्मी/पापा/भैय्या/डियर....आज तो मेरे पहले ही भाषण पर साढ़े सोलह बार तालियां बजीं और पांच और जगहों पर मुझे बुलाया गया है...। आपका कैरियर बनने में कोई बुराई नहीं है मगर इसमें ज़्यादा सामाजिक कार्य या बदलाव का गर्व मानना या तो भ्रम है या बेईमानी है। सामाजिक या व्यक्ति की मानसिकता में बदलाव का पता तो तभी लग सकता है जब आप एक-एक श्रोता के पीछे एक-एक आदमी लगाएं जो साल-छः महीने चौबीस-चौबीस घंटे उन पर नज़र रखे (और वह उनकी पुरानी ज़िंदग़ी के बारे में भी जानता हो) ; तभी वह बता सकता है कि आपको सुनने के बाद उनके सोचने में और जीवन में क्या बदलाव आया, आया या नहीं आया।


तालियों का तो ऐसा है कि आप सालों पुराना जुमला थोड़ा ठीक-ठाक अंदाज़ में बोल दीजिए कि ‘एक मां-बाप दस बच्चों को पाल सकते हैं मगर दस बच्चे एक मां-बाप को नहीं पाल सकते’......बस, तड़ातड़ तालियां पिटने लगेंगी। शाम को ज़रा किसी पार्क में चले जाईए ; कई जगह उजड़े-उजड़े से बुज़ुर्गवार बैठे मिलेंगे। जहां तक मेरा अनुभव है इनकी राय अपने बच्चों के बारे में प्रशंसात्मक अकसर कम ही मिलती है। टीवी और पत्रिकाओं में भी अकसर भारत के मां-बापों के हालात पढ़ते-सुनते होंगे।

क्या आपको लगता है कि उक्त डायलॉग पर ताली बजानेवाले और उससे बिलकुल उल्टा व्यवहार करनेवाले बिलकुल दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति या समाज होते हैं !?

-संजय ग्रोवर

20 july 2014
(on facebook)

Tuesday 30 January 2018

शामिल सोच

मैं एक परिचित को बता रहा था कि सोशल मीडिया पर कोई नयी बात लिखो तो कैसे लोग पहले यह कहकर विरोध करते हैं कि ‘फ़लां आदमी बीमार मानसिकता रखता है’, ‘फ़लां आदमी ज़हर फैला रहा है’, ‘फ़लां आदमी निगेटिव सोच का है’. फिर उस आदमी को पर्याप्त बदनाम करके कुछ अरसे बाद वही बात अपने नाम से लिखके या बताके नये का क्रेडिट ले लेते हैं।

परिचित ने कहा कि आपको भी घर से निकलना चाहिए, घर से नहीं निकलोगे तो लोग तो यहीं करेंगे.....


मुझको यह तर्क/सोच बिलकुल ऐसे ही लगी जैसे लड़कियां छोटे कपड़े पहनेंगी तो बलात्कार तो होगा ही ; फ़लां लड़की तो पहले ही वेश्या है, मैंने ज़रा छेड़ दिया तो क्या हो गया ; लड़की सीधी है तो लोग तो छेड़ेंगे ; बलात्कार के बारे में बताओगे तो बदनामी तुम्हारी ही होगी ; सब नाजायज़ कमरे बना रहे हैं तो तुम कब तक नहीं बनाओगे.....

आपको क्या लगता है ?

-संजय ग्रोवर
30-01-2018