Saturday 31 March 2018

कर्ज़ जिनका मर्ज़ है उन्हींको ऐतराज़ है



बनियानें चिथड़े-चिथड़े हो गई थीं। भला हो सलीके-से रखे, सस्ते में बनें पुराने कपड़ों और स्वेटरों का जिनमें वे छिप जातीं थीं। दोनों तरफ़ के दांतों में कीड़े लग चुके थे, पानी पीने में भी इतना दर्द होता था कि बर्दाश्त नहीं होता था। सुबह दुकान खोलने से पहले दो-तीन केले और आधा लीटर दूध ख़रीदता और दुकान में रखे गैस-चूल्हे पर उबालकर नाश्ता करता। दोपहर में आठ रुपए के कुलचे-छोले। चबाते हुए दांतों में जो दर्द होता कि पसीने छूट जाते।

एक दिन पहले ही बैंक-अकाउंट से 4000 रु निकाले थे और अब सिर्फ़ 3000 रु ही बचे थे कि सुबह एक और मौत की ख़बर आ गई। मेरी आंखों के सामने अगले दिनों में होनेवाले रीति-रिवाजों के सर्कसनुमां मंज़र कौंधने लगे जो मुझे सख़्त नापसंद थे। दाढ़ी और बाल पूरे सफ़ेद हो रहे थे। मैं गया, एक दिन के रीति-रिवाज आधे-अधूरे निपटाए और मन उखड़ गया गया। बाक़ी सब बीच में ही छोड़के लौट आया।


अब दुकान जल्द से जल्द बेचनी थी। शीला दीक्षित सरकार के वक़्त में एक साल तक जो सीलिंग ड्राइव चली, उसके बाद हुए फ़ैसले में जनता फ़्लैट्स् में बनी दुकानें भी मंज़ूर हो गईं थीं, ना भी होतीं तो मैंने दुकान बंद करने का मन बना लिया था। मेरी सोच यही थी कि देश में संविधान का राज क़ायम करना है तो कुछ त्याग के लिए हमें यानि जनता को भी तैयार रहना चाहिए। मगर दुकान मंज़ूर हो ही गईं तो मैंने ख़ुद ही पूरी भाग-दौड़ करके रजिस्ट्री करा ली थी। क़तार में लगे-लगे धक्का-मुक्की में मेरा एकमात्र प्रिय चश्मा कुर्ते की जेब में ही चूर-चूर हो गया था। फिर भी दुकान का रजिस्ट्रेशन हो जाने की खुशी में मैं उसको भूल गया था। लेकिन सबके भले को ध्यान में रखकर ईमानदारी से जीने के लिए जो योजना बनाई थी वह किसी वजह से खटाई में पड़ गई थी। इस देश में पुरानी और रुढ़िवादी सोच से लड़ना कितना मुश्क़िल है, यह किन-किन रुपों में बार-बार सामने आ खड़ी होती है और आपको हर बार कितना अकेला और असहाय छोड़ जाती है, जो करता और झेलता है वही जानता है।

सबसे बड़ा डर यही था कि किसीके सामने हाथ फैलाने की नौबत न आ जाए। मेरे लिए यह मुश्क़ि़ल नहीं असंभव जैसा काम था। मुझे याद है एक बार एक रिश्तेदार ज़बरदस्ती अपने साथ अपने घर ले गए थे। मैं आसानी से कहीं जाता नहीं था। एक हफ़्ता वहां जैसे-तैसे बिताया और कहा कि बस अब मुझे वापिस जाना है। उन्होंने रात को मुझे 50 रुपए का नोट दिया। मुझे ये चीज़ें कभी समझ में नहीं आईं। मैं लेने को तैयार न हुआ तो उन्होंने ज़बरदस्ती मेरी छोटी-सी अटैची में डाल दिए। लेकिन थोड़ी और देर बाद मैंने उनके स्टोरनुमां कमरे में रखे दाल के डोंगों में अपने नाम की पर्ची के साथ वह नोट वापिस डाल दिया। फिर भी मैं डरता रहा कि सुबह मेरे निकलने से पहले इनको कहीं वह नोट दिख न जाए वरना फिर वही सब लेना-देना और लिफ़ाफ़ेबाज़ी.......। 

मेरे पिताजी के एक दोस्त थे जो उम्र में उनसे ख़ासे बड़े थे। अमीर आदमी थे। मैं बुज़ुर्गों से बात करने से, बल्कि उनके सामने पड़ने से भी बचता था। लेकिन जब कभी मैं उनके सामने दो-चार मिनट के लिए भी पड़ जाता, वे अकसर एक बात करके मुझे हैरानी में छोड़ जाते। वह बात थी कि ‘तेरे पिताजी का जो कुछ भी है सब तेरा ही तो है, फिर तू ऐसा क्यों सोचता है.....।’ मैं हैरान होता कि यह आदमी जो न तो बहुत पढ़ा-लिखा है, न मनोविज्ञान का जानकार है, न कभी मेरे से बातचीत हुई है फिर भी उस बात को कैसे जानता है जो मेरे साथ, आस-पास रहनेवाला किसी भी तरह का कोई व्यक्ति भांप तक न पाया!! 

यह बात बिलकुल सही थी कि ठीक होश संभालते से मैं अपने पिताजी से उस अधिकार-भाव से पैसे कभी नहीं ले पाया जैसे दूसरे बच्चे लेते हैं। ठीक बचपन से मेरे मन में एक अपराध-बोध बना रहता था। सही बात तो यह है कि बहुत कम अवसरों पर अपने मुंह से मैंने उनसे पैसे या कोई सामान मांगा। वे जो भी दे देते थे, मैं ले लेता था। भले, ईमानदार और मेहनती आदमी थे, शायद इसलिए भी मुझे संकोच होता हो। मुझे आज तक नहीं मालूम कि किस वक़्त में उनके पास कितना पैसा था। उन्होंने कभी बताया नहीं, मैंने कभी पूछा नहीं।

मेरी नज़र में एक और बहुत क़ाबिले-ज़िक़्र बात यह है कि दिल्ली में इसबार मैं पूरी तरह अपने दम पर जमा था। पिताजी ने फ़्लैट के लिए पैसे दिए थे। लेकिन माता-पिता के तमाम रिश्तेदार, जानकार, अमीर और ग़रीब, मेरे ख़ुदके पुराने मित्र...किसीके पास भी मुझे नहीं जाना पड़ा था। सब कुछ मेरे नये बने उन जानकारों ने कराया जो मुझे सिर्फ़ मेरी वजह से जानते थे। यू ंतो मैं दिल्ली में साहित्य, कला, टीवी डिबेट, मुशायरे....आदि-आदि को ध्यान में रखकर आया था मगर चूंकि किसी वजह से यह काम ठीक से शुरु ही न हो पाया तो ख़र्चापानी चलाने के लिए अगला काम मैंने पीसीओ खोलने का सोचा। मुझे लगा कि लोग आएंगे, फ़ोन करेंगे और तयशुदा दर से पैसे दे जाएंगे ; न कोई बेईमानी, न कोई झंझट ; साथ में अपना लिखने-पढ़ने का काम भी आराम से करते रहो। मुझे क्या मालूम था कि ईमानदारी से तो यहां किसी काम की शुरुआत तक नहीं हो सकती। बहरहाल, पीसीओ के दरवाज़े पर ही लिखे अब्राहम लिंकन के संदेश और मेरे व्यवहार ने ईमानदारी के लिए अच्छा-ख़ासा माहौल तैयार कर दिया। सुबह पांच बजे से रात को कम-अज़-कम बारह-एक बजे तक दुकान भरी रहती। जो लोग पहले कहते कि यहा अंदर फ़ोन करने कौन आएगा, उनकी दुकानों को भी अब मेरी दुकान की वजह से किराएदार आसानी से मिलने लगे।

बहरहाल, ज़िंदगी में पहली बार मेरे खर्चे यूं आसानी से निकलने लगे जैसा मैंने भी न सोचा था। दुकान की बक़ाया क़िश्तें, खाना-पीना, आना-जाना, रिश्तेदारियां-दुनियादारियां, अन्य खर्चे मज़े-मज़े में हो जाते। दिलचस्प बात यह है कि जब तक दिल्ली में सीलिंग ड्राइव शुरु नहीं हो गई, कभी स्पष्ट नहीं हो पाया था कि यह दुकानें वैध हैं या अवैध !!

और अब जब रजिस्ट्रेशन हो गया, मैंने दुकान बेचने का मन बना लिया था। सही बात यह है कि ज़िंदगी में कभी दुकानदार बनने का नहीं सोचा था पर फिर भी कई बार दुकानें खोली, अपनी तरह से, बिना पूजा-पाठ-अगरबत्ती के चलाई और अच्छी-खासी चलती हुई बंद कर दीं।

इधर बहुत दिनों से किसी मित्र से भी बात नहीं हुई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करुं, एक मित्र का फ़ोन आ गया। यूं ही हाल-चाल पूछना-पाछना चल रहा था कि मेरी आवाज़ डूबने-भीगने लगी। कुछ थोड़ा-बहुत मैंने बताया भी, उसे पता नहीं कितना समझ में आया पर कहा कि कोई ज़रुरत हो तो बता देना। उस दिन मैं नहीं बता पाया। पर दूसरा रास्ता भी दिखाई नहीं दे रहा था, दोबारा एक दिन फ़ोन करके डरते-डरते बताया कि बहुत थोड़े समय के लिए, जब तक दुकान बिक जाए, थोड़े-से पैसे, बस दस-बीस हज़ार रुपए चाहिए। डर यह भी था कि डीलरों को पता चल गया कि मेरी आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब है तो दुकान के आधे पैसे लगाने लगेंगे। मित्र ने कहा कि मैं ज़रुर प्रबंध करुंगा। कुछ दिन निकलने के बाद एक दिन सुबह मित्र का फ़ोन आया कि आज मैं पैसे ले आया हूं, शाम तक ले जाना। मैं पूरे दिन दुकान पर बैठा सोचता रहा, जाने की हिम्मत नहीं हुई। रात के नौ बज गए। अब क्या जाना था ? लेकिन क्या देखता हूं कि हल्की-हल्की बूंदा-बांदी में मित्र सर पर ब्रीफ़केस रखे ख़ुद चले आ रहे हैं। वे मेट्रो से आए थे। बीस हज़ार रुपए देके और यह कहके कि और ज़्यादा चाहिएं तो बता देना, वे निकल गए। इन मित्र ने पहले भी एक-दो बार मुझे चमत्कृत/हैरान किया था जब अपने माता-पिता की मृत्यु की सूचना सारे कर्मकांड पूरे हो जाने के बाद दूसरे दिन दी थी। फिर भी मैं नहीं गया तो रत्ती-भर बुरा नहीं माना था। इस समाज में जहां मौत में न आने पर लोग इतना बुरा मानते हैं, इन मित्र ने दोबारा कभी इस बात का ज़िक्र तक न किया।

जैसे भारत में आम-तौर पर सभी रखते हैं, मेरे माता-पिता ने भी मेरी शादी के लिए कुछ सामान रख छोड़ा था। मैंने सूझ-बूझ से काम लिया, शादी में मेरी वैसे भी हमेशा से बहुत कम दिलचस्पी रही है, मैंने अगले पंद्रह दिन में वह सामान उन्हीं मित्र के ज़रिए बेच दिया और बहुत-बहुत आभार के साथ उनके बीस हज़ार, उनके मना करते रहने के बावजूद, वापिस कर दिए। 

अब मैं कुछ राहत महसूस कर रहा था। जानकार प्रोपर्टी डीलर से मैंने कहा कि भले रेट कम मिलें पर मुझे ग्राहक व्हाइटमनी वाला चाहिए। मुझे किस तरफ़ जाना है, मैं तय कर चुका था। थोड़े दिन बाद ऐसा ग्राहक भी मिल गया। भले आदमी का व्यवहार भी भला था। मुझे थोड़ी और राहत मिली। मैं रोज सुबह 4-5 बजे दुकान पर जाता, सामान पैक करता, दो-तीन रिक्शे पकड़ता, उनके साथ सामान लदवाता, छै-सात बजे तक घर में उतरवा देता। दस-पंद्रह दिनों में यूं ही सारा सामान मैंने शिफ़्ट कर लिया। गाड़ीवाला एकमुश्त जो पैसे मांग रहा था, उसकी तुलना में काफ़ी पैसे मैंने बचा लिए थे।

माताजी कई महीनों से बीमार थे, ज़्यादा कुछ तो संभव नहीं था पर डॉक्टर ने जो कुछ भी खर्चा बताया, कर दिया। जहां मौतें हुईं थी वहां जाकर जितनी संभव थी, आर्थिक मदद की, मित्र के ही ज़रिए उस साल ढाई लाख रुपए इनकमटैक्स दिया। न भी देता तो कोई पूछनेवाला भी नहीं था। बाक़ी लगभग पैसा डाकखाने की मंथली इनकम स्कीम और स्टेट बैंक सेविंग्स बांड में लगा दिया। इस बीच भी तबियत लगातार ख़राब चलती रही। फ़्लैट की रजिस्ट्री के लिए जो ताज़ा फ़ोटो खिंचाया था, वह किसी 60-70 साल के आदमी का लगता था। हड्डियों की तीन गंभीर बीमारियों के नब्बे प्रतिशत लक्षणों के बीच सस्ती होम्योपैथिक दवाओं पर वक़्त गुज़ारता रहा। दो-तीन साल और निकाले। बिस्तर-कपड़े सब काले पड़ गए थे। कई बार बेहोश हुआ, गिरा, उठ गया, आवाज़ नहीं दी कभी किसीको। शुक्र है इतने पैसे थे कि बीच-बीच में रात को जाके कच्छे-बनियान के सेट ख़रीद लाता, कुछ दिन और निकल जाते। पूरे शरीर के जोड़ जैसे जाम हो गए थे, कभी-कभी लगता कि सिर्फ़ फ्रूट और सलाद खाने से शायद कुछ फ़ायदा हो और पैसे बच जाएं। घर के बिलकुल बराबर वाले सब्ज़ी के ठेलों तक जाने में 15-20 मिनट लग जाते। इतने तरह का दर्द होता कि डर लगता कि सभी दर्दों के लिए टैस्ट कराए तो लाखों रुपए लग जाएंगे और सड़क पर आ जाऊंगा। जिस आदमी ने सारी ज़िंदगी में कुल दो-तीन बार बीपी चैक कराया हो बल्कि डॉक्टर ने ज़बरदस्ती चैक किया हो वह आदमी इस-उस लफ़ड़े में ख़ामख़्वाह क्यों फंसना चाहेगा ! सब्ज़ीवालों से दो थैले फ़ूट-सलाद के भरकर रिक्शा में बैठकर पकड़ाने के लिए कहता तो वे मज़ाक़ में कहते कि ये सब आप ही खाओगे। मैं भी हंसकर कहता कि भैया, आता भी तो दो-दो महीने बाद हूं।

माताजी की मृत्यु पर घर में आखि़री बार पंडित आया था। मैंने निर्णय ले लिया था, अब और एक मिनट भी यह नपुंसकता का जीवन नहीं बिताना।

कई बार लगता कि पड़े-पड़े ही मर जाऊंगा। इस बीच अवैद्य मकान बनानेवालों के झंझट, हमले, बदकारियां, गंदे-कीचड़ जैसे पानी की समस्याएं, पुलिस केस, ईमानदारी के लिए अकेले अपनी जान दांव पर लगा देने के बावजूद ‘पागलपन बढ़ते जाने’ का खि़ताब, नाजायज़ मकान बनानेवालों से ‘कोई ईमान-धरम न होने’ का खि़ताब, बार-बार पेन कार्ड, आधार कार्ड, फ़ॉर्म 15 जी देने और करयोग्य आय न होने पर भी बार-बार इनकमटैक्स कट जाने का उपहार, ‘हंस’ जैसी पत्रिका का आजीवन चंदा देने के बावजूद कई सालों से (लगभग) एक भी प्रति न आने का ईनाम...ऊपर से नास्तिकता/तार्किकता/सच्चाई के साहस से चिढ़े साजिशकर्ताओं के प्रतीकात्मक इल्ज़ाम.....क्या-क्या नहीं झेला और झेल रहा।

दो-तीन साल में समझ में आ पाया कि ब्याज़ में खर्चा चल पाएगा या नहीं। शुरु में नौ-दस हज़ार रु महीने में काम चलाया, लैपटॉप और वॉशिंग मशीन ख़रीदे। अब लगभग चौदह हज़ार महीने में काम चला रहा हूं। बचत में से भी थोड़ी-बहुत बचत कर ली। सुबह एक टाइम नाश्ता करता हूं- अकसर कच्ची ब्राउन ब्रैड साथ में थोड़ी रोस्टेड नमकीन या बटर से सेंक लेता हूं। चार-से छै स्लाइस। शाम को खाना-अकसर दो-या तीन तंदूरी रोटी और एक सब्ज़ी जो कि कई बार बच भी जाती है। कभी-कभी थोड़ी मिठाई या एक लीटरवाला रियल जूस मंगा लेता हूं। अपनी पसंद की दारु भी लाकर रखता हूं, पर असलियत में पीता बहुत ही कम हूं। इस पूरी सर्दी में सिर्फ़ एक पेग पिया है।

एक मित्र(वही) और एक रिश्तेदार से एक-एक बार बीस हज़ार उधार लिए जो पंद्रह-पंद्रह दिन में वापिस कर दिए। सामूहिक-पारिवारिक कारणों से दो बार बड़ी राशियां जो लीं वो भी 4-6 महीनों में लौटा दीं। 

पिताजी की मृत्यु के बाद एक गैस कनेक्शन फ़ालतू हो गया था। डिलीवरी बॉय ने बताया कि बाज़ार में डेढ़-दो हज़ार में बिक जाएगा। मगर मैंने 900 रु में गैस एजेंसी को वापिस कर दिया क्योंकि मेरा रास्ता संभवतम ईमानदारी के साथ जीवन बिताने का था/है।  

14000 ब्याज के बदले में पूरे दिन लिखता हूं, कई विधाओं में लिखता हूं, नया, मौलिक, सच और तार्किक लिखने की कोशिश करता हूं, ‘नास्तिक’ और ’पागलखाना’ जैसे ग्रुप शुरु करके नास्तिकता और नयेपन को सहज-स्वीकार्य बनाने का काम करता हूं, टाइप करता हूं, ड्रॉइंग बनाता हूं, फ़ोटो खींचता हूं, नाश्ता बनाता हूं, कपड़े धोता हूं, कई बार कम्प्यूटर-प्रिंटर आदि ख़ुद ही ठीक कर लेता हूं, समाज और संचार माध्यमों में घुसे बैठे बेईमानों से निपटता हूं.....

घर साफ़ करने में जिन मित्रों ने भी वास्तविक मदद की उनका हर तरह से आभार व्यक्त करने के बाद अब मैं अकेला यह काम कर रहा हूं, आधे-से ज़्यादा कर चुका हूं, उम्मीद है बाक़ी भी जल्दी हो जाएगा। उसके बाद मरम्मत वगैरह का काम ही रह जाएगा।

जो लोग कहते हैं कि नास्तिक कर्ज़ लेकर घी पीते हैं उनको मैं बाक़ी नास्तिकों का तो नहीं पर अपना ज़रुर बता सकता हूं कि यह है मेरी ज़िंदगी।

न मैंने कभी बैंक से लोन लिया, न पुरस्कार का सोचा, न अपने या अपने किसी रिश्तेदार के लिए किसी सरकार से अस्पताल में बैड/वार्ड चाहा, न कभी किसी हिंदी-उर्दू अकादमी से सहायता मांगी, न देश-विदेश घूमने के लिए किसी नेता की कृपा चाही, साइकिल से ज़्यादा कभी कुछ चलाया नहीं, सेठों के मुशायरों या कवि-सम्मेलनों में जाने का जुगाड़ नहीं किया, नास्तिकता और मौलिकता के लिए की गई दूसरे की मेहनत हथियाने की नहीं सोची, न क़िताबों से रटा हुआ तर्क उल्टी की तरह उलटा.......

चाहता तो बेईमानों की बात मानकर उन्हींके खर्चे पर तीन अतिरिक्त नाजायज़ कमरे बनाता और किराए पर उठा देता पर यह भी नहीं किया। चाहता तो समाज की सबसे टटपूंजिया परंपरा अपनाकर शादी करता और ससुराल, साले-सालियों और अपने बच्चों पर शासन करता, माल खींचता, दहेज लेता, छेड़खानियां करता, बेईमानियां करता। 

ज़रा सोचो कि कौन है जो इस देश में जो परजीवियों, भिखारियों और बेरोज़गारों जैसा जीवन बिता रहा है। कौन है जो सरकारें बदलने का दावा करता है पर ख़ुद नहीं बदलता--

मैं इसी तरह लिखता रहूंगा।


-संजय ग्रोवर
29-03-2018


Wednesday 21 March 2018

वाद का अवसाद





राजेंद्र यादव ‘हंस’ में कविता सिर्फ़ दो पृष्ठों/पेजों में छापते थे।

मुझे याद नहीं ऐसा करने के लिए उन्होंने क्या कारण बताए थे।

लेकिन मैं कुछ हिंदी कवियों को पढ़ता रहा हूं, कुछ के साथ भी रहा हूं।

पहली बात तो यह मुझे समझ में आई कि हिंदी कवियों की प्रगतिशीलता लगभग झूठी है, इनमें से बहुत कम लोग स्वतंत्र रुप से कोई मौलिक सच बोलने में सक्षम हैं ; पुराना, घिसा-पिटा, तयशुदा सच बोलने के लिए भी इन्हें किसी बैनर, किसी वाद, किसी दल, किसी धर्म, किसी जाति का सहारा चाहिए होता है। वे कविता में बहादुर पर दरअसल बेहद कमज़ोर लोग हैं। अस्सी-नब्बे साल की उम्र में एम्स जैसे बड़े, जुगाड़ुओं के लिए ही बने, हॉस्पीटल में मरते हुए भी इन्हें लगता है कि कोई बहुत ही भीषण, विकट समय आ गया है।


सही बात यह है कि जिनके लिए कविता लिखने का इनका दावा होता है उन तक न इनकी कविता पहुंचती है, न उनकी समझ में आती है, न उनको इनकी मौत की ख़बर होती है। उन तक पहुंचने की ये कोई कोशिश करते भी नहीं हैं। दरअसल उनका भीषण-विकट समय हर सरकार, हर वाद, हर शासन में चलता है, उनके जीवन में इनकी कविताएं रत्ती-भर असर नहीं डाल सकतीं। इनकी कविताएं वैसे भी पुरस्कार, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, चेले और चेलियों के लिए लिखी गईं होतीं हैं, ‘उनके’ लिए नहीं।

दूसरी बात, कविता में बिंब, अलंकार, उपमा, भावुकता आदि तो होते हैं पर तर्क नहीं होता। कवियों और शायरों को भी आप अगर पूरे होश में, पूरी जागरुकता के साथ सुनें तो संभावना यही है कि आप इनको अकसर तर्करहित ही पाएंगे।

आप अगर मुझे इजाज़त नहीं भी दें तो मैं इस बात पर ठहाका लगाना चाहूंगा कि इतने अय्याशीपूर्ण ढंग से, तमाम जुगाड़ों, चमचों और सुख-सुविधाओं के बीच मरते हुए भी इनको लगता है कि कोई भीषण और विकट समय आ गया है। ऐसा लगता है कि भारत में कवि और साहित्यकार पहली बार मर रहे हैं। ऐसी अतिश्योक्तिपूर्ण मूर्खोक्तियों की वजह से ही मेरेे जैसा व्यक्ति भांप जाता है कि ज़रुर कोई प्रायोजित माफ़िया है जिसका काम बस अपने-अपने मालिकों के पक्ष में, दूसरों के मालिकों के विपक्ष में अपने-अपने हिस्से का विलाप/प्रलाप/नाटक करना है।

अपने मुहावरों, लोकगीतों, भक्तिगीतों, परंपराओं, वीरोक्तियों, रुदालियों को याद करो--न जाने कितने लाख बार तुमने बोला कि ‘संकट के समय में ही साहस का पता चलता है’। लेकिन तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि या तो संकट नक़ली है या साहस नक़ली है। 

कोई हैरानी नहीं होती जब तथाकथित प्रगतिशीलों को यह रोना रोते देखता हूं कि हाए, सारी परंपराएं तोड़ी जा रहीं हैं। बताईए, परंपराएं तोड़ना तो तुम्हारे हिस्से का काम था, यह भी भूल गए क्या ? क्या हो गया तुम्हारी स्मृति को ? लेकिन प्रगतिशीलता होती तब न ! कम-अज़-कम यह तो बताया होता कि कौन-सी परंपरा क्यों नहीं तोड़नी चाहिए या क्यों तोड़नी चाहिए !? या अतार्किक आकाशवाणियां करना ही तुम्हारी परंपरा है !? इनकी एक-एक हरक़त बताती है कि ये प्रगतिशीलता के नाम पर मौक़ापरस्ती के अभ्यस्त हैं।

मेरी माताजी की मृत्यु हुई जब मैं फ़ेसबुक पर आ चुका था, कई लोग जानते थे, कई जानने लगे थे। मुझे ख़्याल भी नहीं आया कि फ़ेसबुक पर डालना चाहिए। मेरे पिताजी का देहांत जीटीबी में हुआ। बहुत दबाव में मैंने दो-चार लोगों को कमरा/वार्ड आदि दिलवाने के लिए फ़ोन किया। मुझे कोई ख़ास बुरा नहीं लगा जब उन्होंने असमर्थता ज़ाहिर कर दी। जबसे मुझे अक़्ल आई तब से मैंने यह चाहना बंद कर दिया था कि मेरे पिताजी मेरे लिए किसीसे जुगाड़ लगाएं।



क्या हम इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद मर भी ईमानदारी से नहीं सकते !?

(आगे भी)

-संजय ग्रोवर
21-03-2018

Sunday 18 March 2018

जेएनयू पर एक डरी हुई टिप्पणी

जेएनयूवादियों को दुआ/प्रार्थना करते देखा तो दो पुराने फ़ेसबुक स्टेटस याद आ गए-

1.
पंडित जवाहरलाल नेहरु जे एन यू के छात्र थे। यही वजह है कि उन्होंने एक प्रगतिशील विचारधारा की नींव रखी। वरना और किसी तरह यह संभव नहीं था।

02-08-2013
(on पागलखाना facebook)


2.
जेएनयू से मेरे भी कुछ मित्र आते हैं इसलिए मुझे लगा कि जेएनयू पर टिप्पणी की जा सकती है। बिना मित्रता के हमारे यहां दुश्मन पर भी कुछ लिखने की परंपरा नहीं है। परंपरा से मैं भी डरता हूं; दरअसल यह होती ही डराने के लिए है। जे एन यू की भी ज़रुर कुछ परंपराएं होंगी हांलांकि इसे परंपरा तोड़ने के लिए भी जाना जाता है। परंपरा के चक्कर में कुछ प्रगतिशील भी कई बार डरावने ढंग से नाराज़ हो जाते हैं इसलिए मैं परंपरा से दोबारा-तिबारा डरता हूं।

जेएनयू के मार्क्सवादियों का और बाहर के राष्ट्रवादियों का विरोध जगजाहिर है। मैं इनकी समानताओं पर मिनी चर्चा करुंगा। राष्ट्रवादियों के पास गंगा नदी है तो जेएनयूवादियों के पास गंगा ढाबा है। सुनने में आता है कि इस ढाबे में तपस्या करके भी कई लोग सिद्धि प्राप्त करते हैं। सुना हैं यहां भी ऐसी आध्यात्मिक गिलहरियां पाई गईं हैं जैसी रामजी के पुल बनाने के किन्हीं वर्णनों में सुनी जाती रही हैं। गंगा ढाबा भी अब लगभग एक तीर्थस्थल के रुप में मान्यता प्राप्त कर रहा है या करवाया जा रहा है। अब दर्शक बड़ी बेसब्री से किसी जमुना नाम के खोखे का इंतज़ार कर रहे हैं।

राष्ट्रवादियों के अपने देवता हैं जिनके खि़लाफ़ एक लफ्ज़ भी सुनना उन्हें गंवारा नहीं है, जेएनयूवादियों के भी अपने देवता हैं। आपको विश्वास न हो तो आप हरिशंकर परसाईं के व्यंग्य में कोई कमी बताकर देखिए। मैंने आज तक परसांई की कोई ऐसी आलोचना नहीं पढ़ी जिसमें आलोचना हो। वहां अकसर प्रशंसा को ही आलोचना माना जाता है। हांलांकि पढ़ता मैं आजकल अनपढ़ो से भी कम हूं इसलिए अपवादस्वरुप कुछ मिल जाए तो उन्हें प्रक्षिप्त/विक्षिप्त अंश (जो भी है) मानकर मुझे क्षमा कीजिएगा।

राष्ट्रवादियों की अपनी कुछ क़िताबें हैं जिन्हें आपने न पढ़ा हो तो ये आपसे बात करने को तैयार नहीं होते, जेएनयूवादी भी कई क़िताबें बहस के बीच-बीच में प्रेसक्राइब करते रहते हैं, जिन्हें न मानने पर ये भी आपसे बहुत ज़्यादा ख़ुश नहीं होते।

एक और तरह के अनुभव भी मुझे और दूसरे लोगों को दोनों टीमों के बारे में हुए हैं। कि अगर आप एक दिन किसी बात पर इनका समर्थन करो तो ये भी आपको ‘अज़ीम शायर’, भविष्य का क़ैफ़ी आज़मी, कोहली जैसा व्यंग्यकार घोषित कर देते हैं। तीन दिन बाद किसी बहस में आप इनके खि़लाफ़ कोई तर्क दे दो तो ये वहीं हाथ के हाथ आपको गोबरगणेश का तमग़ा भी प्रदान कर देते हैं। दोनों टीमों में इस तरह के परिपक्व लोग मिलते-जुलते रहते हैं।

मार्क्सवाद जेएनयू के दरवाज़े पर ही धर्मरक्षक की तरह घूमता मिल जाता होगा, ऐसी मेरी कल्पना है। भीतर मार्क्स की चलती-फिरती मूर्तियां मिलती हैं, यह मेरी फ़ैंटसी है।

बाक़ी छोटी टिप्पणी में ज़्यादा क्या कहा जाए, आप तो जानते ही हैं कि मार्क्सवाद तो क्या भारतीय संस्कृति तो ख़ुलेआम सबको अपना लेती है। इस टिप्पणी से पता लगता ही है कि जेएनयू पर भी उसका अच्छा प्रभाव है।

बाद में दफ़ना भी देती हो तो इस बारे में मेरे कोई विचार नहीं है।

मुझे परंपरा का भी ख़्याल आ गया है।

-संजय ग्रोवर
03-07-2013

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Tuesday 13 March 2018

आओ भक्तों दुआ करो






दुआ करो कि भारत से अंधविश्वास दूर हो जाए।
दुआ करो कि हम ऐसे ही अंधविश्वास फैलाते रहें फिर भी लोग हमें प्रगतिशील मानते रहें।

दुआ करो कि ‘हालांकि न तो दुआ में कोई ख़तरा है न मेहनत न संघर्ष’ फिर भी हमें दुआ तक न करनी पड़े।
हालांकि दुआ करते वक़्त असल में करना क्या पड़ता है, किसीको भी नहीं पता।
दुआ करो कि किसीको यह पता भी न चले वरना लोगों को यह भी पता चल जाएगा कि धार्मिक, धर्मपिरपेक्ष, कट्टरपंथी और प्रगतिशील एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

दुआ करो कि हम ज़िंदगी-भर ऐसे ही बदबूदार चुटकुले छोड़ते रहें फिर भी लोग हमें संजीदा और गंभीर और सीरियस और... मानते रहें।
इन सब शब्दों का एक ही मतलब है ठीक वैसे ही जैसे दुआ और अंधविश्वास का।
दुआ करने में कैसी शर्म ! क्या लिहाज़ !
इसके लिए न तो ताक़त चाहिए न बुद्धि।

और मूर्खता-
हां वो तो ज़र्रे-ज़र्रे, कण-कण में मौजूद है।
दुआ करो कि हमें कभी अक़्ल न आए।

वरना हम दुआ कैसे करेंगे !?

रोज़गार वालो, नौकरी छोड़ो, दुआ करो, 
इससे बेहतर कोई रोज़गार नहीं

दुआ करो कि छेड़खानी बंद हो जाए
बलात्कार ख़त्म हो जाए
दुआ करो कि
अपने-आप ग़ज़ल और नज़्म हो जाए

आप ख़ामख़्वाह समझ रहे हैं कि महापुरुषों ने स्वतंत्रता-संग्राम किया था
उन्होंने तो बस दुआ की थी
और अंग्रेज़ चले गए
फिर इतिहास भी बन गया

हालांकि, अगर आपके लिए होना संभव हो तो,
आप हैरान होंगे,
कि उन्होंने कभी इसलिए दुआ क्यों नहीं की
कि अंग्रेज़ कभी आएं ही न !

भगतसिंह, फांसी का फंदा छोड़ो वापस आओ
दुआ करो 
ग़लतियां हो जातीं हैं
पर उन्हें दुआ करके सुधारा भी तो जा सकता है

दुआ करो
यह कहीं भी की जा सकती है
दुकान में, मकान में, मैदान में,
वर्दी में, हमदर्दी में, सरदी में, जल्दी में

रसोई में, युक्ति में, मुक्ति में,
सुस्ती में, चुस्ती में, फुर्ती में, कुर्ते में, कुर्ती में
हवाई जहाज में, गंगा के बहाव में
भीड़ के दबाव में, ज़बरदस्ती के प्रभाव में
परदे पर, अकेले में 
जोश में, थकेले में

यह कभी भी की जा सकती है
होश में, मदहोशी में
शोर में, ख़ाम़ोशी में
नदी के किनारे पर
चालू चौबारे पर

दुआ करो कि गौरी लंकेश, नरेंद्र दाभोलकर, जज लोया, सुनंदा पुष्कर के हत्यारे पकड़े जाएं
लेकिन इससे पहले यह दुआ करो कि कोई यह न पूछ बैठे 
कि पहले तुमने यह दुआ क्यों नहीं की
कि इनकी हत्या कभी हो ही न  

 दुआ करो कि लोग समझ न जाएं
अंधविश्वास हटाने से पहले
ख़ुद ही फैलाना भी पड़ता है

एक तरफ़ धजरंगी हवन कर रहे हैं
दूसरी तरफ़ बुद्धिजीवी दुआ कर रहे हैं
कौन सबसे बड़ा है
आप ही बताओ



इसके लिए 
अक़्ल भी नहीं चाहिए
यहां तक कि ब्लैकमनी भी नहीं लगती

दुआ करो कि सब्ज़ी अपने-आप बन जाए
दुआ करो कि दाल अंगीठी पर रखे बिना गल जाए

दुआ करो कि बिना दांतों के खाना चब जाए
दुआ करो कि बिना आंतों के खाना पच जाए

दुआ करो कि बिना डॉक्टर के ऑपरेशन हो जाए
दुआ करो कि बिना दवाई के सैटिसफ़ैक्शन हो जाए
दुआ करो कि डॉक्टर को ऑपरेशन के लिए
ऑपरेशन तक न करना पड़े
दुआ करो कि अंधविश्वास दूर करने में
हमको कोई को-ऑपरेशन तक न करना पड़े

दुआ करो कि हम बिना हवाई जहाज के विदेश पहुंच जाएं
दुआ करो कि एक जेब में अंधविश्वास दूसरी में प्रगतिशीलता रखकर
हम कहीं भी पहूंच जाएं

दुआ करो कि दुनिया में किसीको दुआ के अलावा कुछ भी न करना पड़े
न लिखना पड़े न पढ़ना पड़े

दुआ करो कि लोगों के बिना पढ़े डिग्रियां मिल जाएं
दुआ करो कि लोगों की सारी डिग्रियां ग़ायब हो जाएं
अरे! जब दुनिया में दुआ से ही सब होना है
तो आज ही क्यों न सब हो जाए !? 

यह कैसी दुआ है जो पहले पासपोर्ट-वीज़ा का इंतेज़ार करती है
फिर हवाई जहाज़ का, फिर अच्छे डॉक्टर का अच्छे हॉस्पीटल का
फिर देखती है कि डॉक्टर सही कर रहा है कि ग़लत
अगर सही कर रहा है तो मैं जाकर लग जाती हूं
अगर ग़लत कर रहा है तो चुपके-से, छुप-छुपके लौट आती हूं

अरे आज या तो डॉक्टर रहेगा या दुआ
आज फ़ैसला हो ही जाए
अभी और कितने बरस हम परदा खुलने का इंतज़ार करेंगे
क्या हम भी बस सस्पेंस में ही मरेंगे !?

अरे अब आ ही गए हैं तो कुछ तो कर जाएं
प्रगतिशील ज़्यादा अंधविश्वासी होते हैं
या अंधविश्वासी ही बाई चांस प्रगतिशील निकल आते हैं
कम-अज़-कम यही पता कर जाएं 



दुआ करो कि बिना फ़िल्म के फ़िल्म बन जाए
दुआ करो कि बिना प्रमोशन फ़िल्म चल जाए
मैं तो कहता हूं दुआ करो कि बिना फ़िल्मों में काम किए स्टार बन जाएं
और बिना अभिनय किए ऑस्कर मिल जाए

बिना खाने के पेट भर जाए
बिना विज़ुअल बनाए
किसानों की समस्याएं हल हो जाएं

मुझे ख़ुशी है कि दुआ आज दस हज़ार साल की हो चुकी
हालांकि यह नहीं पता कि इससे हुआ क्या है




-संजय ग्रोवर
13-03-2018