Wednesday 29 April 2015

निराकार भगवान की चलती-फिरती प्रगतिशील मूर्तियां


जब किसी पर कोई मुसीबत आती है, उसका भारी नुक़सान हो जाता है तो वह भगवान को और ज़्यादा मानने लगता है, ज़्यादा प्रार्थना करने लगता है, यहां तक कि कई बार तो न माननेवाले भी मानना शुरु कर देते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि ‘जिस भगवान ने इतने पूजापाठ, दानदक्षिणा के बावज़ूद हमारा सब तबाह कर दिया, वो कैसा भगवान है, वो कर क्या रहा है, उसके बस का कुछ है भी या नहीं!? वो है किसकी तरफ़? अगर है तो दुनिया में बलात्कार होते ही क्यों हैं ? भूकम्प आते ही क्यों हैं ? जो ख़ुद ही सुनामी भेज रहा है, उसीसे उसे रोकने की प्रार्थना करना क्या बेवक़ूफ़ी नहीं है? अगर वह है तो कुछ करता क्यों नहीं, सामने क्यों नहीं आता ? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह है ही नहीं, वह हमारे मन का एक वहम है, वह महास्वार्थी, अहंकारी लोगों की फैलाई एक अफ़वाह है !?’

मगर इसका उल्टा होता है तो उसकी कोई वजह तो होगी। दो-चार वजह जो मुझे समझ में आतीं हैं, लिख रहा हूं। आप भी लिख सकते हैं-

1. बचपन में संस्कारों के नाम पर बच्चे के मन में तरह-तरह के डर बिठा देना। मैंने ख़ूब देखा है कि डरे हुए लोग सोचने लायक रह ही नहीं जाते। उनकी अपनी कोई सोच होती ही नहीं। दूसरों द्वारा सिखाई-बताई-पढ़वाई बातों को वो अपना चिंतन समझते आए होते हैं। उनकी ज़िंदगी रटे हुए संस्कारों पर इस तरह चलती है जैसे बिछी-बिछाई पटरियों पर रेल चलती है। अब रेल अगर यह समझने लगे कि वह अपनी मर्ज़ी से चल रही है और अपनी पसंद से अपने स्टेशन तय कर रही है तो इस ग़लतफ़हमी को दूर करना आसान नहीं है।

2. जिस व्यक्ति ने भगवान जैसी बेसिर-पैर की कल्पना को बिना किसी संदेह, बिना किसी प्रश्न, बिना किसी अनुभव, बिना किसी साक्ष्य, बिना किसी मुलाक़ात के स्वीकार कर लिया हो वह किसी भी झूठ को स्वीकार कर सकता है। उसे कोई भी, कभी भी, कहीं भी ठग सकता है। भगवान नाम के झूठ के सहारे ठग अपनी ठगी के लिए जनमानस में माहौल तैयार करते हैं, भूमिका बनाते हैं।

3. पिछड़े हुए देशों में प्रगतिशीलता की स्थिति शर्मनाक़ है। हिंदी फ़िल्मजगत में स्वतंत्रता के कई साल बाद तक तथाकथित प्रगतिशीलता का बोलबाला रहा। मगर उन तथाकथित प्रगतिशीलों ने कभी भी कोई फ़िल्म नास्तिकता पर नहीं बनाई, न ही कोई गीत नास्तिकता पर लिखा। हां, नास्तिकता को बदनाम करने के लिए इन्होंने गीत भी लिखे और फ़िल्में भी बनाईं। वह काम आज भी हो रहा है।

4. चालू लोगों ने मूर्तिपूजा के विरोध के नाम पर निराकार भगवान नाम का एक नया शोशा खड़ा कर दिया। और वे इस नई बेईमानी पर खड़े होकर प्रगतिशीलों में प्रगतिशील बन गए और परंपरावादियों में परंपरावादी। इनकी मूर्खता का अंदाज़ा आप इसीसे लगा सकते हैं कि इन्होंने प्रगतिशीलता तक के लिए परंपरा को अनिवार्य कर दिया। इन बेईमानों और निकम्मों ने चीज़ों को आपस में इतना गड्ढ-मड्ढ किया कि सही और ग़लत, तार्किक और अतार्किक का पता लगाना मुश्क़िल हो गया। इनकी बेशर्मी का आलम यह है कि जो भी इन्हें इनकी विचित्र मानसिकता का पता बताता है ये उसे किसी कट्टर सांप्रदायिक संगठन से जुड़ा बताना शुरु कर देते हैं, इन विद्वानों के पास ले-देकर यही एक ‘तर्क’ बच गया है। जबकि ऐसे लोग आपने भी ख़ूब देखे होंगे जो पैसे, प्रतिष्ठा, पुरस्कार, पब्लिसिटी के लालच में ख़ुद किसीके भी अंगने में जाकर पसर जाते हैं।

5. जब तक लोग यह नहीं समझेंगे कि निराकार वाले साकार वालों से ज़्यादा शातिर और बेईमान हैं, तब तक आगे का रास्ता साफ़ नहीं हो सकता। हमें यह समझना पड़ेगा कि सिर्फ़ सामने से छुरा दिखानेवाला लुटेरा नहीं होता बल्कि छुरे का भय दिखाकर उससे बचाने के नाम पर, उसके विरोध के नाम पर हवाई क़रतब करके पैसे मूंडनेवाले भी उतने ही या उससे भी ज़्यादा मूर्ख, बेईमान, पाखंडी, निकम्मे, पोंगे या चालबाज़ होते हैं। हमें यह समझना पड़ेगा कि बेईमानी को अगर ईश्वर, धर्म, मूर्ति और कर्मकांडों की ओट में जस्टीफ़ाई नहीं किया जाना चाहिए तो उसे प्रगतिशीलता, सफ़लता, पुरस्कार, नास्तिकता, हैसियत, लाइमलाइट, मंज़िल आदि-आदि के नाम पर भी क्यों छुपे रहने देना चाहिए!? इन पोंगों ने तो सफ़लता, प्रतिष्ठा और पुरस्कार को भी तथाकथित भगवान के समकक्ष खड़ा कर दिया है, सफ़ल(!) लोगों को ये भगवान की तरह पूजते हैं, कोई उनके बारे में चूं भी करे तो ये डंडा लेकर खड़े हो जाते हैं। 

और यही अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता और समानता के पक्षधर भी बने बैठे हैं।

-संजय ग्रोवर
29-04-2015



Saturday 25 April 2015

भूकंप पर चिंतन में निराधार कंपन

प्राकृतिक आपदाओं के बाद जो सबसे अजीब और विचित्र (मुझे पता है दोनों का मतलब एक ही है) प्रतिक्रिया होती है, वह यह है कि यह सब भगवान ने ही किया है। इसलिए कि धरती पर पाप बहुत बढ़ गए थे, प्रदूषण ज़्यादा हो गया था वगैरह......। कई लोग चाहें तो इसमें व्यक्तिगत ख़ुन्नस भी जोड़ सकते हैं कि मेरा पड़ोसी गुटख़ा बहुत खाने लगा था, फ़ेसबुक पर साहित्य के मुनीमों की पूंछ(मतलब महत्व वग़ैरह) ख़त्म हो गई थी, लोग पुरस्कारों पर उंगली उठाने लगे थे.......तो भूकंप तो आना ही था।

इन विद्वानों से पूछना चाहिए कि जब पाप बढ़ रहे थे तब भगवान क्या कर रहा था!? क्या भगवान भी इलैक्ट्रौनिक मीडिया में काम सीखके आया है कि पहले तो किसीको अपनी हत्या करने दे बाद में रोना-धोना करने लगे!? यह भगवान है कि किसी पोंगे स्कूल का टीचर है जो पहले तो बच्चों को लड़ता-मरता छोड़कर क्लास से ग़ायब हो जाता है और बाद में आकर उन्हें पीटता है कि मेरी अनुपस्थिति में लड़ क्यों रहे थे ?


और यह क्या ढंग हुआ पापियों को समझाने का ? मुझे किसीसे कोई शिक़ायत है, मैं उसे कुछ समझाना चाहता हूं तो बिलकुल सीधा और आसान रास्ता है कि मैं अपने मुंह से बोलकर उसे बताऊं कि भई मुझे आपसे यह शिक़ायत है, कृपया आप मेरे साथ ऐसा व्यवहार न किया करें। मगर यह क्या तरीक़ा हुआ कि मैं उसे पीछे से जाकर झकझोर दूं और भागकर ग़ायब हो जाऊं, उसे यह तक न पता चले कि कौन झकझोर गया, क्यों झकझोर गया !?

यह तो मैं तभी करुंगा जब मैं गूंगा होऊं या ख़ुद मेरे मन में कोई शैतानी हो।


क्या भगवान ऐसा ही है? पहले तो पाप होते देखता रहता है, फिर जब पाप हो चुकते हैं तो लोगों को समझाने निकलता है!? और समझाते हुए भी सीधा नहीं बोलता, झटके देता है, पहेलियां बुझाता है! इसका मतलब तो यह हुआ कि कुछ लोग पाप की वजह से मर जाते हैं और कुछ भगवान के समझाने के अजीब ढंग की वजह से।


अगर दुनिया के सभी लोग एक-दूसरे को भगवान वाले ढंग से समझाने लगे तो क्या हाल होगा इस दुनिया का ?

भूकंप से तो जो नुकसान होता है, होता ही है, उससे बड़ा और दीर्घकालिक नुकसान इस वजह से होता है कि लोग एक प्राकृतिक आपदा को भगवान नाम की पूर्णतया अव्यवहारिक कल्पना से जोड़कर जनमानस के मन में निराधार डर और अंधविश्वास भरते रहने से बाज़ नहीं आते।


-संजय ग्रोवर
25-04-2015


Thursday 23 April 2015

काल्पनिक ईश्वर और बेबस हत्यारे


नास्तिकों की हत्या करनेवालों की बेबसी और मजबूरी साफ़ समझ में आती है। क्योंकि उनके लिए यह न तो कभी संभव था और न कभी संभव हो पाएगा कि वो ईश्वर को दुनिया के सामने पेश करें और उससे दुनिया की कुछ समस्याएं हल करने को कहें। ईश्वर को पेश करने के नामुमक़िन काम की तुलना में हत्या बहुत ही आसान उपाय है।  यह समस्या से भागने और दूसरों का ध्यान बंटाने का एक अनुचित मगर संभव उपाय है। आप सोचिए कि इस दुनिया के करोड़ों लोग मिलकर भी एक ईश्वर को पेश नहीं कर सकते। इसके मुक़ाबले हत्या एकदम आसान है। हर एक हत्या इस बात की पुष्टि करती है कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि ईश्वर होता तो वह यह सड़कछाप काम अपने नाम पर कभी होने न देता। और हत्या करनेवाले को अगर ईश्वर के होने का विश्वास होता तो यह संभव ही नहीं था कि वह ईश्वर के काम को अपने हाथ में लेता। हत्या करनेवाले को ख़ुद ही किसी ईश्वर में विश्वास नहीं इसीलिए वह ख़ुद हत्या करने निकल पड़ता है और हत्या करके ख़ुश होता है। उसे इतनी भी समझ नहीं होती कि इसमें ख़ुश होने की बात किसी भी तरह से नहीं है। तू हत्या नहीं करेगा तो भी यह आदमी कभी न कभी मरेगा। तूने इसमें स्पेशल कुछ भी नहीं किया। और मज़े की बात यह है कि एक न एक दिन तू भी मरेगा। कोई न मारे तो भी मरेगा। दो-चार साल पहले या दो-चार साल बाद में मरेगा, उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है ? इस मरने-मारने से ईश्वर का होना तो किसी भी तरह से सिद्ध नहीं होता।

इससे हर बार यही सिद्ध होता है कि ईश्वर कहीं नहीं है। न कभी था, न कभी होगा। बाक़ी इससे यह सिद्ध होता है कि हत्या करनेवाले इतने बेबस हैं और नकारात्मक सोच से इतने भरे हैं कि वे हत्या अलावा कुछ कर ही नहीं सकते।

मज़े की बात यह कि ईश्वर को तुम्ही ने बनाया, तुम्हीने प्रचारित किया, तुम्हीने उसके नाम पर खाया-पिया, स्त्रियों और दूसरे वंचितों-कमज़ोरों की दुर्दशा की, उनका दुरुपयोग किया। अब तुम्ही उस ईश्वर को पेश नहीं कर पा रहे और बौख़लाहट में हत्या किसी और की कर रहे हो !? अपनी बला तबेले के सर ! उल्टा चोर कोतवाल को डांटे ! अरे, अपनी ही बनाई-बताई चीज़ को साबित नहीं कर पा रहे तो हत्या अपनी करो। आत्महत्या करो। डूब मरने की बात तुम्हारे लिए है। दूसरे से क्या लेना !?

भैया रे, ईश्वर के नाम पर तो ईश्वर को ही पेश करना पड़ेगा, अंड-बंड हरक़तों से ईश्वर साबित नहीं होने वाला। जैसा ईश्वर तुमने बताया है वैसा अब लाकर भी दिखाओ। किसी सब्स्टीट्यूट से काम नहीं चलनेवाला। आखि़र ईश्वर है, कोई मज़ाक़ थोड़े ना है।

ईश्वर का मज़ाक मत बनाओ, उसे लाकर दिखाओ।

इससे कम पर बात नहीं बननेवाली।

-संजय ग्रोवर

(अपने फ़ेसबुक-ग्रुप 'नास्तिकThe Atheist' से)