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Tuesday, 30 January 2018

शामिल सोच

मैं एक परिचित को बता रहा था कि सोशल मीडिया पर कोई नयी बात लिखो तो कैसे लोग पहले यह कहकर विरोध करते हैं कि ‘फ़लां आदमी बीमार मानसिकता रखता है’, ‘फ़लां आदमी ज़हर फैला रहा है’, ‘फ़लां आदमी निगेटिव सोच का है’. फिर उस आदमी को पर्याप्त बदनाम करके कुछ अरसे बाद वही बात अपने नाम से लिखके या बताके नये का क्रेडिट ले लेते हैं।

परिचित ने कहा कि आपको भी घर से निकलना चाहिए, घर से नहीं निकलोगे तो लोग तो यहीं करेंगे.....


मुझको यह तर्क/सोच बिलकुल ऐसे ही लगी जैसे लड़कियां छोटे कपड़े पहनेंगी तो बलात्कार तो होगा ही ; फ़लां लड़की तो पहले ही वेश्या है, मैंने ज़रा छेड़ दिया तो क्या हो गया ; लड़की सीधी है तो लोग तो छेड़ेंगे ; बलात्कार के बारे में बताओगे तो बदनामी तुम्हारी ही होगी ; सब नाजायज़ कमरे बना रहे हैं तो तुम कब तक नहीं बनाओगे.....

आपको क्या लगता है ?

-संजय ग्रोवर
30-01-2018

Thursday, 26 October 2017

ध्यानाकर्षण का धंधा और शहादत का शोशा


कोई पांच-एक साल पहले की बात है एक व्यक्ति के बयान पर तथाकथित हंगामा खड़ा हो गया। उस व्यक्ति का नाम मैंने पहली बार उसी दिन सुना था। शहर भी छोटा ही था जहां बिना मतलब कोई आता-जाता नहीं है। इधर मेरे कॉमन सेंस ने मेरे लिए समस्या पैदा कर दी, हमेशा ही करता है। मैंने सोचा कि ऐन उसी वक़्त, जब वह आदमी बयान दे रहा था, कैमरेवाले कैसे वहां पहुंच गए !? क्या कैमरे भारत के घर-घर में, सड़क-सड़क पर, छोटे-छोटे गांव-क़स्बों में तैनात हैं !? क्या कैमरे-वालों को पहले ही पता होता है कि फ़लां छोटे-से गांव में एक नामालूम-सा आदमी फ़लां बयान देने वाला है, पहले ही पहुंच जाओ। यह कैसे हो सकता है, आप भी अंदाज़ा लगा सकते हैं।

वह आदमी तो नामालूम-सा था लेकिन मैं देखता हूं जो लोग अकसर कहते पाए जाते हैं हमें ट्रॉल किया जा रहा है, उनमें से कई लोग ख़ुद ध्यानाकर्षण के धंधों से जुड़े होते हैं। उनका प्रोफ़ेशन या व्यवसाय ही ऐसा होता है जिसमें लोगों का ध्यान आकर्षित किए बिना एक क़दम भी चलना मुश्क़िल होता है। फ़िल्म, राजनीति, मॉडलिंग, टीवी, सीरियल, उद्योग, समाजसेवा, धर्म आदि में बहुत-से लोग नाम करने के लिए ही आते हैं, उनके संस्कारों में और आसपास के वातावरण में इस बात पर पूरा दबाव होता है कि नाम करो, प्रतिष्ठा बनाओ, इमेज अच्छी होनी चाहिए, आदमी को प्रसिद्ध होना चाहिए आदि-आदि। ये चीज़ें क्या अच्छा काम करतीं हैं यह तो पता नहीं, पर वास्तविकता को छुपाने में अक्सर काम आतीं हैं। जैसे कि किसी भी नामवाले आदमी की सही आलोचना की भी हिम्मत लोगों को आसानी से नहीं होती। एक बार नाम हो जाए तो कोई नहीं पूछता कि नाम कैसे हुआ, किन तरीक़ों को आज़माने से हुआ, सच से हुआ कि हथकंडों से हुआ ?

बहरहाल, विज्ञापन और ‘शहादत’ के अर्थ में, समझा जा सकता है कि कई लोगों को ट्ॉल की सख़्त ज़रुरत रहती होगी। आज जब हर क्षेत्र में नये-पुराने लोगों की बाढ़ आई हुई है, लोगों कांे अपनी फ़िल्में ख़ुद प्रोड्यूस करनी पड़ रहीं हैं, कभी कॉमेडी को छोटा काम समझनेवाले आज कैसे भी कॉमेडी शो में कैसी भी कॉमेडी करने को तैयार हैं ; यह आसानी से समझ में आता है कि कई लोग इसलिए भी तरसते होंगे कि यार कोई ग़ाली ही दे दे, दो-चार दिन तो नाम हो ही जाएगा। मैं अपने ‘नास्तिक’ ग्रुप के लोगों को कई बार इसलिए भी ग़ाली-ग़लौच से बचने की सलाह देता रहा क्योंकि मुझे मालूम था कि उन लोगों को इससे फ़ायदा ही होगा, एक दम शहीद बनके सड़क पर ही रोने लग जाएंगे कि ‘हाय दैया! हमें यहां भी मारा, वहां भी मारा, कहां-कहां मारा!’ और आपकी तर्कपूर्ण बातों पर भी कोई ध्यान नहीं देगा क्योंकि लोगों को भी तमाशों में ही ज़्यादा मज़ा आता है।

अतीत या निकट अतीत में कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं जिनमें कुछ साहसी लोगों को सच बोलने या तार्किक बातों के लिए ग़ालियां, प्रताड़नाएं, बदनामी झेलनी पड़ी। लेकिन दूसरे लोग ज़्यादा चतुर हैं, उन्होंने साहसपूर्ण लोगों के स्वतस्फूर्त स्वभाव को सफ़लता के फ़ॉमूर्ले में बदल लिया हैं।  उन्होंने ऐसा माहौल बना लिया कि जैसे दूसरे की ग़ालियां ही पहले की सफ़लता, महानता या शहादत की गारंटी हों। आजकल तो तक़नीक़ भी ऐसी आ गई है कि ख़ुद ही दो फ़ेक आई डी बनाकर अपनी असली आईडी को चार ग़ालियां दे दो, बस शहीद हुए कि हुए। इस टैक्नोलॉजी ने सभी शहादताकांक्षियों को आत्मनिर्भर बना दिया है।

ग़ालिया तो भारत के ज़र्रे-ज़र्रे में, चप्पे-चप्पे पर मौजूद हैं। यहां ग़ालियों की कोई कमी है। कई लोगों में तो परिवारों में आपस में ग़ालियां आर्शीवाद की तरह बांटीं जातीं हैं। ‘बोस डी के’ तो याद ही होगी आपको, कई लोगों ने उस वक़्त ग़ालियों के पक्ष में चिंतन किया था, आजकल उन्हींमें से कुछ शालीनता को चोला ओढ़े होंगे। मज़े की बात तो यह है कि मेरे पास तो एक बार एक युवा मित्र का ईमेल आया कि वे और उनके कुछ मित्र ग़ालियों पर एक प्रायोजित बहस चलाना चाहते हैं, उन्होंने यह भी तय कर लिया है कि कौन मित्र ग़ालियों के पक्ष में रहें और कौन विपक्ष में, और इसके लिए पहले रिहर्सल भी कर लेंगे। मेरा मक़सद यहां व्यक्तियों पर नहीं प्रवृतियों पर बात करना है इसलिए मित्र के नाम में मैं ज़्यादा अर्थ नहीं देखता, वैसे भी यहां किसके कंधे पर रखकर कौन बंदूक चला रहा है, पता लगाना आसान नहीं है ; सो मैंने कहा कि मैंने ऐसे काम कभी किए नहीं हैं और आगे भी मैं ख़ुद में ऐसी कोई संभावना देखता नहीं हूं। औ

एक बार अख़बार निकालने की प्लानिंग हो रही थी तो एक अनुभवी सज्जन ने बताया कि चलाने के लिए पहले एक संस्था बनानी पड़ेगी जो हमारे अख़बार का विरोध करेगी। वहां से जैसे-तैसे छुटकारा पाया। तिसपर और ग़ज़ब एक बार यह हुआ कि एक महिला-मित्र को पता नहीं क्या फ़ितूर चढ़ा कि पीछे ही पड़ गईं कि पहले ग़ाली दो तभी आगे कोई बात होगी। फिर कहने लगी कि मैं सिखाऊंगी। अब मैं क्या कहूं कि ग़ालिया तो मैंने दसवीं क्लास में ही सीख लीं थी, तंेतालीस छात्रों की क्लास में 35-40 ऐसे थे जो धंुआधार ग़ालियां बकते थे। हमें भी सीखनी पड़ी, काम ही नहीं चलता था। अंत में, लगभग आधे घंटे बाद मैंने धीरे-से मां की एक ग़ाली बकी तब उनकी कुछ संतुष्टि हुई। मैं भी क्या करुं, ग़ुस्से में, विरोध में, ख़ासकर ज़ुल्म और अन्याय के विरोध में मैं कभी-कभी ग़ाली बक भी देता हूं पर कर्मकांड, अभिनय, लीला रस्म आदि की तरह कोई भी काम करते हुए मुझे काफ़ी संकोच होता है।

ट्रॉल करने का जो धंधा पहले सिर्फ़ एकतरफ़ा था, अब टू-वे बल्कि मल्टी-वे और मल्टीपरपज़ हो गया है। इसलिए जिनको एकतरफ़ा हरक़तों यानि कुछ-कुछ तानाशाही की आदत थी, उन्हें थोड़ी तक़लीफ़ होना स्वाभाविक है।

हालांकि शहादत के मज़े भी अभी तक वे ही ले रहे हैं।

-संजय ग्रोवर
26-10-2017