Monday 31 December 2018

बाग़ी भी आते-जाते रहे, नास्तिक ग्रुप भी चलता रहा...

ग्रुप से निकले दो लोगों के मैसेज, एक खुद निकले, दूसरे को निकालना पड़ा ; मैसेज मुझे भेजे गए हैं लेकि कुछ आरोप लगाए हैं तो सोचा आप सबको बता दूं---
(जवाब जितना ज़रुरी होगा, कमेंट्स् में लगा दूंगा।)

Praveen Kumar Pathak
मुझे दुख है कि आपका यह group नास्तिक The Atheist अभी परिपक्व नहीं हुआ है। जहाँ नफ़रत और अपशब्दों की भाषा में बात की जाए, ऐसे group से अलविदा।

Vhw Baagee
हहहह्हहहहहहाहा....ग्रोवर साहब कुछ भी हो आप भी पाखंडी ही निकले.....शब्दों को चाशनी में लपेट कर पेश करने वाले.....हहहहहहहहाहा.....एक बागी को ब्लोक करना आपकी मानसिकता यही साबित करती है.........शिकायत कमजोर लोग किया करते है, और बागी कहीं से भी कमजोर नहीं है, तुम्हे भी चापलूसों की फ़ौज पसंद है.......हहहहहहह्हहहहाहा...दिल पर ना ले.......बागी, तो बागी ही रहेगा.....एकदम बेबाकी से लिखने वाला.....जरूरत से ज्यादा सभ्य होने का दिखावा करने वाला भी समाज के लिए घातक होता है, और उसमे के तुम हो........बाय फिर मिलेंगे.....तुम भी बागी को याद रखोगे कि बागी भी टकरा था, जिसने मेरे जमीर को हिला कर रख दिया था.

Vhw Baagee
अगर हिम्मत हो तो बागी के इस मैसेज का जवाब जरुर देना.......हहहहहहहहहहहह्हा........बाकी मै जानता हूँ तुम मुर्दों में से हो. जो सिर्फ चापलूसों की फ़ौज को पसंद करता है.....मैंने आपके कई कमेन्ट और पोस्ट देखि है.....उनसे तो यही मालूम पड़ता है.........बाय मिस्टर ग्रोवर.

Sanjay Grover 
पाठक जी, ख़ुद ही छोड़कर गए। परिपक्वता की क्या बात करें, वे एक पुस्तकविशेष में से लेकर उद्धरण चेपे जा रहे थे जिनमें कोई तार्किकता और नयापन नहीं था, फिर भी एक बार भी उन्हें नहीं टोका, इसे अपरिपक्वता ही समझ लें। दूसरे, अगर उन्हें गैम्बलर स्मृति में नफ़रत दिखाई दे रही थी तो हज़ारों सालों से जो मनु-स्मृति चली आ रही है, उसपर भी कुछ कहना चाहिए था। मुझे नहीं मालूम गैम्बलर साहब कौन हैं, मगर उन्होंने सिर्फ़ दो-तीन किस्तें लगाईं थीं, वो बिलकुल उसी अंदाज़ में थी जैसा कि दीपा अग्रवाल ने मनु स्मृति के कुछ अंश लगाए थे। जब हज़ारों सालों से उस स्मृति से नफ़रत नहीं फ़ैली तो तीन दिन और तीन क़िस्तों से इस स्मृति से कैसे फैल जाएगी !

Sanjay Grover 
बाग़ी साहब या तो कुछ सुभाषित (सदा सत्य बोलो) टाइप के पोस्ट कर रहे थे। या फिर एक-दो नास्तिकता से संबंधित पोस्ट लगाईं तो उनमें तर्क कम ग़ाली-ग़लौच ज़्यादा थी। आयडेंटिटी छुपाकर ग़ाली-गलौच करना उन्हें बग़ावत लगती होगी। मुझे तो ठीक से मालूम भी नहीं कि बग़ाबत होती क्या है!? मैंने तो ग्रुप शुरु किया कि एक प्रयास करके देखना चाहिए, शायद हमारा प्रयास कुछ लोगों की सोच बदलने में काम आ जाए।

और यह झूठ है कि मैंने उन्हें ब्लॉक किया है। वैसे मैं कभी-कभी करता हूं, मगर इन्हे अभी तक नहीं किया था।

अगर किसीका उत्साह बढ़ाना चापलूसी है, तो चापलूसी की शुरुआत तो इस ग्रुप में मैंने की। सुधीर कुमार जाटव जी, किरन सागर सिंह जी और दूसरे लोगों की तारीफ़ मैंने की। आप चाहें तो मुझे इन सब का चमचा कह सकते हैं। वैसे न तो ये लोग किसी ऐसे पद या स्थिति में है और न मैं कि हम एक-दूसरे की चमचागिरी करें। अपनी आदत तो मुझे मालूम है, मैंने फ़ेसबुक पर जिन भी लोगों की अबतक तारीफ़ की है उनमें आपके या पारंपरिक नज़रिए से हैसियतदार सिर्फ़ उदयप्रकाश हैं। मेरी आदत है कि मैं किसीका पद, हैसियत, सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, शिक्षा आदि देखे बिना सिर्फ़ विचार के और साहस के आधार पर किसीकी भी तारीफ़ करता हूं, प्रोत्साहन दे देता हूं और मैं यह करता रहूंगा। जहां तक मुझे याद है मुझसे काफ़ी छोटी उम्र के मेरे मित्र अंजुले के बेबाक़ स्टेटसों पर उनकी दो-तीन साल पहले ही अच्छी-ख़ासी तारीफ़ कर दी थी। आजकल वे ऐसा नहीं लिख रहे तो नहीं भी कर रहा।

फिर आप तो क्या ग़ज़ब के बाग़ी है, आप क्या किसी टुच्चे-मुच्चे ग्रुप के मोहताज़ हैं! इससे पहले भी तो कहीं क्रांति कर ही रहे होंगे! पूरा इंटरनेट और फ़ेसबुक खुला पड़ा है क्रांति वगैरह के लिए। लात मारिए हमें और खुले में शुरु हो जाईए।


-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)

4 August 2013

अगर सभी कहने लगें कि दुनिया को हमारी लिखी क़िताब के हिसाब से चलाओ तो

ऐसा कई बार होता है कि बहस के दौरान कुछ लोग कहते हैं कि पहले फ़लां-फ़लां क़िताब पढ़के आओ फ़िर बात करना। ऐसा कहने की एक वजह यह होती है कि इन लोगों का अकसर चिंतन से वास्ता नहीं होता, पढ़ी-पढ़ाई, संुनी-सुनाई बातों को ही ये लोग बतौर तर्क ठेलते रहते हैं। जैसे ही कोई नया सवाल सामने आता है ये लोग घबरा जाते हैं और ‘यह पढ़ो‘, ‘वह पढ़ो’ करने लगते हैं। बचपन में हम देखते कि जब कोई कमज़ोर लड़का किसी ताक़तवर से पंगा ले लेता और हारने लगता तो वह ‘छोड़ूंगा नहीं, कल चाचा को बुलाके लाऊंगा’, ‘साले, तू जानता नहीं है, फ़लां पहलवान मेरा दोस्त है’, ‘मेरे मामा थानेदार हैं......’ जैसी घुड़कियां देने लगता। यह ‘फ़लां क़िताब पढ़के आओ’ भी कुछ-कुछ ऐसी ही हरकत लगती है।

मैं अपनी ज़िंदगी उस आदमी की लिखी क़िताब के हिसाब से चलाऊं!! क्यों चलाऊं? जिसे पसंद है वे पढ़ें, मानें, कौन मना करता है!? मगर मैं क्यों? मेरा क्या लेना?

दूसरी बात(अगर कोई कथित धर्मग्रंथ पढ़ने की सलाह दे), किसीने पांच-दस हज़ार साल पहले कोई क़िताब लिखी, उससे मेरा क्या लेना-देना!? क्या मेरे से पूछके लिखी? क्या लिखते समय किसी बात पर मेरी सलाह ली? पता नहीं कौन आदमी था, क्या स्वभाव था, किससे खुंदक खाता था, किसपे अंधश्रद्धा रखता था? और मैं अपनी ज़िंदगी उस आदमी की लिखी क़िताब के हिसाब से चलाऊं!! क्यों चलाऊं? जिसे पसंद है वे पढ़ें, मानें, कौन मना करता है!? मगर मैं क्यों? मेरा क्या लेना? 

दुनिया-भर में न जाने कितने लोग क़िताब लिखते हैं, मैं भी लिखता हूं। अगर सभी कहने लगें कि दुनिया को हमारी लिखी क़िताब के हिसाब से चलाओ तो!? फिर तो मुश्क़िल खड़ी हो जाएगी! कौन लेखक कहेगा कि उसकी क़िताब महत्वपूर्ण नहीं है, कालजयी नहीं है, समाज को दिशा देनेवाली नहीं है, नीतिनिर्धारक नहीं है, मन-मस्तिष्क को मथ देनेवाली नहीं है? कोई कहेगा!?

एक सभ्य और लोकतांत्रिक दुनिया में इस तरह की बातें ज़्यादा दिन नहीं चल सकतीं।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
19 May 2013

यही सफ़लता है ?

अगर आपका साहित्य और पत्रकारिता में ज़रा-सी भी रुचि या लगाव रहा है तो यह कोई दूर की बात नहीं कि आपको भी किन्हीं ऐसे लोगों के उदाहरण याद आ जाएं जो किन्हीं नास्तिक और प्रगतिशील विचारधाराओं से जुड़े रहे और बाद में प्रचलित अर्थों में सफ़ल भी हो गए। किसीकी संपादकी अच्छी चल गई, कोई चैनल का मालिक हुआ, किसीकी वेबसाइट हिट हो गयी, किसीका और कुछ हो गया। मगर सोचने की बात यह है कि इस तथाकथित सफ़लता के बाद वे कर क्या रहे हैं !? कहीं वे अपनी पत्रिका में पंचांग तो नहीं छाप रहे ? कहीं वे अपने चैनल पर किसीको भगवान तो नहीं बना रहे ? कहीं वे अपने ही जैसे सफ़ल किसी अभिनेता से उसीके बताए सवाल तो नहीं पूछ रहे ? कहीं उन्होंने कमाई के चक्कर में झूठे भविष्यवक्ता तो नहीं बिठा रखे ?

सफ़लता मतलब अपना स्वभाव छोड़कर दूसरों जैसे हो जाना ? क्या सफ़लता आदमी को डरपोक बनाने के लिए होती है कि आदमी ख़ुलकर वह बात भी न कह सके जो वह तब ज़्यादा आसानी से कह सकता था जब असफ़ल था ? यह सफ़लता है ? क्या सफ़लता इस बात की हिम्मत देने के लिए होती है कि आप ख़ुलकर झूठ बोल सकें ?

आगे सोचने की बात यह है कि क्या यह सफ़लता है ? यही सफ़लता है ? सफ़लता मतलब अपना स्वभाव छोड़कर दूसरों जैसे हो जाना ? क्या सफ़लता आदमी को डरपोक बनाने के लिए होती है कि आदमी ख़ुलकर वह बात भी न कह सके जो वह तब ज़्यादा आसानी से कह सकता था जब असफ़ल था ? यह सफ़लता है ? क्या सफ़लता इस बात की हिम्मत देने के लिए होती है कि आप ख़ुलकर झूठ बोल सकें ?

अगर कोई कलका नास्तिक ‘सफ़ल’ होने के बाद आज किसी तथाकथित भगवान का प्रचार कर रहा है तो एक बात बिलकुल साफ़ है ; या तो वह नास्तिक था ही नहीं, किसी मजबूरी, किसी चालाकी के तहत हो गया था, या फ़िर अगर नास्तिक था तो सफ़ल होने के बाद या सफ़ल होते-होते, वह या तो डर गया या कहीं एडजस्ट कर गया। और इतना भी क्या एडजस्ट करना कि आप, आप ही न रहो !?

कुछ भी कर-कराके, जोड़-तोड़ करके, बस पैसे और नाम जोड़ लेना क्या वाक़ई बहुत बड़ी बात है ?

यह सफ़लता है कि असफ़लता !?

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
1 December 2013

स्वस्थ शरीर में बेईमान दिमाग़!

बचपन से लेकर जवानी तक एक वाक्य से अकसर सामना होता रहा-‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है’। लेकिन स्वस्थ शरीर वालों की बातें और क्रिया-कलाप देखकर मन यह मानने को कभी राज़ी न हुआ। उस वक्त चूंकि स्वास्थ्य ज़रा-ज़रा सी बात पर ख़राब हो जाया करता था सो यह भी लगता कि कहीं यह स्वस्थ लोगों से मेरी चिढ़ या खीज तो नहीं है!? लेकिन विचार परिपक्व होते-होते यह बिलकुल ही साफ़ हो गया कि जड़ और यथास्थितिवादी समाजों में स्वस्थ और पढ़े लिखे होने से चीज़ों को जोड़कर देखना अत्यंत ख़तरनाक है। फ़िर तो कहीं-कहीं, कभी-कभी स्वस्थ मस्तिष्क तो क्या मस्तिष्क के होने पर भी शंका होने लगी।

बचपन से लेकर जवानी तक एक वाक्य से अकसर सामना होता रहा-‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है’। लेकिन स्वस्थ शरीर वालों की बातें और क्रिया-कलाप देखकर मन यह मानने को कभी राज़ी न हुआ। उस वक्त चूंकि स्वास्थ्य ज़रा-ज़रा सी बात पर ख़राब हो जाया करता था सो यह भी लगता कि कहीं यह स्वस्थ लोगों से मेरी चिढ़ या खीज तो नहीं है!?

नास्तिकता कोई आसान विषय नहीं है। इस ग्रुप को थोड़े ही दिन हुए हैं पर यहां कुछ उपलब्धियां भी हुईं हैं। कम-अज़-कम मेरे लिए व्यक्तिगत रुप से तो हैं ही। सुधीर कुमार जाटव और किरनपाल सिंह जैसे हमारे मित्रों के सशक्त तर्क और व्यंग्यपूर्ण भाषा ‘मेरिट’ की पुरानी धांधलेबाज़ स्थापनाओं को साफ़-साफ़ झुठला रहे हैं, कितने ही नए नास्तिक मित्रों से मैं यहां परिचित हुआ हूं। लेकिन हमारा समाज अभी भी नए को स्वीकार करने का अभ्यस्त नहीं हुआ है। तिस पर इंटरनेट के आगमन ने पुराने धाकड़ों के लिए हालात कुछ ख़राब कर दिए हैं। लोग यहां विचार पर ध्यान देने लगे हैं, पद-पदवियां-सामाजिक स्टेटस आदि सब अब पीछे खिसक रहे हैं। ऐसे में तरह-तरह की अजीबो-ग़रीब स्थितियां सामने आएंगी ही आएंगी।

मैं यह तो नहीं कहूंगा कि मेरी बात सौ प्रतिशत सच है पर कई बार देखा है कि जिन लोगों की नीयत ठीक होती है वे अपनी बात को समझाने के लिए तर्क रखते हैं, तथ्य देते हैं, उदाहरण दे-देकर तरह-तरह से अपनी बात समझाने की कोशिश करते हैं। इसके विपरीत जो लोग जेनुइन नहीं होते वे तरह-तरह से डराते हैं, क्लिष्ट से क्लिष्ट भाषा बोलेंगे, संस्कृतनुमा हिंदी बोलेंगे, बड़े-पुराने विद्वानों के उद्धरण देंगे, तर्क से नहीं क़िताबों के हवाले से ख़ुदको सही ठहराने की कोशिश करेंगे, कई बार तो बीच-बीच में, इशारों-इशारों में छोटे-मोटे लालच भी देंगे, फिर भी कुछ नहीं बचेगा तो ‘अकेले पड़ जाओगे’ कहकर डराना शुरु कर देंगे। कई बार लगता है कि बहस इनकी मजबूरी है, करना ये कुछ और ही चाहते हैं।

बहरहाल नास्तिकता अपनी नयी और अलग़ सोच-समझ से हर स्थिति को संभालेगी और निपटेगी।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
8 July 2013

बच्चे के पक्ष में नास्तिकता

नास्तिकता पर बात करते हुए हिंदू-मुस्लिम की बात क्यों आ जाती है? और यह एकतरफ़ा नहीं है, कथित मुस्लिम कट्टरता पर कोई कुछ कहे तो कुछ लोग संघी घोषित करने लगते हैं, कथित हिंदू रीति-रिवाजों पर कहे तो कुछ दूसरे आरोप और आक्षेप लगने लगते हैं। 

दूसरों के बारे में दूसरे बताएंगे, मैं तो अपने बारे में बता सकता हूं कि मेरी नास्तिकता किसी धर्म के भीतर से नहीं आई। ईश्वर मेरे लिए निहायत अजीब-सी चीज़ है, इसके होने का कोई भी मतलब मेरी समझ में नहीं आता। और मैं देखता हूं कि ईश्वर, धर्म और उससे जुड़ी अनेकानेक धारणाएं और मान्यताएं, कर्मकांड, रीति-रिवाज मेरे जैसे लोगों पर, किसी न किसी रुप में, जबरन थोपे जाते हैं या ऐसी कोशिश की जाती है। मुझे यह कष्टप्रद, अन्यायपूर्ण, अतार्किक और तानाशाहीपूर्ण लगता है। इसीलिए मैं कथित ईश्वर और कथित धर्म के इस रुप का विरोध करता हूं।

मेरे लिए यह अत्यंत आश्चर्य की बात है कि किस तरह एक मासूम बच्चे को दुनिया में ले आया जाता है, बिना उससे कुछ पूछे और बताए, और बाद में उसपर तरह-तरह की चीज़ें थोपने की कोशिश की जाती है, जैसे उसे पैदा करके उसपे अहसान किया गया हो। जबकि उसके पैदा होने में उसके सिवाय बाक़ी सभी संबद्ध लोगों की सहमति होती है, बस उसीकी नहीं होती। मेरी समझ में तो यह आपराधिक कृत्य है और इसके खि़लाफ़ क़ानून बनना चाहिए। 


मेरे लिए यह अत्यंत आश्चर्य की बात है कि किस तरह एक मासूम बच्चे को दुनिया में ले आया जाता है, बिना उससे कुछ पूछे और बताए, और बाद में उसपर तरह-तरह की चीज़ें थोपने की कोशिश की जाती है, जैसे उसे पैदा करके उसपे अहसान किया गया हो। जबकि उसके पैदा होने में उसके सिवाय बाक़ी सभी संबद्ध लोगों की सहमति होती है, बस उसीकी नहीं होती। मेरी समझ में तो यह आपराधिक कृत्य है और इसके खि़लाफ़ क़ानून बनना चाहिए। 

मेरे जैसे कुछ दूसरे लोग भी होंगे, वे भी मेरी तरह परेशान होते होंगे, होते ही हैं, यह बात भी मुझे नास्तिकता के पक्ष में लिखने को प्रेरित करती है। इससे भी आगे, मैं यह मानता हूं कि अगर आप दुनिया में अपनी तरह के बिलकुल अकेले भी हैं और आपको लगता है कि आप तार्किक हैं, सही हैं, तो आपको अपनी बात रखते रहना चाहिए, इसमें मुझे कुछ भी ग़लत नहीं लगता।

अब बताईए, इसमें हिंदू-मुसलमान की बात कहां से आती है!?

आप चाहें तो आप भी नास्तिकता के अपने कारणों के साथ अपनी बात यहां रख सकते हैं।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
29 June 2013


दूसरी तरह की सामाजिकता

कम-अज़-कम दो तरह की सामाजिकता समझ में आती है-एक जो सीखी हुई या रटी हुई सामाजिकता है जिसमें हमारे माता-पिता, क़िताबों, गुरुओं, बुज़ुर्गों ने जो सिखा दिया है उसे हम किसी कर्मकांड की तरह बिना सोचे-समझे निभाते जाते हैं, बिना यह जानने की कोशिश किए कि इससे वास्तव में समाज का कुछ भला भी हो रहा है या उल्टे कहीं कुछ बुरा तो नहीं हो रहा! दूसरी जो नास्तिक की सामाजिकता कही जा सकती है, रोज़ाना, घटनाओं के आधार पर बिना पूर्वाग्रहों के, अपनी समझ से तय की जानेवाली सामाजिकता। बिना यह जाने कि सामनेवाला मेरा रिश्तेदार, दोस्त या जानकार है या नहीं, इससे मुझे कोई फ़ायदा होगा या नहीं, मैं सामनेवाले की मदद कर दूं। पहली सामाजिकता के अनुसार आप सिर्फ़ उन लोगों के काम आएंगे जिनके बारे में आपके माता-पिता, आपके शास्त्रों ने तय कर दिया है। इसके तहत आपको एक ऐसे परिचित की ऐसी शवयात्रा में जाना ज़रुरी लगेगा जिसमें बड़ी मात्रा में लोग आनेवालें हैं और जहां आपके न जाने से शायद रत्ती-भर भी फ़र्क नहीं पड़नेवाला मगर आपका वहां होना ‘गिना’ ज़रुर जाएगा। दूसरी सामाजिकता में आप एक ऐसे आदमी की मदद को भी खड़े हो जाएंगे जिससे आप पहले कभी मिले भी नहीं मगर आपको लगता है कि इसे आपकी सचमुच ज़रुरत है, यह अकेला है या सच्चा है और आपके होने मात्र से इसे हौसला मिलेगा। वहां आप यह नहीं देखेंगे कि वहां आपको कुछ मिलेगा कि नहीं, कहीं आपका कुछ नुकसान तो नहीं हो जाएगा।

समाज कुछ चीज़ें तय कर देता है कि यह अच्छाई है, यह बुराई है, इस तरह का आदमी सामाजिक है, उस तरह का असामाजिक है, इस तरह के लोगों के सामने फ़लां तरह की शारीरिक क्रियाएं करना या पोज़ बनाना आदर है और न बनाना निरादर है.........

पहली सामाजिकता के अनुसार आप सिर्फ़ उन लोगों के काम आएंगे जिनके बारे में आपके माता-पिता, आपके शास्त्रों ने तय कर दिया है। इसके तहत आपको एक ऐसे परिचित की ऐसी शवयात्रा में जाना ज़रुरी लगेगा जिसमें बड़ी मात्रा में लोग आनेवालें हैं और जहां आपके न जाने से शायद रत्ती-भर भी फ़र्क नहीं पड़नेवाला मगर आपका वहां होना ‘गिना’ ज़रुर जाएगा।

धीरे-धीरे ये चीज़ें कर्मकांडों फ़िर रुढ़ियों में बदल जातीं हैं और इनसे ज़्यादा लाभ औसत बुद्धि के लोगों को होता है जो ख़ुदका दिमाग़ लगाकर सोचने-समझने में यक़ीन नहीं रखते। उनसे भी ज़्यादा लाभ पाखंडियों को होता है। जहां यह मान लिया गया हो कि सुबह चार बजे मंदिर जानेवाला आदमी अच्छा आदमी होता है तो ऐसे में बुरे आदमी का काम बहुत आसान हो जाता है। जो भी उसे सुबह मंदिर जाते देखेगा, अच्छा आदमी मानेगा। उसके बाद वह दिन भर चाहे किसी ग़रीब को पीटे, पैसे मारे, बिल न चुकाए, कुछ भी करता फिरे।

इस सबमें सबसे ज़्यादा नुकसान एक तो यह होता है कि जहां सब कुछ पहले से तय होता है वहां मानव मस्तिष्क के प्रयोग और विकास की संभावनाएं क्षीण होती जातीं हैं। नए विचार के लिए कोई रास्ता नहीं बचता। दूसरा, अच्छा कहलाने के लिए आपको कोई भी अच्छा काम करना और ख़ासकर जोखि़म-भरा काम करना ज़रुरी नहीं होता बल्कि कुछ कर्मकांड ही करने होते हैं जो कि अपेक्षाकृत निहायत आसान और जोखि़मरहित होते हैं। इसके विपरीत दूसरे तरह की सामाजिकता में आपको बात-बात पर आपको विरोध सहना पड़ सकता है, नुकसान उठाना पड़ सकता है, अकेला हो जाना पड़ सकता है। चूंकि आपकी बात नयी है, अलग़ है तो आपको उसके पक्ष में बारम्बार तर्क और उदाहरण देने पड़ सकते हैं।

इसके अलावा कोई तीसरे तरह की सामाजिकता समझ में आती है तो ज़रुर यहां बताएं।



-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
7 July 2013

जुड़े हुए को तोड़ के फिर जोड़ने की बधाई

आप ख़रगोश को देखेंगे और पहचान जाएंगे कि ख़रगोश है। बैल दिखे, घोड़ा दिखे, कबूतर दिखे, रीछ दिखे, सबको आसानी से पहचान लेंगे। उनकी कुछ आदतें हैं, रंग-रुप है, स्वभाव है, जो सामने है ; थोड़ा-बहुत फ़र्क होगा, लेकिन पहचान लेंगे। और आदमी को भी पहचान लेंगे, वह भी साफ़ दिखाई पड़ता है कि यह जो सामने से चला आ रहा है, आदमी है। स्त्री-पुरुष भी पहचान लेंगे। लेकिन आदमी के अलग-अलग धर्म, जातियां, नागरिकता !? अगर उनकी कहीं लिखा-पढ़ी न हो रखी हो, कोई प्रतीक न हो और वह ख़ुद न बताएं तो क्या है कोई ऐसा तरीक़ा कि कोई बता दे कि यह किस धर्म, किस जाति का आदमी है!? साइंस के पास भी ऐसा कोई टैस्ट नहीं है। ऐसा इसलिए है कि शेर वास्तविकता है, बिल्ली वास्तविकता है, आदमी वास्तविकता है, स्त्री-पुरुष वास्तविकता हैं मगर धर्म और जातियां या तो गढ़े गए हैं या गढ़ गए हैं। इन्हें आप पहचानते हैं कुछ बाहरी चीज़ों से, कुछ प्रतीकों से, कुछ तीज-त्यौहारों से, कुछ कपड़ों से, कुछ रीति-रिवाजों से....।

 मगर आप देखते हैं कि यह भी पूरा सच नहीं है। आप देखते हैं कि अगर किसी कथित धर्म का प्रतीक दाढ़ी, मूंछ, सर के बाल या ऐसा ही कुछ और है तो कभी आप यह भी देखते हैं कि कोई उस कथित धर्म का कट्टर विरोधी भी ठीक वैसे ही प्रतीक धारण किए होता है। मुझे इसमें कोई हैरानी नहीं होती। क्योंकि थोपी गई चीज़ें थोपी हुई ही रहेंगी। कभी भी आदमी का मन उससे उकता सकता है। 

कई जगह पढ़ा और सुना था कि हर स्त्री एक दिन फ़लां रंग का जोड़ा पहनना चाहती है, वहां अर्थ यह था कि शादी करना चाहती है। मगर फ़िर कहानियों में, फ़िल्मों में और फ़िर जीवन में देखा कि कुछ दूसरे धर्मों/संप्रदायों की स्त्रियां शादी के वक्त किसी और रंग के कपड़े पहने हुए हैं। समझ में आया कि यह बनाई हुई बात है, ज़रुरी नहीं कि यह स्त्रियों का स्वभाव हो। अब तो यह धारणा भी टूट रही है कि हर स्त्री शादी करना चाहती है, एक की होके रहना चाहती है, चूल्हा-चक्की करना चाहती है, बच्चे पैदा करना चाहती है।
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है।

कोई तीज-त्यौहार पर किसीको बधाई दे, ज़रुर दे, अच्छी बात है, दूसरे को क्या एतराज़ हो सकता है? मैंने तो कभी आपत्ति की नहीं। मैं तो आपत्ति करुंगा तो यह कहूंगा कि भाई जो बधाई न दे, उसे मूर्ख मत समझो/कहो। हो सकता है उसकी इंसानियत की समझ आपसे ज़्यादा गहरी हो। हो सकता उसकी बीमारी की समझ आपसे अलग हो, हो सकता है वह उस कुंए में कभी गया ही न हो जिससे बाहर निकलने के तरीक़े आप बता रहे हैं।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
9 August 2013