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Tuesday, 30 January 2018

शामिल सोच

मैं एक परिचित को बता रहा था कि सोशल मीडिया पर कोई नयी बात लिखो तो कैसे लोग पहले यह कहकर विरोध करते हैं कि ‘फ़लां आदमी बीमार मानसिकता रखता है’, ‘फ़लां आदमी ज़हर फैला रहा है’, ‘फ़लां आदमी निगेटिव सोच का है’. फिर उस आदमी को पर्याप्त बदनाम करके कुछ अरसे बाद वही बात अपने नाम से लिखके या बताके नये का क्रेडिट ले लेते हैं।

परिचित ने कहा कि आपको भी घर से निकलना चाहिए, घर से नहीं निकलोगे तो लोग तो यहीं करेंगे.....


मुझको यह तर्क/सोच बिलकुल ऐसे ही लगी जैसे लड़कियां छोटे कपड़े पहनेंगी तो बलात्कार तो होगा ही ; फ़लां लड़की तो पहले ही वेश्या है, मैंने ज़रा छेड़ दिया तो क्या हो गया ; लड़की सीधी है तो लोग तो छेड़ेंगे ; बलात्कार के बारे में बताओगे तो बदनामी तुम्हारी ही होगी ; सब नाजायज़ कमरे बना रहे हैं तो तुम कब तक नहीं बनाओगे.....

आपको क्या लगता है ?

-संजय ग्रोवर
30-01-2018

Tuesday, 8 March 2016

आज़ाद ग़ुलामों की शर्मनाक़ मुश्क़िलें

जब आप किसीको ग़ुलाम बनाते हैं तो आपकी अपनी आज़ादी भी ख़तरे में पड़ जाती है। क्योंकि दूसरे को ग़ुलाम बनाने के लिए कुछ न कुछ झूठ बोलना पड़ता है, कोई न कोई षड्यंत्र रचना पड़ना है। बेवजह कोई क्यों आपकी ग़ुलामी करेगा, क्यों ख़ुदको आपसे छोटा मानेगा, क्यों आपसे दबेगा !? सो आपको झूठ बोलना पड़ता है, किसी जाति को बड़ा बनाना पड़ाता है, किसी पद-प्रतिष्ठा से डराना पड़ता है, मां-बापके नाम का, वंश का ख़ौफ़ दिखाना पड़ता है, किसी संस्था, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना पड़ता है, किसीको तथाकथित स्वर्ग में पहुंचा देने का झूठा भरोसा देना पड़ता है, ऐसे ही तरह-तरह के अन्य उपाय करने पड़ते हैं।

आज की बदलती परिस्थितियों में ज़्यादातर लोग जानते लगते हैं कि ये सब भद्दी तरक़ीबें काम भी करतीं हैं। स्त्रियां तो शारीरिक रुप से थोड़ी हल्की थीं भी लेकिन बनानेवालों ने लैंगिक विकलांगों जो कि शारीरिक बल में अकसर पुरुषों से मजबूत दिखाई पड़ते हैं, को भी मानसिक रुप से कमज़ोर करके या तो ग़ुलाम बनाया या हाशिए पर पहुंचा दिया।

लेकिन जब आप षड्यंत्र करके दूसरों को ग़ुलाम/हीन/छोटा/नीच ठहराते या बनाते हैं तो आपके लिए यह मुश्क़िल खड़ी हो जाती है कि आपको आगे के लिए इन झूठों/बेईमानियों को छुपाए रखने का भी इंतेज़ाम करना पड़ता है। आपको बारह महीने चौबीस घंटे डर लगा रहता है कि कहीं पोल खुल न जाए। जितने बड़े दायरे में आपने झूठ फ़ैलाया है उतने ही बड़े स्तर पर उसे छुपाए रखने के भी जुगाड़ करने पड़ेंगे, नेटवर्क बनाना पड़ेगा, आदमी लगाने पड़ेंगे। आपको लोगों में फूट डाले रखने के नये-नये तरीक़े ढूंढने पड़ते हैं, अफ़वाहें फ़ैलाने के लिए आदमी चाहिए पड़ेंगे। इससे भी बड़ी बात कि क़दम-क़दम पर सतर्क रहना पड़ेगा, लोगों की निगरानी करनी या करवानी पड़ेगी क्योंकि आपसे ज़्यादा कौन जानता है कि ज़रा भी कोई व्यक्ति मानसिक रुप से जागृत हुआ, उसमें आत्मविश्वास आया कि आपकी नक़ली महानता और श्रेष्ठता की चूलें हिल जाएंगीं। मैं समझता हूं कि षड्यंत्रकारी को दूसरों के मुक़ाबले अतिरिक्त रुप से ऐक्टिव रहना पड़ता होगा। उसका दिन का चैन और रात की नींद आसान नहीं हो सकती। एक आंदोलन का नक़लीपन छुपाने के लिए उसे हज़ार तरह के नये नक़ली आंदोलन खड़े करने पड़ सकते हैं।


इस सबके मुक़ाबले वह आदमी जो न तो किसीका ग़ुलाम है, न किसीको ग़ुलाम बनाने का ख़्वाहिशमंद है, बेहतर ज़िंदगी बिता सकता है बशर्ते वह मौत के डर से मुक्त हो जाए और हवाई मान्यताओं (जैसे प्रतिष्ठा, जाति, वंश, बदनामी, लोकप्रियता, इज़्ज़त....आदि-आदि) की चिंता करना छोड़ दे।


-संजय ग्रोवर
08-03-2016