Saturday 20 April 2019

कबीरदास

यह अद्भुत है।

कबीरदास जो जिंदग़ी-भर अंधविश्वासों का विरोध करते रहे उनकी जब मृत्यु हुई तो उनके हिंदू और मुस्लिम शिष्य उनका अंतिम संस्कार अपने-अपने तरीक़े से करने के लिए लड़ने लगे। जब उन्होंने लाश पर से चादर हटाई तो नीचे से फूल निकल आए जिन्हें शिष्यों ने आधा-आधा बांट लिया।

अंधविश्वास का प्रकट विरोध करनेवाले व्यक्ति के अंत की कहानी को भी एक अंधविश्वास में बदल दिया गया है।

अद्भुत् हैं हमारी क्षमताएं और नीयतें!

July 16, 2014


कबीरदास के बारे में हर कहीं लिखा है कि वे अंधविश्वासों का प्रकट विरोध करते थे।
मगर उन्हीं क़िताबों में लिखा है कि जब वे मरे तो उनकी लाश की जगह फूल निकले।

गांधीजी के बारे में हर जगह बताया गया है कि वे अहिंसा में विश्वास करते थे मगर वही स्रोत यह भी कहते हैं कि गीता उनकी प्रिय पुस्तक थी।

बुद्ध के बारे में कहा गया कि वे मूर्त्तिपूजा और भगवानियत के विरोधी थे मगर आज जगह-जगह उनकी मूर्त्तियां हैं और कई लोग उन्हें भगवान बुद्ध कहते हैं।

क्या यह महज़ संयोग है ?

या फ़िर प्रगतिशीलता की आड़ में वैसा ही घालमेल है जैसा आजकल कई जगह देखने को मिल रहा है ?

December 26, 2014

-संजय ग्रोवर



Thursday 18 April 2019

दुष्प्रचारवादियों को इतना ही बताना चाहता हूं

कई बार सोचता हूं कि अगर मैं भी कभी जातिवादी, संप्रदायवादी, अंथ-पंथवादी, अगड़मवादी, बगड़मवादी होना चाहूं तो मेरे पास भी कोई ‘ढंग की उपलब्धियां’ हैं क्या! दूर-दूर तक कुछ नज़र नहीं आता। न कभी किसीको इसलिए फ़्रेंड-रिक्वेस्ट भेजी कि वो ग्रोवर है, न बाक़ी ज़िंदग़ी में किसीसे इसलिए संबंध बनाए। संबंध क्या यह ख़्याल तक नहीं आया कि ऐसा भी सोचना चाहिए। इंटरनेट पर आए तो यह ज़रुर सोचा कि कुछ प्रगतिशील और नास्तिक मित्र ढूंढे जाएं, ग्रोवर का तो कहीं सपना तक नहीं आया। अब जो प्रगतिशील और नास्तिक दरअसल वेदवादी, क़ुरानवादी, गीतावादी ब्राहमणवादी, अगड़म-बगड़मवादी निकले तो यह उनकी समस्या है, इसके लिए मैं क्यों परेशान होता फिरुं !? अपने तो भेजे में कभी यह ख़्याल तक नहीं आया कि पता किया जाए कि ग्रोवर या पंजाबी होते कौन हैं। इस पहचान का तोहफ़ा भी जब दिया, दूसरों ने ही दिया। अपने लिए तो साफ़ है कि जिन शब्दों का मतलब अपने लिए औपचारिकता से ज़्यादा है ही नहीं, उसमें ढूंढने को बचता ही क्या है!? कोई ग्रुप बनाते समय भी यह ख़्याल फटका तक नहीं कि इनमें ढूंढ-ढूंढकर ग्रोवरों और पंजाबियों को शामिल किया जाए। न हीं कुछ लिखते या करते समय यह जताने का पवित्र विचार आया कि देखो, यह मैंने इसलिए अच्छा या बुरा किया, कर दिखाया कि मैं ग्रोवर या पंजाबी हूं।

इसके विपरीत दुष्प्रचारवादियों के मानसिक हालात उनके एक-एक क़रतब में दिखाई पड़ते हैं। उनकी मित्रता-सूचियां, उनके ग्रुप, उनको लाइक करनेवाले, त्यौहारों-रीति-रिवाजों-प्रतीकों, खिलाड़ियों-आयकनों-महापुरुषों-अभिनेताओं की सफ़लता(!) आदि-आदि के नाम पर अपनी पहचान और गर्व जताने की उनकी ललक.....सब कुछ इतना स्पष्ट होता है कि ज़्यादा बताने की ज़रुरत ही नहीं है। यहां तक कि वे दूसरे ग्रुपों में भी अपने गुट बनाकर अपनी मानसिकता बता देते हैं, छुपा नहीं पाते। भले वे ये सब परंपरा के नाम पर करें या प्रगतिशीलता के नाम पर, आजकल लोग तुरंत पहचान भी जाते हैं।

मैं तो दुष्प्रचारवादियों को इतना ही बताना चाहता हूं कि दुष्प्रचार वे चाहे जितना करें, यह उनका स्वभाव ही है, इसी हेतु उनका जन्म हुआ है मगर वे मुझे सचमुच ही अपने जैसा जातिवादी, संप्रदायवादी, वर्णवादी, अगड़म-बगड़मवादी कभी बना पाएंगे, यह ख़्याल दिमाग़ से निकाल कर फेंक दें।

मेरे लिए नास्तिकता का क्या मतलब है, मैं इसी तरह बताता रहूंगा।


-संजय ग्रोवर
(December10, 2014 on facebook)

Wednesday 17 April 2019

ईश्वर और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया

ईश्वर के होने या न होने पर आपको इंटरनेट पर ख़ूब विचार और बहसें दिखाई देंगे। प्रिंट मीडिया में भी मुख्यधारा के पत्र-पत्रिकाएं न सही, मगर बहुत-से अन्य पत्र-पत्रिकाएं इसपर विचार चलाते रहे हैं।

मगर भारतीय फ़िल्में और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया !?

ज़ाहिर है कि इस मामले में बुरी तरह से पिछड़े हुए हैं। इनकी उपलब्धि शून्य है।

जबकि ये सबसे ज़्यादा समर्थ और सम्पन्न हैं !!

क्या वजह हो सकती है ?





-संजय ग्रोवर
(July 14, 2014 on facebook)

Thursday 11 April 2019

नास्तिकों के खि़लाफ़, भगवान के खि़लाफ़

 जो लोग भगवान को मानते हुए भी नास्तिकों के खि़लाफ़ हैं, वे भगवान के ही खि़लाफ़ हैं। क्योंकि जिस भगवान की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता वो अगर न चाहता तो नास्तिक कैसे हो सकते थे ? और अगर भगवान चाहता है कि नास्तिक पृथ्वी पर हों तो आप क्यों चाहते हैं कि वे न हों? यह तो भगवान के काम में टांग अड़ाना हुआ। आप क्या ख़ुदको भगवान से भी बड़ा मानते हैं जो उसके फ़ैसलों में ग़लतियां ढूंढ रहे हैं? हद हो गई अहंकार की !!

और अगर नास्तिक पृथ्वी पर भगवान की मर्ज़ी के बिना हैं तो साफ़ है कि सब कुछ भगवान की मर्ज़ी से नहीं होता, सब कुछ भगवान के कंट्रोल में नहीं है। भगवान ज़्यादा से ज़्यादा चाइना या अमेरिका के राष्ट्रपति जैसी हैसियत या शक्ति रखता है। क्या आप चाइना या अमेरिका के राष्ट्रपतियों/राष्ट्रप्रमुखों को भगवान मानने को तैयार हैं ? बच्चे भी जानते हैं कि सभी राष्ट्रप्रमुख आदमी ही होते हैं।

ऐसे भगवान का क्या करना जो एक पृथ्वी पर भी ठीक से नियंत्रण नहीं रख सकता!?

-संजय ग्रोवर
01-07-2014
(on facebook)

महसूस तो करो

 महसूस तो करो
मैंने उसे ख़ाली कप दिया और कहा,‘‘लो, चाय पियो।’’
वह परेशान-सा लगा, बोला, ‘‘मगर इसमें चाय कहां है, यह तो ख़ाली है!’’
‘‘चाय है, आप महसूस तो करो।’’
‘‘आज कैसी बातें कर रहे हो, मैं ऐसे मज़ाक़ के मूड में बिलकुल नहीं हूं !?’’
‘‘मज़ाक़ कैसा ? क्या ईश्वर मज़ाक़ है ? ईश्वर ने ही मुझे आदेश दिया है कि मेरे माननेवालों को बिलकुल मेरे जैसी चाय दो जिसका न कोई रंग हो, न गंध हो, न कोई आकार हो, न स्वाद हो, न पेट भरता हो, न ताज़ग़ी आती हो, न बीमारी मिटती हो.............लब्बो-लुआब यह कि जिससे कुछ भी न होता हो मगर फिर भी महसूस होती हो.....आप महसूस तो करो!’’
‘‘ईश्वर ने तुम्हे आदेश दिया, तुमसे बात की! कैसे की ?’’
‘‘जैसे तुमसे करता है।’’
‘‘छोड़ो, क्या बकवास ले बैठे........’’
‘‘ईश्वर की बात तुम्हे बकवास लगती है!? ईश्वर ने मुझसे कहा कि मुझे माननेवालों को सब कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे लोग मुझे बेहतर ढंग से महसूस करें ; वे कपड़े भी ऐसे पहनें जो दिखें या न दिखें मगर महसूस हों, वे ऐसे मकानों में रहें जिनका पता भी किसीको न दिया जा सके मगर उन्हें महसूस हो कि वे मकान में रह रहे हैं, इससे ज़्यादा से ज़्यादा लोग मुझे महसूस कर पाएंगे....ईश्वर ने मुझसे यह भी कहा कि जो चीज़ें मेरे जैसी नहीं हैं यानि कि साफ़ दिखाई पड़तीं हैं और लोगों के काम आती हैं वे सब मेरे मानने वाले मुझे न माननेवालों को दे दें क्योंकि वे महसूस नहीं कर सकते इसलिए उन्हें सचमुच की चीज़ें चाहिएं........’’
‘‘क्या अनाप-शनाप बोल रहे हो! तुम कब ईश्वर को मानते हो?’’
‘‘हां मैं नहीं मानता मगर तुम साबित करके दिखाओ कि मैं नहीं मानता.....’’
-संजय ग्रोवर
19-08-201
(ON FACEBOOK)