Sunday 18 March 2018

जेएनयू पर एक डरी हुई टिप्पणी

जेएनयूवादियों को दुआ/प्रार्थना करते देखा तो दो पुराने फ़ेसबुक स्टेटस याद आ गए-

1.
पंडित जवाहरलाल नेहरु जे एन यू के छात्र थे। यही वजह है कि उन्होंने एक प्रगतिशील विचारधारा की नींव रखी। वरना और किसी तरह यह संभव नहीं था।

02-08-2013
(on पागलखाना facebook)


2.
जेएनयू से मेरे भी कुछ मित्र आते हैं इसलिए मुझे लगा कि जेएनयू पर टिप्पणी की जा सकती है। बिना मित्रता के हमारे यहां दुश्मन पर भी कुछ लिखने की परंपरा नहीं है। परंपरा से मैं भी डरता हूं; दरअसल यह होती ही डराने के लिए है। जे एन यू की भी ज़रुर कुछ परंपराएं होंगी हांलांकि इसे परंपरा तोड़ने के लिए भी जाना जाता है। परंपरा के चक्कर में कुछ प्रगतिशील भी कई बार डरावने ढंग से नाराज़ हो जाते हैं इसलिए मैं परंपरा से दोबारा-तिबारा डरता हूं।

जेएनयू के मार्क्सवादियों का और बाहर के राष्ट्रवादियों का विरोध जगजाहिर है। मैं इनकी समानताओं पर मिनी चर्चा करुंगा। राष्ट्रवादियों के पास गंगा नदी है तो जेएनयूवादियों के पास गंगा ढाबा है। सुनने में आता है कि इस ढाबे में तपस्या करके भी कई लोग सिद्धि प्राप्त करते हैं। सुना हैं यहां भी ऐसी आध्यात्मिक गिलहरियां पाई गईं हैं जैसी रामजी के पुल बनाने के किन्हीं वर्णनों में सुनी जाती रही हैं। गंगा ढाबा भी अब लगभग एक तीर्थस्थल के रुप में मान्यता प्राप्त कर रहा है या करवाया जा रहा है। अब दर्शक बड़ी बेसब्री से किसी जमुना नाम के खोखे का इंतज़ार कर रहे हैं।

राष्ट्रवादियों के अपने देवता हैं जिनके खि़लाफ़ एक लफ्ज़ भी सुनना उन्हें गंवारा नहीं है, जेएनयूवादियों के भी अपने देवता हैं। आपको विश्वास न हो तो आप हरिशंकर परसाईं के व्यंग्य में कोई कमी बताकर देखिए। मैंने आज तक परसांई की कोई ऐसी आलोचना नहीं पढ़ी जिसमें आलोचना हो। वहां अकसर प्रशंसा को ही आलोचना माना जाता है। हांलांकि पढ़ता मैं आजकल अनपढ़ो से भी कम हूं इसलिए अपवादस्वरुप कुछ मिल जाए तो उन्हें प्रक्षिप्त/विक्षिप्त अंश (जो भी है) मानकर मुझे क्षमा कीजिएगा।

राष्ट्रवादियों की अपनी कुछ क़िताबें हैं जिन्हें आपने न पढ़ा हो तो ये आपसे बात करने को तैयार नहीं होते, जेएनयूवादी भी कई क़िताबें बहस के बीच-बीच में प्रेसक्राइब करते रहते हैं, जिन्हें न मानने पर ये भी आपसे बहुत ज़्यादा ख़ुश नहीं होते।

एक और तरह के अनुभव भी मुझे और दूसरे लोगों को दोनों टीमों के बारे में हुए हैं। कि अगर आप एक दिन किसी बात पर इनका समर्थन करो तो ये भी आपको ‘अज़ीम शायर’, भविष्य का क़ैफ़ी आज़मी, कोहली जैसा व्यंग्यकार घोषित कर देते हैं। तीन दिन बाद किसी बहस में आप इनके खि़लाफ़ कोई तर्क दे दो तो ये वहीं हाथ के हाथ आपको गोबरगणेश का तमग़ा भी प्रदान कर देते हैं। दोनों टीमों में इस तरह के परिपक्व लोग मिलते-जुलते रहते हैं।

मार्क्सवाद जेएनयू के दरवाज़े पर ही धर्मरक्षक की तरह घूमता मिल जाता होगा, ऐसी मेरी कल्पना है। भीतर मार्क्स की चलती-फिरती मूर्तियां मिलती हैं, यह मेरी फ़ैंटसी है।

बाक़ी छोटी टिप्पणी में ज़्यादा क्या कहा जाए, आप तो जानते ही हैं कि मार्क्सवाद तो क्या भारतीय संस्कृति तो ख़ुलेआम सबको अपना लेती है। इस टिप्पणी से पता लगता ही है कि जेएनयू पर भी उसका अच्छा प्रभाव है।

बाद में दफ़ना भी देती हो तो इस बारे में मेरे कोई विचार नहीं है।

मुझे परंपरा का भी ख़्याल आ गया है।

-संजय ग्रोवर
03-07-2013

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