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Tuesday, 1 January 2019

धर्म+त्यौहार=?

आप भी देख ही रहे होंगे, एक न एक न्यूज़-चैनल दिखा रहा होगा कि किस तरह त्यौहारों पर हर जगह मिलावटी मिठाईयां मिलतीं हैं जो स्वास्थ्य के लिए बेहद ख़तरनाक़ होतीं हैं। यहां क़ाबिले-ग़ौर तथ्य यह है कि सभी त्यौहार धर्म से जुड़े हैं, दुकानदार और सप्लाईकर्त्ता भी धार्मिक ही होते होंगे। मैं सोचता हूं कि किसी दुकानदार का कोई रिश्तेदार/चाचा/मामा/भतीजा/दोस्त उसकी दुकान से मिठाई लेने आ जाए तो क्या वह यह कहेगा कि भई, तुम मेरे रिश्तेदार हो, दोस्त हो, मैं किसी भी हालत में तुम्हे यह मिठाई नहीं दे सकता, तुम किसी और दुकान से ले लो।

सवाल उठता है कि धर्म आदमी को आखि़र कैसे प्रभावित करता है!?

या क्या बनाके छोड़ देता है ?

और जो क़रीबियों की चिंता न कर पाए, आम ग्राहकों की चिंता कर पाएगा, मुमकिन नहीं लगता।

सवाल उठता है कि धर्म आदमी को आखि़र कैसे प्रभावित करता है!?

या क्या बनाके छोड़ देता है ?

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
2 November 2013

Monday, 31 December 2018

जुड़े हुए को तोड़ के फिर जोड़ने की बधाई

आप ख़रगोश को देखेंगे और पहचान जाएंगे कि ख़रगोश है। बैल दिखे, घोड़ा दिखे, कबूतर दिखे, रीछ दिखे, सबको आसानी से पहचान लेंगे। उनकी कुछ आदतें हैं, रंग-रुप है, स्वभाव है, जो सामने है ; थोड़ा-बहुत फ़र्क होगा, लेकिन पहचान लेंगे। और आदमी को भी पहचान लेंगे, वह भी साफ़ दिखाई पड़ता है कि यह जो सामने से चला आ रहा है, आदमी है। स्त्री-पुरुष भी पहचान लेंगे। लेकिन आदमी के अलग-अलग धर्म, जातियां, नागरिकता !? अगर उनकी कहीं लिखा-पढ़ी न हो रखी हो, कोई प्रतीक न हो और वह ख़ुद न बताएं तो क्या है कोई ऐसा तरीक़ा कि कोई बता दे कि यह किस धर्म, किस जाति का आदमी है!? साइंस के पास भी ऐसा कोई टैस्ट नहीं है। ऐसा इसलिए है कि शेर वास्तविकता है, बिल्ली वास्तविकता है, आदमी वास्तविकता है, स्त्री-पुरुष वास्तविकता हैं मगर धर्म और जातियां या तो गढ़े गए हैं या गढ़ गए हैं। इन्हें आप पहचानते हैं कुछ बाहरी चीज़ों से, कुछ प्रतीकों से, कुछ तीज-त्यौहारों से, कुछ कपड़ों से, कुछ रीति-रिवाजों से....।

 मगर आप देखते हैं कि यह भी पूरा सच नहीं है। आप देखते हैं कि अगर किसी कथित धर्म का प्रतीक दाढ़ी, मूंछ, सर के बाल या ऐसा ही कुछ और है तो कभी आप यह भी देखते हैं कि कोई उस कथित धर्म का कट्टर विरोधी भी ठीक वैसे ही प्रतीक धारण किए होता है। मुझे इसमें कोई हैरानी नहीं होती। क्योंकि थोपी गई चीज़ें थोपी हुई ही रहेंगी। कभी भी आदमी का मन उससे उकता सकता है। 

कई जगह पढ़ा और सुना था कि हर स्त्री एक दिन फ़लां रंग का जोड़ा पहनना चाहती है, वहां अर्थ यह था कि शादी करना चाहती है। मगर फ़िर कहानियों में, फ़िल्मों में और फ़िर जीवन में देखा कि कुछ दूसरे धर्मों/संप्रदायों की स्त्रियां शादी के वक्त किसी और रंग के कपड़े पहने हुए हैं। समझ में आया कि यह बनाई हुई बात है, ज़रुरी नहीं कि यह स्त्रियों का स्वभाव हो। अब तो यह धारणा भी टूट रही है कि हर स्त्री शादी करना चाहती है, एक की होके रहना चाहती है, चूल्हा-चक्की करना चाहती है, बच्चे पैदा करना चाहती है।
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है।

कोई तीज-त्यौहार पर किसीको बधाई दे, ज़रुर दे, अच्छी बात है, दूसरे को क्या एतराज़ हो सकता है? मैंने तो कभी आपत्ति की नहीं। मैं तो आपत्ति करुंगा तो यह कहूंगा कि भाई जो बधाई न दे, उसे मूर्ख मत समझो/कहो। हो सकता है उसकी इंसानियत की समझ आपसे ज़्यादा गहरी हो। हो सकता उसकी बीमारी की समझ आपसे अलग हो, हो सकता है वह उस कुंए में कभी गया ही न हो जिससे बाहर निकलने के तरीक़े आप बता रहे हैं।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
9 August 2013

Wednesday, 21 December 2016

रंगों और प्रतीकों का चालू खेल-4

(पिछला हिस्सा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


सुना था, आज देख भी लिया कि एन डी टी वी ने गोरे रंग की क्रीम के विज्ञापनों पर बैन लगा दिया है। कुछ महीने पहले रामदेव और मैगी नूडल्स् के बीच इसी तरह का रिश्ता देखने में आया था। बाद में जो हुआ वह भी सामने ही है।

रामदेव तो ख़ैर रामदेव ही हैं, वे आधुनिकता के लिए जाने भी नहीं जाते मगर एन डी टी वी जैसे ‘मानवीय’ और ‘प्रगतिशील’ चैनल को गोरेपन की क्रीम के नुकसान समझने में इतने साल क्यों लग गए ? गोरेपन की क्रीम तो शराब भी नहीं है कि ग़रीब लोग उसे लगाकर अपने घर में मारपीट करते हों। इस क्रीम से ऐसा क्या नुकसान हो जाएगा ? सही बात यह है कि दहेज नहीं मिटाना, करवाचौथ बनाए रखना है, अपने रीति-रिवाजों पर उंगली नहीं उठानी, नास्तिकता और ईमानदारी पर बात करने में न जाने क्या ख़तरा है, सो सबसे आसान रास्ता यही है कि लोगों को प्रतीकबाज़ी और त्यौहारबाज़ी में उलझाए रखो। यहां याद रखने योग्य बात यह है कि लगभग दो महीने पहले एन डी टी वी पर एक दिन के बैन की घोषणा हुई थी, अभी बैन का दिन आया भी नहीं था कि कई भक्तों ने एन डी टी वी को शहीद घोषित कर डाला था, दूसरी तरफ़ कुछ लोगों ने इसकी विश्वसनीयता पर संदेह भी किया था। ज़ाहिर है कि एक दिन के बैन का अर्थ प्रतीकात्मक या अचानक मिली छुट्टी से ज़्यादा क्या हो सकता है।

सवाल यह भी है कि भारत में गोरे रंग की क्रीम कौन लोग ख़रीदते होंगे !? क्या गोरे लोग !? वे क्यों ख़रीदेंगे, वे तो पहले ही गोरे हैं! जब तक लगानेवालों की मानसिकता नहीं बदलेगी, बैन से क्या होगा ? वैसे भी बैन चाहे अभिव्यक्ति पर हो चाहे शराब-सिगरेट-गुटखे पर, यह कट्टरपंथ, पवित्रतावाद और एकतरफ़ा सोच के बारे में ही बताता है जिसे भारत के कई तथाकथित प्रगतिशील लोग आर एस एस की सोच मानते हैं।

बहरहाल जिस दिन एन डी टी वी पर फ़ायनली बैन लगना था, उसी दिन नोटबंदी की घोषणा हो गई। एन डी टी वी शहीद होते-होते रह गया। अभी-अभी आदरणीय राहुल गांधी जी ने इस संसद-सत्र की समाप्ति से एक-दो दिन पहले भूचाल लाने की बात की और दूसरे-तीसरे दिन उनका आदरणीय प्रधानमंत्री के साथ वार्ता करने का फ़ोटो आ गया। यह भी ख़बर आई कि राजनीतिक दलों को चंदा देने पर क्या-क्या छूटें मिल सकतीं हैं। आज कुछ डायरियों के हवाले से आदरणीय श्री मोदी पर आरोप लगाते आदरणीय श्री राहुल काफ़ी गोरे लग रहे थे। सिर्फ़ उनके गोरेपन के आधार पर उनके सही या ग़लत होने के बारे में कोई नतीजा निकाल लेना कोई समझदारी की बात नहीं लगती।

फिर से क्रीम पर आते हैं। क्या दुनिया में सभी गोरे, क्रीम की वजह से गोरे हैं ? क्या क्रीम लगाने से आदमी के अंदर कोई ऐसे परिवर्तन होते हैं कि वह अत्याचारी हो जाता है ? क्या क्रीम में कोई ऐसी चीज़ है जिससे आदमी को नशा हो जाता है ? मुझे याद आता है, बचपन में मैं काफ़ी दुबला-पतला था। कोई भी मेरे हाथ-पैर मरोड़ देता था। जिनके शरीर अच्छे थे, जो कसरत वग़ैरह करते थे उनमें से ज़्यादातर या तो दादागिरी करते थे, या उससे लड़कियों को प्रभावित करने में लगे रहते थे। मुझे तो एक भी याद नहीं आता जो लड़कियों की या ग़रीबों की रक्षा करता हो। अगर कलको मुझे कोई अधिकार/सत्ता/चैनल मिल जाए तो क्या यह ठीक होगा कि मैं सारे भारत के जिमों और पहलवानी पर बैन लगा दूं !?


(जारी)

-संजय ग्रोवर 
21-12-2016

(अगला हिस्सा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)