Monday 31 August 2015

भगवान है तो उसके पास जाते क्यों नहीं !?

व्यंग्य

मेरे लिए यह मानना मुश्क़िल है कि लोग भगवान और स्वर्ग इत्यादि में विश्वास करते हैं। 

लगभग हर तथाकथित धार्मिक आदमी कहता है कि आखि़रकार तो हमें भगवान के पास जाना है। हर कोई बताता है कि स्वर्ग में बढ़िया शराब है, जिसे सुंदर महिलाएं सर्व करतीं हैं। वहां कोई जादुई पेड़ है जो इच्छाएं पूरी करता है। वहां रहने का कोई किराया नहीं लगता, मकान या प्लॉट नहीं ख़रीदना पड़ता, वहां जाने तक के सफ़र में भी कोई पैसे नहीं लगते। इसके अलावा मैं देखता हूं, आप भी देखते होंगे कि तथाकथित धार्मिक आदमी जो भी करता है, स्वर्ग और भगवान को ध्यान में रखकर करता है।

लेकिन मुझे एक बात क़तई समझ में नहीं आती, जो आपकी निगाह में दुनिया की सबसे सुंदर जगह है, जहां जाने के लिए ही आप सब कुछ कर रहे हैं, वहां जाने की जल्दी किसीको भी नहीं है!? क्यों !? इतनी अच्छी जगह को छोड़कर आप इस सड़ी-गली-पापी दुनिया में क्यों रह रहे हैं !? क्या मजबूरी है !? भगवान के पास जाना तो बहुत ही आसान है। कोई किराया भी नहीं लगता। थोड़ी-सी नींद की गोलियां, एक रस्सी का फंदा, एक माचिस की तीली, एक ऊंची छत......ऐसा कोई एक विकल्प चाहिए बस। और तो कुछ करना नहीं है।

स्वर्ग से अच्छी कॉलोनी कहां मिलेगी ?भगवान जैसा सर्वगुणसंपन्न, सर्वशक्तिमान पड़ोसी भी कहां मिलेगा ? मगर किसीको जल्दी नहीं है !? आदमी को जनता फ्लैट छोड़कर एल आई जी लेने का मन आ जाए, तब तो वह उधार ले-लेकर भी वहां पहुंच जाता है। मगर जो फ़ाइनल डेस्टीनेशन है, वहां पहुंचने की कोई जल्दी नहीं !? अस्सी-अस्सी साल तक यहीं पड़े हैं !! दवाईयां खा-खाके खाट से चिपटे हैं !! टट्टी-पेशाब भी बिस्तर में ही किए जा रहे हैं। दूसरे साफ़ कर रहे हैं। इंजेक्शन और ड्रिप घुसा-घुसाके किसी तरह ज़िंदा हैं। मगर दुनिया छोड़ने को राजी नहीं है !! अरे भई, जाओ अपनी पसंदीदा जगह, जल्दी से जल्दी जाओ। कौन रोक रहा है ? कोई रोके तो शिकायत करो। तमाम एन जी ओ हैं, समाजसेवी संस्थाएं हैं, दानी सज्जन हैं.....सब आपकी मदद करेंगे। वे भी तो वहीं जाना चाहते हैं। सब पीछे-पीछे आएंगे। आप शुरुआत तो करो अच्छे काम की।

क्यों दोस्तों की, परिचितों की, रिश्तेदारों की चिंता करते हो ? एक बार ख़ुद पहुंच जाओ, फिर उन्हें भी बुला लेना। इतनी अच्छी जगह हर किसीको जाना चाहिए, जल्दी से जल्दी जाना चाहिए। 

मगर ये तथाकथित धार्मिक लोग ख़ुद तो जाते नहीं, दूसरों को भेजना चाहते हैं। वो भी उनको जो भगवान-स्वर्ग-नरक को मानते ही नहीं। अरे भाई अगर तुम्हे वाक़ई भगवान और स्वर्ग में विश्वास है तो पहले ख़ुद जाना चाहिए। तभी तो लोगों को विश्वास आएगा। तब वे ख़ुद ही पीछे-पीछे आएंगे।

जिस दिन मैं तथाकथित धार्मिक लोगों को किरोसिन तेल, नींद की गोलियों, रस्सी के फंदे, चाकू या ब्लेड वगैरह के साथ एडवांस में डैथ सर्टीफिकेट के लिए एप्लाई करते देखूंगा, मुझे भी थोड़ा-थोड़ा विश्वास आएगा कि वाक़ई तथाकथित धार्मिक लोग स्वर्ग और भगवान इत्यादि में विश्वास करते हैं।

-संजय ग्रोवर
01-09-2015


Thursday 20 August 2015

मां-बाप और पूजा

कभी कहीं कह दो कि पूजा ख़तरनाक़ है चाहे पत्थर की हो, चाहे गुरु की हो, चाहे मां-बाप की हो तो ज़ाहिर है कि कई तरह के लोगों को, कई तरह के आदियों-वादियों को बुरा लगता होगा। लेकिन यह भी तो समझना चाहिए कि पूजा आखि़र है क्या ? पूजा किसीको ख़ुश करने का सबसे आसान तरीक़ा है। पूजा एकतरफ़ा बातचीत है। मज़े की बात तो यह है कि जिसकी पूजा की जाती है उसकी तो स्वीकृति/अस्वीकृति भी नहीं पूछी जाती। पूजा एकतरफ़ा बातचीत है। जिसका आदर करने का दावा किया जा रहा है उसकी पसंद/नापसंद की भी चिंता नहीं की जाती। पूजा एक असमानता का संबंध है। कुछ कर्मकांड हैं जिन्हें करने में किसी तरह का कोई सामाजिक ख़तरा नहीं है। बल्कि मु्फ्त की तारीफ़ ज़रुर मिलती है।

और पूजा से मां-बाप की ज़रुरतें पूरी हो जाएंगी क्या !? करके देखना चाहिए। सुबह चार बजे उठकर मां-बाप की आरती वगैरह उतारें और दिन-भर उन्हें पूछें नहीं, न खाने को दें न पीने को, न बात करें, न पास बैठें। यही तो पूजा है। इससे मां-बाप का काम चल जाएगा क्या ?

आप पूरे देश में पूछते घूमिए, दस-पचास लोग भी मिल जाएं जो कहते हों कि मां-बाप की बात नहीं माननी चाहिए, मां-बाप महान नहीं होते, मां-बाप को घर से निकाल देना चाहिए........ऐसा कहता है क्या कोई ? उसके बाद सुबह-शाम आप ज़रा पार्कों में चले जाईए, वृद्धाश्रमों में चले जाईए-वहां बूढ़े-बूढ़ियां बैठे अपने बहू-बेटों को रो रहे होते हैं। ये कौन लोग हैं ? ये क्या स्विटज़रलैंड से आए हैं !? या फ्रांस ने हमारी संस्कृति को बदनाम करने को भेज दिए हैं !? भारत में तो कोई मां-बाप का अनादर करता नहीं। फिर ये बूढ़े-बूढ़ियां कहां से टपकते चले जाते हैं ? सही बात यह है कि हम लोग झूठा सम्मान करने में अति-ऐक्सपर्ट लोग हैं।

एक बात और समझ से बाहर है। एकाएक, बैठे-बिठाए किसी दिन आप मां-बाप बनते हैं और महान हो जाते हैं!! कैसे!? दुनिया-भर में गुंडे हैं, बदमाश हैं, स्मगलर हैं, दंगाई हैं, बलात्कारी हैं, आतंकवादी हैं और पता नहीं क्या-क्या हैं.........उनमें से भी ज़्यादातर लोग किसी न किसीके मां-बाप हैं। वे क्यों महान नहीं हैं ? अगर महानता की यही कसौटी है तो उनका भी आदर कीजिए। उन्हें तो आप ग़ालियां भी दे देते हैं!! वे तथाकथित ऊंची जातियां जिन्होंने किन्ही तथाकथित नीची जातियों को ग़ुलाम बनाया, वे भी तो किसीके मां-बाप हैं। वे महान क्यों नहीं हैं ? ये क्या कसौटी हुई कि सिर्फ़ आपके ही मां-बाप महान हैं !? समझ में नहीं आता कि आदमी में ऐसी कौन-सी प्रोग्रामिंग हो रखी है कि इधर उसका बच्चा पैदा होना शुरु होगा और उधर मम्मी-पापा महान होना शुरु हो जाएंगे !?

और हैरानी होती है कि ऐसी अतार्किक बातें वे लोग भी करते हैं जो अपना या अपने समाज का जीवन बदलने के लिए कुछ भी बदलने को तैयार हैं मगर मां-बाप की बात आते ही फिर परंपरा को पकड़कर लटक जाते हैं ? अगर तुम्हे परंपरा में इतनी दिलचस्पी है तो परंपरानुसार ग़ुलामों की तरह रहो फिर। यहां तो सब परंपराएं ग़ुलामी की ही परंपराएं हैं।

तो मैं यह कह रहा था कि पूजा में विचार का, बुद्धि का, सवाल उठाने का कोई स्थान नहीं है। पूजा न करने का यह मतलब नहीं है कि मां-बाप से बदतमीज़ी करें, उन्हें परेशान करें, उनका तिरस्कार करें, उन्हें खाने-पीने को न दें। वैसे यह सब तो पूजा के साथ-साथ भी किया जा सकता है। होता भी होगा। पूजा न करने का मतलब है बराबरी के स्तर पर बातचीत। न कोई छोटा है न बड़ा। न कोई ऊंचा है न नीचा। ऐसे संबंध में बात का और तर्क का महत्व है, व्यक्ति की हैसियत या उम्र का नहीं। जिसकी भी बात जायज़ है, मान ली जाएगी।

वरना तो पूजा करने वाले यही करेंगे कि बाप कहेगा कि जाओ बेटा मां का सर काट लाओ, और ये चल पड़ेंगे सर काटने। लो श्रद्धेय पिताजी, श्रद्धेय माताजी का सर हाज़िर है।

और बाद में सर काटने वालों की भी पूजा होगी।


-संजय ग्रोवर
20-08-2015



Monday 17 August 2015

स्त्री के कपड़े और धर्म के लफड़े

कोई राधे मां हैं जिनके स्कर्ट पहनने पर कई दिनों से चर्चा है। सोनू निगम को तो आजकल बहुत लोग जानते हैं। उन्होंने ट्वीट किए बताते हैं कि काली मां तो इससे भी कम कपड़े पहनतीं थीं और स्त्रियों पर कपड़ों के लिए मुकदमे करना अच्छी बात नहीं है। सोनू निगम से बहुत-से लोग सहमत होंगे, इतना परिवर्तन तो आया ही है कि लोग समझ रहे हैं कि दूसरे के शरीर के लिए कपड़े आप तय नहीं कर सकते, जिसका शरीर है, जिसके कपड़े हैं, जिसका पैसा है, वही अपने लिए उसका उपयोग भी तय करेगा।

लेकिन दो-तीन बातें समझ में ज़रा कम आ रही हैं। पहली बात है कि हम हर बात के लिए अतीत से उदाहरण क्यों लेते हैं !? अगर काली मां (?) न हुई हों, उन्होंने ऐसे कपड़े न पहने हों तो ? यह कहीं न कहीं, अपने दम पर बात न कह पाने को, परंपरा की ग़ुलामी को और आत्मविश्वास की कमी को ही दर्शाता है।

दूसरी बात यह है कि काली मां का उदाहरण देने का एक अर्थ यह भी निकलता है कि हम परिवर्तनों या स्त्री-मुक्ति को धर्म के दायरे से बाहर नहीं जाने देना चाहते और यही सबसे ख़तरनाक़ है। धर्म के नाम पर थोड़ा-सा फ़ायदा, बाद में बहुत-सी तक़लीफ़ें भी खड़ी कर सकता है।

तीसरी बात, यह कहना कि पुरुष भी कम कपड़े पहनता है, इसलिए स्त्रियां भी कम पहनें तो दिक़्क़त क्या है ? हमें ऐसे तर्कों से थोड़ा आगे जाना चाहिए। जिन घरों में पुरुष ऐसे कपड़े नहीं पहनता, ढंका-मुंदा रहता है, उन घरों की स्त्रियों के लिए दिक़्क़त खड़ी हो जाएगी। उन्हें मन मारके ढंका-मुंदा रहना पड़ेगा।

यहां यह भी प्रासंगिक है कि सोनू निगम का कैरियर ‘माता की चौकियों-जागरनों’ से शुरु हुआ बताते हैं, संभवतः वे अभी भी धार्मिक हैं और इसीलिए काली मां के उदाहरण तक ही जाते हैं।

राधे मां दहेज़-उत्पीड़न के किसी केस से भी जुड़ी बताई जा रहीं हैं। समझने की बात यह है कि धार्मिक लोग अकसर दहेज़ को बुराई की तरह नहीं देखते। भारत का आमजन भी दहेज़ और घरेलू हिंसा की बात पर बेचैनी से पहलू बदलने लगता है।

हममें से कई लोग इसके कारण जानते हैं।

-संजय ग्रोवर
17-08-2015

Saturday 15 August 2015

भगवान के होते देश आज़ाद कैसे !?

व्यंग्य

हैरानी होती है कि भगवान को माननेवाले बहुत सारे लोग भी आज़ादी का दिन मनाते हैं!!

उनको भी लगता होगा कि देश कभी ग़ुलाम था। उनके भगवान के होते हुए भी देश ग़ुलाम था। जैसा कि धार्मिक लोग बार-बार घोषणा करते हैं कि भगवान की मर्ज़ी के बिना पट्ठा भी नहीं हिलता ; तो ज़ाहिर है कि भगवान की मर्ज़ी से ही देश ग़ुलाम हुआ होगा।


मगर मैंने कहीं नहीं पढ़ा कि भक्त लोग देश को आज़ाद कराने के लिए भगवान के पास गए। लेकिन अंग्रेज़ो से वे, जैसा कि इतिहास में लिखा बताते हैं, बहुत लड़े, लड़ते ही रहे। इससे कभी-कभी यह लगता है कि या तो वे अंग्रेजों को ही भगवान मानते थे या उन्हें भगवान से बड़ा मानते थे। वरना अंग्रेजो से लड़ने की क्या तुक थी ? जिस दर्ज़ी ने आपका पाजामा ख़राब सिल दिया हो आप लड़ने को सीधे उसके पास न जाकर उसके किसी कारीगर के पास पहुंच जाएं तो आप ख़ुद ही, ख़ुदको अजीब लगने लगेंगे। लेकिन भगवान के मामले में हम सारी हरक़तें अजीब-अजीब-सी करते हैं।


जब भगवान ने देश को ग़ुलाम बनाया या बनवाया तो कुछ सोचकर ही ऐसा किया होगा ! मगर भक्त लोग अजीब हैं, निकल पड़े देश को आज़ाद कराने। ये लोग दूसरों को हमेशा समझाते हैं कि भगवान की मर्ज़ी के खि़लाफ़ कुछ नहीं करना चाहिए मगर ख़ुद सारे काम उसकी मर्ज़ी के खि़लाफ़ करते हैं। 

भगवान कौन-सा कम है !? चलो, ग़ुलाम बनाया तो बनाया, जब लोगों को आदत पड़ ही गई थी, उन्हें मज़ा आने लगा ग़ुलामी में तो उसे आज़ादी सूझने लगी। तब उसने पत्ता हिलाया और आज़ादी की जंग छिड़वा दी ! पट्ठे भी तो भगवान के अपने ही हैं, जब चाहे हिला सकता है।


अब मुझे यह लगता है कि भगवान ने आदमी को मज़े लेने के लिए, अपना टाइम पास करने के लिए बनाया है तो क्या ग़लत लगता है ? 

मैं छोटा ही था और छत पर धूप सेंक रहा था कि पड़ोस की छत पर नज़र चली गई। वहां एक बिल्ली, चूहे से खेल रही थी। बार-बार उसे छोड़ देती। चूहा किसी सुरक्षित जगह की तलाश में भागता और जैसे ही वह उस जगह में प्रवेश करने को होता, ऐन उसी जगह जाकर वह उसे फिर दबोच लेती । चूहे का जो हुआ होगा सो हुआ होगा, मैं बुरी तरह घबरा गया। लेकिन धार्मिक दृष्टि से देखें तो बिल्ली चूहे के साथ इस बेदर्दी से खेल रही थी तो भगवान की मर्ज़ी से खेल रही थी। भगवान ख़ुद ही आदमी के साथ यही खेल कर रहा है। ख़ुद ही ग़ुलाम बनाता है, ख़ुद ही आज़ाद करा देता है। 


अब तो देश में मनोचिकित्सक भी भगवान की कृपा से अच्छी-ख़ासी मात्रा में हो गए हैं ; अपने ही बनाए मनोचिकित्सकों से कंसल्ट करने में दिक़्क़त क्या है !? या हो सकता है कि भगवान जानता ही हो कि मेरे बनाए लोग मुझसे अलग कैसे हो सकते हैं, इसलिए डरता हो !! 

लोग अभी भी आज़ादी की वार्षिक गांठे मनाते हैं!! बताओ, एक तो भगवान की मर्ज़ी के खि़लाफ़ आपने देश को आज़ाद कराया, अब त्यौहार भी मना रहे हो!! भगवान को चिढ़ा रहे हो क्या !?


न न, मैं भगवान को नहीं चिढ़ा रहा। मैं भगवान को मानता ही नहीं।


आपको ज़रुर मानता हूं।

-संजय ग्रोवर
15-08-2015


Thursday 13 August 2015

रख़ैल और पुरुष

रख़ैल नामक शब्द से यूं तो सिर्फ़ स्त्री को ही ‘सम्मानित’ किया गया है, जिसका अर्थ मोटे तौर पर यह है कि जो स्त्री पैसे या अन्य ज़रुरतों के लिए शादी के बंधन के बिना ही ज़ाहिरा तौर पर या छुपे तौर पर ख़ुदको किसी पुरुष के हाथ सौंप देतीं है-या तो जीवन-भर के लिए या पुरुष का मन भर जाने तक। यहां एक सवाल यह भी है कि क्या शादी कर लेने भर से स्त्री की स्थिति भिन्न हो जाती है ?

असली सवाल यह भी है कि शारीरिक या भौतिक अर्थों में रखैल होना ज़्यादा बुरी स्थिति है या मानसिक या वैचारिक रुप से !? शारीरिक रुप से आप फिर भी मुक्त हो सकते हैं मगर आप एक बार मानसिक ग़ुलाम हो गए तो शारीरिक रुप से आप मुक्त दिखाई भी दें मगर मानसिक ग़ुलामी, धरती के किसी भी कोने पर आप चले जाएं, आसानी से आपका पीछा नहीं छोड़ेगी। 

मेरी समझ में जिन पुरुषों के अपने कोई विचार नहीं, जो दूसरों का कहा करते रहे, जो दूसरों की तरह जीते रहे, जिन्होंने अपना दिमाग़ किसी मूरत, किसी क़िताब, किसी गुरु, किसी कथित धर्म, किसी कथित जाति, किसी कथित दर्शन, किसी कथित वाद के पास गिरवी रख दिया है, जिनकी पूरी जीवन शैली, पूरी जीवन दृष्टि में अपना कुछ भी नहीं है, उन्हें स्त्री को रखैल कहने से पहले एक बार अपने बारे में भी सोचना चाहिए।

-संजय ग्रोवर
06-09-2014

Wednesday 12 August 2015

तस्वीरों का मलबा, अंत में पूड़ी-हलवा

07-08-2015

स्पेन में एक खेल चलता रहा है-बुलफ़ाइट। जिसमें हज़ारों-लाखों दर्शकों के सामने एक सांड और एक आदमी की लड़ाई दिखाई जाती थी/है। इस ख़तरनाक़ खेल में सांड और आदमी दोनों बिलकुल असली होते थे/ हैं और इनमें से किसीकी भी जान जा सकती थी/है। मनोरंजन और कमाई के अलावा इस खेल की कोई तीसरी वजह समझ में नहीं आती। समझने को कोई इसे उत्सव समझ सकता है, आंदोलन समझ सकता है, तरह-तरह से महिमा-मंडित कर सकता है ; अपने-अपने शौक़ हैं, अपनी-अपनी समझ है, जीवन में ‘कुछ करने’ के अपने-अपने मतलब हैं। यहां भी, पढ़ा है कि (समर्थ !) लोग-बाग़ तीतर वग़ैरह लड़ाकर अपना टाइम पास करते रहे हैं। 

क्या इसे हम ‘कुछ करना’ कह सकते हैं ? मेहनत तो इन कामों में भी लगती ही है, कई बार जान का ख़तरा भी रहता है। क्या सिर्फ़ इन्हीं कारणों से इन गतिविधियों को महानताओं में शुमार कर लेना चाहिए !? कई लोग होते हैं जिन्हें शादियों में सबसे आगे, घुस-घुसकर फ़ोटो खिंचाने का शौक़ होता है। इसके लिए भी मेहनत तो लगती है। थोड़ा धक्का मारना पड़ता है, थोड़ा ‘ऐक्सक्यूज़ मी‘ वग़ैरह सीखना-बोलना पड़ता है, थोड़ा ‘जीजाजी’, ‘भाभीजी’ करना पड़ता है, ऐन फ़्लैश चमकने या कैमरा चालू होने के साथ ही एक ख़ास तरह की मुद्रा चेहरे पर सजा लेनी होती है। मगर जिसको यह शौक़ है, इतना तो उसे करना ही पड़ेगा।

इसी तरह देखने में आता है कि कुछ लोग आंदोलनों के बड़े शौक़ीन होते हैं। जब देखो आंदोलित-आंदोलित से रहते हैं। वे हरदम कुछ क्रांति टाइप करना चाहते हैं-इस क्रांति टाइप में भाषण देने, एनजीओ बनाने, फ़ोटो-वीडियो खिंचाने-बनाने, अख़बार-टीवी में आने से लेकर पूड़ी-हलवा खाने तक कई ख़तरनाक़ बाधाएं पार करनी पड़तीं हैं। लोग एक-दूसरे को माला वग़ैरह पहनाते हैं, बधाई देते हैं, शाबासी देते हैं, तालियां मारते हैं, चाय नाश्ता होता है। इसके बाद सबको लगता है कि मैंने कुछ किया, मैंने भी कुछ किया, मैंने तो काफ़ी कुछ किया और फ़िर हम सबने मिलकर बहुत कुछ किया। इन सबको लगता है कि इसीसे सब हो रहा है और बदल रहा है। सच अकसर यह होता है कि इस तरह के जमावड़ों में लोगों को व्यक्तिगत फ़ायदे ज़रुर होते हैं, प्रसिद्धि मिलती है, जान-पहचान बढ़ती है और आगे कुछ और कार्यक्रमों में आने का निमंत्रण या निमंत्रण की उम्मीद मिलती है। भारत में लोग इस जान-पहचान का उपयोग अकसर व्यक्तिगत फ़ायदों और कामों के लिए करते हैं, मगर उन्हें यह ग़लतफ़हमी भी रहती है कि उनमें ‘मैं’ बिलकुल नहीं है, वे बड़े निस्वार्थी और सामाजिक हैं। सामाजिक बदलावों के संदर्भों में इन समारोहों का असर ताली बजाती, गदगद दिखती भीड़ पर उतना ही होता है जितना धार्मिक सत्संगो में जानेवाली महिलायों व अन्यों पर बाबा के प्रवचन का होता है। ये लोग सत्संग के ठीक बाद भी बिलकुल वैसे के वैसे रहते हैं जैसे दो घंटे पहले सत्संग में जाते समय थे।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जो लोग ऐन वक़्त पर (अकसर) बदलाव के आगे खड़े दिखते हैं वे दरअसल भीड़ के पीछे, नज़र जमाए चल रहे होते हैं, जब भी इन्हें भीड़ का मूड बदलता दिखता है, ये भीड़ के आगे जा खड़े होते हैं। यह तथ्य ग़ौरतलब है कि ‘ओह माय गॉड’, ‘पीके’, ‘पीकू’, ‘क्वीन’ जैसी फ़िल्में भारत में तब देखने में आई हैं जब इंटरनेट का प्रसार बढ़ा और सभी विषयों पर खुली बहसें होने लगी, दूर-दूर देशों, शहरों, क़स्बों के लोग आपस में सीधी बात करने लगे। ‘पीकू’ से पहले कभी मैंने अमिताभ बच्चन को सैक्स शब्द का उच्चारण करते देखा हो, याद नहीं आता। अगर इस क़िस्म के आंदोलनों से वास्तविक बदलाव आता होता तो भारत शायद वह देश है जहां हर गली-मोहल्ले में दस-दस आंदोलनकारी बैठे हैं और दहेज, डायन, ज्योतिष, तांत्रिक, ओझा से लेकर अस्पृश्यता तक सब ज्यों का त्यों चलता चला जा रहा है।

पिछले तीन-चार सालों में हमने ऐसे आंदोलन ख़ूब देखे जिनका नब्बे-पिच्यानवें प्रतिशत हिस्सा टीवी पर विज़ुअल्स और पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया में तस्वीरों से बना था। ईमानदार से ईमानदार माने जानेवाले बुद्धिजीवी(!), एंकरादि कम-अज़-कम दो साल तक इन्हें स्वतःस्फ़ूर्त आंदोलन बताते रहे। इन आंदोलनों का चरित्र/मंतव्य इसीसे समझा जा सकता है कि एक तरफ़ इन आंदोलनों के प्रमुख वक्ता मंच पर ख़ुदको चमत्कारी और किसी तथाकथित भगवान के प्रतिनिधि की तरह बता रहे थे तो दूसरी तरफ़ इनके वॉलंटियर्स सोशल मीडिया पर, कई ग्रुपों में घुस-घुसकर ख़ुदको प्रगतिशील और नास्तिक की तरह पेश कर रहे थे।

ऐसे आंदोलनों से व्यक्तिगत फ़ायदों, लोकप्रियता और पूड़ी-हलवे के अलावा और कुछ भी निष्कर्ष निकलता होगा, समझ में आना मुश्क़िल है। 

शुक्र है कि तक़नीक और विज्ञान लगातार आगे बढ़ रहे हैं वरना क्या पता हम सतीप्रथा और वर्णव्यवस्था की तरफ़ लौट रहे होते!

-संजय ग्रोवर
12-08-2015

Saturday 8 August 2015

विचारों से डरते हैं, सुबहो-शाम मरते हैं

विचारों पर रोक लगाने के कई तरीके होते हैं। कई लोग बाहुबल/पॉवर का इस्तेमाल करते हैं जो कि दिख जाता है और उससे बचा भी जा सकता है। लेकिन जो ज़्यादा शातिर लोग होते हैं वे ऐसा नहीं करते। वे अफ़वाहें फ़ैलाते हैं, झूठी शिकायतें करते हैं, सबसे बड़ी बात वे जिन रहस्यों के ख़ुलने या जिन मूल्यों के फ़ैलने से घबराए होते हैं, उन मूल्यों के वाहक दिखनेवाले नक़ली लोग खड़े कर देते हैं, या पहले ही तैयार किए होते हैं। और जब असली सफ़ल होता दिखता है तो फिर नक़ली को फुलाने और असली को छुपाने/दबाने/ग़ायब करने का खेल शुरु होता है। असली के विचारों को भोंथरा और अपने मनोनुकूल बनाकर नक़ली के नाम से प्रचारित करने का पुराना कायर तरीका काम आता है।

इसमें वे लोग भी काम आते हैं जो इन नक़लिओं के स्थायी शिकार होते हैं। आदमी के डर और लालच पर आधारित यह दुश्चक्र ही इस तरह रचा गया है कि किसी न किसी ख़ामख्वाह की हीनभावना, व्यर्थ के अपराधबोध, इतिहास में नाम करने के अजीबो-ग़रीब (लगभग ‘स्वर्ग’ में ही जाने जैसे) लालच, प्रतिष्ठा-पैसा-पुरस्कार-सेमिनार-सफ़लता से सामाजिक बदलाव के अप्रमाणिक और झूठे संतोष आदि-आदि से डरे-घबराए-ललचाए लोग इसमें शामिल होकर ख़ुदको कृतज्ञ महसूस करते हैं।

लेकिन असली आदमी के लिए इस बात का कोई महत्व नहीं होता कि इस तीतर-युद्व में किसने, किसको गिरा दिया, किसने किसकी टांग खींच ली, कौन किसे चपत मारकर भाग गया, कौन बहुरुपिया बनकर आया और असलियत ख़ुलते ही बात बदलने लगा......वैचारिक बदलाव के मामले में इन बचकानी बातों का क्या अर्थ हो सकता है ? जिसके पास विचार है, उसके पास शारीरिक बल भी हो, समूह भी हो, गुंडे भी हों, डंडे भी हों......यह कैसे संभव है!?

लेकिन सच्चे आदमी के पास/साथ एक चीज़ हमेशा रहती है-वह ख़ुद। वह जानता है कि  वह अपने साथ हमेशा खड़ा है, उसे उसकी सोच से कोई अलग नहीं कर सकता। झूठे आदमी के साथ हज़ारों लोग खड़े दिख सकते हैं पर असलियत में वह ख़ुद भी अपने साथ नहीं होता। वह इतना कमज़ोर और कन्फ़्यूज़्ड होता है कि उसे ख़ुद भी नहीं मालूम होता कि वह किस पल अपना रंग बदल लेगा। इसलिए वह चौबीस घंटे घबराया रहता है, हर जगह नज़र रखना चाहता है कि कहीं कुछ ऐसा तो नहीं हो रहा जिससे उसे कुछ नुकसान हो जाए, उसकी प्रतिष्ठा वगैरह का असली रंग दिखने लगे। ऐसे ही घबराए हुए लोग समय-समय पर ऐसी घोषणा करते दिखते हैं कि ‘फ़लां तरह के आदमी की बातें मत सुनो’, ‘ढिकां तरह के लोगों की सोच नकारात्मक है, उनके पास मत जाओ’......। ये किसीके विचारों को बैन करने के ज़्यादा शातिर तरीके हैं। तिसपर और मज़ेदार बात यह है कि ख़ुद हर जगह घुस-घुसकर, बिन बुलाए घुसकर, भेस (आजकल आईडी) बदल-बदलकर हर जगह, हर किसीकी बात सुनने में लगा रहता है। न बेचारा दिन में चैन पाता है, न रात में आराम।

यही पाखंडियों और षड्यंत्रबुद्धियों की सज़ा है जिसका इंतज़ाम उन्होंने ख़ुद ही कर रखा है। जब तक ये झूठी ज़िंदगी जिएंगे, इस सज़ा से बच नहीं पाएंगे।  

-संजय ग्रोवर
08-08-2015

( ये मेरे व्यक्तिगत विचार और अनुभव हैं, कोई इन्हें मानने को बाध्य नहीं है.)