Monday 31 December 2018

अगर सभी कहने लगें कि दुनिया को हमारी लिखी क़िताब के हिसाब से चलाओ तो

ऐसा कई बार होता है कि बहस के दौरान कुछ लोग कहते हैं कि पहले फ़लां-फ़लां क़िताब पढ़के आओ फ़िर बात करना। ऐसा कहने की एक वजह यह होती है कि इन लोगों का अकसर चिंतन से वास्ता नहीं होता, पढ़ी-पढ़ाई, संुनी-सुनाई बातों को ही ये लोग बतौर तर्क ठेलते रहते हैं। जैसे ही कोई नया सवाल सामने आता है ये लोग घबरा जाते हैं और ‘यह पढ़ो‘, ‘वह पढ़ो’ करने लगते हैं। बचपन में हम देखते कि जब कोई कमज़ोर लड़का किसी ताक़तवर से पंगा ले लेता और हारने लगता तो वह ‘छोड़ूंगा नहीं, कल चाचा को बुलाके लाऊंगा’, ‘साले, तू जानता नहीं है, फ़लां पहलवान मेरा दोस्त है’, ‘मेरे मामा थानेदार हैं......’ जैसी घुड़कियां देने लगता। यह ‘फ़लां क़िताब पढ़के आओ’ भी कुछ-कुछ ऐसी ही हरकत लगती है।

मैं अपनी ज़िंदगी उस आदमी की लिखी क़िताब के हिसाब से चलाऊं!! क्यों चलाऊं? जिसे पसंद है वे पढ़ें, मानें, कौन मना करता है!? मगर मैं क्यों? मेरा क्या लेना?

दूसरी बात(अगर कोई कथित धर्मग्रंथ पढ़ने की सलाह दे), किसीने पांच-दस हज़ार साल पहले कोई क़िताब लिखी, उससे मेरा क्या लेना-देना!? क्या मेरे से पूछके लिखी? क्या लिखते समय किसी बात पर मेरी सलाह ली? पता नहीं कौन आदमी था, क्या स्वभाव था, किससे खुंदक खाता था, किसपे अंधश्रद्धा रखता था? और मैं अपनी ज़िंदगी उस आदमी की लिखी क़िताब के हिसाब से चलाऊं!! क्यों चलाऊं? जिसे पसंद है वे पढ़ें, मानें, कौन मना करता है!? मगर मैं क्यों? मेरा क्या लेना? 

दुनिया-भर में न जाने कितने लोग क़िताब लिखते हैं, मैं भी लिखता हूं। अगर सभी कहने लगें कि दुनिया को हमारी लिखी क़िताब के हिसाब से चलाओ तो!? फिर तो मुश्क़िल खड़ी हो जाएगी! कौन लेखक कहेगा कि उसकी क़िताब महत्वपूर्ण नहीं है, कालजयी नहीं है, समाज को दिशा देनेवाली नहीं है, नीतिनिर्धारक नहीं है, मन-मस्तिष्क को मथ देनेवाली नहीं है? कोई कहेगा!?

एक सभ्य और लोकतांत्रिक दुनिया में इस तरह की बातें ज़्यादा दिन नहीं चल सकतीं।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
19 May 2013

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