Showing posts with label tradition. Show all posts
Showing posts with label tradition. Show all posts

Saturday, 7 April 2018

असमानता और अत्याचार का नृत्य

(पिछला हिस्सा)




आप चीज़ों को जब दूसरी या नई दृष्टि से देखते हैं तो कई बार पूरे के पूरे अर्थ बदले दिखाई देते हैं। बारात जब लड़कीवालों के द्वार पर पहुंचती थी तभी मुझे एक उदासी या अपराधबोध महसूस होने लगता था। गुलाबी पगड़ियों में पीले चेहरे लिए बारात के स्वागत लिए तैयार लोग कुछ घबराए-घबराए से लगते थे। जयमाला के लिए चलती हुई लड़की के साथ दाएं-बाएं दो सहेलियां बैसाखियों जैसी दिखाई पड़ती। नथनी-गहने-घूंघट आदि के बीच समझना मुश्क़िल था कि दुलहिन उदास है, परेशान है या ख़ुश है।
 


दो वजह से, ख़ासकर, बारात मुझे कोई सामाजिक कृत्य कभी लग नहीं पाया। पहली बात कि लड़कापक्ष और लड़कीपक्ष में गहरी असमानता या भेदभाव जो इन्हीं पक्षों ने आपस में मिल-जुलकर बनाए हैं, बनाए रखना चाहते हैं। समझ में नहीं आता कि ऐसे दो पक्ष एक साथ मिलकर ख़ुशी कैसे मना सकते हैं जिनमें से एक की हालत लगभग देनदार, कर्ज़दार, दास, ग़ुलाम जैसी है और दूसरे की मालिक़, लेनदार, बॉस, सर जैसी हो ! इन संबंधों में किसको क्या-क्या लेना-देना पड़ता है और किसकी हैसियत अपने संबंधी के समक्ष कैसी हो जाती है, ज़्यादातर भारतीय लोगों को पता ही होगा।

दूसरी बात, बारातें अकसर सड़क के नियमों का उल्लंघन करके निकाली जातीं जिसकी हमें आदत पड़ चुकी होती है। मैं जब ख़ुद बारात में नहीं होता था और साइकिल के सामने कोई बारात पड़ जाती थी तो कई बार सर नीचा करके भुनभुनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था। आए दिन सड़कों पर होने वाले गड़ढों और झगड़ों में भी बारातों और उत्सवों का अच्छा-ख़ासा योगदान होता है।

जब मैं पूरी नयी और व्यंग्य-दृष्टि से बारात को देखता हूं तो अजीब-अजीब चीज़ें दिखाई देने लगतीं हैं। मुझे नहीं समझ में आता कि आजकल की बारात में घोड़े का क्या महत्व है ? क्या शादीवाले दिन दूल्हा ज़्यादा थका हुआ होता है ? या उसे कहीं युद्ध करने जाना होता है ? अगर जाना ही होता है तो वो बारात में सबसे पीछे-पीछे क्यों चलता है ? फिर बारात में बच्चों और औरतों का क्या काम ? फिर माला और मिलनी का भी क्या काम ? दुश्मन भी भला कभी मिलते हैं ? लेने-देने, नाचने-झूमने, मुख-मुद्राओं के परस्पर विरोधी अंदाज़ में ये एक-दूसरे के दोस्त तो कतई नहीं लगते। जिससे सारा खर्चा लिया हो उसीके दरवाज़े पर जाकर उछल-उछलकर, कूद-कूदकर नाचना बहादुरी भी कतई नहीं लगती। मुझे कई बार लगता है कि जो लोग ज़िंदगी में हर मोर्चे पर एडजस्ट कर चुके हों, हर बेईमानी के सामने सर झुका चुके हों, सभी तरह के बहुरुपिएपन को अंगीकार कर चुके हों ; उनके सामने किसी कर्मकांड, किसी त्यौहार, किसी कविता, किसी फ़िल्म, किसी बारात में नक़ली बहादुरी का प्रदर्शन करने के अलावा चारा भी क्या है ?

बारातें, ज़ाहिर है कि, परंपराओं का हिस्सा हैं। मगर क्या इनसे परंपराएं तोड़ी भी जा सकतीं हैं ?

कैसे ?

(जारी)

-संजय ग्रोवर
07-04-2018
(अगला हिस्सा)

Thursday, 5 April 2018

कुरीतियों का सर्कस



नाचने का मुझे शौक था। लेकिन शर्मीला बहुत था। कमरा बंद करके या ज़्यादा से ज़्यादा घरवालों के सामने नाच लेता था। उस वक़्त नाचने के लिए ज़्यादा मंच थे भी नहीं सो बारात एक अच्छा माध्यम था, समझिए कि बस खुला मंच था। एक किसी शादी का इनवीटेशन कार्ड आ जाए तो समझिए कि आपके लिए प्रतिष्ठा-प्रसिद्धि-पाँपुलैरिटी आदि का रास्ता खुल गया। बारात में सड़क पर नाचना अजीब तो लगता था पर एक प्रेरणा मिल गई थी-शराब। दो-चार पेग मारे कि झिझक मिट जाती थी। बस फिर क्या था-जितनी एनर्जी थी नहीं उससे काफ़ी ज़्यादा नाच जाता था। रास्ते में, सड़को पे, छज्जों पे खड़े लड़के-लड़कियां, औरतें-बच्चे उत्साह बढ़ा देते थे। उस समय रिएलिटी शोज़ जैसे जज वगैरह तो नहीं होते थे मगर कोई तथाकथित बड़ा, प्रतिष्ठित, स्टाइलिश आदमी तारीफ़ कर दे तो कहना ही क्या। अगली दो-चार और बारातों में नाचने के लिए ख़ुराक़ मिल जाती थी। हालांकि दहेज-वहेज, रीति-रिवाज शुरु से ही पसंद नहीं थे मगर नाचने में थोड़ा फ़ायदा लगता था। काफ़ी टाइम नाचते रहे। कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई।


आखि़र की दो बारातें दर्दनाक़ ग़ुज़री। जाने का मन भी नहीं था मगर पॉपुलैरिटी का लालच भी नहीं छूटता था। एक शादी की कॉकटेल में रात को नाचना शुरु किया था पर सुबह जब आंख खुली तो पाया कि रात को बेहोश हो गया था। बाद में एक दोस्त ने बताया कि दूसरे दोस्त ने मेरी शराब में काफ़ी ज़्यादा शराब मिला दी थी। क्यों मिला दी होगी ? वह आदमी भगवान के अस्तित्व पर बहस करते हुए अकसर तर्क में कम पड़ जाया करता था। दूसरी जगह भी कुछ ऐसा ही मामला निकला।

बाद में कोई समस्या भी नहीं हुई बल्कि आसानी ही हो गई क्योंकि नाचने और उससे मिलनेवाले फ़ायदे के अलावा बाक़ी सब रस्मो-रिवाजों से तो शुरु से ही परेशान रहता था। आज सोचता हूं कि शुरु से ही इतना साहस, तर्क, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास होता तो क्या इस तरह सड़क पर नाचना संभव होता ? 
HANS/Dec/2006

जवाब अकसर न में ही आता है।

वरना बाद में ऐसे शेर कैसे लिख पाता-

लड़केवाले नाच रहे थे, लड़कीवाले ग़ुमसुम थे
याद करो उस वारदात में अकसर शामिल हम-तुम थे 

उनपे हँसो जो बुद्ध कबीर के हश्र पे अकसर हँसते हैं

ईमाँ वाले लोगों को तो अपने नतीजे मालूम थे



(जारी)

-संजय ग्रोवर
06-04-2018

(अगला हिस्सा)






Sunday, 18 March 2018

जेएनयू पर एक डरी हुई टिप्पणी

जेएनयूवादियों को दुआ/प्रार्थना करते देखा तो दो पुराने फ़ेसबुक स्टेटस याद आ गए-

1.
पंडित जवाहरलाल नेहरु जे एन यू के छात्र थे। यही वजह है कि उन्होंने एक प्रगतिशील विचारधारा की नींव रखी। वरना और किसी तरह यह संभव नहीं था।

02-08-2013
(on पागलखाना facebook)


2.
जेएनयू से मेरे भी कुछ मित्र आते हैं इसलिए मुझे लगा कि जेएनयू पर टिप्पणी की जा सकती है। बिना मित्रता के हमारे यहां दुश्मन पर भी कुछ लिखने की परंपरा नहीं है। परंपरा से मैं भी डरता हूं; दरअसल यह होती ही डराने के लिए है। जे एन यू की भी ज़रुर कुछ परंपराएं होंगी हांलांकि इसे परंपरा तोड़ने के लिए भी जाना जाता है। परंपरा के चक्कर में कुछ प्रगतिशील भी कई बार डरावने ढंग से नाराज़ हो जाते हैं इसलिए मैं परंपरा से दोबारा-तिबारा डरता हूं।

जेएनयू के मार्क्सवादियों का और बाहर के राष्ट्रवादियों का विरोध जगजाहिर है। मैं इनकी समानताओं पर मिनी चर्चा करुंगा। राष्ट्रवादियों के पास गंगा नदी है तो जेएनयूवादियों के पास गंगा ढाबा है। सुनने में आता है कि इस ढाबे में तपस्या करके भी कई लोग सिद्धि प्राप्त करते हैं। सुना हैं यहां भी ऐसी आध्यात्मिक गिलहरियां पाई गईं हैं जैसी रामजी के पुल बनाने के किन्हीं वर्णनों में सुनी जाती रही हैं। गंगा ढाबा भी अब लगभग एक तीर्थस्थल के रुप में मान्यता प्राप्त कर रहा है या करवाया जा रहा है। अब दर्शक बड़ी बेसब्री से किसी जमुना नाम के खोखे का इंतज़ार कर रहे हैं।

राष्ट्रवादियों के अपने देवता हैं जिनके खि़लाफ़ एक लफ्ज़ भी सुनना उन्हें गंवारा नहीं है, जेएनयूवादियों के भी अपने देवता हैं। आपको विश्वास न हो तो आप हरिशंकर परसाईं के व्यंग्य में कोई कमी बताकर देखिए। मैंने आज तक परसांई की कोई ऐसी आलोचना नहीं पढ़ी जिसमें आलोचना हो। वहां अकसर प्रशंसा को ही आलोचना माना जाता है। हांलांकि पढ़ता मैं आजकल अनपढ़ो से भी कम हूं इसलिए अपवादस्वरुप कुछ मिल जाए तो उन्हें प्रक्षिप्त/विक्षिप्त अंश (जो भी है) मानकर मुझे क्षमा कीजिएगा।

राष्ट्रवादियों की अपनी कुछ क़िताबें हैं जिन्हें आपने न पढ़ा हो तो ये आपसे बात करने को तैयार नहीं होते, जेएनयूवादी भी कई क़िताबें बहस के बीच-बीच में प्रेसक्राइब करते रहते हैं, जिन्हें न मानने पर ये भी आपसे बहुत ज़्यादा ख़ुश नहीं होते।

एक और तरह के अनुभव भी मुझे और दूसरे लोगों को दोनों टीमों के बारे में हुए हैं। कि अगर आप एक दिन किसी बात पर इनका समर्थन करो तो ये भी आपको ‘अज़ीम शायर’, भविष्य का क़ैफ़ी आज़मी, कोहली जैसा व्यंग्यकार घोषित कर देते हैं। तीन दिन बाद किसी बहस में आप इनके खि़लाफ़ कोई तर्क दे दो तो ये वहीं हाथ के हाथ आपको गोबरगणेश का तमग़ा भी प्रदान कर देते हैं। दोनों टीमों में इस तरह के परिपक्व लोग मिलते-जुलते रहते हैं।

मार्क्सवाद जेएनयू के दरवाज़े पर ही धर्मरक्षक की तरह घूमता मिल जाता होगा, ऐसी मेरी कल्पना है। भीतर मार्क्स की चलती-फिरती मूर्तियां मिलती हैं, यह मेरी फ़ैंटसी है।

बाक़ी छोटी टिप्पणी में ज़्यादा क्या कहा जाए, आप तो जानते ही हैं कि मार्क्सवाद तो क्या भारतीय संस्कृति तो ख़ुलेआम सबको अपना लेती है। इस टिप्पणी से पता लगता ही है कि जेएनयू पर भी उसका अच्छा प्रभाव है।

बाद में दफ़ना भी देती हो तो इस बारे में मेरे कोई विचार नहीं है।

मुझे परंपरा का भी ख़्याल आ गया है।

-संजय ग्रोवर
03-07-2013

(on पागलखाना facebook)
https://www.facebook.com/groups/PaagalBachchePaagalAchchhe/

Tuesday, 30 January 2018

शामिल सोच

मैं एक परिचित को बता रहा था कि सोशल मीडिया पर कोई नयी बात लिखो तो कैसे लोग पहले यह कहकर विरोध करते हैं कि ‘फ़लां आदमी बीमार मानसिकता रखता है’, ‘फ़लां आदमी ज़हर फैला रहा है’, ‘फ़लां आदमी निगेटिव सोच का है’. फिर उस आदमी को पर्याप्त बदनाम करके कुछ अरसे बाद वही बात अपने नाम से लिखके या बताके नये का क्रेडिट ले लेते हैं।

परिचित ने कहा कि आपको भी घर से निकलना चाहिए, घर से नहीं निकलोगे तो लोग तो यहीं करेंगे.....


मुझको यह तर्क/सोच बिलकुल ऐसे ही लगी जैसे लड़कियां छोटे कपड़े पहनेंगी तो बलात्कार तो होगा ही ; फ़लां लड़की तो पहले ही वेश्या है, मैंने ज़रा छेड़ दिया तो क्या हो गया ; लड़की सीधी है तो लोग तो छेड़ेंगे ; बलात्कार के बारे में बताओगे तो बदनामी तुम्हारी ही होगी ; सब नाजायज़ कमरे बना रहे हैं तो तुम कब तक नहीं बनाओगे.....

आपको क्या लगता है ?

-संजय ग्रोवर
30-01-2018

Monday, 3 April 2017

आर्शीवाद के अंडे

व्यंग्य

अपने देश में ऐसी चीज़ों को बहुत महत्व दिया जाता है जो कहीं दिखाई ही नहीं पड़तीं, पता ही नहीं चलता होतीं भी हैं या होती ही नहीं हैं। हम लोग कुछ पता करने की कोशिश भी नहीं करते। कई बार लगता है कि सिर्फ़ टीवी चैनल ही नहीं बल्कि आम लोग भी टीआरपी देखकर अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले लेते हैं। आपने कई बार विजेताओं/सफ़ल लोगों को यह कहते देखा या सुना होगा कि मैं आज जो कुछ भी हूं फ़लाने के आर्शीवाद की वजह से हूं, यह पुरस्कार/ट्रॉफ़ी/मेडल मुझे ढिकानों की दुआओं की वजह से मिला है आदि-आदि। मैं सोचता हूं कि जो बेचारे दूसरे-तीसरे नंबर पर आए हैं उनके शुभचिंतकों ने आर्शीवाद कुछ कम दिया था क्या !? और जो हार गए उनके घरवालों ने क्या श्राप देकर भेजा था !? या उनका आर्शीवाद नक़ली था!? उसमें मिलावट थी!? वे क्यों हार गए ? किसी भी क्षेत्र या प्रतियोगिता में जीतनेवाले तो दो-चार ही होते हैं, हारनेवाले कई बार सैकड़ों-हज़ारों में होते हैं। इससे तो लगता है कि आर्शीवाद इत्यादि जीतने के काम कम और हारने में काम ज़्यादा आता है।

मैं तो सोचता हूं अगर आर्शीवाद और दुआओं में इतनी शक्ति है तो गुरुओं/कोच/संबंधित अधिकारियों को कहना चाहिए कि जो लोग बिना आर्शीवाद के आए हैं वे लोग नेट-प्रैक्टिस/रियाज़/अभ्यास करें और जो आर्शीवाद साथ लाए हैं उन्हें डायरेक्ट ऐंट्री दी जाती है। क्योंकि असली काम तो आर्शीवाद से ही होता है, बाक़ी चीज़े तो टाइमपास ही हैं। फ़ालतू का झंझट ख़त्म ही करो न। जिनको आर्शीवाद वगैरह पर कुछ डाउट वगैरह है उनके भी मुंह वगैरह अपनेआप बंद हो जाएंगे जब वो देखेंगे कि लोग बिना कुछ किए ही सिर्फ़ आर्शीवाद के बल पर ईनाम और सफ़लता वगैरह ले-लेकर जा रहे हैं। 

कई लोग गंभीर बीमारी या ऐक्सीडेंट के बाद जब ठीक हो जाते हैं तो डॉक्टर या विज्ञान को परे फेंककर कहते हैं कि मैं फलां जी के आर्शीवाद और ढिकां जी की दुआओं और भगवान की मर्ज़ी से ठीक हो गया हूं। इनसे पूछना चाहिए कि जब तुम्हारी टांग टूटी थी तो वो किसके आर्शीवाद से टूटी थी ? कैंसर किसकी दुआओं से हुआ था ? अटैक किसकी मर्ज़ी से आया था ? ज़रा उसके लिए भी तो फ़लां-ढिकां के दुआ/आर्शीवाद और भगवान साहब की मर्ज़ी को क्रेडिट दे दो। मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू!?

एक दफ़ा जब मैं घर बदलने जा रहा था तो एक प्रगतिशील परिचित ने हिदायत दी कि वहां पर पड़ोसियों से पटाकर रखना। मैंने सोचा कि पड़ोसी क्या कोई गुंडे वगैरह होते हैं जो सुबह-शाम उनकी शान में आदाब बजाना ज़रुरी है!? मैंने क्या कोई उल्टे-सीधे काम करने हैं जो इससे-उससे पटाके रखूं!? अगर ठीक काम करने हैं तो फिर डरना क्यों ? अगर ग़लत काम करुं तो सज़ा मिलनी ही चाहिए, चाहे जितना भी पटाके रखूं। पटाके रखने से क्या ग़लत काम सही हो जाएंगे!? अगर हर किसीसे पटाकर ही रखनी पड़ेगी तो फिर इतने सारे आर्शीवाद और दुआएं क्या फ़ालतू में जमा करके रखे थे!? फिर लोकतंत्र और उदारता क्या त्यौहार मनाने भर के लिए हैं !? मेरे पास वक़्त हो, काम जायज़ हो, मेरे बस का हो, मेरा मूड हो तो रास्ता चलते आदमी का भी कर सकता हूं ; ग़लत काम हो तो पड़ोसी का भी क्यों करुं!? दरअसल जो बात सिखाने की है वो यह है कि पड़ोसी से ज़बरदस्ती मत करो, पड़ोसी क्या किसीसे भी ज़बरदस्ती मत करो। अपनी उंगलियों पर थोड़ा नियंत्रण रखो।   

फिर यही लोग छाती भी पीटते हैं कि रास्तों पर कोई किसीकी मदद नहीं करता! कैसे करेगा भैया ? बीच में तुमने ही तो इतनी शर्तें लागू कर रखीं हैं-कि पड़ोसी से पटाके रखो, बुर्ज़ूगों का आर्शीवाद लो, दोस्ती पहले निभाओ.......। अब रास्ता चलनेवाला हर आदमी पड़ोसी, दोस्त, रिश्तेदार तो होता नहीं ; इसलिए लोग दूसरों को पिटता-मरता छोड़ भाग जाते हैं। पहले दर्द भी तुम्ही दे देते हो, फिर दवाएं भी अजीब-अजीब लेकर आ जाते हो!

बाक़ी दुआओं के महत्व पर आपने पुराना और प्रसिद्व गाना सुन ही रखा होगा कि ‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले...’ । हर शादी में सुबह-सुबह पौ-फटे यह गाना बजता था। आजकल कौन-सा गाना फटता है, पता नहीं। कई लोग रोने लगते थे। तमाम उलाईयों-रुलाईयों बावजूद लोगों को यह आयडिया नहीं आता था कि ऐसे रीति-रिवाज क्यों न बंद कर दें जिनकी वजह से सुबह-सवेरे जुकाम नाक में लटक आता है और आदमी ख़ुद भी ज़िंदगी-भर लटका ही रहता है। क्योंकि कोई भारतीय ख़ाली दुआएं लेकर नहीं टलता, अच्छा-ख़ासा दहेज भी हड़प जाता है। उसके बाद भी आए दिन क़िस्तें देनी होतीं हैं, देती ही रहनी होती हैं। उस सबके बाद दुआएं ले जानेवाली को कौन-सा सुखी संसार मिलता है, यह इसीसे पता चलता है कि आज तक वही कॉमेडी की केंद्रीय पात्रा बनी हुई है और दहेज का बाल तक बांका नहीं हुआ।

और ले लो आर्शीवाद। बटोर ले जाओ दुआएं। सुखी संसार रसोई की काली कोठरी में इंतज़ार कर रहा है।

-संजय ग्रोवर
03-04-2017