Monday 31 December 2018

दूसरी तरह की सामाजिकता

कम-अज़-कम दो तरह की सामाजिकता समझ में आती है-एक जो सीखी हुई या रटी हुई सामाजिकता है जिसमें हमारे माता-पिता, क़िताबों, गुरुओं, बुज़ुर्गों ने जो सिखा दिया है उसे हम किसी कर्मकांड की तरह बिना सोचे-समझे निभाते जाते हैं, बिना यह जानने की कोशिश किए कि इससे वास्तव में समाज का कुछ भला भी हो रहा है या उल्टे कहीं कुछ बुरा तो नहीं हो रहा! दूसरी जो नास्तिक की सामाजिकता कही जा सकती है, रोज़ाना, घटनाओं के आधार पर बिना पूर्वाग्रहों के, अपनी समझ से तय की जानेवाली सामाजिकता। बिना यह जाने कि सामनेवाला मेरा रिश्तेदार, दोस्त या जानकार है या नहीं, इससे मुझे कोई फ़ायदा होगा या नहीं, मैं सामनेवाले की मदद कर दूं। पहली सामाजिकता के अनुसार आप सिर्फ़ उन लोगों के काम आएंगे जिनके बारे में आपके माता-पिता, आपके शास्त्रों ने तय कर दिया है। इसके तहत आपको एक ऐसे परिचित की ऐसी शवयात्रा में जाना ज़रुरी लगेगा जिसमें बड़ी मात्रा में लोग आनेवालें हैं और जहां आपके न जाने से शायद रत्ती-भर भी फ़र्क नहीं पड़नेवाला मगर आपका वहां होना ‘गिना’ ज़रुर जाएगा। दूसरी सामाजिकता में आप एक ऐसे आदमी की मदद को भी खड़े हो जाएंगे जिससे आप पहले कभी मिले भी नहीं मगर आपको लगता है कि इसे आपकी सचमुच ज़रुरत है, यह अकेला है या सच्चा है और आपके होने मात्र से इसे हौसला मिलेगा। वहां आप यह नहीं देखेंगे कि वहां आपको कुछ मिलेगा कि नहीं, कहीं आपका कुछ नुकसान तो नहीं हो जाएगा।

समाज कुछ चीज़ें तय कर देता है कि यह अच्छाई है, यह बुराई है, इस तरह का आदमी सामाजिक है, उस तरह का असामाजिक है, इस तरह के लोगों के सामने फ़लां तरह की शारीरिक क्रियाएं करना या पोज़ बनाना आदर है और न बनाना निरादर है.........

पहली सामाजिकता के अनुसार आप सिर्फ़ उन लोगों के काम आएंगे जिनके बारे में आपके माता-पिता, आपके शास्त्रों ने तय कर दिया है। इसके तहत आपको एक ऐसे परिचित की ऐसी शवयात्रा में जाना ज़रुरी लगेगा जिसमें बड़ी मात्रा में लोग आनेवालें हैं और जहां आपके न जाने से शायद रत्ती-भर भी फ़र्क नहीं पड़नेवाला मगर आपका वहां होना ‘गिना’ ज़रुर जाएगा।

धीरे-धीरे ये चीज़ें कर्मकांडों फ़िर रुढ़ियों में बदल जातीं हैं और इनसे ज़्यादा लाभ औसत बुद्धि के लोगों को होता है जो ख़ुदका दिमाग़ लगाकर सोचने-समझने में यक़ीन नहीं रखते। उनसे भी ज़्यादा लाभ पाखंडियों को होता है। जहां यह मान लिया गया हो कि सुबह चार बजे मंदिर जानेवाला आदमी अच्छा आदमी होता है तो ऐसे में बुरे आदमी का काम बहुत आसान हो जाता है। जो भी उसे सुबह मंदिर जाते देखेगा, अच्छा आदमी मानेगा। उसके बाद वह दिन भर चाहे किसी ग़रीब को पीटे, पैसे मारे, बिल न चुकाए, कुछ भी करता फिरे।

इस सबमें सबसे ज़्यादा नुकसान एक तो यह होता है कि जहां सब कुछ पहले से तय होता है वहां मानव मस्तिष्क के प्रयोग और विकास की संभावनाएं क्षीण होती जातीं हैं। नए विचार के लिए कोई रास्ता नहीं बचता। दूसरा, अच्छा कहलाने के लिए आपको कोई भी अच्छा काम करना और ख़ासकर जोखि़म-भरा काम करना ज़रुरी नहीं होता बल्कि कुछ कर्मकांड ही करने होते हैं जो कि अपेक्षाकृत निहायत आसान और जोखि़मरहित होते हैं। इसके विपरीत दूसरे तरह की सामाजिकता में आपको बात-बात पर आपको विरोध सहना पड़ सकता है, नुकसान उठाना पड़ सकता है, अकेला हो जाना पड़ सकता है। चूंकि आपकी बात नयी है, अलग़ है तो आपको उसके पक्ष में बारम्बार तर्क और उदाहरण देने पड़ सकते हैं।

इसके अलावा कोई तीसरे तरह की सामाजिकता समझ में आती है तो ज़रुर यहां बताएं।



-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
7 July 2013

No comments:

Post a Comment