Showing posts with label ज़बरदस्ती. Show all posts
Showing posts with label ज़बरदस्ती. Show all posts

Monday, 16 April 2018

बलात्कार का स्वाद



मंदिर में बच्ची से बलात्कार की ख़बर क्या कुछ लोगों को चौंका सकती है ? क्या उन लोगों को भी जो कहते हैं ‘भगवान की मरज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता’! क्या उन लोगों को भी जो कहते हैं ‘बच्चे ईश्वर का रुप होते हैं’ ! लेकिन वही लोग यह भी कहते है कि ‘कण-कण में भगवान है’, ‘भगवान हर जगह मौजूद है
’, ‘भगवान की लाठी में आवाज़ नहीं होती’, ‘भगवान जो चाहता है वही होता है’.....  

सही बात यह है कि अगर हम मान भी लें कि भगवान होता है तो भी यह मानना पड़ेगा कि वह फ़िल्मों, कहानियों और कविताओं में ही कमज़ोरों के काम आता है। कमज़ोरों और ग़रीबों को वास्तविकता में उससे कभी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। हम थोड़ी अक़्ल लगाने को तैयार हों तो यह सोचने में क्या बुराई है कि भगवान ने स्त्रियों को ऐसा क्यों नहीं बनाया कि कोई उनसे बलात्कार की सोच ही न सके ? उसने बलात्कारियों को ऐसा क्यों नहीं बनाया कि बलात्कार की बात उनके दिल में आए ही नहीं ? जब-जब बलात्कार और अत्याचार होता है, भगवान छुट्टी पर क्यों चला जाता है ?

विचार के नाम पर हम कब तक रट्टा मारते रहेंगे ? कोई कह रहा है कि मेरे घर में भी स्त्रियां हैं इस नाते मैं बलात्कार का विरोध करता हूं। अरे भैया बलात्कारी के घर में भी स्त्रियां हैं। कोई कहता है कि जिनके घर में बेटियां हैं उनको बलात्कार का विरोध करना चाहिए। और जिनके घर में नहीं है उनको क्या समर्थन करना चाहिए ? 

सही बात यह है कि हमको ज़बरदस्ती का स्वाद लग चुका है ? 


(जारी)

(अगला हिस्सा)


-संजय ग्रोवर
16-04-2018

Sunday, 20 December 2015

धर्म

लघुव्यंग्य

एक बच्चे को, पैदा होते ही, उसके घरवालों ने पैजामा पहना दिया, और उसे पैजामा-पैजामा बुलाने लगे।

बड़ा होता बच्चा इससे परेशान होने लगा तो ऐतराज़ करने लगा कि सर से पांव तक पैजामा चढ़े होने की वजह से खाने-पीने-पहनने-बात करने, हर काम में परेशानी होती है।

मां-बाप बोले कि ये पैजामा नहीं है, ये तुम हो, इसके बिना तुम्हारा कोई मतलब नहीं है, दूसरे बच्चों को देखो-वो भी तो कोई चड़ढी है, कोई पतलून है, कोई शर्ट है, कोई लुंगी है, कोई धोती है, कोई ब्लाउज़ है......

बच्चे ने देखा, चारों तरफ़ आदमक़द चड्ढियां, साड़ियां, धोतियां, ब्लेज़र, ट्राउज़र्स वग़ैरह कांए-कांए करते घूम रहे थे।

बच्चा घबरा गया, या कहने को कह सकते हैं कि प्रभावित हो गया, समझ गया और उसने समर्पण कर दिया।

अब चारों तरफ़ प्रभावित पैजामे हैं, चड्ढियां हैं, बनियाने हैं......

इनमें से किसीको भी नहीं मालूम कि जब ये पैदा हुए थे तब ये सब इंसान थे।

-संजय ग्रोवर
20-12-2015

Tuesday, 15 September 2015

कौन मरा ?


मशहूर डायलॉग है-

जो डर गया समझो मर गया।

भारत में यह डायलॉग बहुत कामयाब हुआ, घर-घर में बच्चे इसे बोलते दिखाई दिये।

यह बात अलग है कि यहां बच्चा पैदा होते ही उसके साथ किए जानेवाले कुछ शुरुआती कामों में से एक ज़रुरी काम यह होता है कि बच्चे को कई चीज़ों से डराया जाता है, सबसे ज़्यादा भगवान से डराया जाता है।

ऐसे डरे हुए बच्चे जीते होंगे या डरते होंगे या कि बस .......

और आप ही तो गली-गली कहते फिरते हैं-

जो डर गया समझो मर गया।

-संजय ग्रोवर
15-09-2015

Labels : Moving Dead Bodies , Child-Victimization , Terror Of God , Forced Virtue , Dead-Live