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Tuesday, 1 January 2019

एक बड़ा खेल है प्रतीकात्मकता

प्रतीकात्मकता के कुछ वास्तविक फ़ायदे भी होते होंगे जो कि मुझे मालूम नहीं हैं लेकिन दुरुपयोग इसका जाने-अनजाने में ख़ूब होता लगता है। यहां तक कि ईमानदारी के आंदोलनों के दौरान या अंत में लोग अपनी कलाई में बंधे धागे नचाते हैं और स्टेज पर रोज़े खोलते हैं। पता नहीं ये लोग जानते हैं या नहीं जानते कि यह ईमानदारी को धर्म से कन्फ्यूज़ करने की कोशिश हो जाती है। आम लोगों में प्रचलित कर्मकांडो का ईमानदारी से सीधे-सीधे कोई भी संबंध नहीं है। तिसपर यही लोग इन्हीं आंदोलनों में धर्म और जाति से ऊपर उठने के उपदेश भी बांच रहे होते हैं।

दरअसल व्यवहारिक जीवन में ईमानदारी इतना मुश्क़िल काम है कि इसकी सही-सही परिभाषा तक संभव नहीं लगती। इसके विपरीत कर्मकांड बेहद ही आसान, लगभग बचपन में खेले जानेवाले गुड्डे-गुड़िया के खेल की तरह होते हैं। कई बार मुझे लगता है कि जब हम मिले हुए आदर्शों/नैतिकताओं को वास्तविक या व्यवहारिक जीवन में नहीं उतार पाते तो प्रतिक्रियास्वरुप उत्पन्न अपराधबोध को कर्मकांडों या प्रतीकात्मकता से छुपाकर/भुलाकर/ढंककर अपने खोखलेपन को भरने की, ख़ुदको झूठी तसल्ली देने की कोशिश में लग जाते हैं। ज़ाहिर है कि सड़क पर लपककर किसीके पांव छूने में, सुबह उठकर नहाने में, राखी बंधवाने में ऐसा कोई ख़तरा नहीं है जैसा कि किसी तथाकथित बड़े या सफ़ेदपोश अपराधी की असभ्यता की तरफ़ इशारा कर देने भर में है।

प्रतीकात्मकता, अपने यहां, बिना कुछ किए-धरे अपनी कई-कई पीढ़ियों को ऊंचा, अच्छा और महान बना/ठहरा लेने का जुगाड़ ज़्यादा रहा है। पुरानी कहानियों में राक्षसों का बुरा बताने के लिए उनके सर पर सींग तक उगा दिए गए, उनका रंग काला कर दिया गया, उनके चेहरे डरावने कर दिए गए। आदमी की अच्छाई-बुराई का उसकी शक़्ल और रंग से क्या मतलब हो सकता है भला ? लेकिन इस तरह की प्रतीकात्मकता ने सैकड़ों सालों के लिए आदमी को धुंध में डाले रखा। संभवतः यह एक बड़ा खेल है और इसे बारीक़ी से समझना चाहिए।

-संजय ग्रोवर
25/26-02-2014
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)

Monday, 3 April 2017

आर्शीवाद के अंडे

व्यंग्य

अपने देश में ऐसी चीज़ों को बहुत महत्व दिया जाता है जो कहीं दिखाई ही नहीं पड़तीं, पता ही नहीं चलता होतीं भी हैं या होती ही नहीं हैं। हम लोग कुछ पता करने की कोशिश भी नहीं करते। कई बार लगता है कि सिर्फ़ टीवी चैनल ही नहीं बल्कि आम लोग भी टीआरपी देखकर अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले लेते हैं। आपने कई बार विजेताओं/सफ़ल लोगों को यह कहते देखा या सुना होगा कि मैं आज जो कुछ भी हूं फ़लाने के आर्शीवाद की वजह से हूं, यह पुरस्कार/ट्रॉफ़ी/मेडल मुझे ढिकानों की दुआओं की वजह से मिला है आदि-आदि। मैं सोचता हूं कि जो बेचारे दूसरे-तीसरे नंबर पर आए हैं उनके शुभचिंतकों ने आर्शीवाद कुछ कम दिया था क्या !? और जो हार गए उनके घरवालों ने क्या श्राप देकर भेजा था !? या उनका आर्शीवाद नक़ली था!? उसमें मिलावट थी!? वे क्यों हार गए ? किसी भी क्षेत्र या प्रतियोगिता में जीतनेवाले तो दो-चार ही होते हैं, हारनेवाले कई बार सैकड़ों-हज़ारों में होते हैं। इससे तो लगता है कि आर्शीवाद इत्यादि जीतने के काम कम और हारने में काम ज़्यादा आता है।

मैं तो सोचता हूं अगर आर्शीवाद और दुआओं में इतनी शक्ति है तो गुरुओं/कोच/संबंधित अधिकारियों को कहना चाहिए कि जो लोग बिना आर्शीवाद के आए हैं वे लोग नेट-प्रैक्टिस/रियाज़/अभ्यास करें और जो आर्शीवाद साथ लाए हैं उन्हें डायरेक्ट ऐंट्री दी जाती है। क्योंकि असली काम तो आर्शीवाद से ही होता है, बाक़ी चीज़े तो टाइमपास ही हैं। फ़ालतू का झंझट ख़त्म ही करो न। जिनको आर्शीवाद वगैरह पर कुछ डाउट वगैरह है उनके भी मुंह वगैरह अपनेआप बंद हो जाएंगे जब वो देखेंगे कि लोग बिना कुछ किए ही सिर्फ़ आर्शीवाद के बल पर ईनाम और सफ़लता वगैरह ले-लेकर जा रहे हैं। 

कई लोग गंभीर बीमारी या ऐक्सीडेंट के बाद जब ठीक हो जाते हैं तो डॉक्टर या विज्ञान को परे फेंककर कहते हैं कि मैं फलां जी के आर्शीवाद और ढिकां जी की दुआओं और भगवान की मर्ज़ी से ठीक हो गया हूं। इनसे पूछना चाहिए कि जब तुम्हारी टांग टूटी थी तो वो किसके आर्शीवाद से टूटी थी ? कैंसर किसकी दुआओं से हुआ था ? अटैक किसकी मर्ज़ी से आया था ? ज़रा उसके लिए भी तो फ़लां-ढिकां के दुआ/आर्शीवाद और भगवान साहब की मर्ज़ी को क्रेडिट दे दो। मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू!?

एक दफ़ा जब मैं घर बदलने जा रहा था तो एक प्रगतिशील परिचित ने हिदायत दी कि वहां पर पड़ोसियों से पटाकर रखना। मैंने सोचा कि पड़ोसी क्या कोई गुंडे वगैरह होते हैं जो सुबह-शाम उनकी शान में आदाब बजाना ज़रुरी है!? मैंने क्या कोई उल्टे-सीधे काम करने हैं जो इससे-उससे पटाके रखूं!? अगर ठीक काम करने हैं तो फिर डरना क्यों ? अगर ग़लत काम करुं तो सज़ा मिलनी ही चाहिए, चाहे जितना भी पटाके रखूं। पटाके रखने से क्या ग़लत काम सही हो जाएंगे!? अगर हर किसीसे पटाकर ही रखनी पड़ेगी तो फिर इतने सारे आर्शीवाद और दुआएं क्या फ़ालतू में जमा करके रखे थे!? फिर लोकतंत्र और उदारता क्या त्यौहार मनाने भर के लिए हैं !? मेरे पास वक़्त हो, काम जायज़ हो, मेरे बस का हो, मेरा मूड हो तो रास्ता चलते आदमी का भी कर सकता हूं ; ग़लत काम हो तो पड़ोसी का भी क्यों करुं!? दरअसल जो बात सिखाने की है वो यह है कि पड़ोसी से ज़बरदस्ती मत करो, पड़ोसी क्या किसीसे भी ज़बरदस्ती मत करो। अपनी उंगलियों पर थोड़ा नियंत्रण रखो।   

फिर यही लोग छाती भी पीटते हैं कि रास्तों पर कोई किसीकी मदद नहीं करता! कैसे करेगा भैया ? बीच में तुमने ही तो इतनी शर्तें लागू कर रखीं हैं-कि पड़ोसी से पटाके रखो, बुर्ज़ूगों का आर्शीवाद लो, दोस्ती पहले निभाओ.......। अब रास्ता चलनेवाला हर आदमी पड़ोसी, दोस्त, रिश्तेदार तो होता नहीं ; इसलिए लोग दूसरों को पिटता-मरता छोड़ भाग जाते हैं। पहले दर्द भी तुम्ही दे देते हो, फिर दवाएं भी अजीब-अजीब लेकर आ जाते हो!

बाक़ी दुआओं के महत्व पर आपने पुराना और प्रसिद्व गाना सुन ही रखा होगा कि ‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले...’ । हर शादी में सुबह-सुबह पौ-फटे यह गाना बजता था। आजकल कौन-सा गाना फटता है, पता नहीं। कई लोग रोने लगते थे। तमाम उलाईयों-रुलाईयों बावजूद लोगों को यह आयडिया नहीं आता था कि ऐसे रीति-रिवाज क्यों न बंद कर दें जिनकी वजह से सुबह-सवेरे जुकाम नाक में लटक आता है और आदमी ख़ुद भी ज़िंदगी-भर लटका ही रहता है। क्योंकि कोई भारतीय ख़ाली दुआएं लेकर नहीं टलता, अच्छा-ख़ासा दहेज भी हड़प जाता है। उसके बाद भी आए दिन क़िस्तें देनी होतीं हैं, देती ही रहनी होती हैं। उस सबके बाद दुआएं ले जानेवाली को कौन-सा सुखी संसार मिलता है, यह इसीसे पता चलता है कि आज तक वही कॉमेडी की केंद्रीय पात्रा बनी हुई है और दहेज का बाल तक बांका नहीं हुआ।

और ले लो आर्शीवाद। बटोर ले जाओ दुआएं। सुखी संसार रसोई की काली कोठरी में इंतज़ार कर रहा है।

-संजय ग्रोवर
03-04-2017

Wednesday, 3 August 2016

असलियत से भागने के सम्मानित उपाय

कभी क़िताब या कॉपी ज़मीन पर गिर जाती तो बच्चे झट से उठाते और ‘हाय! विद्या गिर गई!’ कहकर माथे से लगाने लगते। नहीं समझ पाता था कि ऐसा करने से क्या होगा? मेरी अपनी क़िताब-कॉपी गिरती तो मैं तो बस यही देखता कि फ़ट तो नहीं गई या मिट्टी तो नहीं लगी। लगी हो तो साफ़ करके बस्ते (स्कूल बैग) में रख लेता। प्रतीकात्मकता, कर्मकांड और रस्मो-रिवाज़ मेरी समझ में कभी नहीं आए। मैं यह भी जानता था कि क़िताब माथे से लगाने वाले कई बच्चे इम्तिहान के वक़्त नक़ल करने में कतई नहीं हिचकिचाते। उस वक़्त विरोध का साहस कम था, आत्मविश्वास का मतलब न तो पुरानी परिभाषाओं से समझ में आया था न ही उसको लेकर अपनी कोई समझ पैदा हुई थी, कई सालों तक बीच में लटकने जैसी स्थिति बनी रही।

दूसरे देशों का पता नहीं पर अपने यहां लगता है कि लोगों की आदत और दिलचस्पी असली काम करने या असली ज़िंदगी जीने से ज़्यादा रस्मों, कर्मकांडों और अभिनय में है। पता नहीं भारत में बहिनों की सचमुच रक्षा करनेवाले भाईयों का असली आंकड़ा क्या है मगर देखा है कि बहुत-से लोग धागों की रक्षा जमकर करते हैं। कई लोग रात को सोते समय या दिन में नहाते समय भी धागा अपने-से अलग नहीं करते। कई लोग हर साल रावण को मारकर बुराई का ख़ात्मा कर देते हैं तो कई लोग बीएसपी, कांग्रेस, आरएसएस, वामपंथ आदि को ग़ाली देकर बाक़ी समाज को भारमुक्त कर देते हैं। इस देश में तो, सुनने में आया है कि, शायरी और दर्ज़ीगिरी में भी काम सिखाने के पहले या बाद में उस्ताद और शागिर्द आपस में कुछ धागों की बांधा-बूंधी करते हैं। ऐसी जगह पर प्रगतिशीलता को समझ पाना या समझा पाना वाक़ई टेढ़ी खीर और कलेजे का काम है। कई लोग कपड़ों से प्रगतिशीलता और पढ़ाई-लिखाई नापा करते हैं। भारत में आठ महीने पड़नेवाली सड़ी गर्मी में कोट-टाई-जूते-जुराबें पहनकर पसीने-पसीने होते हुए, गिरते-पड़ते हुए भी ख़ुदको पढ़ा-लिखा और मॉडर्न कहलवा ले जाना मज़ाक़ कैसे हो सकता है !? प्रतीकात्मकता क्या कोई मज़ाक़ है!? कोई बोलके तो दिखाए! कई साल तक तो हम लोग छुरी-कांटों की ‘हाईजेनिकता’ समझने के बजाय उन्हें स्टेटस सिम्बल के तौर पर इस्तेमाल करते रहे।  

दिलचस्प है कि अपने यहां लोग अकसर कर्मकांड निभाने को ही बड़ी सामाजिक ज़िम्मेदारी मानते हैं। अकसर प्रगतिशील समझे जानेवाले पुरुष और स्त्रियां भी दहेज, लगन, तिलक, चूड़ा, भात आदि देने को सामाजिक ज़िम्मेदारी मानते हैं और इन्हें हटाने, बदलने या रोकने की बात या कोशिश करनेवालों को ही एक बुराई की तरह स्थापित करने में लग जाते हैं। ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ या ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ यहां एक नितांत ‘सहज’ सामाजिक आदत या चलन है। मेरी समझ में ऐसे लोग इंसानियत के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से भागे हुए लोग होते हैं। इनकी दिलचस्पी कमज़ोर पक्ष की स्थिति सुधारने के बजाय अमानवीय रीति-रिवाजों को निपटाकर तुरत-फु़रत महान बन जाने में होती है। ज़ाहिर है कि आज भी हमारे समाज में रिश्तों के नाम पर पैसे का अश्लील लेन-देन ख़ुलेआम चलता है और स्पष्टतः इस सारे आयोजन में कमज़ोर स्थिति स्त्रियों या लड़कीवालों की होती है। लेकिन यहां मर्दों के साथ तथाकथित प्रगतिशील स्त्रियां भी ख़ुशी-ख़ुशी भाग लेती दिखाई देतीं हैं। इन अवसरों पर होनेवाले रीति-रिवाजों और कर्मकांडों की उपयोगिता मैं कभी समझ नहीं पाया। इन रीति-रिवाजों और कर्मकांडों से न तो किसी काम के सफ़ल होने की गारंटी होती है न ही इनकी कोई ठोस वजह समझ में आती है। जो काम कोर्ट में आधे घंटे और मामूली ख़र्चे में हो सकता है उसके लिए इस तरह पैसा और वक़्त बर्बाद करना कतई समझ में नहीं आता।  

प्रतीकात्मकता में नाटकीयता या अभिनय का बड़ा रोल है। आप पूरे साल-भर सामाजिक बदलाव के लिए मामूली ख़तरा भी न उठाएं मगर दशहरे पर रावण के पुतले के दहन में ताली बजाकर समाज में सम्मानित बने रह सकते हैं। आप बहिन/स्त्री की रक्षा के वास्तविक काम को कभी न करते हुए भी मात्र धागा बंधाकर और कुछ धनराशि देकर अपने-आपको बहादुर, सामाजिक और मानवीय मान सकते हैं। लब्बो-लुआब यह कि प्रतीकात्मकता का ज़्यादातर खेल असली कामों को छोड़कर फ़ालतू के बचकाने रीति-रिवाजों से चलता है। जिस देश के लोग अपनी आधी से ज़्यादा ज़िंदगी बेमतलब के कर्मकांडों और (अपने ही बनाए अमानवीय रीति-रिवाजों के चलते) लड़के-लड़कियों के लिए रिश्ते देखने में लगा देते हों, उस देश का विज्ञान, विचार, आधुनिकता और मौलिकता में पिछड़ते चले जाना कोई हैरानी की बात नहीं मानी जानी चाहिए।


मैं रीति-रिवाजों में भाग लेने में बहुत उत्सुक तो कभी भी नहीं रहा और पिछले छः सात सालों से तो इस तरह के कामों से पूरी तरह छुटकारा पा चुका हूं। अब सिर्फ़ असली/वास्तविक और प्रामाणिक काम ही करता हूं। बेवजह, भीड़/समाज के डर से, वक़्त या पैसा बरबाद करनेवाला कोई काम नहीं करता। 


-संजय ग्रोवर
03-08-2016

(असलियत से भागने के सम्मानित उपाय-2)


Friday, 8 January 2016

मरे हुए विचारों की तस्वीरों पर माला

हम जब छोटे थे, किसी न किसी स्कूल में पढ़ने जाते थे। मुझे याद आता है वहां कहीं न कहीं दीवारों पर अच्छी-अच्छी बातें लिखी रहतीं थी, मसलन-‘झूठ बोलना पाप है’, ‘सदा सत्य बोलो’, ‘बड़ों का आदर करो’ आदि-आदि। लेकिन बहुत-से बच्चे तो पढ़ते ही नहीं थे। जो पढ़ते भी होंगे उन्हें उससे क्या प्रेरणा मिलती होगी क्योंकि असल जीवन में तो वे स्कूल में ही इसका उल्टा होते देख रहे होते होंगे। विचार के साथ तार्किकता भी होनी चाहिए जो कि एक-दो छोटे वाक्यों में लगभग असंभव है। जैसे कि ‘बड़ों का आदर करो’ मेरी समझ में क़तई अतार्किक बात है। उसपर तुर्रा यह कि कई छात्र जो टीचर को आते देख ‘गुरुजी, नमस्कार’ चिल्लाते थे, उन्हींमें से कई पीठ-पीछे गुरुजी को ग़ाली देने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगाते थे।

मैं कई सालों से जगह-जगह पढ़ता आया हूं कि ‘विचार अमर हैं’, ‘विचार कभी नहीं मरते’ आदि-आदि। ऐसी कई स्थापनाओं पर मन में कभी न कभी शंकाएं उठतीं रहीं हैं, अब चूंकि इंटरनेट जैसा माध्यम उपलब्ध है सो उन शंकाओं पर विचार करने और बांटने में सुविधा हो गई है। आखि़र विचार के न मरने से हमारा तात्पर्य क्या है ? क्योंकि विचार जगह-जगह दीवारों पर लिखे होते हैं ! क्योंकि विचार फ़िल्मों में डायलॉग की तरह इस्तेमाल हो रहे होते हैं ? क्योंकि उनके या उनके प्रकट करनेवाले को कुछ ट्राफ़ियां और पुरस्कार जीतेजी या मरणोपरांत दे दिए जाते हैं ? या कि उनके नाम पर ट्राफ़ियां या पुरस्कार बांटे गए होते हैं ? क्या यह विचारों के जीवित रहने का सबूत है ? एक दुकान जिसपर सामने बड़े-बड़े और सुंदर अक्षरों में लिखा है कि ‘न कुछ साथ लेकर आए थे, न लेकर जाओगे', वहीं दुकानदार ग्राहक की जेब में से सारे पैसे लूट ले रहा है तो क्या हम इसे विचारों का ‘जीवित रहना’ कहेंगे !?


क्या मोहम्मद रफ़ी मार्ग(अगर हो) से गुज़रनेवाले हर आदमी का गला सुरीला हो जाएगा ? मुझे ख़ूब अच्छी तरह याद है कि एक वक़्त में, बस में सफ़र करते हुए, मैं जगह-जगह लिखा देखता कि ‘दहेज लेना-देना जुर्म है’। मगर व्यवहारिक रुप से तब भी इसका उल्टा होता था आज भी होता है जबकि दहेज के खि़लाफ़ सख़्त क़ानून मौजूद हैं। मगर आप यह भी सोचिए कि जिस पेंटर ने यह पेंट किया है उसके लिए यह सिर्फ़ उसका धंधा है, दरअसल वह दहेज का समर्थक है। जिसने लिखवाया है, उसकी मानसिकता भी कुछ अलग होगी, लगता तो नहीं है। जो इसे पढ़ रहा है वह भी टाइम पास कर रहा है। वह इसे कभी ठीक से पढ़ नहीं पाएगा क्योंकि इससे पहले जो व्यवहारिक पढ़ाई उसने पढ़ रखी है वह इससे उलट है। या तो वह दुनियादारी निभा ले या विचार आज़मा ले। और हर किसीको दुनियादारी बड़ी प्यारी है। हां, जिस दिन यह विचार बल्कि विचार करना दुनियादारी का हिस्सा बन जाएगा, उस दिन ज़रुर कुछ संभावना पैदा हो सकती है। वह तभी हो सकता है जब एक-एक व्यक्ति नाम, मशहूरी, टीवी कवरेज आदि-आदि की चिंता कि
 बिना विचार को व्यक्तिगत जीवन में आज़माए।

जैसे जगह-जगह महात्मा गांधी व अन्य महापुरुषों की तस्वीरें लगीं हैं ऐसे ही विचार भी टंगे हैं। वे मर गए हैं और लोग उनकी तस्वीरों पर माला चढ़ाकर ख़ुश हो रहे हैं।


विचारों के मरते चले जाने पर भी ज़रा विचार करें।



-संजय ग्रोवर
08-01-2016

Thursday, 31 December 2015

रंगो और प्रतीकों का चालू खेल-1

शाहरुख़ खान की फ़िल्म ‘दिलवाले’ का ‘रंग दे तू मोहे गेरुआ’ देखकर मुझे आमिर खान की ‘रंग दे बसंती’ याद आ गई (आप कहेंगे निर्देशकों के नाम क्यों नहीं लिखे तो मैं कहूंगा कि फ़िल्म के प्रोमोज़ में हीरो-हीरोइन को जिस तरह आगे किया जाता है और बातचीत की जाती है कि लगता है फ़िल्म उन्हींने बनाई है, सो निर्देशक याद ही नहीं रह पाता)। फ़िल्म में बसंती रंग से जुड़े किन्हीं दबंगों की ख़बर ली गई थी और साथ में फ़िल्म के नाम और कथ्य में इसी रंग को महिमामंडित भी किया गया था। इसीसे मुझे याद आया कि तथाकथित भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ रामदेव से शुरु होकर अन्ना हज़ारे तक पहुंचे तथाकथित आंदोलन के इंटरवल के दौरान आमिर खान ने ही मंच पर आकर, बाक़ायदा टोपी लगाए हुए अपना रोज़ा खोला था और अन्ना हज़ारे को जूस वगैरह पिलाकर अनशन वगैरह ख़त्म कराया था। बाद में इन्हीं आमिर की ‘पीके’ आ गई जिसमें धार्मिक प्रतीकों की हंसी उड़ाई गई थी। 

ऐसे विरोधाभास हमारे जीवन में कोई एक दिन की नहीं, बल्कि आए दिन की बात है। 

बाद में यह भी कहा गया कि अन्ना हज़ारे बीजेपी के आदमी हैं और केजरीवाल प्रगतिशील हैं। और तथाकथित प्रगतिशीलों की एक पूरी की पूरी फ़ौज केजरीवाल के पीछे खड़ी दिखाई देने लगी। मैं बहुत चक्कर में पड़ गया। भगवान-भगवान, अनशन-अनशन, चमत्कार-चमत्कार रामदेव भी कर रहे थे, अन्ना भी कर रहे थे और केजरीवाल भी कर रहे थे। फिर इनमें से कोई कट्टर, कोई मध्यमार्गी और कोई प्रगतिशील कैसे हो गया !? इस हिसाब से तो आमिर खान बीजेपी के आदमी हुए! या वे किसी ग़लतफ़हमी में अन्ना का अनशन तुड़वा आए थे!? या यह कोई फ़िल्म चल रही थी जिसमें सबके जुड़वां और डुप्लीकेट काम कर रहे थे इसलिए कुछ मालूम नहीं हो पा रहा था कि कौन क्या है, किसके लिए काम कर रहा है, काम कर रहा है या काम का नाम करके अपना नाम कर रहा है !?

ख़ैर मुझे इन आंदोलनों से यह लाभ हुआ कि कई उलझी पहेलियां सुलझ गईं। 

रंगों, प्रतीकों, धर्मों, धारणाओं, जातियों, कर्मकांडों...... आदि का मिला-जुला प्रभाव ही ऐसा है कि जब तक आप इनके ज़रिए आदमी को समझने की कोशिश करते रहते हैं, बार-बार धोखा खाते हैं। यह हमारी मूर्खता है कि हमें कोई आदमी सीधे ही समझ में आ रहा होता है फिर भी हम उसे किसी गमछे, टोपी, मफ़लर, टाई, नाम, डिग्री, प्रोफेशन, सलाम, नमस्ते....यानि किन्हीं मान्यताओं और परिभाषाओं में बांध-बांधकर समझने में लगे रहते हैं। हमारी आंखों देखी बात होती है कि भगतसिंह, कबीरदास, विवेकानंद जैसे नामों का इस्तेमाल कई परस्पर विरोधी विचारधाराओं के लोग एक साथ कर रहे होते हैं, फिर भी हम अपनी पसंद या मजबूरी के हिसाब से उनमें से किसी एक को संबंधित महापुरुष का सच्चा अनुयाई, समर्थक या उत्तराधिकारी मान लेते हैं तो दूसरे को उस नाम का नाजायज़ फ़ायदा उठानेवाला चालू आदमी कह लेते हैं। 

क्या रंगों और प्रतीकों को उस तरह बांटा जाना चाहिए जैसे बांट लिया जाता है ? कौन है जो इन्हें बांटने का अधिकारी है, इनका मालिक है ? कौन है जो कहता है कि गाय मैं फलाने के नाम करता हूं, भैंस आज से ढिमकाने की हुई, तोता चमकानेलाल का हुआ और सांप धमकानेप्रसाद का हुआ ? कौन है जो लाल-पीला-नीला-हरा रंग लोगों को अलॉट कर रहा है ? किसने उसे ये अधिकार दिए हैं ? अगर रंगों और प्रतीकों को कुछ लोगों और समूहों को आवंटित कर दिया गया है तो बाक़ी लोग उनका इस्तेमाल करना छोड़ दें क्या!? मसलन मुझे अगर किसी दिन नारंगी रंग का इस्तेमाल करना हो तो पहले तो मैं यह पता लगाने जाऊं कि किसीने इसपर क़ब्ज़ा तो नहीं कर रखा ? और जब मुझे मालिक़ का पता चल जाए तो में ऐप्लीकेशन भेजूं कि भाईसाहब, आज ज़रा नारंगी शर्ट पहनने का मन हो रहा था, आप कहें तो पहन लूं, वरना क्या ऐसे ही निकल जाऊं ? हरा रंग इस्तेमाल करना हो तो उसके मालिक़ के पास जाऊं कि भाईसाहब ढाई सौ ग्राम हरा रंग चाहिए था ज़रा, अकेले आप की ही दुकान है जिसे इस रंग का ठेका मिला हुआ है, इसलिए आपको परेशान किया वरना कहीं और से ले लेता ! रंगों और प्रतीकों पर जिस हास्यास्पद गंभीरता के साथ तरह-तरह की विचारधाराओं ने क़ब्ज़ा कर रखा है उससे नतीजा यह निकलता दिखाई देता है कि भारत में शादी के दिन ज़्यादातर लड़कियां कम्युनिस्ट हो जातीं हैं क्योंकि ज़्यादातर ने उस दिन लाल जोड़ा पहन रखा होता है। 

कम्युनिस्टों के तो मज़े हो गए, उन्हें तो कुछ करने की ज़रुरत ही नहीं रही।


(बचा-ख़ुचा)

-संजय ग्रोवर
31-12-2015


Sunday, 20 September 2015

फ़ोटोकॉपियों का ‘वैचारिक’ द्वंद :-)


अगर कोई सेठ किसी मजदूर से कहे कि भईया ज़रा एक दीवार खड़ी कर दो मैं तुम्हे इतनी मज़दूरी दूंगा और मजदूर थोड़ी देर हवा में खुरपी चलाए, सर पर नक़ली तसला रखे, थोड़ी देर दीवार बनाने का अभिनय करे फिर कहे कि लो बन गई दीवार, अब दो मेरे पैसे! तो सेठ दे देगा क्या ?

लेकिन मज़ेदार बात यह है कि धर्म और कर्मकांड के नाम पर यही बचकाना अभिनय घर-घर में चलता है। कोई किसी एक दिन किसीको एक धागा बांध देता है और सोचता है कि हो गई उसकी रक्षा। अब यह बहिन बाज़ार में छेड़ी जाए कि ससुराल में पीटी जाए, भाई ख़बर लेने भी न जाए, पर यह काल्पनिक रक्षा हवा में चलती रहती है। कई लोग साल में एक दिन कहीं कुछ दिया-बत्ती जला देते हैं और सोचते हैं कि फ़ैल गया ज्ञान का प्रकाश। कोई किसी दिन एक डंडे में झंडा लटका लेता है और सारे घिनौने काम बेफ़िक्री से जारी रखता है और वो राष्ट्रप्रेमी कहलाता है।

मज़े की बात यह है कि इन बचकाने लोगों का ‘आत्मविश्वास’ इतने ग़ज़ब का होता है कि जो लोग ये बचकानी हरक़तें न करतें हों, उन्हें ये ‘सुधारना’ चाहते हैं, ‘ऐक्सपोज़’ करना चाहते हैं। क्या ग़ज़ब है !? और इनमें सभी तरह की विचारधाराओं, धर्मों, लिंगों, पेशों के लोग होते हैं।

ये मज़ेदार लोग प्रगतिशीलता की चिंघाड़ लगाते-लगाते एक ऐसे आदमी के पीछे खड़े हो जाते हैं जो बड़े-बड़े पाखंडियों से भी ज़्यादा ऊंची आवाज़ में भगवान-भगवान, चमत्कार-चमत्कार चिल्ला रहा होता है। जिसके ऑडियो-वीडियो सारी दुनिया के देशों और चैनलों में/पर मौजूद होते हैं फिर भी इन्हें यह ख़ुशफ़हमी होती है कि ये ऐक्सपोज़ नहीं हुए, कोई दूसरा ऐक्सपोज़ हो गया है!! ये चाहते हैं कि इन्हें सिर्फ़ इसलिए प्रगतिशील मान लिया जाए कि इन्हींके ‘दर्शन’ और ‘थ्येरी’ से बनी किसी कट्टरपंथी राजनीतिक या सामाजिक संस्था को ये नियमित अंतराल के बाद ग़ालियां बकते रहने का कर्मकांड करते हैं। ये ख़ुद कबीरदास की लाश में से फूल निकाल लेते हैं और दूसरों को मूर्ति को दूध पिलाने पर डांटते हैं।

ऐसे आत्ममुग्ध और बेहोश लोगों को कोई सुधार सकता है क्या ? इन्हें तो होश में लाना भी मुश्क़िल है।

ऐसे, तथाकथित ‘परस्पर-विरोधी’, लोग एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं, एक ही पायजामे के दो पायचे होते हैं, एक ही कट्टरता के दो चेहरे होते हैं।

इनके कर्मकांडो से कुछ नहीं बदलता, अकसर ये किसी दूसरे के किए का मज़ा ले रहे होते हैं।

-संजयग्रोवर
20-09-2015