Thursday 1 December 2022

‘होना’ और ‘दिखना’

लक्षणों को लेकर एक अजीब-सी घबराहट मैंने लोगों में देखी. एक मित्रनुमा महिला कई साल बाद फिर मिली. फ़ोन पर बात होने लगी. एक दिन पूछने लगीं कि कैसे रहते, क्या करते हो ? मैंने बताया कि अकेला रहता हूं, चाय-वाय बना लेता हूं, कभी-कभी कम्प्यूटर पर कुछ काम कर लेता हूं, फ़िल्म देख लेता हूं. पूछा कि कहीं आते-जाते नहीं हो ? मैंने कहा कि बहुत कम, जब बहुत ज़रुरी हो. बोलीं कि ये तो बिलकुल आतंकवादियों के लक्षण हैं. समझदार थीं और फ़िल्में भी बहुत देखतीं थीं. मैं थोड़ा हैरान हुआ, कहा कि जब मुझे पता है कि मैं क्या हूं तो लक्षणों के आधार पर ख़ुदको क्यों आंकता फिरुं ?

ऐसे ही कई लोगों को मैंने सांप्रदायिक न होने के लक्षण बताते भी देखा. कई लोग बताते रहते हैं कि हम त्यौहारों पर किस तरह हिंदु-मुस्लिमों आदि से मिलते हैं, फ़ोटो खिंचवाते हैं ! मुझे ये बातें बहुत अजीब लगतीं हैं. याद आता है कि जब हमारी कोई गर्ल-फ़्रेंड नहीं होती थी तो हम बहुत डरते थे कि कोई पूछ न ले कि कोई है या नहीं ? अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता, है तो भी दूसरे से क्या मतलब और नहीं है तो भी. समझ में नहीं आता कि लोग मूल भावना से ज़्यादा प्रदर्शन को ज़रुरी क्यों मानते हैं ? अगर हमारा कोई हिंदू या मुस्लिम मित्र नहीं भी है तो भी इसका मतलब यह कैसे हो गया कि हम उनके विरोधी हैं ? क्या हम एक-एक हिंदू, मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी वगैरह को ढूंढ-ढूंढकर इसलिए दोस्त बनाते रहें कि कोई हमें उनका दुश्मन न बता दे ? क्या यह दोस्ती स्वाभाविक होगी ?

मैं तो इतनी कृत्रिम ज़िंदगी नहीं जी सकता. न जीता हूं.

-संजय ग्रोवर


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