Monday 3 April 2017

आर्शीवाद के अंडे

व्यंग्य

अपने देश में ऐसी चीज़ों को बहुत महत्व दिया जाता है जो कहीं दिखाई ही नहीं पड़तीं, पता ही नहीं चलता होतीं भी हैं या होती ही नहीं हैं। हम लोग कुछ पता करने की कोशिश भी नहीं करते। कई बार लगता है कि सिर्फ़ टीवी चैनल ही नहीं बल्कि आम लोग भी टीआरपी देखकर अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले लेते हैं। आपने कई बार विजेताओं/सफ़ल लोगों को यह कहते देखा या सुना होगा कि मैं आज जो कुछ भी हूं फ़लाने के आर्शीवाद की वजह से हूं, यह पुरस्कार/ट्रॉफ़ी/मेडल मुझे ढिकानों की दुआओं की वजह से मिला है आदि-आदि। मैं सोचता हूं कि जो बेचारे दूसरे-तीसरे नंबर पर आए हैं उनके शुभचिंतकों ने आर्शीवाद कुछ कम दिया था क्या !? और जो हार गए उनके घरवालों ने क्या श्राप देकर भेजा था !? या उनका आर्शीवाद नक़ली था!? उसमें मिलावट थी!? वे क्यों हार गए ? किसी भी क्षेत्र या प्रतियोगिता में जीतनेवाले तो दो-चार ही होते हैं, हारनेवाले कई बार सैकड़ों-हज़ारों में होते हैं। इससे तो लगता है कि आर्शीवाद इत्यादि जीतने के काम कम और हारने में काम ज़्यादा आता है।

मैं तो सोचता हूं अगर आर्शीवाद और दुआओं में इतनी शक्ति है तो गुरुओं/कोच/संबंधित अधिकारियों को कहना चाहिए कि जो लोग बिना आर्शीवाद के आए हैं वे लोग नेट-प्रैक्टिस/रियाज़/अभ्यास करें और जो आर्शीवाद साथ लाए हैं उन्हें डायरेक्ट ऐंट्री दी जाती है। क्योंकि असली काम तो आर्शीवाद से ही होता है, बाक़ी चीज़े तो टाइमपास ही हैं। फ़ालतू का झंझट ख़त्म ही करो न। जिनको आर्शीवाद वगैरह पर कुछ डाउट वगैरह है उनके भी मुंह वगैरह अपनेआप बंद हो जाएंगे जब वो देखेंगे कि लोग बिना कुछ किए ही सिर्फ़ आर्शीवाद के बल पर ईनाम और सफ़लता वगैरह ले-लेकर जा रहे हैं। 

कई लोग गंभीर बीमारी या ऐक्सीडेंट के बाद जब ठीक हो जाते हैं तो डॉक्टर या विज्ञान को परे फेंककर कहते हैं कि मैं फलां जी के आर्शीवाद और ढिकां जी की दुआओं और भगवान की मर्ज़ी से ठीक हो गया हूं। इनसे पूछना चाहिए कि जब तुम्हारी टांग टूटी थी तो वो किसके आर्शीवाद से टूटी थी ? कैंसर किसकी दुआओं से हुआ था ? अटैक किसकी मर्ज़ी से आया था ? ज़रा उसके लिए भी तो फ़लां-ढिकां के दुआ/आर्शीवाद और भगवान साहब की मर्ज़ी को क्रेडिट दे दो। मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू!?

एक दफ़ा जब मैं घर बदलने जा रहा था तो एक प्रगतिशील परिचित ने हिदायत दी कि वहां पर पड़ोसियों से पटाकर रखना। मैंने सोचा कि पड़ोसी क्या कोई गुंडे वगैरह होते हैं जो सुबह-शाम उनकी शान में आदाब बजाना ज़रुरी है!? मैंने क्या कोई उल्टे-सीधे काम करने हैं जो इससे-उससे पटाके रखूं!? अगर ठीक काम करने हैं तो फिर डरना क्यों ? अगर ग़लत काम करुं तो सज़ा मिलनी ही चाहिए, चाहे जितना भी पटाके रखूं। पटाके रखने से क्या ग़लत काम सही हो जाएंगे!? अगर हर किसीसे पटाकर ही रखनी पड़ेगी तो फिर इतने सारे आर्शीवाद और दुआएं क्या फ़ालतू में जमा करके रखे थे!? फिर लोकतंत्र और उदारता क्या त्यौहार मनाने भर के लिए हैं !? मेरे पास वक़्त हो, काम जायज़ हो, मेरे बस का हो, मेरा मूड हो तो रास्ता चलते आदमी का भी कर सकता हूं ; ग़लत काम हो तो पड़ोसी का भी क्यों करुं!? दरअसल जो बात सिखाने की है वो यह है कि पड़ोसी से ज़बरदस्ती मत करो, पड़ोसी क्या किसीसे भी ज़बरदस्ती मत करो। अपनी उंगलियों पर थोड़ा नियंत्रण रखो।   

फिर यही लोग छाती भी पीटते हैं कि रास्तों पर कोई किसीकी मदद नहीं करता! कैसे करेगा भैया ? बीच में तुमने ही तो इतनी शर्तें लागू कर रखीं हैं-कि पड़ोसी से पटाके रखो, बुर्ज़ूगों का आर्शीवाद लो, दोस्ती पहले निभाओ.......। अब रास्ता चलनेवाला हर आदमी पड़ोसी, दोस्त, रिश्तेदार तो होता नहीं ; इसलिए लोग दूसरों को पिटता-मरता छोड़ भाग जाते हैं। पहले दर्द भी तुम्ही दे देते हो, फिर दवाएं भी अजीब-अजीब लेकर आ जाते हो!

बाक़ी दुआओं के महत्व पर आपने पुराना और प्रसिद्व गाना सुन ही रखा होगा कि ‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले...’ । हर शादी में सुबह-सुबह पौ-फटे यह गाना बजता था। आजकल कौन-सा गाना फटता है, पता नहीं। कई लोग रोने लगते थे। तमाम उलाईयों-रुलाईयों बावजूद लोगों को यह आयडिया नहीं आता था कि ऐसे रीति-रिवाज क्यों न बंद कर दें जिनकी वजह से सुबह-सवेरे जुकाम नाक में लटक आता है और आदमी ख़ुद भी ज़िंदगी-भर लटका ही रहता है। क्योंकि कोई भारतीय ख़ाली दुआएं लेकर नहीं टलता, अच्छा-ख़ासा दहेज भी हड़प जाता है। उसके बाद भी आए दिन क़िस्तें देनी होतीं हैं, देती ही रहनी होती हैं। उस सबके बाद दुआएं ले जानेवाली को कौन-सा सुखी संसार मिलता है, यह इसीसे पता चलता है कि आज तक वही कॉमेडी की केंद्रीय पात्रा बनी हुई है और दहेज का बाल तक बांका नहीं हुआ।

और ले लो आर्शीवाद। बटोर ले जाओ दुआएं। सुखी संसार रसोई की काली कोठरी में इंतज़ार कर रहा है।

-संजय ग्रोवर
03-04-2017

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