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Thursday, 31 December 2015

रंगो और प्रतीकों का चालू खेल-1

शाहरुख़ खान की फ़िल्म ‘दिलवाले’ का ‘रंग दे तू मोहे गेरुआ’ देखकर मुझे आमिर खान की ‘रंग दे बसंती’ याद आ गई (आप कहेंगे निर्देशकों के नाम क्यों नहीं लिखे तो मैं कहूंगा कि फ़िल्म के प्रोमोज़ में हीरो-हीरोइन को जिस तरह आगे किया जाता है और बातचीत की जाती है कि लगता है फ़िल्म उन्हींने बनाई है, सो निर्देशक याद ही नहीं रह पाता)। फ़िल्म में बसंती रंग से जुड़े किन्हीं दबंगों की ख़बर ली गई थी और साथ में फ़िल्म के नाम और कथ्य में इसी रंग को महिमामंडित भी किया गया था। इसीसे मुझे याद आया कि तथाकथित भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ रामदेव से शुरु होकर अन्ना हज़ारे तक पहुंचे तथाकथित आंदोलन के इंटरवल के दौरान आमिर खान ने ही मंच पर आकर, बाक़ायदा टोपी लगाए हुए अपना रोज़ा खोला था और अन्ना हज़ारे को जूस वगैरह पिलाकर अनशन वगैरह ख़त्म कराया था। बाद में इन्हीं आमिर की ‘पीके’ आ गई जिसमें धार्मिक प्रतीकों की हंसी उड़ाई गई थी। 

ऐसे विरोधाभास हमारे जीवन में कोई एक दिन की नहीं, बल्कि आए दिन की बात है। 

बाद में यह भी कहा गया कि अन्ना हज़ारे बीजेपी के आदमी हैं और केजरीवाल प्रगतिशील हैं। और तथाकथित प्रगतिशीलों की एक पूरी की पूरी फ़ौज केजरीवाल के पीछे खड़ी दिखाई देने लगी। मैं बहुत चक्कर में पड़ गया। भगवान-भगवान, अनशन-अनशन, चमत्कार-चमत्कार रामदेव भी कर रहे थे, अन्ना भी कर रहे थे और केजरीवाल भी कर रहे थे। फिर इनमें से कोई कट्टर, कोई मध्यमार्गी और कोई प्रगतिशील कैसे हो गया !? इस हिसाब से तो आमिर खान बीजेपी के आदमी हुए! या वे किसी ग़लतफ़हमी में अन्ना का अनशन तुड़वा आए थे!? या यह कोई फ़िल्म चल रही थी जिसमें सबके जुड़वां और डुप्लीकेट काम कर रहे थे इसलिए कुछ मालूम नहीं हो पा रहा था कि कौन क्या है, किसके लिए काम कर रहा है, काम कर रहा है या काम का नाम करके अपना नाम कर रहा है !?

ख़ैर मुझे इन आंदोलनों से यह लाभ हुआ कि कई उलझी पहेलियां सुलझ गईं। 

रंगों, प्रतीकों, धर्मों, धारणाओं, जातियों, कर्मकांडों...... आदि का मिला-जुला प्रभाव ही ऐसा है कि जब तक आप इनके ज़रिए आदमी को समझने की कोशिश करते रहते हैं, बार-बार धोखा खाते हैं। यह हमारी मूर्खता है कि हमें कोई आदमी सीधे ही समझ में आ रहा होता है फिर भी हम उसे किसी गमछे, टोपी, मफ़लर, टाई, नाम, डिग्री, प्रोफेशन, सलाम, नमस्ते....यानि किन्हीं मान्यताओं और परिभाषाओं में बांध-बांधकर समझने में लगे रहते हैं। हमारी आंखों देखी बात होती है कि भगतसिंह, कबीरदास, विवेकानंद जैसे नामों का इस्तेमाल कई परस्पर विरोधी विचारधाराओं के लोग एक साथ कर रहे होते हैं, फिर भी हम अपनी पसंद या मजबूरी के हिसाब से उनमें से किसी एक को संबंधित महापुरुष का सच्चा अनुयाई, समर्थक या उत्तराधिकारी मान लेते हैं तो दूसरे को उस नाम का नाजायज़ फ़ायदा उठानेवाला चालू आदमी कह लेते हैं। 

क्या रंगों और प्रतीकों को उस तरह बांटा जाना चाहिए जैसे बांट लिया जाता है ? कौन है जो इन्हें बांटने का अधिकारी है, इनका मालिक है ? कौन है जो कहता है कि गाय मैं फलाने के नाम करता हूं, भैंस आज से ढिमकाने की हुई, तोता चमकानेलाल का हुआ और सांप धमकानेप्रसाद का हुआ ? कौन है जो लाल-पीला-नीला-हरा रंग लोगों को अलॉट कर रहा है ? किसने उसे ये अधिकार दिए हैं ? अगर रंगों और प्रतीकों को कुछ लोगों और समूहों को आवंटित कर दिया गया है तो बाक़ी लोग उनका इस्तेमाल करना छोड़ दें क्या!? मसलन मुझे अगर किसी दिन नारंगी रंग का इस्तेमाल करना हो तो पहले तो मैं यह पता लगाने जाऊं कि किसीने इसपर क़ब्ज़ा तो नहीं कर रखा ? और जब मुझे मालिक़ का पता चल जाए तो में ऐप्लीकेशन भेजूं कि भाईसाहब, आज ज़रा नारंगी शर्ट पहनने का मन हो रहा था, आप कहें तो पहन लूं, वरना क्या ऐसे ही निकल जाऊं ? हरा रंग इस्तेमाल करना हो तो उसके मालिक़ के पास जाऊं कि भाईसाहब ढाई सौ ग्राम हरा रंग चाहिए था ज़रा, अकेले आप की ही दुकान है जिसे इस रंग का ठेका मिला हुआ है, इसलिए आपको परेशान किया वरना कहीं और से ले लेता ! रंगों और प्रतीकों पर जिस हास्यास्पद गंभीरता के साथ तरह-तरह की विचारधाराओं ने क़ब्ज़ा कर रखा है उससे नतीजा यह निकलता दिखाई देता है कि भारत में शादी के दिन ज़्यादातर लड़कियां कम्युनिस्ट हो जातीं हैं क्योंकि ज़्यादातर ने उस दिन लाल जोड़ा पहन रखा होता है। 

कम्युनिस्टों के तो मज़े हो गए, उन्हें तो कुछ करने की ज़रुरत ही नहीं रही।


(बचा-ख़ुचा)

-संजय ग्रोवर
31-12-2015