Tuesday 1 January 2019

एक बड़ा खेल है प्रतीकात्मकता

प्रतीकात्मकता के कुछ वास्तविक फ़ायदे भी होते होंगे जो कि मुझे मालूम नहीं हैं लेकिन दुरुपयोग इसका जाने-अनजाने में ख़ूब होता लगता है। यहां तक कि ईमानदारी के आंदोलनों के दौरान या अंत में लोग अपनी कलाई में बंधे धागे नचाते हैं और स्टेज पर रोज़े खोलते हैं। पता नहीं ये लोग जानते हैं या नहीं जानते कि यह ईमानदारी को धर्म से कन्फ्यूज़ करने की कोशिश हो जाती है। आम लोगों में प्रचलित कर्मकांडो का ईमानदारी से सीधे-सीधे कोई भी संबंध नहीं है। तिसपर यही लोग इन्हीं आंदोलनों में धर्म और जाति से ऊपर उठने के उपदेश भी बांच रहे होते हैं।

दरअसल व्यवहारिक जीवन में ईमानदारी इतना मुश्क़िल काम है कि इसकी सही-सही परिभाषा तक संभव नहीं लगती। इसके विपरीत कर्मकांड बेहद ही आसान, लगभग बचपन में खेले जानेवाले गुड्डे-गुड़िया के खेल की तरह होते हैं। कई बार मुझे लगता है कि जब हम मिले हुए आदर्शों/नैतिकताओं को वास्तविक या व्यवहारिक जीवन में नहीं उतार पाते तो प्रतिक्रियास्वरुप उत्पन्न अपराधबोध को कर्मकांडों या प्रतीकात्मकता से छुपाकर/भुलाकर/ढंककर अपने खोखलेपन को भरने की, ख़ुदको झूठी तसल्ली देने की कोशिश में लग जाते हैं। ज़ाहिर है कि सड़क पर लपककर किसीके पांव छूने में, सुबह उठकर नहाने में, राखी बंधवाने में ऐसा कोई ख़तरा नहीं है जैसा कि किसी तथाकथित बड़े या सफ़ेदपोश अपराधी की असभ्यता की तरफ़ इशारा कर देने भर में है।

प्रतीकात्मकता, अपने यहां, बिना कुछ किए-धरे अपनी कई-कई पीढ़ियों को ऊंचा, अच्छा और महान बना/ठहरा लेने का जुगाड़ ज़्यादा रहा है। पुरानी कहानियों में राक्षसों का बुरा बताने के लिए उनके सर पर सींग तक उगा दिए गए, उनका रंग काला कर दिया गया, उनके चेहरे डरावने कर दिए गए। आदमी की अच्छाई-बुराई का उसकी शक़्ल और रंग से क्या मतलब हो सकता है भला ? लेकिन इस तरह की प्रतीकात्मकता ने सैकड़ों सालों के लिए आदमी को धुंध में डाले रखा। संभवतः यह एक बड़ा खेल है और इसे बारीक़ी से समझना चाहिए।

-संजय ग्रोवर
25/26-02-2014
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)

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