Tuesday 1 January 2019

सबसे ज़्यादा परेशानियों के बावजूद सुखद

मैं शायद उस वक़्त दसवीं या बारहवीं में होऊंगा जब पहली बार स्थानीय आर्य समाज के डेरे पर एक प्रसिद्ध महात्मा की कथा सुनने गया। वहां मैंने पहली बार रिशी दयानंद की चूहे वाली कथा सुनी और काफ़ी प्रभावित हुआ। मेरी सोच और व्यवहार वैसे भी दूसरों से आसानी से नहीं मिलते थे शायद इसलिए भी मुझे लगा कि मुझे अपने जैसा कोई मिल रहा है, एक उम्मीद-सी बंधने लगी। फिर एक दिन माता या पिता में से कोई ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी ख़रीद लाया। मैंने कई बार पढ़ने की कोशिश की मगर पहले पेज़ से आगे नहीं जा सका। कोई भी क़िताब जो शुरु के दो-तीन पेज़ो में रुचि न जगा पाए, मैं पढ़ नहीं पाता। उसे भी नहीं पढ़ पाया। बाद में आर्यसमाजियों का आचरण देखकर उससे भी मोह भंग होने लगा। मुझे समझ में नहीं आता था कि अगर आप मूर्त्तिपूजा की जगह हवन कर लेते हैं तो प्रगतिशील कैसे हो जाते हैं !? आप दूसरे पंडित के बजाय आर्यसमाजी पंडित को बुला लेते हैं तो आपको दूसरों को रुढ़िवादी कहने का अघिकार कैसे हो जाता है !? आप साकार भगवान से ध्यान हटाकर निराकार भगवान की बात करते हैं तो उससे क्या बदल जानेवाला है !? मूर्त्ति को तो फिर भी आप आसानी से पत्थर और इसीलिए निरर्थक सिद्ध कर सकते हैं मगर निराकार भगवान के साथ बहुत आसानी से ऐसा नहीं कर सकते। बाद में मुझे लगने लगा कि यह कहीं बड़ी चालाक़ी है। वैसे भी मैं निरंतर देख रहा था कि व्यवहार के स्तर पर मेरे जानकार में आए आर्य समाजियों में और दूसरे लोगों में कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं था। व्यापार में बेईमानी करने से लेकर दुनियादारी/रिश्तेदारी में झांसेबाज़ी तक उनका सब कुछ दूसरों जैसा था। फ़र्क़ बस एक ही था कि उन्हें यह भारी ग़लतफ़हमी थी कि वे दूसरों से कुछ ज़्यादा समझदार, बेहतर और श्रेष्ठ हैं। आज मैं इसे दूसरों से ज़्यादा शातिर होना भी कह सकता हूं।

समझ में नहीं आता था कि अगर आप मूर्त्तिपूजा की जगह हवन कर लेते हैं तो प्रगतिशील कैसे हो जाते हैं !? आप दूसरे पंडित के बजाय आर्यसमाजी पंडित को बुला लेते हैं तो आपको दूसरों को रुढ़िवादी कहने का अघिकार कैसे हो जाता है !? आप साकार भगवान से ध्यान हटाकर निराकार भगवान की बात करते हैं तो उससे क्या बदल जानेवाला है !?

आज मुझे यह भी समझ में आता है कि पिताजी और माताजी जो दूसरों जैसे होशियार नहीं थे और यह अद्भुत संयोग(वैसे मैं ये दोनों शब्द इस्तेमाल करना नहीं चाहता क्योंकि मुझे लगता है कि इनके साथ जो भाव जुड़ गए हैं वे अंधविश्वास, चमत्कार और धर्म को बढ़ावा देते हैं) था कि दोनों ने पूजापाठ को लेकर बच्चों से कभी ज़बरदस्ती नहीं की, ज़बरदस्ती क्या ऐसा कोई आग्रह तक नहीं किया, दोनों ने अपनी समझ से कम दबाव या डर की वजह से कभी-कभार कुछ कर्मकांड किए। मैंने भी कभी-कभी यह किया (जैसे अपने या दूसरे घर की किसी शादी में शामिल हो जाना) बाद में वह भी छोड़ दिया।

मुझे नहीं लगता कि कर्मकांडों का विकल्प ढूंढते रहनेवाले लोग ज़्यादा कुछ कर सकते हैं। यह ऐसे ही है जैसे आप कहें कि हम बुर्क़े का रंग काले के बजाय सफ़ेद कर देंगे या घूंघट में जाली लगा देंगे और स्त्री आज़ाद हो जाएगी। बेकार की चीज़ों का भी हम विकल्प ढूंढते हैं तो उसके पीछे मुझे दो-तीन ही कारण समझ में आते हैं-एक, हमारे अंदर अपने विचारों और व्यवहार को लेकर पूरा आत्मविश्वास नहीं आया, दूसरे, हम समाज, भीड़ और अतीत से बहुत ज़्यादा डरे हुए हैं और तीसरे हम बिना कोई ख़तरा उठाए (यहां तक कि सोशल साइट्स् पर लाइक्स् की संख्या कम हो जाने का भी) ही प्रगतिशील हो जाना चाहते हैं यानि कि हमें फ़ायदे हर तरह के चाहिएं नुकसान दूसरों के लिए छोड़ देना चाहते हैं।

ख़ैर, बाद में यह हुआ कि अब मैं किसी क़िताब, आयकन, फ़िल्मस्टार, बड़े(!) आदमी, महापुरुष, मीडिया चैनल, पत्र-पत्रिका, लेखक, कवि....वगैरह-वगैरह की बात को उतना ही स्वीकार करता हूं जितना वह मेरी समझ में आती है।

और यह मेरे जीवन का सबसे ज़्यादा सुखद और संतोषदायक अनुभव है। तरह-तरह की, अब तक की सबसे ज़्यादा परेशानियों के बावजूद यह बहुत ही आनंददायक है।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
23 November 2014

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