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Sunday, 20 December 2015

धर्म

लघुव्यंग्य

एक बच्चे को, पैदा होते ही, उसके घरवालों ने पैजामा पहना दिया, और उसे पैजामा-पैजामा बुलाने लगे।

बड़ा होता बच्चा इससे परेशान होने लगा तो ऐतराज़ करने लगा कि सर से पांव तक पैजामा चढ़े होने की वजह से खाने-पीने-पहनने-बात करने, हर काम में परेशानी होती है।

मां-बाप बोले कि ये पैजामा नहीं है, ये तुम हो, इसके बिना तुम्हारा कोई मतलब नहीं है, दूसरे बच्चों को देखो-वो भी तो कोई चड़ढी है, कोई पतलून है, कोई शर्ट है, कोई लुंगी है, कोई धोती है, कोई ब्लाउज़ है......

बच्चे ने देखा, चारों तरफ़ आदमक़द चड्ढियां, साड़ियां, धोतियां, ब्लेज़र, ट्राउज़र्स वग़ैरह कांए-कांए करते घूम रहे थे।

बच्चा घबरा गया, या कहने को कह सकते हैं कि प्रभावित हो गया, समझ गया और उसने समर्पण कर दिया।

अब चारों तरफ़ प्रभावित पैजामे हैं, चड्ढियां हैं, बनियाने हैं......

इनमें से किसीको भी नहीं मालूम कि जब ये पैदा हुए थे तब ये सब इंसान थे।

-संजय ग्रोवर
20-12-2015

Tuesday, 15 September 2015

कौन मरा ?


मशहूर डायलॉग है-

जो डर गया समझो मर गया।

भारत में यह डायलॉग बहुत कामयाब हुआ, घर-घर में बच्चे इसे बोलते दिखाई दिये।

यह बात अलग है कि यहां बच्चा पैदा होते ही उसके साथ किए जानेवाले कुछ शुरुआती कामों में से एक ज़रुरी काम यह होता है कि बच्चे को कई चीज़ों से डराया जाता है, सबसे ज़्यादा भगवान से डराया जाता है।

ऐसे डरे हुए बच्चे जीते होंगे या डरते होंगे या कि बस .......

और आप ही तो गली-गली कहते फिरते हैं-

जो डर गया समझो मर गया।

-संजय ग्रोवर
15-09-2015

Labels : Moving Dead Bodies , Child-Victimization , Terror Of God , Forced Virtue , Dead-Live