Monday, 11 January 2016

रंगों और प्रतीकों का चालू खेल-2

(रंगो और प्रतीकों का चालू खेल-1)

रंगों और प्रतीकों के खेल में आदमी किस तरह उलझ जाता है इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण याद आता है। एक प्रसिद्ध खिलाड़ी के रिटायरमेंट पर उसके एक फ़ैन को पूरे स्टेडियम में एक प्रतीक को हाथ में उठाकर चक्कर लगाने का मौक़ा दिया गया। पता नहीं ईमानदारी, अनुशासन और सुरक्षा-व्यवस्था के कौन-से नियमों के तहत यह करने दिया गया। सोने पर सुहागा यह कि उस फ़ैन का पूरा गेटअप जाति या वर्णविशेष को चिन्हित कर रहा था। कोई दूसरा यह करता तो पूरी संभावना थी कि इसे जातिवाद और सांप्रदायिकता कहा जाता मगर वर्णविशेष की सुविधानुसार यह श्रेष्ठता और महानता का सूचक कहलाया। पूरा मीडिया इस ‘महानता’ में हाथ बंटा रहा था। इस घटना को कईयों ने लाइव देखा। इसके वीडियोज़ में फ़ैन की बातें सुनकर यही समझ में आता है कि सारी मानसिकता वही है जो किसी कट्टरपंथी भक्त की अपने भगवान के प्रति होती है। लेकिन यहां सांप्रदायिकता और प्रगतिशीलता व्यवहार और मानसिकता से नहीं बल्कि प्रतीकों और बैनरों से तय की जाती है।

मैं एक बहुत ही मज़ेदार बात शेयर करना चाहूंगा जो कि प्रतीकात्मता को गंभीरता से लेनेवालों और उसे चालाक़ी से इस्तेमाल करनेवालों, दोनों की हास्यास्पद मानसिकता के बारे में बताती है। मेरे एक मुस्लिम मित्र दूसरों के साथ अपनी बातचीत में अकसर जी शब्द का इस्तेमाल किया करते। एक तो उनके बोलने का अंदाज़ अच्छा था दूसरे, मुझे यह शब्द इसलिए जम गया कि मैं रिश्तों में इंसानियत, ईमानदारी, दोस्ती, प्रेम जैसे मूल्यों का तो महत्व चाहता हूं मगर थुपे हुए रिश्ते और थुपे हुए संबोधन आसानी से हज़म नहीं कर पाता। जैसे दूसरे लोग तपाक से किसीको मामा, चाचा, भईया, दीदी, भाभी, जीजा कहना शुरु कर देते हैं, मुझसे नहीं हो पाता। मुझे लगा कि यह ‘जी’ शब्द तो बड़े काम का है, आदर भी हो जाता है और बात-बात में किसीको बाऊजी-ताऊजी बनाने की भी ज़रुरत भी नहीं पड़ती। धीरे-धीरे यह मेरे व्यवहार में आ गया। बाद में मैंने देखा कि कई लोग इस शब्द की वजह से आपको किसी संघ या सांप्रदायिकता से जोड़ना शुरु कर देते हैं। ये कोई ढंग के लोग होते तो भी बात थी मगर मैंने दूर से भी और क़रीब से भी ख़ूब देखा कि ख़ुद ये लोग क़तई भी विश्वसनीय नहीं हैं। ख़ुद ये आंगरन-जांगरन, हंडिया टुडे-झंडिया टुडे, द हिंदू-द बिंदू...किसी भी पत्र-पत्रिका में काम करते हुए भी प्रगतिशील, उदार, एकपक्षीय, धर्मनिरपेक्ष(?) वगैरह बने रहते हैं और दूसरे को एक-दो शब्दों या प्रतीकों के आधार पर कुछ भी घोषित कर डालते हैं। मुझे समझ में आया कि ग़लती मेरी भी है कि ऐसे फ़ालतू और अविश्वसनीय लोगों की बातों पर कान और ध्यान दे देता हूं। इस तरह के हल्के लोगों की बातों पर ध्यान देने का मतलब है कि मेरे आत्मविश्वास में भी कहीं न कहीं, कुछ कमी है।

काफ़ी वक़्त से मैं यूट्यूब पर उमर शरीफ़ के कॉमेडी शो और अन्य पाक़िस्तानी कार्यक्रम देख रहा हूं। पता चल रहा है कि वहां जी शब्द का इस्तेमाल बहुतायत में होता है। इस दृष्टि से तो पूरा पाक़िस्तान ही संघी साबित होता है। ख़ैर! यह न भी हो तो भी मैं, जब तक मुझे अच्छा लगेगा, जी का इस्तेमाल करता रहूंगा। मेरे लिए आत्मविश्वास का यही मतलब है।


राहत इंदौरी के एक शेर की एक पंक्ति है कि ‘किसीके बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है........’
शेर की भाषा पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है। अन्य संदर्भ में स्त्रीवादी और मातावादी लोग कह सकते हैं कि ‘किसीकी मां का हिंदोस्तान थोड़ी है....’ कहना चाहिए था। मगर शेर का साधारण अर्थ भी ठीक-ठाक हैं। जैसा कि इस लेख में पहले भी कहा और इस शेर में जोड़ते हुए भी कहूंगा कि इस पूरी दुनिया का कोई भी रंग, शब्द, प्रतीक...आदि-आदि किसीके मां, बाप, भाई, बहिन, चाचा, मामा, जीजा, साले का नहीं है। उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी रंग, शब्द, प्रतीक, भाषा, शिल्प, कपड़ों....से किसीके चरित्र और मानसिकता का कुछ पता नहीं चलता। और उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि चालाक, बेईमान और मौक़ापरस्त लोग रंग और प्रतीक बदलने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगाते। वे देखते हैं कि कब कौन-सी चीज़ भीड़ में स्वीकृत हो गई है और तुरंत वही करना शुरु कर देते हैं। 

यहां तक कि इनके व्यवहार को देखकर कई लोग समझ बैठते हैं कि समय के साथ बदलना और मौक़ापरस्त होना एक ही बात होती है। 


मज़े की बात देखिए कि 2-4 साल पहले हमें बज़रिए प्रगतिशील बौद्धिकता यह पता चला कि केजरीवाल प्रगतिशील हैं। अब मैं यह याद करने की कोशिश कर रहा हूं कि वो कौन विद्वान थे जिन्होंने यह बताया था कि केजरीवाल और ‘यूथ फ़ॉर इक्वैलिटी’ आरक्षण-विरोधी हैं!?


ख़ैर! प्रगतिशीलता, कट्टरपंथ, ईमानदारी, सांप्रदायिकता आदि को लेकर अपने पास बहुत-सारे अनुभव भी हैं और बहुत-सारी समझ भी है। जिसके चलते यह तो बिलकुल साफ़ हो चुका है कि इन मूल्यों के प्रतिनिधि बने बैठे बहुत-सारे लोग क़तई अविश्वसनीय, प्रायोजित और नाटकबाज़ लोग हैं। वे दूसरों को इन मूल्यों के बहाने बांट रहे हैं और ख़ुद हर तरफ़ मज़े ले रहे हैं। 


हम जैसे लोग जिन्हें न किसीसे कुछ लेना है न खाना-पीना है, ऐसे बेसिर-पैर लोगों की परवाह करेंगे तो अपना वक़्त भी बरबाद करेंगे और ज़िंदगी भी।


(रंगों और प्रतीकों का चालू खेल-3)

-संजय ग्रोवर
11-01-2016

Friday, 8 January 2016

मरे हुए विचारों की तस्वीरों पर माला

हम जब छोटे थे, किसी न किसी स्कूल में पढ़ने जाते थे। मुझे याद आता है वहां कहीं न कहीं दीवारों पर अच्छी-अच्छी बातें लिखी रहतीं थी, मसलन-‘झूठ बोलना पाप है’, ‘सदा सत्य बोलो’, ‘बड़ों का आदर करो’ आदि-आदि। लेकिन बहुत-से बच्चे तो पढ़ते ही नहीं थे। जो पढ़ते भी होंगे उन्हें उससे क्या प्रेरणा मिलती होगी क्योंकि असल जीवन में तो वे स्कूल में ही इसका उल्टा होते देख रहे होते होंगे। विचार के साथ तार्किकता भी होनी चाहिए जो कि एक-दो छोटे वाक्यों में लगभग असंभव है। जैसे कि ‘बड़ों का आदर करो’ मेरी समझ में क़तई अतार्किक बात है। उसपर तुर्रा यह कि कई छात्र जो टीचर को आते देख ‘गुरुजी, नमस्कार’ चिल्लाते थे, उन्हींमें से कई पीठ-पीछे गुरुजी को ग़ाली देने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगाते थे।

मैं कई सालों से जगह-जगह पढ़ता आया हूं कि ‘विचार अमर हैं’, ‘विचार कभी नहीं मरते’ आदि-आदि। ऐसी कई स्थापनाओं पर मन में कभी न कभी शंकाएं उठतीं रहीं हैं, अब चूंकि इंटरनेट जैसा माध्यम उपलब्ध है सो उन शंकाओं पर विचार करने और बांटने में सुविधा हो गई है। आखि़र विचार के न मरने से हमारा तात्पर्य क्या है ? क्योंकि विचार जगह-जगह दीवारों पर लिखे होते हैं ! क्योंकि विचार फ़िल्मों में डायलॉग की तरह इस्तेमाल हो रहे होते हैं ? क्योंकि उनके या उनके प्रकट करनेवाले को कुछ ट्राफ़ियां और पुरस्कार जीतेजी या मरणोपरांत दे दिए जाते हैं ? या कि उनके नाम पर ट्राफ़ियां या पुरस्कार बांटे गए होते हैं ? क्या यह विचारों के जीवित रहने का सबूत है ? एक दुकान जिसपर सामने बड़े-बड़े और सुंदर अक्षरों में लिखा है कि ‘न कुछ साथ लेकर आए थे, न लेकर जाओगे', वहीं दुकानदार ग्राहक की जेब में से सारे पैसे लूट ले रहा है तो क्या हम इसे विचारों का ‘जीवित रहना’ कहेंगे !?


क्या मोहम्मद रफ़ी मार्ग(अगर हो) से गुज़रनेवाले हर आदमी का गला सुरीला हो जाएगा ? मुझे ख़ूब अच्छी तरह याद है कि एक वक़्त में, बस में सफ़र करते हुए, मैं जगह-जगह लिखा देखता कि ‘दहेज लेना-देना जुर्म है’। मगर व्यवहारिक रुप से तब भी इसका उल्टा होता था आज भी होता है जबकि दहेज के खि़लाफ़ सख़्त क़ानून मौजूद हैं। मगर आप यह भी सोचिए कि जिस पेंटर ने यह पेंट किया है उसके लिए यह सिर्फ़ उसका धंधा है, दरअसल वह दहेज का समर्थक है। जिसने लिखवाया है, उसकी मानसिकता भी कुछ अलग होगी, लगता तो नहीं है। जो इसे पढ़ रहा है वह भी टाइम पास कर रहा है। वह इसे कभी ठीक से पढ़ नहीं पाएगा क्योंकि इससे पहले जो व्यवहारिक पढ़ाई उसने पढ़ रखी है वह इससे उलट है। या तो वह दुनियादारी निभा ले या विचार आज़मा ले। और हर किसीको दुनियादारी बड़ी प्यारी है। हां, जिस दिन यह विचार बल्कि विचार करना दुनियादारी का हिस्सा बन जाएगा, उस दिन ज़रुर कुछ संभावना पैदा हो सकती है। वह तभी हो सकता है जब एक-एक व्यक्ति नाम, मशहूरी, टीवी कवरेज आदि-आदि की चिंता कि
 बिना विचार को व्यक्तिगत जीवन में आज़माए।

जैसे जगह-जगह महात्मा गांधी व अन्य महापुरुषों की तस्वीरें लगीं हैं ऐसे ही विचार भी टंगे हैं। वे मर गए हैं और लोग उनकी तस्वीरों पर माला चढ़ाकर ख़ुश हो रहे हैं।


विचारों के मरते चले जाने पर भी ज़रा विचार करें।



-संजय ग्रोवर
08-01-2016