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Wednesday, 22 March 2017

अपनी जान के दुश्मन

बचपन में कभी-कभी मंदिर चला जाता था। कहना चाहिए कि मंदिर तक चला जाता था। अकेला नास्तिक था, करता भी क्या !? रास्ते-भर हंसी उड़ाता जाता, दोस्त भी रास्ते-भर हंसते जाते और मंदिर जाकर सीरियस हो जाते। मैं कहता जाओ तुम लोग दर्शन करके आओ मैं तुम्हारी चप्पलें देखता हूं। उन्हें भी मालूम था और मुझे तो मालूम ही था कि भगवान इन्हें जो भी देगा, पता नहीं कब देगा, पर इनकी चप्पलें नहीं बचा सकता। चप्पलें भगवान-भरोसे नहीं छोड़ी जा सकतीं। सही बात तो यह है कि मंदिर तक भगवान भरोसे नहीं छोड़े जा सकते। मंदिरों को बचाने के लिए कई बार क़ानून का सहारा लिया जाता है, उन्हें बनाया चाहे जैसे भी गया हो।

अंदर से मंदिर तो दो-चार बार ही देखे हैं, हां रास्ते में आ जाएं तो कभी-कभी उड़ती-सी नज़र मार लेता हूं। कई मंदिर बहुत-ही छोटी-सी ज़मीन घेर कर बनाए गए होते हैं। उनमें पुजारी, आधे अंदर आधे बाहर, दरवाज़े पर ही बैठे रहते हैं। मुझे उनसे सहानुभूति होती है। मैं सोचता हूं इनकी भी क्या ज़िंदगी है ? पूरे दिन दरवाज़े पर बैठे देखते रहो, कोई आए, प्रसाद लाए तो हम उठकर उसे भगवान को चढ़ाएं। चढ़ाकर लिफ़ाफ़ा वापिस करें और फिर वहीं बैठ जाएं। अगले भक्त का इंतज़ार करो। न आए तो बैठे रहो। आए तो फिर लिफ़ाफ़ा लो, फिर चढ़ाओ।

मुझे नहीं पता मंदिर के अंदर क्या-क्या बना रहता है ? टॉयलेट, बाथरुम, डाइनिंग रुम, टीवी, वीडियो, किचेन...आदि-आदि होते हैं कि नहीं। जब भक्त नहीं आते तो पुजारी लोग क्या करते होंगे, कैसे वक़्त काटते होंगे ? एक ही जगह, एक ही पोज़ में कोई कब तक बैठ सकता है!? मैं तो पिक्चर-हॉल में भी कई बार करवट बदलता हूं। कई मंदिर तो इतने छोटे-छोटे से रहते हैं, कि उनमें करवट क्या पॉश्चर बदलने में दिक़्क़त आती होगी। हां, चेहरे के भाव ज़रुर बदले जा सकते हैं। या बदल रहे हों तो छुपाने की कोशिश की जा सकती है।

मैं कई बार बाज़ार जाता हूं, मंदिर रास्ते में पड़ जाए तो मन करता है पुजारी को उठाकर साथ ले चलूं कि भैय्या आओ ज़रा तुम भी हवा खा लो। थोड़ा घूम-फिर लो। गोलगप्पे वगैरह खा लो। क्या मजबूरी है जो इस तरह एक ही जगह बैठे रहते हो ? बोर नहीं होते ? ख़ालीपन महसूस नहीं होता ? दुनिया कहां से कहां जा रही है, तुम वहीं के वहीं बैठे हो !? समस्या क्या है!? मुझे कोई सोना दे, चांदी दे, पैसे दे, कुछ भी क्यों न दे दे, मैं तो आधे घंटे में ही बोरियत से मर जाऊं।

आखि़र पुजारी के लिए आकर्षण क्या है ? कुछ लोग पैर छूते हैं, कुछ लोग आर्शीवाद लेते हैं, कुछ लोग समझते हैं कि ये श्रेष्ठ हैं, इनमें बड़ी शक्तियां हैं! मेरी समझ से बाहर है ऐसी हालत में रहना पड़े तो श्रेष्ठता और शक्ति का फ़ायदा क्या है, अर्थ क्या है ? बिना शक्ति और श्रेष्ठता वाले लोग भी तो ऐसे ही रहते हैं, रह लेते हैं। इनमें फ़र्क़ क्या है ?

पता लगा है कि आज भी कई लोग चाहते हैं कि मंदिर-मस्ज़िद-चर्च-गुरुद्वारे ज़्यादा से ज़्यादा बनाए जाएं। मैं सोचता हूं यह भी करके देखना चाहिए। समझता हूं कि अगर दुनिया को भगवान/ख़ुदा/गॉड वगैरह ही चलाते हैं, और मंदिरों, मस्ज़िदों से ही चलाते हैं तो बाक़ी सारी चीज़ें बंद करके हमें इसी काम में लग जाना चाहिए। दुकान, मकान, घर, दफ़्तर, स्टेडियम, कार्यालय, वाचनालय, पुस्तकालय, शौचालय, विद्यालय....आदि सब छोड़कर और ज़रुरत पड़े तो तोड़कर, सब कहीं मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे आदि बना देने चाहिए। जो करना है अब कर ही डालो, कई सदियां तो निकल गई, मंदिर-मस्जिद तक पूरे नहीं बन सके!! तुमसे नहीं बन पड़ता तो भगवान/ख़ुदा/गॉड से कहो कि ख़ुद ही बना ले, तुम्हारे चक्कर में कब तक बैठा रहेगा। या उससे भी नहीं बन पा रहे!? अगर उससे इतना भी नहीं हो पा रहा तो आगे का काम कैसे करेगा !? 

बहरहाल, ये सब बना लेने के बाद इनके सामने बैठकर भगवान की आज्ञा का इंतज़ार करना चाहिए कि वो पहले कौन-सा पत्ता हिलाना चाहता है। उसकी मर्ज़ी होगी तो हम हिलेंगे वरना पड़े रहेंगे। वो नहीं चाहेगा तो हम चाहें तो भी क्या कर पाएंगे !? 

मुझे उम्मीद है कि कल सुबह जब मैं सोकर उठूंगा तो देश मंदिरों-मस्ज़िदो से भरा मिलेगा, देश में या तो भक्त बचेंगे या पुजारी। कोई अपनी बुद्धि नहीं लगाएगा, बस सब कठपुतलियों की तरह भगवान की तरफ़ से डोरियां हिलाए जाने का इंतज़ार करेंगे। अगर डोरी खिंचीं तो लोग भी हिलेंगे वरना पड़े रहेंगे।

आईए, हम सब पड़ जाएं, अभी और कई सदियों तक पड़े रहें।


-संजय ग्रोवर
22-03-2017