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Tuesday, 16 January 2018

बहुत दिन हुए ढंग का कुछ लिखा नहीं-1

पहला ग्रुप बनाया था ‘पागलखाना’। दूसरों को उनकी मर्ज़ी के बिना शामिल करते हिचक होती थी, तक़रीबन 20-25 लोगों को लिया होगा। एक महिला मित्र ने मैसेज-बॉक्स में कहा कि हमें निकाल दीजिए, तुरंत उन्हें निकाल भी दिया। लंबे अर्से तक संख्या 20-25 ही रही। शुरु में नहीं समझ में आता था कि क्या लिखें, कैसा लिखें ? यही सोचा था कि जो बातें और कहीं कहनी मुश्क़िल लगतीं हैं मगर ज़रुरी हैं, यहां कहेंगे ? सदस्यों की संख्या बढ़ने के साथ अजीब-अजीब चीज़ें भी शुरु हो गईं। ब्राहमणवाद, अंधविश्वास, रीति-रिवाजों के खि़लाफ़ बीच-बीच में कुछ लिख देता था। एक मज़ेदार चीज़ देखी, बीच-बीच में लोग ख़ुद ही आपस में लड़ने लगते, अपशब्द कहते, फिर यह भी कहते कि इस ग्रुप में ग़ाली-ग़लौच बहुत होती है, हम यह ग्रुप छोड़ देंगे। तिसपर और दिलचस्प यह कि छोड़ते भी नहीं थे। ज़्यादा हुआ तो तंग आकर मैंने ख़ुद ही निकालना शुरु कर दिया। और देखता कि आपस में ग़ाली-ग़लौच करनेवालों की दोस्ती बाहर जाकर वैसी की वैसी है। कई लोग बीच-बीच में ग्रुप की सेटिंग्स क्लोज़ करने की मांग उठाने लगे। महिलाएं भी आने-जाने लगीं। एक ने कहा कि ग्रुप की सेटिंग्स् इसलिए क्लोज़ कर दीजिए कि शाम को मैं थकी हुई आतीं हूं यहां थोड़ा लुत्फ़ आता है मगर नहीं चाहती कि कोई देखे। मैंने कहा कि एक तो आप प्रगतिशील हैं, दूसरे यहां ऐसी कौन-सी बात हो रही है जो छुपाकर की जाए! एक प्रगतिशील महिला ने छूटते ही प्रश्न दाग़ा, ‘आप रिवाइटल खाते हैं क्या ?‘ जवाब तो कई सूझ रहे थे मगर सोचा कि मामला छेड़खानी का बन जाएगा, पहले किसने शुरु किया, कोई देखेगा नहीं, सो टालने जैसा जवाब दे दिया।

इधर एक मित्र ने ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ शुरु कर दिया। इससे पहले मैं अपने ब्लॉग ‘संवादघर’ पर यदा-कदा नास्तिकता पर बहस चलाता रहता था और उनका भी वहां आना-जाना था। उन्होंने अपना नाम गुप्त रखने की शर्त रख दी थी सो आज तक गुप्त रखे हुए हूं। ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ पर सब तथाकथित रुप से वामपंथी और प्रगतिशील मित्र थे, संभवत दलित वगैरह कोई भी नहीं था। ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ पर शुरु होने के 9-10 दिन तक किसीने पोस्ट नहीं लिखी। अंततः मैंने ही पहली पोस्ट लिखी-‘नास्तिकता सहज है’। लोगों ने यह नयी बात काफ़ी पसंद भी की। बहस शुरु हो गयी और मैं दिन-रात, खाना-पीना, वक़्त-तबियत देखे बिना उसमें लगा रहा। ‘पागलखाना’ के दिनों से ही काफ़ी परेशानियों से गुज़र रहा था। जिस दौरान अन्ना आंदोलन शुरु हुआ, मेरे घर का पिछला कोर्टयार्ड 9-10 इंच कीचड़ से भरा हुआ था, गटर जाम तो अकसर देखा था, पर इस तरह का कीचड़ पहली बार देखा था। पूरे घर में भयानक बदबू आती थी। एक तो ऊपरवाले एक पड़ोसी सफ़ाई के पैसे नहीं देते थे, दूसरे, सफ़ाईकर्मी आसानी से नहीं मिलते थे। एक बार एक सफ़ाईकर्मी उनसे पैसा मांगने में डर रहा था और उनके पैसे भी मुझसे ही मांग रहा था तो मुझे ग़ुस्सा आ गया और मैंने अपने घर के सामने ही ऊंच-नीच, आरक्षण, भेदभाव, धौंसपट्टी आदि का हवाला देते हुए उससे उनका हिस्सा उन्हींसे मांगकर लाने के लिए कहा। वे भी ऊपर खड़े (और संभवतः कुछ और लोग भी) मेरी बातें सुन रहे थे। उस दिन पहली बार उन्होंने पैसे दिए।

भयानक बदबू से ध्यान हटाने के लिए मैंने तेज़ मसाले, चूरन-चटनी आदि खाना शुरु कर दिया। मैं पूरे दिन लिखता या पढ़ता रहता था, कभी-कभी शाम तीन बजे याद आता कि सुबह से कुछ खाया नहीं है और साढे तीन बजे के बाद कुछ मिलेगा नहीं। अपने बजट के हिसाब से कुछ ऑर्डर करता और ब्रश करके जैसे-तैसे एक कटोरी, एक चम्मच, एक प्लेट, एक गिलास मांजता। शरीर में जगह-जगह, तरह-तरह के भयानक दर्द होते रहते थे। डिलीवरी बॉय जब आता तो मैं बड़ी मुश्क़िल से टेबल से चार क़दम चलकर दरवाज़ा खोलता। रास्ते में मेरे पैरों से उलझ-उलझकर कई चीज़ें गिर जातीं, कई टूट भी जातीं। तमाम नुकसान होते रहते। तबियत बचपन से ही नाज़ुक थी। कई लोग तो तबियत की वजह से ही मुझे किसी अमीर आदमी का लड़का समझ लेते थे।

बहरहाल उन्हीं दिनों मेरे एक गायक मित्र भी कई सालों बाद अचानक लौटकर आ गए थे। पहले हमारी ख़ूब महफ़िलें जमा करतीं, घूमना फिरना, खाना-पीना चलता रहता था। लब्बो-लुआब यह कि गाढ़ी दोस्ती थी। संभवत़ वे मित्र अपने को दलित या मुख्यधारा से अलग किसी पहचान से पुकारा नहीं जाना चाहते थे, और मैं भी इन बातों में यक़ीन रखता नहीं था पर उनके घर उनके अंकल ने एक दिन अपने-आप यह ज़िक़्र किया था। बहरहाल, यहां चूंकि प्रासंगिक है इसलिए मैं ऐसा ज़िक्र कर रहा हूं। इस बीच मेरे एक अन्य मित्र बने थे जो मेरे पास काफ़ी आते-जाते थे। वे ब्राहमण थे। गायक मित्र से उनका परिचय मैंने ही कराया था। गायक मित्र ने मुझे बताया था कि पिछले सालों में वे मेरी कुछ ग़ज़लें भी कार्यक्रमों में गाया करते थे। उन्होंने कुछ ग़ज़लें सुनाई तो मुझे उनकी धुनें व अंदाज़ अच्छा लगा, मैंने सलाह दी कि तुम ग़ज़लें ही क्यों नहीं गाते, धुनें तो अच्छी बनाते हो। इधर मेरे ब्राहमण मित्र मेरे सामने अकसर एक अन्य गायक की प्रशंसा करते जिनसे भी मेरा परिचय था, पर मैं कहता कि मुझे यही बेहतर लगते हैं। दिलचस्प बात यहां यह है कि अन्ना आंदोलन से लगभग तीन दिन पहले वे मित्र आए तो कुछ ज़िक्र नहीं किया। अन्ना आंदोलन जिस दिन शुरु हुआ उस दिन दोनों साथ-साथ आए, उनके हाथ में एक सीडी थी। पता चला कि सीडी में ब्राहमण मित्र के लिखे और दलित मित्र के गाए गाने थे जो संभवतः किसी चैनल पर या घटनास्थल पर इस्तेमाल होने थे। मुझे यह जानकर थोड़ा धक्का लगा कि ब्राहमण मित्र जो दलित मित्र की गायन-प्रतिभा पर कुछ रिएक्शन भी नहीं देते थे, दूसरे गायक की तारीफ़ करते थे, फिर अचानक यह कैसे हुआ कि तीन दिन में गाना भी लिख गया, रिर्हसल भी हो गई, रिकॉर्डिंग भी हो गई, किसीने पैसे भी लगा दिए, चैनल पर व्यवस्था भी हो गई !! और इसमें भला मुझसे छुपाने की क्या बात थी !?

घर में कीचड़ भरा हुआ था, सारा शरीर दर्द से दुख रहा था, पड़ोसी ने मिस्त्री बुलाकर ज़बरदस्ती नाजायज़ बालकनी बनाना शुरु कर दिया था। मेरे गायक दोस्त ने कहा कि ‘संजय भाई, इतना बड़ा मौक़ा मुझे फिर नहीं मिलेगा’। मैं आंदोलन टीवी पर देख रहा था और मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैंने कहा बिलकुल जाना चाहिए। मैं बताना नहीं चाहता था पर पड़ोसी का ज़िक्र कर बैठा और साथ ही पहली बार किसी मित्र के सामने फूट-फूटकर रोने लगा। मेरा गायक मित्र पहले भी मुझे लेकर भावुक हो जाता था। उसने कहा कि मैं अभी ऊपर जाता हूं और बताता हूं। मैंने मना किया कि हमें कोई झगड़ा या मारपीट नहीं करनी है, क़ानूनन जो ज़रुरी है वो करेंगे। वे दोनों चैनल पर या आंदोलन में, जहां भी जाना था चले गए। शाम को आए तो बोले कि हमने आपके लिए एक चैनल से बात कर ली है।

(जारी)

16-01-2018


पता चला कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध और ईमानदारी के समर्थन में है। मैंने अपने गायक दोस्त से अपनी तरफ़ इशारा करते हुए कहा था कि ‘ईमानदारों की तो ऐसी हालत होती है....’ शाम को जब वो लौटा तो मैंने कहा कि मुझे चैनल की मदद नहीं चाहिए। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस देश का मीडिया इतना ईमानदार है तो देश में इतना भ्रष्टाचार फैल कैसे गया ? रातोंरात एक आदमी, बहुत सारी टोपियां, दुष्यंत के तराने, ‘स्वतःस्फूर्त‘ आंदोलनकारी एक स्थानविशेष पर जमा हो गए और सारे न्यूज़चैनल भी सही वक़्त पर पहुंच गए। अपने साथ पड़ोसी की नाजायज़ कमरा ज़बरदस्ती बनाने की बातचीत का वीडियो मैंने बना लिया था। अपने अलग स्वभाव और भीड़ का अतार्किक साथ न देने की आदत की वजह से मुसीबत में तो मैं बचपन से ही फंसता आया था, आज फिर फंस गया था। सोच ही रहा था क्या करुं कि मन में आया अच्छा मौक़ा है यह देखने का कि मीडिया एक साधारण आदमी का कितना साथ देता है। मैंने वीडियो और स्टेटस फ़ेसबुक पर लगाने शुरु कर दिए। मेरी फ्रेंडलिस्ट में उस समय मीडिया से काफ़ी मित्र थे(अभी भी होंगे)। लेकिन न किसीका फ़ोन आया न कोई प्रतिक्रिया। हां, दूसरे मित्रों के फ़ोन भी आए और प्रतिक्रिया भी।

(जारी)

20-01-2018


-संजय ग्रोवर


Sunday, 7 February 2016

भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस

प्रगतिशील होने का दावा करनेवाले किसी युवा से आप पूछें कि वह कैसे कह सकता है कि वह प्रगतिशील है ; जवाब में वह कहे कि क्योंकि मेरे सामनेवाला कट्टरपंथी है इसलिए मैं प्रगतिशील हूं ; तो इस जवाब पर शायद आप हंसेंगे, हैरान होंगे या सर पीटेंगे। मगर ग़ौर से देखें तो भारत में प्रगतिशीलता के मायने लगभग यही हैं। और यहां सामनेवाला नब्बे पिच्यानवें प्रतिशत मामलों में आर एस एस एस होता है। जिस तरह आर एस एस एस को या किसी तथाकथित राष्ट्रवादी को अपना राष्ट्रप्रेम साबित करने के लिए पाक़िस्तान और मुसलमान की ज़रुरत पड़ती है ठीक उसी तरह से यहां के प्रगतिशीलों को अपनी प्रगतिशीलता बताने के लिए आर एस एस एस की ज़रुरत पड़ती है। कल्पना कीजिए कि पाक़िस्तान न हो तो आर एस एस एस क्या करेगा ? साथ ही यह भी कल्पना कीजिए कि आर एस एस एस न हो तो तथाकथित प्रगतिशील क्या करेगा ?

भारतीय बुद्धिजीविता की खोखली प्रगतिशीलता के प्राण आर एस एस एस जैसे संगठनों में ही बसते हैं। यहां के तथाकथित प्रगतिशील विद्वान आर एस एस एस की बातों को कितनी गंभीरता से लेते हैं, इसके दो ताज़ा-ताज़ा उदाहरण मुझे याद आ रहे हैं। पहला उदाहरण फ़िल्म पीके पर चले विवाद का है। आर एस एस एस ने कहा कि इसमें हिंदू धार्मिक प्रतीकों की हंसी उड़ाई गई है। भारत के तथाकथित प्रगतिशील तुरंत उसके साथ बहस में उलझ गए जैसेकि वे इसीका इंतज़ार कर रहे हों। हैरानी की बात यह है कि इन तथाकथित प्रगतिशीलों को यह क्यों नहीं दिखाई दिया कि उसी कथित फ़ासीवादी विचाराधारा के सेंसरबोर्ड ने ही यह फ़िल्म इन दृश्यों के साथ पास की है जिसे ये मुंह भर-भर कर ग़ालियां देते हैं !? दूसरी तरफ़ मेरे जैसा आदमी यह कह रहा था कि इस फ़िल्म में नया या क्रांतिकारी कुछ नहीं है, इसमें वही किया गया है जो कट्टरपंथ, अंधविश्वास और सांप्रदायिकता के विरोध के नाम पर पहले भी कुछ फ़िल्मों में किया जा चुका है। इस फ़िल्म के अंत में भी उसी कथित भगवान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया है जो वस्तुतः सारे अंधविश्वासों, झगड़ों और बेईमानियों की जड़ है (इस संदर्भ में ये लेख पढ़ें-पहला, दूसरा )। फ़ेसबुक और नास्तिक ग्रुप के कुछ युवाओं ने इस बात को समझा और बात आगे चलाई। लेकिन
राष्ट्रीय न्यूज़चैनलों पर इस मुद्दे का ज़िक्र कहीं दिखाई नहीं पड़ा। क्यों दिखाई नहीं पड़ा, इसपर आगे बात करेंगे।

दूसरी घटना पुरस्कार वापस लौटाने के हास्यास्पद प्रकरण की रही। मेरे जैसे लोग पूछ रहे थे कि एक सरकार से लिए पुरस्कार दूसरी को कैसे लौटाए जा सकते हैं, आप जैसे ‘स्वाभिमानी’ जो बात-बात में नेताओं, सेठों और राजनीति को ग़ालियां देते हैं, उन्हींके दिए पुरस्कार लेते ही क्यों हैं, आप जो एक सरकार को लोकतांत्रिकता की दृष्टि से लगभग अछूत मान रहे हैं, उसीके चैनलों पर बहसों में दिखते हुए ख़ुश कैसे हो सकते हैं, पुरस्कार आपने लौटाए इसका सबूत क्या है.........आदि-आदि (इस संदर्भ में यह लेख पढ़ें)। इसमें भी किसीकी रुचि नहीं दिखाई दी। वे लोग तो आर एस एस एस के ‘महत्वपूर्ण’ सवालों के जवाब देनें में लगे हुए थे।

सवाल यह है कि ये लोग दूसरे या दूसरों के प्रश्नों को छोड़ आर एस एस एस के लचर प्रश्नों में इतनी रुचि क्यों लेते हैं ? दो-तीन बातें समझ में आती हैं-एक यह कि इनका बौद्धिक स्तर ही इतना है कि इन्हें आर एस एस एस से ही बहस में आसानी दिखाई देती है। दूसरी, इन्हें कुछ प्रतीकों, बैनरों, कपड़ों, भाषाओं, भंगिमाओं के फ़र्क़ के चलते अपने प्रगतिशील होने का भ्रम हो गया है, दरअसल इनमें और आर एस एस एस में उन्नीस-बीस से ज़्यादा का अंतर नहीं है। तीसरी, भारत में ज़्यादातर संस्थाओं के शीर्ष पर ब्राहमणवाद बैठा हुआ है और अलग-अलग मुंहों से वही अपनी बात कह रहा होता है। चौथी, इनका एक निश्चित एजेंडा है और ये ऐसे हर व्यक्ति, विचार, तथ्य और तर्क से घबराते हैं जो उस एजेंडा के बाहर जाकर, समस्या की जड़ की तरफ़ इशारा कर रहा होता है। पांचवीं, इनका झगड़ा दिखावटी है, दरअसल ये एक-दूसरे के पूरक हैं। 

मैं कई साल तक टीवी की बहसें बड़ी रुचि के साथ देखता रहा हूं। अंततः मैंने पाया कि यहां अंधविश्वास और कट्टरता के विरोध के नाम पर ‘धर्म बनाम विज्ञान’, ‘अध्यात्म बनाम तर्क’, ‘नया बनाम पुराना’, ‘मंदिर बनाम मस्ज़िद’, जैसे कुछ मिलते-जुलते नामों से इधर-उधर की बहसें चलाई जातीं हैं। नास्तिकता शब्द का उच्चारण भी मैंने नास्तिक ग्रुप शुरु करने के बाद भी हिंदी चैनलों के किसी एंकर के मुख से दो-चार बार ही सुना है। ‘ईश्वर है या नहीं’ ऐसी कोई बहस तो मेरे देखने में कभी भी नहीं आई। यही हाल हिंदी फ़िल्मों का भी रहा है। बात समझना इतना मुश्क़िल भी नहीं है कि ऐसे लोगों को आर एस एस एस सूट नहीं करेगा तो और कौन सूट करेगा। ‘हींग लगे न फ़िटकरी और रंग चोखा का चोखा’। किया कुछ भी नहीं, बस आर एस एस एस को ग़ाली देने का दैनिक कर्मकांड निपटाया और प्रगतिशील बनके बैठ गए।

दरअसल ऐसे ‘प्रगतिशीलों’ ने ब्राहमणवाद, आर एस एस एस या धर्म से उपजी हर बुराई को विस्तार दिया है। साकार भगवान से निपटने के नाम पर इन्होंने निराकार भगवान नाम की बड़ी चालाक़ी खड़ी कर दी। प्रगतिशीलों, उदारवादियों और तार्किकों के बीच धर्म को मान्यता और स्वीकृति दिलानेवाली सबसे बड़ी और भ्रामक अवधारणा ‘धर्मनिरपेक्षता’ ऐसी ही बुद्धिओं() का ‘चमत्कार’ लगती है (इस संदर्भ में ये भी पढ़ें-पहलादूसरा )। आर एस एस एस का दिखावटी विरोध करनेवाली तथाकथित गंगा-जमुनी संस्कृति भी ऐसी ही अजीबो-ग़रीब मानसिकताओं का जोड़ मालूम होती है। ये गाय को मां बताए जाने पर तो हंसते हैं पर यह भूल जाते हैं कि ये ख़ुद नदियों को मां बनाए बैठे हैं। आप नदियों व ‘भारतीयता’ पर राज कपूर व अन्य तथाकथित प्रगतिशीलों की फ़िल्मों के गाने देखिए-सुनिए। ज़रा सोचिए कि अगर ‘होंठों पर सचाई रहती है, हर दिल में सफ़ाई रहती है’ तो इतने सारे ट्रकों की पीठ पर ‘सौ में से निन्यानवें बेईमान’ किसने और क्यों लिख दिया था!? ‘हम उस देस के वासी हैं जिस देस में गंगा बहती है’........तो ? दुनिया में आपका क्या अकेला ऐसा देश है जिसमें कोई नदी बहती है !? आपकी वजह से बहती है क्या ? आप न होते तो न बहती ? यहां अंग्रेज़ आए तो गंगा बहना बंद हो गई थी क्या ? बहने से सारी समस्याएं भी अपने-आप बह जाएंगी क्या ? साहिर कहते हैं कि ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा’ और फिर अगली ही पंक्तियों में यह भी कह देते हैं कि ‘कुरआन न हो जिसमें वो मंदिर नहीं तेरा, गीता न हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है’....., अब पूछिए कि गीता और क़ुरान होंगे और हिंदू और मुसलमान नहीं होंगे !?’ गीता और क़ुरान में क्या अचार डालने के तरीक़े बताए गए हैं !? इंटरनेट की बहसों में दूसरों के अलावा कुछ तथाकथित प्रगतिशील भी सलाहें देते पाए जाते हैं कि क़िताबें ज़रुर पढ़नी चाहिएं, अध्ययन ज़्यादा से ज़्यादा करना चाहिए। भाईजी, आपने साहिर को गीता का अध्ययन करते देखा था क्या ? अगर अध्ययन करने के बाद भी उन्हें यह महान नुस्ख़ा सूझा तो कहने ही क्या !! मेरी तलवार आपके घर रख दें और आपका भाला मेरे घर में रख दे तो हम दोनों का झगड़ा ख़त्म हो जाएगा !? कमाल का आयडिया है!  दूसरे क्रांतिकारी शायर फ़ैज़ ‘हम देखेंगे, हम देखेंगे...के बाद भविष्य के संदर्भ में कुछ घोषणाएं करते हुए आखि़रकार कहते हैं कि ‘बस नाम रहेगा अल्लाह का, जो ग़ायब भी है हाज़िर भी......’। तो लीजिए, यह रही आपकी क्रांति। आर एस एस एस लिखेगा तो इससे कुछ अलग लिखेगा क्या ? उसकी तो तबियत चकाचक हो जाती होगी ऐसे गाने सुनकर।

(भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस-2)

-संजय ग्रोवर
07-02-2016