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Friday, 27 November 2015

अब यह धर्मनिरपेक्षता क्या है ?

पता नहीं शब्दकोषों में धर्मनिरपेक्षता के क्या मायने बताए गए हैं मगर जैसा समाज को, अख़बारों को, पत्रिकाओं को, टीवी चैनलों को देखा है, सुना है और समझा है उससे यही पता लगता है कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब है कि सभी धर्मों और उनके माननेवालों को समान आदर देना, उनमें फ़र्क़ न करना। और एक जो बात समझ में आती है वो यह है कि धर्मनिरपेक्षता को एक बहुत ऊंचे, महान, मानवीय, उदार और संवेदनशील मूल्य की तरह स्थापित किया गया। मगर सोचने की बात यह है कि सभी धर्मों को समान आदर देने की बात तो सभी धर्म भी करते रहे हैं! आपने कभी किसी टीवी चैनल पर या पत्र-पत्रिका में या वास्तविक ज़िंदगी में कोई ऐसा धर्मगुरु, धर्मविवेचक/विश्लेषक या धर्मानुयाई/धर्मावलंबी देखा है जो सार्वजनिक तौर यह न कहता हो कि हम सभी धर्मों का एक जैसा आदर करते हैं। सभी तो यही कहते हैं कि हमारी धार्मिक पुस्तकों में भी यही लिखा है कि सभी धर्मों का समान आदर करो। ऐसे में, इतने सारे धर्मों के होते, अलग से एक धर्मनिरपेक्षता की क्या ज़रुरत पड़ गई!? जबकि बात तो धर्म और धर्मपिरपेक्षता, दोनों ही एक जैसी बोल रहे हैं !

पिछले कई सालों में विपक्ष के एक प्रमुख नेता ने एक और शब्द को मशहूर किया-‘स्यूडो सेकुलरिज़्म’ यानि कि ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’। उनका कहना था कि इसकी जगह ‘पंथनिरपेक्षता’ होना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि इससे कोई बहुत फ़र्क़ पड़ता है। क्योंकि दुनिया-भर के सभी समूह, चाहे वे किन्हीं भी आधारों पर बनें हों, सार्वजनिक रुप से तो बाक़ी सभी समूहों के आदर की या उनसे समानता बरतने की बात करते ही करते हैं। कुछ आतंकवादी या अपराधी गिरोह ज़रुर इसका अपवाद हो सकते हैं। मेरी समझ में सबसे ज़रुरी है व्यक्ति निरपेक्षता। समाज में सभी तरह के व्यक्तियों को अपनी तरह से सोचने, खाने-पीने, लिखने-बोलने की आज़ादी होनी चाहिए जब तक कि वे किसी दूसरे की ज़िंदगी में नाजायज़ और व्यक्तिगत हस्तक्षेप, ऊंगलीबाज़ी, ताका-झांकी, शोषण या उत्पीड़न न कर रहे हों।
फ़ेसबुक के अपने नास्तिकTheAtheist ग्रुप से एक स्टेटस

धर्मनिरपेक्ष शब्द तथाकथित प्रगतिशीलों और वामपंथियों में काफ़ी पसंद और इस्तेमाल किया जाता रहा है। मुझे यह और अजीब लगता है। क्योंकि वामपंथिओं को और उनके द्वारा दूसरों को बताया जाता रहा है कि मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम का नशा कहा है। यानि कि एक ख़तरनाक़ सामाजिक बुराई की तरह चिन्हित किया है। समझा जा सकता है कि मार्क्स ने ऐसा किसी एक धर्म के बारे में तो कहा नहीं होगा। अगर धर्म की तुलना बुराई से की जा रही है तो वहां निरपेक्षता का क्या काम है !? या फिर ऐसी निरपेक्षता हमें सभी बुराईयों के साथ बरतनी चाहिए। फिर एक गुंडई-निरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक बलात्कार-निरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक छेड़खानी-निरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक दंगा-निरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक लूटपाट-निरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक चोरी-निरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक शोषण-निरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक वर्णव्यवस्था-निरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक ब्राहमणवाद-निरपेक्षता भी होनी चाहिए.......

लेकिन एक बात स्पष्ट कर देना ज़रुरी है कि मेरे लिए जितनी अजीब धर्मनिरपेक्षता है, उससे कहीं ज़्यादा अजीब धर्म रहा है। अगर आप मेरी या मेरे लिखे की तुलना उन लोगों से करेंगे जो धर्मनिरपेक्षता के पीछे तो पड़े हैं पर धर्म पर कोई बहस नहीं चला रहे, तो यह आपकी समस्या है, आपकी समझ है, आपकी नीयत है। मैंने कई बार लोगों को ऐसे उल्टे-सीधे निष्कर्ष निकालते देखा है। 

ऐसा वे जानबूझकर करते हैं या उनकी बौद्विक क्षमता ही इतनी होती है, यह तो वही जानते होंगे।     

-संजय ग्रोवर
27-11-2015