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Wednesday, 23 December 2015

मनुवाद, इलीटवाद और न्याय


जो लोग अपेक्षा को अपेक्षा बोलते रहे, उनका भी रिकॉर्ड देखना चाहिए था। क्या अपेक्षा को अपेक्षा बोलते ही फ़्लाईओवर अपने-आप बन जाते हैं, सड़क के गड़ढे ख़त्म हो जाते हैं, किसान आत्महत्या बंद कर देते हैं ? उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश से आनेवाले कितने ही बुद्धिजीवियों को मैंने श को स, व को ब, क्ष को च्छ बोलते सुना है। फ़िल्मकार और ऐडगुरु अकसर ग़लत हिंदी बोलते हैं। मगर भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ चले सरकसनुमां आंदोलन के बाद जिन लोगों को सारे भारत में अकेले लालूप्रसाद ही भ्रष्टाचारी, और चुनाव न लडने लायक भ्रष्टाचारी नेता नज़र आए (और किसी बड़े(?) नेता के चुनाव लड़ने पर पाबंदी हो तो बताएं) उनके घर से कोई अपेक्षा को उपेक्षा बोल दे तो इनके लिए तो बम ही फटा समझो।

फिर राजेंद्र यादव को भी याद करें, जिन्होंने स्त्रियों और वंचितों के संदर्भ में हिंदी साहित्य का परिदृश्य ही बदल डाला, उन्हें भी कई महानात्माएं तरह-तरह से स्त्री-विरोधी साबित करने में लग गई। अंतिम दिनों में तो कई महापुरुष और महामहिलाएं मिल-जुलकर उन्हें हिंदूवादी ही साबित करने में लगे हुए थे। वे तो निकल लिए वरना इन्होंने कर ही देना था। अपने अनुसार न होने वाले व्यक्ति को सभी अच्छे बदलावों का विरोधी घोषित करने में इन अति-ऐक्सपर्ट, छुपे हुए मनुवादियों को महारत हासिल है जिसमें दूसरों की मूर्खता का भी क़ाबिले-ज़िक्र योगदान है। वरना सोचने की बात यह है कि जो लोग पूरे प्राणपण से राजेंद्र यादव को स्त्रीविरोधी और देहवादी साबित करने में लगे रहे उन्होंने इससे पहले और बाद में ऐसे अन्य कितने साहित्यिक मर्दों के खि़लाफ़ आंदोलन चलाए !? देशकाल डॉटकॉम पर मैंने राजेंद्र यादव से इस संदर्भ में पूछा था और उन्होंने धर्मवीर भारती और कमलेश्वर के ऐसे प्रसंग बताए थे कि किस तरह उनसे स्त्रियां/पत्नियां पीड़ित थीं मगर उनका ज़िक़्र कोई नहीं करता था। मनुवादी व्यवस्था का यह चेहरा भी समझने जैसा है कि अगर पुरुष अपना है तो पुरुष का सब कुछ ठीक है और अगर स्त्री अपनी है तो फिर सामनेवाला पुरुष दोषी है। दरअसल किसने क्या किया, वो सब जाए भाड़ में!


(यह स्तंभ अब इस साइट से ग़ायब है, मेरी अन्य कई रचनाएं भी ग़ायब हैं। एक व्यंग्य मौजूद है लेकिन उसमें से भी नाम ग़ायब है। यह मेरे साथ किसी न किसी रुप में चलता ही रहता है। इस बारे में अलग से लिखूंगा। बहरहाल, मैंने जो स्क्रीन शॉट लिये थे, आप उसमें पढ़ सकते हैं। 16-02-2017)

अब कुछ लोग इस लड़के पर अपना सारा न्याय और स्नेह उड़ेले दे रहे हैं। लगता है कि भारत में बलात्कार इसी लड़के की वजह से शुरु हुए और यह बाहर रहा तो देश में तबाही आ जाएगी। जिन लोगों के आस-पास रोज़ इस या उस वर्ग के हाथ-पांव सरेआम काट देने के भाषण चलते रहे हों, उन्हें सारा ख़तरा इसी लड़के में दिखाई देने लगे, तो यह अजीब बात है। जैसे कि बाहर सड़क पर, इससे पहले और इसके बाद सब पवित्र और महान आत्माएं ही घूमती रहीं हों!


लड़के को और समाज को ठीक करना है तो पहले तो यह पता लगाना चाहिए कि वह ऐसा बना क्यों आखि़र ? उसके मां-बाप कैसे थे, उसके टीचर क्या सिखाते थे, दोस्त किस तरह की बातें करते थे, भाई-चाचा-मामा किस तरह के पुरुष को बेहतर मानते थे ; भाभियां, चाचियां, बहिनें, मांएं क्या बतातीं थीं कि स्त्रियां किस तरह के पुरुष को पसंद करतीं हैं ; वो जो अख़बार पढ़ता था, वो क्या-क्या छापते थे और उसे क्या अच्छा लगता था ; जो फ़िल्में वो देखता था, क्यों देखता था, उनसे क्या प्रेरणा उसे मिलती थी ; जो कॉमेडी शो उसे पसंद थे उनके कॉमेडी-प्रमुख स्त्रियों की किन बातों की हंसी उड़ाते थे ; जो न्यूज़-चैनल उसे पसंद थे, वहां काम करनेवाले पुरुष और स्त्रियां हास्यकवियों की किस तरह की कविताओं पर ज़्यादा हंसते थे.......


क्या उस लड़के ने सब कुछ ख़ुद-ब-ख़ुद सीख लिया था ? क्या वह यही सोचकर पैदा हुआ था ? संजय दत्त, सलमान ख़ान, शाइनी आहूजा, मधुर भंडारकर, सूरज पंचोली के क़िस्से हम देखते रहे हैं। एक बात तो पक्की है कि इनमें से कोई भी नाबालिग नहीं था।


लड़के को किसी ऐसी जगह भी तो रखा जा सकता हैं जहां वह क़ैद भी न हो और लगातार मनोवैज्ञानिकों, मनोचिकित्सकों, समाजविज्ञानियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, चिंतकों की नज़र और असर में रहे। जो उसके ज़रिए यह पता लगाने की कोशिश करें कि इतनी कम उम्र में बच्चों में ऐसी प्रवृत्ति कैसे विकसित हो जाती है !?


अब यह तथ्य लोग जानने लगे हैं कि किसी केस पर पब्लिक का रिएक्शन कैसा हो, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि मीडिया उसे कैसे पेश करता है।


वंचित वर्गों की स्त्रियों से आए दिन बलात्कार होते हैं। कोई पूछने भी नहीं जाता।


-संजय ग्रोवर
23-12-2015