Saturday 24 December 2016

भद्दे सरलीकरण के भौंडे देवता

अगर गांधी गांधीवाद के बिना, अंबेडकर अंबेडकरवाद के बिना, मार्क्स मार्क्सवाद, नेहरु जेएनयू के बिना पैदा हो सकते हैं और महत्वपूर्ण काम कर सकते हैं (वैसे मेरी कोई गारंटी नहीं है कि इन्होंने जो भी किया अच्छा ही किया, मैं इनमें से किसीसे भी नहीं मिला, बस क़िताबों, फ़िल्मों, रिकॉर्डेड भाषणों आदि के ज़रिए ही जानता हूं) तो जो लोग इनके अनुयाई मात्र हैं वे वादों आदि पर इतना ज़ोर क्यों देते हैं, स्कूलों और यूनिवर्सिटियों पर इतना गर्व/फ़ख़्र क्यों करते हैं !? किसने इस समाज में मूल्यों और सोच का ऐसा भद्दा सरलीकरण किया है कि लोगों को सामने होती चीज़ें दिखाई नहीं पड़ती और काल्पनिक चीज़ों के लिए लोग अपनी और कई बार दूसरों की भी ज़िंदगियां बर्बाद कर देते हैं ? क्यों लोग किसी भी मुद्दे पर बारीक़ी से सोचने में असमर्थ हो जाते हैं और सतही बातों से सतही समाधान लेकर संतुष्ट हो जाते हैं ? 

क्या आपने कभी सोचा है कि समाज को सतही बातों में उलझाए रखनेवाले अक्सर वही लोग हैं जो बहुत गंभीर चिंतक होने का दावा करते हैं। जब भ्रष्टाचार विरोधी तथाकथित आंदोलन चल रहे थे तो वे कौन लोग थे जो इस तरह का माहौल बनाकर लोगों को धमका रहे थे कि जो रामदेव/केजरीवाल/अन्ना का समर्थक नहीं है वह भ्रष्टाचार का समर्थक है ? पूछिए कि जब रामदेव/केजरीवाल/अन्ना दुनिया में नहीं थे तो क्या कोई ईमानदार नहीं होता था ? अमेरिका, जर्मनी, जापान, फ़्रांस, चाइना में तो कोई रामदेव/केजरीवाल/अन्ना नहीं हुए, भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन तक नहीं हुए, तो क्या इन देशों की स्थिति ईमानदारी में भारत से कमज़ोर है ? जिस देश में और जिस समय में भाजपा/कांग्रेस/आमआदमीपाटी न हो तो उस देश और समय के लोगों को आत्महत्या कर लेनी चाहिए क्या !?

इन तथाकथित महान लोगों ने चीज़ों का ऐसा बेहूदा सरलीकरण किया है कि लोग अपनी आधी से ज़्यादा ज़िंदगी बेमतलब की बातों में ग़ुज़ार देते हैं ऊपर से तुर्रा यह कि दूसरों को ज्ञान बांटते फिरते हैं। मैं बड़ा हैरान होता था जब किसी सामूहिक ‘पवित्रता’ में जाकर देखता था कि बीच में आग जल रही है और आसपास लोग सर पर रुमाल डाले ऐसी गंभीर मुद्राएं बनाए बैठे हैं जैसे कोई बहुत ज़रुरी और सार्थक काम चल चल रहा हो। अजीब बात है, क्या कमरे की छत टपक रही है जो रुमाल डाले बैठे हो ? अगर गर्मी भी लग रही है तो पहले यह आग बुझाओ, रुमाल में क्या एसी लगा है ? अगर बरसात आ रही है तो छाता लगाओ, रुमाल किस मर्ज़ की दवा है ? अगर तुम बाज़ार में बेईमानी और रिश्तों में लिफ़ाफ़ेबाज़ी नहीं छोड़ सकते तो रुमाल और आग से कैसे पवित्र हो जाओगे ? यह अच्छी ज़बरदस्ती है कि न तो सच बोलेंगे, न ईमानदार रहेंगे, न लड़के-लड़कियों के एवज में पैसे का लेन-देन बंद करेंगे, न छुआछूत, छोटा-बड़ा, ऊंचा-नीचा करना छोड़ेंगे मगर फिर भी हमें महान और पवित्र मानो क्योंकि हम आए दिन कहीं आग लगाकर बैठ जाते हैं, किसीको धागा बांधकर मरने के लिए छोड़ जाते हैं, कहीं बिजली चुराकर दिए से प्रकाश फैलाने का नाटक रचाते है। 

ये कौन लोग थे जिन्होंने कहा कि खाना हमें खिला दो तो समझो तुम्हारे मरे हुए पिताजी तक पहुंच जाएगा ? और किसीने भी नहीं पूछा कि अगर तुम हमारे पिताजी का खाना खा सकते हो तो उनकी जगह मर क्यों नहीं सकते ? हमारे पिताजी तो फिर भी कुछ काम कर रहे थे, वे थोड़ा और जिएं तो कुछ और काम आगे चलेगा, तुम तो बस खाने और झूठी श्रेष्ठता का भ्रम बनाए रखने के लिए ही घटिया सरलीकरण और प्रतीकीकरण से लोगों को बुद्धू बनाए जा रहे हो! 

(जारी)

-संजय ग्रोवर
24-12-2016

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