Saturday 12 October 2019

भगवान और चुनौती

कहते हैं कि भगवान कुछ भी कर सकता है !
चलिए, ज़रा आज़माते हैं-
भगवान अगर है तो संविधान उसकी मर्ज़ी से ही बना होगा।
लेकिन असंवैधानिक काम जगह-जगह पर हो रहे हैं !
यहां जातिभेद होता है।
यहां रंगभेद होता है।
यहां स्त्री और पुरुष में भेद होता है।
सिर्फ़ दिल्ली में ही, वो भी पैसेवाले और पढ़े-लिखे लोगों ने, क़दम-क़दम पर असंवैधानिक कमरे बना रखे हैं ! दुकाने बना रखी हैं।
कई औरतें मजबूरन रखैलें और वेश्याएं बनी हुई हैं।
उनसे बलात्कार हो रहे हैं।
लोग मजबूरन पाखाना साफ़ कर रहें हैं, दूसरों की गंदगी ढो रहे हैं।
यूं तो ऐसी कई चीज़ें हो रही हैं मगर भगवान इतने सालों से चुपचाप देख रहा है !
क्या भगवान को संविधान नहीं पता ? क्या वह पढ़ा-लिखा नहीं है ?
हम भगवान को टाइम देते हैं कि आज रात तक वह यह सब बुराईयां ख़त्म कर दे।
असंवैधानिक कमरे गिरा दे।
लड़कियों को आज़ाद कर उनकी शादियां करा दे।
लोगों का पाखाना बंद कर दे या उसे ख़ुद साफ़ किया करे।
जातिभेद ख़त्म कर दे.......
काम तो बहुत हैं और दलाल कहते हैं कि भगवान पलक झपकते ही सब कुछ बदल सकता है।
हम भगवान को छूट देते हैं कि आज शाम तक वह इनमें से कोई पांच काम ही कर दे।
चलो हम यह भी छूट देते हैं कि कोई सा भी भगवान-साकार, निराकार, धार्मिक, धर्मनिरपेक्ष, कोई भी भगवान इस काम को करके दिखा दे। चलो हम यह भी छूट देते हैं कि सारे भगवान मिलकर इस काम को करके दिखा दें।
नहीं तो साबित हो जाएगा कि वह/वे नहीं है।
और उसको माननेवाले फ़िर अनाथ हो जाएंगे।

-संजय ग्रोवर
(on facebook today 12-10-2019)



Monday 27 May 2019

नास्तिकता और भीड़ का रुझान

नक़ली नास्तिकता की बात इस ग्रुप में कई बार उठी है। समझना मुश्क़िल हो जाता है कि कैसे पता लगाएं कि कौन नक़ली है कौन असली, अगर कोई नक़ली है तो उसे नक़ली होने से मिलता क्या है ?

इसपर एकदम कोई फ़ैसला कर लेना बहुत आसान तो नहीं है, ठीक भी नहीं लगता फिर भी लोग ‘जगत मिथ्या है, भ्रम सत्य है’ जैसे कथनों का मर्म समझ लेंगे उनके लिए समझना कुछ आसान ज़रुर हो जाएगा। जिन्होंने ‘न कोई मरता है न कोई मारता है‘ जैसी अजीबो-ग़रीब दर्शन रच लिए हों, साफ़ ही है कि वे जीवन की वास्तविकताओं से हारे और डरे हुए लोग हैं और उनका जीवन अभिनय बनकर ही रह गया होगा। एक अभिनेता के लिए आस्तिकता और नास्तिकता, वाम और दक्षिण, ईमानदारी और बेईमानी..... सब भूमिकाएं हैं, रोल हैं। इसीलिए उनका सबसे ज़्यादा ज़ोर अभिनय, प्रदर्शन, प्रतीक, शिल्प, शैली, कर्मकांडों आदि पर ही रहता है। एक मृत शरीर जो सिर्फ़ जीने का अभिनय कर रहा है, जिसके भीतर संवेदना से लेकर विचार तक सब अभिनय ही है, वह और कर भी क्या सकता है, सिवाय इसके कि रोज़ाना अपने मृत शरीर को नए ढंग से सजा-धजाकर लोगों के सामने पेश करता रहे, लोगों को अपनी तरह मृत बनाने की कोशिश करता रहे। मृतकों में जो थोड़ा-सा भी ज़िंदा दिख रहा है, वही श्रेष्ठ लगने लगेगा।

जिसके लिए अभिनय ही जीवन है उसके लिए मौक़ापरस्ती क्या बड़ी बात होगी। वह देखेगा कि इंटरनेट पर नास्तिकता स्वीकृत हो रही है तो वह तुरंत वहां नास्तिक हो जाएगा ; जहां आस्तिकता में सुविधा है, आस्तिक बना रहेगा। कोई सवाल उठाएगा तो कह देगा कि मैं तो समय के साथ बदल रहा हूं, मैं तो प्रगतिशील हूं। फ़िर आप क्या कहेंगे ? क्या कर लेंगे ?

जहां तक मैंने देखा है, ऐसे लोग किसी भी चीज़ को बदलने के लिए अपनी तरफ़ से बहुत प्रयत्न नहीं करते, ख़ासकर वहां, जहां पागल, सनकी, अव्यवहारिक, अकेला कहलाने या हो जाने का डर हो वहां से तो बिलकुल बच निकलने की कोशिश करते हैं, वे सिर्फ़ तुरंत फ़ायदा देनेवाले ख़तरे (कैलकुलेटेड रिस्क) उठाते हैं। और यही नहीं, उनमें से कई तो, अगर कोई और ऐसा कर रहा है तो उसका मज़ाक़ उड़ाने से, उसको तरह-तरह की कोशिश करके गिराने से भी नहीं चूकते। 

और यहां तक भी ग़नीमत होती, मगर मौक़ापरस्ती की हद तो यह है कि जैसे ही उन्हें लगता है कि वह व्यक्ति सफ़ल हो रहा है वे उन मूल्यों के साथ तुरंत अपना नाम जोड़ने की कोशिश शुरु कर देते हैं। फ़िर उन्हें वे सब मूल्य महत्वपूर्ण लगने लगते हैं जिनका वे कल तक मज़ाक़ उड़ा रहे होते हैं। फ़िर उन्हें न तो पागलपन में बुराई दिखाई देती है, न नास्तिकता में, न निष्पक्षता में, न ईमानदारी में, न किसी और में........।


दरअसल उनकी मूल्यों की अपनी कोई समझ होती ही नहीं है, उनकी तो असली कसौटियां हैं-फ़ायदा, लोकप्रियता, सफ़लता यानि कि भीड़ की संख्या, भीड़ का रुझान। ऐसे लोगों की नीयत उस वक़्त बिलकुल साफ़ हो जाती है जब वे न सिर्फ़ किसी और की वजह से सफ़ल हो गए मूल्यों को न सिर्फ़ अपना नाम देने में लग जाते हैं बल्कि मूल व्यक्ति का नाम मिटाने की भी पूरी कोशिश करते हैं। यहां तक कि ऐसे मूल्यों, परंपराओं, कहानियों और क़िस्सों जिन्हें वे कलतक अपना बनाया कहकर गर्व कर रहे थे, का ज़िम्मा भी दूसरे लोगों पर थोपने लगते हैं क्योंकि आज वे मूल्य बदनाम, हास्यास्पद और अव्यवहारिक हो गए हैं।

ऐसे लोगों को मैं लगभग लाश की तरह मानता हूं और उनकी बहुत परवाह नहीं करता।

कई बार मुझे लगता है कि हो सकता है कि कोई अच्छा काम करने के लिए कोई रुप बदलकर आया हो, किसीकी कुछ मजबूरी रही हो ; उससे कुछ सख़्त बात न कह दी जाए, बाद में ख़ुदको भी पछतावा होता है। और इस ग्रुप में भी ऐसे लोग हैं जो (संभवतः)किसी पक्ष से जुड़े होने के बावजूद यथासंभव निष्पक्ष होने की कोशिश करके लिखते हैं। कई लोग यह काम अपने वास्तविक नाम के साथ करते हैं। यह आसान बिलकुल भी नहीं है, ख़ासकर उन लोगों के लिए जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति अपेक्षाकृत बहुत कमतर है।

लेकिन मेरी नज़र में वही ज़िंदा लोग हैं और ऐसे लोगों को मैं बार-बार सलाम करता हूं।

-संजय ग्रोवर
15-02-2015
(नास्तिकTheAtheist Group)

Sunday 26 May 2019

नास्तिकता और स्त्रियां

कुछेक बार यह बात उठाई गई कि इस ग्रुप में स्त्रियां नहीं हैं, या कम हैं। अगर ऐसा है तो क्यों है?

इस संदर्भ में कुछ बातें तो पहले से ही साफ़ हैं, कुछ मैं अब साफ़ किए देता हूं।

पुराने तो लगभग सभी सदस्य जानते हैं, नये भी जानते ही होंगे कि हम अपनी तरफ़ से किसीको भी ग्रुप में ऐड नहीं करते, जो रिक्वेस्ट आतीं हैं उनमें से ही सदस्य चुनते हैं ; उनमें अगर स्त्रियों की रिक्वेस्ट होतीं हैं तो उन्हें चुनने की हमारी कोई अलग प्रक्रिया नहीं है। हमारे मित्र सुधीर कु. जाटव लगभग शुरु से ही मेरे साथ एडमिन रहे हैं, वे भी इस स्थिति को स्पष्ट कर सकते हैं।

दूसरे, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि इस देश में नास्तिकता को लेकर स्त्रियों की दिशा और (मनो)दशा स्पष्ट, संतोषजनक और उल्लेखनीय कभी भी नहीं रही। इस ग्रुप से बाहर भी स्त्रियों के नास्तिकता पर कितने स्टेटस देखने में आते हैं ? कई महीने पहले मैंने यूट्यूब पर जाकर नास्तिकता को खोजा तो पाया कि वहां 16-18 साल की विदेशी लड़कियां पूरे आत्मविश्वास के साथ नास्तिकता पर अपने विचार रख रहीं हैं और उनके वीडियो लगा रहीं हैं। और भारत के तो पुरुषों की स्थिति भी वहां नगण्य है। किसी पार्टी-विशेष, संस्था-विशेष या नेता-विशेष को ग़ालियां देने को ही अगर कोई नास्तिकता और प्रगतिशीलता मानता हो तो उसको उसके हाल पर छोड़ देने के अलावा चारा भी क्या है!?

ये दो कारण तो पहले से ही बहुत-से मित्र समझते हैं। अपने बारे में स्पष्ट कर दूं कि चूंकि मेरे लिए नास्तिकता का मतलब ही सभी धारणाओं, मान्यताओं, परिभाषाओं, मुहावरों, संस्कारों और संस्कृतियों आदि से ऊपर उठकर सोचना है; उनपर पुनर्विचार करना है इसलिए मेरी इस गणितबाज़ी में कोई दिलचस्पी नहीं है कि किस ग्रुप में कितनी स्त्रियां हैं, कितने पुरुष हैं, ग्रुप के सदस्यों की संख्या कितनी है, बच्चे कितने हैं, सेलेब्रिटीज़ कितनी हैं, मशहूर लोग कितने हैं आदि-आदि। मैंने कई बार कहा है कि अगर आपके पास कहने के लिए कुछ है तो इस बात की चिंता कतई न करें कि आप स्त्री हैं, कि पुरुष हैं, कि ग़रीब हैं, कि अमीर हैं,लेखक हैं, अलेखक हैं, छोटे हैं, बड़े हैं, ऊंच हैं, नीच हैं (कृपया सबमें ‘कथित’ जोड़कर पढ़ें), लैंगिक विकलांग हैं, कि समलैंगिक हैं, कि ......जो कुछ भी हैं। हमारे लिए स्त्रियां कोई स्टेटस-सिंबल नहीं हैं, हमारे ग्रुप में ऐसी कोई परंपरा नहीं है कि कोई विशेष अतिथि आएगा तो स्त्रियां फूलमाला-वाला डालकर उसका स्वागत करेंगीं। एक तो ये वैसे भी घटिया, अहंकारों को पालने-पोसने वाले, स्त्रियों को सामान की तरह इस्तेमाल करनेवाले कर्मकांड हैं, दूसरे, हमारे यहां विशेष अतिथि नाम की चिड़िया पर भी नहीं मार सकती। दोस्त की तरह, इंसान की तरह जो भी आए, सबका स्वागत है। ‘विशेष अतिथि’ का ज़माना गया।

मुझे कहने में कतई संकोच नहीं कि सिर्फ़ स्त्री होने की वजह से किसीको सर पर नहीं बिठाया जा सकता। घुमा-फिराकर बार-बार पुरानी बीमारियों को जारी रखने की मूर्खता में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। पुरुष को सर से उठाकर फेंक देने का मतलब यह नहीं है कि अब हम उसकी जगह स्त्रियों को बिठा देंगे कि पहले ये गुंडाग़र्दी कर रहा था, अब तुम्हारी बारी है, करो ख़ुलके, यही हमारा समस्या हल करने का तरीक़ा है। मैंने जब स्त्री-मुक्ति पर लिखना शुरु किया तो मैं छोटे क़स्बे मैं रहता था। मेरे दो-चार ही लेख छपे होंगे कि हमारे घर पर टट्टी फेंकी जाने लगी। यह टट्टी एक पढ़ी-लिखी ब्राहमण स्त्री के घर से फ़ेकी जाती थी। उस स्त्री की वजह से मैंने नारी-मुक्ति पर लिखना बंद नहीं कर दिया। जहां तक मुक्ति की बात है, मैं हर तरह की मुक्ति का समर्थक हूं, मैं कहता रहा हूं कि अगर एक आदमी भी अपनी बिलकुल अलग जीवन-शैली में जीना चाहता है तो उसे भी अपनी तरह से जीने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए बशर्ते कि वह किसीको सता न रहा हो। लेकिन स्त्री-मुक्ति के नाम पर कोई जातिवादी खेल खेले, यह बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यह मैं बहुत देख चुका हूं कि समानता, प्रगतिशीलता, अनेकता में एकता, वामपंथ आदि के नाम पर अपनी जाति और वर्ण को फ़ायदा पहुंचाने, दूसरों की मेहनत और दूसरों के विचारों को हड़पकर अपनी इमेज बनाने के शर्मनाक़ खेल रचे जाते हैं और कोई इसपर आपत्ति करे, इसे बताए तो उसे स्त्री-विरोधी की तरह पेश करने की कोशिश की जाती है। ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ का अमानवीय, बेशर्म, ढीठ और घिनौना कृत्य हमारे ग्रुपों में किसी क़ीमत पर नहीं चलेगा। ब्राहमणवाद चाहे किसी संघ की चुनरिया ओढ़ के आए या किसी पंथ का टॉप चढ़ाके, हम उसे बिना किसी चश्में के देखते हैं और समझते हैं। जिसको धोखा खाने और पुंछल्ला बनने का शौक़ हो, उसे इसकी पूरी स्वतंत्रता है, मगर हम पक्ष और विपक्ष के बंटवारे की मूर्खता में बहकर किसी भी गंदी नीयत और चालबाज़ी की पीठ नहीं थपथपाने वाले।

ज़रुरत हुई तो इससे आगे भी लिखूंगा।
-संजयग्रोवर
24-05-2015
नास्तिकTheAtheist Group

Saturday 20 April 2019

कबीरदास

यह अद्भुत है।

कबीरदास जो जिंदग़ी-भर अंधविश्वासों का विरोध करते रहे उनकी जब मृत्यु हुई तो उनके हिंदू और मुस्लिम शिष्य उनका अंतिम संस्कार अपने-अपने तरीक़े से करने के लिए लड़ने लगे। जब उन्होंने लाश पर से चादर हटाई तो नीचे से फूल निकल आए जिन्हें शिष्यों ने आधा-आधा बांट लिया।

अंधविश्वास का प्रकट विरोध करनेवाले व्यक्ति के अंत की कहानी को भी एक अंधविश्वास में बदल दिया गया है।

अद्भुत् हैं हमारी क्षमताएं और नीयतें!

July 16, 2014


कबीरदास के बारे में हर कहीं लिखा है कि वे अंधविश्वासों का प्रकट विरोध करते थे।
मगर उन्हीं क़िताबों में लिखा है कि जब वे मरे तो उनकी लाश की जगह फूल निकले।

गांधीजी के बारे में हर जगह बताया गया है कि वे अहिंसा में विश्वास करते थे मगर वही स्रोत यह भी कहते हैं कि गीता उनकी प्रिय पुस्तक थी।

बुद्ध के बारे में कहा गया कि वे मूर्त्तिपूजा और भगवानियत के विरोधी थे मगर आज जगह-जगह उनकी मूर्त्तियां हैं और कई लोग उन्हें भगवान बुद्ध कहते हैं।

क्या यह महज़ संयोग है ?

या फ़िर प्रगतिशीलता की आड़ में वैसा ही घालमेल है जैसा आजकल कई जगह देखने को मिल रहा है ?

December 26, 2014

-संजय ग्रोवर



Thursday 18 April 2019

दुष्प्रचारवादियों को इतना ही बताना चाहता हूं

कई बार सोचता हूं कि अगर मैं भी कभी जातिवादी, संप्रदायवादी, अंथ-पंथवादी, अगड़मवादी, बगड़मवादी होना चाहूं तो मेरे पास भी कोई ‘ढंग की उपलब्धियां’ हैं क्या! दूर-दूर तक कुछ नज़र नहीं आता। न कभी किसीको इसलिए फ़्रेंड-रिक्वेस्ट भेजी कि वो ग्रोवर है, न बाक़ी ज़िंदग़ी में किसीसे इसलिए संबंध बनाए। संबंध क्या यह ख़्याल तक नहीं आया कि ऐसा भी सोचना चाहिए। इंटरनेट पर आए तो यह ज़रुर सोचा कि कुछ प्रगतिशील और नास्तिक मित्र ढूंढे जाएं, ग्रोवर का तो कहीं सपना तक नहीं आया। अब जो प्रगतिशील और नास्तिक दरअसल वेदवादी, क़ुरानवादी, गीतावादी ब्राहमणवादी, अगड़म-बगड़मवादी निकले तो यह उनकी समस्या है, इसके लिए मैं क्यों परेशान होता फिरुं !? अपने तो भेजे में कभी यह ख़्याल तक नहीं आया कि पता किया जाए कि ग्रोवर या पंजाबी होते कौन हैं। इस पहचान का तोहफ़ा भी जब दिया, दूसरों ने ही दिया। अपने लिए तो साफ़ है कि जिन शब्दों का मतलब अपने लिए औपचारिकता से ज़्यादा है ही नहीं, उसमें ढूंढने को बचता ही क्या है!? कोई ग्रुप बनाते समय भी यह ख़्याल फटका तक नहीं कि इनमें ढूंढ-ढूंढकर ग्रोवरों और पंजाबियों को शामिल किया जाए। न हीं कुछ लिखते या करते समय यह जताने का पवित्र विचार आया कि देखो, यह मैंने इसलिए अच्छा या बुरा किया, कर दिखाया कि मैं ग्रोवर या पंजाबी हूं।

इसके विपरीत दुष्प्रचारवादियों के मानसिक हालात उनके एक-एक क़रतब में दिखाई पड़ते हैं। उनकी मित्रता-सूचियां, उनके ग्रुप, उनको लाइक करनेवाले, त्यौहारों-रीति-रिवाजों-प्रतीकों, खिलाड़ियों-आयकनों-महापुरुषों-अभिनेताओं की सफ़लता(!) आदि-आदि के नाम पर अपनी पहचान और गर्व जताने की उनकी ललक.....सब कुछ इतना स्पष्ट होता है कि ज़्यादा बताने की ज़रुरत ही नहीं है। यहां तक कि वे दूसरे ग्रुपों में भी अपने गुट बनाकर अपनी मानसिकता बता देते हैं, छुपा नहीं पाते। भले वे ये सब परंपरा के नाम पर करें या प्रगतिशीलता के नाम पर, आजकल लोग तुरंत पहचान भी जाते हैं।

मैं तो दुष्प्रचारवादियों को इतना ही बताना चाहता हूं कि दुष्प्रचार वे चाहे जितना करें, यह उनका स्वभाव ही है, इसी हेतु उनका जन्म हुआ है मगर वे मुझे सचमुच ही अपने जैसा जातिवादी, संप्रदायवादी, वर्णवादी, अगड़म-बगड़मवादी कभी बना पाएंगे, यह ख़्याल दिमाग़ से निकाल कर फेंक दें।

मेरे लिए नास्तिकता का क्या मतलब है, मैं इसी तरह बताता रहूंगा।


-संजय ग्रोवर
(December10, 2014 on facebook)

Wednesday 17 April 2019

ईश्वर और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया

ईश्वर के होने या न होने पर आपको इंटरनेट पर ख़ूब विचार और बहसें दिखाई देंगे। प्रिंट मीडिया में भी मुख्यधारा के पत्र-पत्रिकाएं न सही, मगर बहुत-से अन्य पत्र-पत्रिकाएं इसपर विचार चलाते रहे हैं।

मगर भारतीय फ़िल्में और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया !?

ज़ाहिर है कि इस मामले में बुरी तरह से पिछड़े हुए हैं। इनकी उपलब्धि शून्य है।

जबकि ये सबसे ज़्यादा समर्थ और सम्पन्न हैं !!

क्या वजह हो सकती है ?





-संजय ग्रोवर
(July 14, 2014 on facebook)

Thursday 11 April 2019

नास्तिकों के खि़लाफ़, भगवान के खि़लाफ़

 जो लोग भगवान को मानते हुए भी नास्तिकों के खि़लाफ़ हैं, वे भगवान के ही खि़लाफ़ हैं। क्योंकि जिस भगवान की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता वो अगर न चाहता तो नास्तिक कैसे हो सकते थे ? और अगर भगवान चाहता है कि नास्तिक पृथ्वी पर हों तो आप क्यों चाहते हैं कि वे न हों? यह तो भगवान के काम में टांग अड़ाना हुआ। आप क्या ख़ुदको भगवान से भी बड़ा मानते हैं जो उसके फ़ैसलों में ग़लतियां ढूंढ रहे हैं? हद हो गई अहंकार की !!

और अगर नास्तिक पृथ्वी पर भगवान की मर्ज़ी के बिना हैं तो साफ़ है कि सब कुछ भगवान की मर्ज़ी से नहीं होता, सब कुछ भगवान के कंट्रोल में नहीं है। भगवान ज़्यादा से ज़्यादा चाइना या अमेरिका के राष्ट्रपति जैसी हैसियत या शक्ति रखता है। क्या आप चाइना या अमेरिका के राष्ट्रपतियों/राष्ट्रप्रमुखों को भगवान मानने को तैयार हैं ? बच्चे भी जानते हैं कि सभी राष्ट्रप्रमुख आदमी ही होते हैं।

ऐसे भगवान का क्या करना जो एक पृथ्वी पर भी ठीक से नियंत्रण नहीं रख सकता!?

-संजय ग्रोवर
01-07-2014
(on facebook)

महसूस तो करो

 महसूस तो करो
मैंने उसे ख़ाली कप दिया और कहा,‘‘लो, चाय पियो।’’
वह परेशान-सा लगा, बोला, ‘‘मगर इसमें चाय कहां है, यह तो ख़ाली है!’’
‘‘चाय है, आप महसूस तो करो।’’
‘‘आज कैसी बातें कर रहे हो, मैं ऐसे मज़ाक़ के मूड में बिलकुल नहीं हूं !?’’
‘‘मज़ाक़ कैसा ? क्या ईश्वर मज़ाक़ है ? ईश्वर ने ही मुझे आदेश दिया है कि मेरे माननेवालों को बिलकुल मेरे जैसी चाय दो जिसका न कोई रंग हो, न गंध हो, न कोई आकार हो, न स्वाद हो, न पेट भरता हो, न ताज़ग़ी आती हो, न बीमारी मिटती हो.............लब्बो-लुआब यह कि जिससे कुछ भी न होता हो मगर फिर भी महसूस होती हो.....आप महसूस तो करो!’’
‘‘ईश्वर ने तुम्हे आदेश दिया, तुमसे बात की! कैसे की ?’’
‘‘जैसे तुमसे करता है।’’
‘‘छोड़ो, क्या बकवास ले बैठे........’’
‘‘ईश्वर की बात तुम्हे बकवास लगती है!? ईश्वर ने मुझसे कहा कि मुझे माननेवालों को सब कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे लोग मुझे बेहतर ढंग से महसूस करें ; वे कपड़े भी ऐसे पहनें जो दिखें या न दिखें मगर महसूस हों, वे ऐसे मकानों में रहें जिनका पता भी किसीको न दिया जा सके मगर उन्हें महसूस हो कि वे मकान में रह रहे हैं, इससे ज़्यादा से ज़्यादा लोग मुझे महसूस कर पाएंगे....ईश्वर ने मुझसे यह भी कहा कि जो चीज़ें मेरे जैसी नहीं हैं यानि कि साफ़ दिखाई पड़तीं हैं और लोगों के काम आती हैं वे सब मेरे मानने वाले मुझे न माननेवालों को दे दें क्योंकि वे महसूस नहीं कर सकते इसलिए उन्हें सचमुच की चीज़ें चाहिएं........’’
‘‘क्या अनाप-शनाप बोल रहे हो! तुम कब ईश्वर को मानते हो?’’
‘‘हां मैं नहीं मानता मगर तुम साबित करके दिखाओ कि मैं नहीं मानता.....’’
-संजय ग्रोवर
19-08-201
(ON FACEBOOK)























Saturday 16 March 2019

पाखंड की विविधता-1,2

सलीम उस लड़के का नाम था जिसने मुझसे कहा कि ‘पैसे की तो कोई बात नहीं, आपकी जींस पर दो सुईयां टूट गईं हैं, उनके दो रुपए दे दो’। मुझे बात बहुत अच्छी लगी। जींस बहुत मोटे कपड़े की थी। सलीम उस वक़्त लड़का-सा ही था। छोटी-सी दुकान में दो मशीन लेकर बैठता था। उससे दोस्ती हो गई। फ़ैशन-डिज़ाइनिंग का शौक़ भी शुरु ही हुआ था। मैं अपने जानकारों-दोस्तों को वहीं ले जाने लगा। मैं स्केच बनाता और सलीम कमोबेश वैसा ही सिल देता। धीरे-धीरे अच्छी ट्यूनिंग हो गई। मैं और सलीम दोनों ही स्थानीय स्तर पर ख़ासे प्रसिद्ध हो गए। याद आता है कि सलीम ने मेरी फ़रमाइश पर दो बार ईद की दावत पर मुझे मेरे दोस्तों समेत बुलाया। इफ़्तार शब्द उस वक़्त मेरी जानकारी में नहीं आया था। न ही मुझे ये मालूम था कि ऐसी घटनाओं के फ़ोटो खींच लेने चाहिए ताकि वक़्त पड़ने पर इस्तेमाल किए जा सकें। बाद में हमारी अनबन हो गई। मैं चाहता था कि वो एक लेबल मेरे नाम का भी बनवाए और उसे मेरे डिज़ाइन किए हुए कपड़ों पर लगाए। सलीम को मेरी वजह से बहुत फ़ायदा होता था और मुझे पढ़ा-लिखा होते हुए भी फ़ालतू घूमने का तमग़ा मिल जाता था। लेकिन, सलीम की हिचक भी समझ में आती है, वह मुझे क्रेडिट देता तो उसकी दुकान पर असर पड़ सकता था। बाद में एक नया ख़तरा उठाते हुए मैंने अपनी दुकान खोल ली। बल्कि मैंने दो ख़तरे उठाए-एक तो क़रीबियों को नाराज़ करते हुए तथाकथित छोटा काम कर लिया, दूसरे, कटिंग-टेलरिंग न आते हुए भी मामूली पूंजी के साथ काम शुरु कर दिया। दुकान अच्छी चल गई लेकिन एक तो मैं पैसे वसूलने, कारीगरों से काम कराने के मामले में दूसरों की तरह क्रूर नहीं था (अभी भी नहीं हूं), दूसरे, काम के तकनीक़ी पक्ष में कमज़ोर था, तीसरे, लल्लो-चप्पो, छल-कपट, अभिनय आदि मेरे स्वभाव में नहीं हैं सो अंततः दुकान बंद करनी पड़ी। उस वक़्त भी मैंने एक माकेट के ऊपर खाली पड़ी दुकानों में से सबसे पीछे की दुकान लेने का साहस किया था और अच्छा-खासा चला भी लिया था। बाद में सलीम ने भी वहीं दुकान ले ली थी। बाद में ऊपर का तक़रीबन आधा मार्केट दर्ज़ियों से भर गया। ख़ैर, मैं दुकान बंद करके दूसरी चीज़ों में लग गया। उसके बाद वक़्त खिसकने लगा। अंततः मैंने सलीम के बारे में पता करना छोड़ दिया। मुझे नहीं पता कि आजकल वो कहां है।

Fashion OffBeat

इसी दौरान हमारे पड़ोस में दो डॉक्टर रहने लगे थे। एक हिंदू, एक मुस्लिम-दोनों लगभग युवा। हिंदू से तो थे ही, मुस्लिम से भी खाने-पीने, आने-जाने के जैसे संबंध हमारे परिवार के थे, वैसे मोहल्ले में किसीके नहीं थे। हालांकि मेरे उनसे कोई क़ाबिले-ज़िक़्र ताल्लुक़ात नहीं थे। पर मुझे अच्छा लगता था कि वे दोनों छोटे-से किराए के मकान में साथ-साथ रहते थे। ऐसा अब तक मैंने सिर्फ़ फ़िल्मों में देखा था या कहानियों में पढ़ा था। उनमें से एक तो इतना भला था कि कई बार ग़रीब मरीज़ों के पैसे छोड़ देता था। दूसरे कुछ भी कहें पर मेरी नज़र में इंसानियत के लिहाज़ से यह उस बंदे का प्लस-प्वॉइंट था। पॉज़ीटिव थिंकिंग।

फिर दिल्ली में मुझे हसनैन मिले-हसनैन रज़ा। हसनैन उस समय एक प्रॉपर्टी डीलर ऑफ़िस में बैठते थे। वे अकसर फ़ोन करके मुझे बुला लेते थे। मैं भी किसी वजह से उस वक़्त ख़ाली घूमता था। अच्छी छनने लगी। हसनैन के साथ वक़्त अच्छा बीत जाता था। कभी-कभी हसनैन मेरे लिए अपने हाथों से बनाया खाना लेकर आते थे। वे जिस भाव से लाते थे, देते थे, उसमें मुझे इंसानियत की एक अलग ही गंध महसूस होती थी। मैं भी उस वक़्त कुछ बनाना-करना जानता नहीं था, संकोची था, दिलशाद गार्डन में ढाबे वगैरह भी मेरी पसंद के थे नहीं, सो उस खाने को उपहार और प्रेम समझकर ग्रहण कर लेता था। एक दो-दिन मुझे चीनी के सफ़ेद बर्तन में खाना कुछ अजीब-सा लगा फिर आदत हो गई। साधारण आर्थिक स्थिति में भी हसनैन अपने घर और अपने कपड़ों की जैसी सफ़ाई रखते थे, मैं काफ़ी प्रभावित होता था। 

मेरे पिताजी की मृत्यु के समय हसनैन ने कहा कि मैं भी शॉल चढ़ाना चाहता हूं, कोई ऐतराज़ तो नहीं करेगा। मैंने कहा कि ऐसा तो कोई यहां है नहीं। मुझे याद है कि उस वक़्त मैंने हसनैन से कही थी कि मेरा-तुम्हारा कभी झगड़ा हुआ भी तो किसी दूसरे मसले पर हो सकता है, हिंदू-मुसलमान के मसले पर नहीं हो सकता। मैं रीति-रिवाज, कर्मकांड को नहीं मानता मगर दूसरे करना चाहें तो रोकता भी नहीं। मैं इस तरह की चीज़ों में मन से शामिल नहीं हो पाता।

हसनैन बीच-बीच में दो-चार साल के लिए ग़ायब भी हो जाते हैं, पर किसी न किसी तरह से बीच-बीच में संपर्क बना भी लेते हैं। आजकल फ़ेसबुक पर बने हुए हैं।

जब मेरे एक पड़ोसी मेरे मना करने के बावजूद अपनी अवैद्य बालकनी बना रहे थे और इसका ज़िक़्र मैंने फ़ेसबुक पर किया तो सबसे ज़्यादा फ़ोन मेरे पास सैयद ख़ालिद महफ़ूज़ के आए। मैं उन्हें पहले से नहीं जानता था मगर उन्होंने जिस तरह बार-बार अनुरोध किया, मैं उनसे मिलने को उत्सुक हो गया। पुलिस के मामले में कुछ मदद मेरी शफ़ीक़ ने की थी। बालकनी जितनी बनी थी उतने तक रुक गई थी। सैयद ख़ालिद महफ़ूज़ के बार-बार अनुरोध पर मैंने झिझकते हुए कहा कि घर बहुत गंदा पड़ा है, इसमें आप कुछ मदद कर सकें तो कर दें। मेरी तबियत उस समय बहुत ज़्यादा ख़राब थी। सैयद सफ़ाई के लिए 4-5 बार आए। काफ़ी मेहनत भी उन्होंने की। एक बार तो रसोई के छोटे-छोटे प्लास्टिक और स्टील के बर्तन जिस लगन और करीने से साफ़ किए कि मैं थोड़ा हैरान भी हो गया। सफ़ाई के दौरान एक दिन तो उन्होंने मेरे नहाने का पानी गर्म करनेवाले पतीले में चावल(संभवत लिट्टी-चोखा) बना दिए। उस दिन मैंने, लगभग तीन-चार साल के बाद एक पुरानी बची वोदका की बोतल भी निकाल ली थी। महफ़ूज़ ने पीछेवाला कमरा लगभग पूरा साफ़ कर दिया था, रात के एक-दो बजे हम पंखा चलाकर चटाई-वटाई बिछाकर बैठ गए। उस दिन भी मैं शायद कई महीने बाद नहाया था। सैयद की भावना देखते हुए मैंने चावल, भी खाए और उबले अंडे और कच्चा पनीर भी मंगाकर खाए। अंजुले कुछ-कुछ पंडितों की तरह व्यवहार करता लगा। महफ़ूज़ ने भी दारु पी या नहीं पी, पी तो कितनी पी, मैंने नहीं देखा। अंजुले शाम को कहीं चला गया था, महफ़ूज़ से पूछा तो पता चला कि गुटखा खाने गया है। मैंने कहा कि मेरे सामने ही खा लेता, मुझे तो कोई दिक्क़त नहीं थी। ख़ैर, महफ़ूज़ के व्यवहार में मुझे यह अच्छा लगा कि मैंने उन्हें जो भी देना चाहा, उन्होंने पसंद और ज़रुरत के हिसाब से ले लिया। जहां तक मुझे मालूम है उन्होंने फ़ेसबुक पर इस बात का कभी ज़िक़्र भी नहीं किया कि उन्होंने मेरा कोई काम/अहसान किया। मैं इस बात का क़ायल हूं कि आप किसीका कोई काम करें और बदला चाहें तो सीधे और तुरंत मांग या ले लेना चाहिए बजाय इसके कि पहले आप ख़ुदको सामाजिक/मसीहा की तरह पेश करें बाद में बदला भी चाहें और बदला भी ऐसा कि दूसरे के लिए मुश्क़िल या असंभव हो जाए। 

इन सब घटनाओं और संबंधों का ज़िर्क़ मैंने एक विशेष संदर्भ में किया है। इन सब संबंधों में किसी-गंगा जमुनी संस्कृति या धर्मनिरपेक्षता का हाथ नहीं था, मेरे लिए यह मेरे सहज स्वभाव का परिणाम था, ठीक वैसे ही जैसे मेरी नास्तिकता और उदारता का किसी पार्टी या विचारधारा से कोई संबंध नहीं था, नहीं है।   

इन्हीं सब बातों को मैं इस लेख के अगले हिस्से में स्पष्ट करुंगा।

(जारी)

-संजय ग्रोवर
16-03-2019

अब सवाल यह है कि मैंने इन सभी लोगों(मुस्लिमों-हालांकि किसी दोस्त/इंसान को मैं हिंदू, मुसलमान, क्रिश्चियन कहकर परिचित कराऊं, मुझे थोड़ा शर्मनाक़ ही लगता है) से मित्रता क्या किसी योजना के तहत की थी, किसी सिद्धांत के डर से की थी, किसी कोर्स को पढ़कर की थी!? बिलकुल भी नहीं। क्या आपने किन्हीं स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में ऐसे चैप्टर देखें हैं ? छिटपुट कहानियां ज़रुर देखी होंगी। मैंने कुछ और ज़रुर देखा, कुछ भिन्न। मैंने देखा कि पिताजी किसीसे काम करवाते थे तो एक तो वे उनके चाय और कुछ न कुछ नाश्ता ज़रुर देते थे, कभी-कभी वे उनको ‘बाबूजी’ भी कहते थे। बाबूजी से उनका अभिप्राय होता था-सरजी, साहबजी, शाहजी आदि। कोई कामवाला बेईमान निकलता तो मुझे ग़ुस्सा भी आता कि पिताजी इसको बाबूजी क्यों कहते हैं। मेरी माताजी जमादार का कप तो अलग रखता थी मगर उससे बात करने का उनका अंदाज़ वो नहीं होता था जो दूसरों का होता था। मैं देखता था कि मेरी बहिनें गर्मियों में अगर कहीं से रिक्शे में आतीं थीं तो पहले रिक्शेवाले के लिए स्टील के गिलास और जग में ठंडा पानी ले जातीं थीं। कई बार बर्तन साफ़ करनेवाली महिला ऐसे बर्तनों को साफ़ करने से इंकार कर देती थी। दिल्ली में पहली बार पहले फ़्लैट में काम कराते हुए जब मैं मज़दूरों के साथ चाय पी रहा था तो पड़ोसिनें हंस रहीं थीं। उसके बाद दो-चार बार मैंने मज़दूरों के लिए चाय बनाई तो वे कहने लगे कि हम धोएंगे, मैंने कहा कि अपने के साथ तुम्हारे भी धो दूंगा, इसमें क्या ख़ास बात है !

मुझे समझ में यह नहीं आता कि कोई अच्छा काम किसी भी वजह से कर रहा हो, कुछ लोग उसपर अपने ब्राँड का ठप्पा क्यों लगाना चाहते हैं !? कि यह हिंदू होने की वजह से कर रहा है, यह मुस्लिम होने की वजह से कर रहा, यह धार्मिक होने की वजह से कर रहा है, यह धर्मनिरपेक्ष होने की वजह से कर रहा है, यह पंजाबी होने की वजह से कर रहा है, यह बंगाली होने की वजह से कर रहा है !

मैं बिलकुल स्पष्ट कर दूं मैं जब भी कोई ढंग का काम करता हूं तो उसकी उपरोक्त में से कोई वजह नहीं होती।
(जारी)

-संजय ग्रोवर
19-03-2019


Sunday 6 January 2019

गांधीजी, उनके भक्त और अहिंसा में छुपी हिंसा

भक्त बताते हैं कि गांधीजी धर्मनिरपेक्ष आदमी थे। आपको मालूम ही है आजकल भक्तों से तो भक्त भी पंगा नहीं लेते। लेकिन इससे एक बात पता लगती है कि धर्मनिरपेक्ष लोगों के भी भक्त होते हैं।

मैंने सुना है कि ख़ुद गांधीजी भी राम के भक्त थे। हालांकि गांधीजी अहिंसक थे और राम तीर लिए घूमते थे और उन्होंनें काफ़ी लोगों को युद्ध में मारा भी था। गांधीजी गीता भी पढ़ते थे जिसमें बताया जाता है कि काफ़ी मारकाट हो रखी थी। आज होते तो शायद वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास भी पढ़ते, शायद सुरेंद्रमोहन पाठक की विमल सीरीज़ का बखिया-कांड उनको काफ़ी मुआफ़िक आता।

अगर कोई बच्चा ग़लती से भी पूछ ले कि भई गांधीजी की इस टाइप की आदतों का उनकी अहिंसा के साथ क्या रिश्ता था तो इस देश के ऐतिहासिक बुद्धिजीवी एक अद्भुत तथ्य का वर्णन करते हैं-
'गांधीजी के राम वो राम नहीं थे, उनके राम अलग थे!!'
उनके राम अलग थे ? कैसे ?
बड़ी चमत्कारी बातें हैं, हर किसीको कैसे समझ में आ सकतीं हैं ?
कभी टीवी पर एक सॉस का विज्ञापन आता था, सॉस वही थी जैसे सॉस होती है-लाल रंग की, बोतल भी वही थी, स्वाद भी वही था, लेकिन विज्ञापन में सॉस को चाटने के बाद एक अभिनेता कहता था-‘इट’ज़् डिफ़रेंट’। 
इससे पता लगता है कि किस चीज़ का विज्ञापन किस वक़्त में कैसे करना है, इसका भी काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है।

गांधीजी के राम अलग थे तो उनका नाम भी अलग हो सकता था। या फिर हो सकता है कि राम को चमत्कारी शक्ति से पता चला हो कि मेरे भक्तों में एक गांधीजी भी होंगे, कुछ काम उनके हिसाब से भी कर चलो जो उनके अलावा बस उनके भक्तों की ही समझ में आ सकें, बाक़ी किसीके पल्ले ही न पड़ें। बड़े भक्तों को एक बार समझ में आ गया तो वो छोटे-मोटे भक्तों को तो किसी भी तरह समझा लेंगे।

गांधीजी के अलग राम से मुझे ‘गोलमाल’ के अमोल पालेकर याद आ जाते हैं जिन्हें किसी मजबूरी में एक ही वक़्त में, एक ही ज़िंदगी में, एक ही दफ़्तर में, एक ही घर में दो-दो रोल करने पड़ रहे थे।

जहां तक मुझे पता है राम के काम तो वही थे तीर मारना, युद्ध करना, स्त्रियों के नाक-कानों के कटपीस बनाना, आज्ञाकारिता के नाम पर पिता के अन्याय बर्दाश्त करना...। राम सही जगह पर अन्याय का विरोध नहीं कर पाए, शायद इसीकी क़ीमत रावण को चुकानी पड़ी। लेकिन एक मामले में राम ने धर्मनिरपेक्षों वाला ही काम किया, सूपर्णखा की नाक छोटे भाई लक्षमण से कटवा दी। अपनी इमेज साफ़ की साफ़ रही आई और लक्षमण की इमेज तो लगता है शुरु से ही कुछ आरएसएस टाइप की चली आ रही थी। इस देश के अटल नायक इसके समानांतर कार्य बाद में भी, लगता है, करते/कराते आए होंगे।

गांधीजी को तो मैंने नहीं देखा पर टीवी पर उनके कुछ भक्तों को ज़़रुर देखा। इनमें एक थे अन्ना हज़ारे जिन्होंने तथाकथित रुप से एक ज़़बरदस्त आंदोलन, भ्रष्टाचार के विरुद्ध छेड़ दिया। आईए, अन्ना हज़ारे की मार्फ़त अहिंसा को समझने की कोशिश करें-

अन्ना हज़ारे-मैं इस देश से भ्रष्टाचार मिटाके रहूंगा। सरकार यहां पर आकर हमसे बातचीत करे।
वरना क्या होगा अन्नाजी ?
मैं अनशन पर हूं, जब तक सरकार मांगे नहीं मानती, अनशन जारी रहेगा।
अनशन जारी रहेगा तो क्या होगा अन्नाजी ?
ज़ाहिर है कि आदमी ज़्यादा दिन भूखा-प्यासा रहेगा तो एक-न-एक दिन उसका देहांत हो जाएगा।
फिर क्या हासिल होगा ?
फिर मरनेवाले के समर्थक, भीड़ में बदल जाएंगे, आग लगाएंगे, दंगे करेंगे, लब्बो-लुआब यह कि भयानक हिंसा कर देंगें।

तो यह है अहिंसा ! इसकी परिणति हिंसा में होगी जिसके अंजाम से पहले ही डराया जा रहा है।
यानि होगी तो हिंसा ही पर भूमिका अहिंसा की बांधी जाएगी।
अपने हाथ से, अपने नाम से नहीं करेंगे तो दूसरे से करवा देंगे।
हमारी इमेज साफ़-सुथरी रहेगी, कोई और बदनाम हो जाएगा। 

इस आंदोलन को आज़ादी का दूसरा आंदोलन कहा गया। मेरी जान-पहचान की एक महिला ने बाद में मुझे बताया कि वह भी इस आंदोलन में थी। मैंने दो-चार तर्कपूर्ण मज़ाक़ अन्ना और आंदोलन के बारे में किए तो वह घबरा गई, बोली-‘अन्ना क्या मेरा चाचा लगता है कि मुझसे हिसाब मांग रहे हो ?’

देश के तमाम चैनल हमारी आंखों के सामने झूठा वर्तमान लिख रहे थे और हम सब पढ़े-लिखे जागरुक लोग देख रहे थे। 

इन्हीं में से कई लोग इतिहास लिखते हैं।

इस आंदोलन की वजह से कई लोगों को आज़ादी के पहले आंदोलन पर भी शक़ होने लगेगा।

फिर आठवें-नौंवे दिन अन्नाजी गुड़गांव के सबसे महंगे बताए जानेवाले अस्पताल में दाखि़ल हो गये (अन्ना के अलावा इस अस्पताल की अच्छी-ख़ासी पब्लिसिटी सारे घुन्ना चैनलोें ने की, अपवाद नाम के लिए भी नहीं है)। 
चार्ज केजरीवाल ने संभाल लिया।

एक पतला-सा लड़का जो बैंड के पीछे-से लोगों को तालियां बजाने का इशारा करता था, आजकल टीवी पर कई तरह के शो संभाले बैठा है।

अहिंसा कितना कुछ देती है। हालांकि कोई बड़ा अनशन कभी अपने मुकाम या देहांत तक नहीं पहुंचा मगर तथाकथित अहिंसा ने किसीको ग्लैमर दिया, किसीको पॉपुलैरिटी दी, किसीको ऐक्सपोज़र दिया, शो दिलाए, कैरियर दिया, किसीको...... 

दिलचस्प है कि रावण के खि़लाफ़ राम को अनशन का आयडिया क्यों नहीं आया !?

तिसपर और मज़े की बात है कि गांधीजी की आर एस एस से क्या लड़ाई थी ?

वे गीता पढ़ते थे, शराब नहीं पीते थे, ब्रहमचर्य पर भी ज़ोर देते रहे, फ़िल्में नहीं देखते थे, स्वराज और स्वदेशी को पसंद करते थे (क्या आपने कभी ग़ौर किया कि ठीक यही सारी चीज़ें आर एस एस की भी पसंद रहीं हैं), उनका पसंदीदा भजन था-

रघुपति राघव राजा राम
पतित पावन सीता राम
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम
सबको सन्मति दे भगवान

ध्यान से पढ़ें-पूरे भजन में रघुपति, राघव, राजा, राम, सीता, राम, ईश्वर, भगवान ही बार-बार आते हैं, धर्मनिरपेक्षता तो नाममात्र के लिए भी मुश्क़िल से आई लगती है। धर्मनिरपेक्षता की इतनी जगह तो कट्टरपंथियों के यहां भी रहती ही है।

वैसे श्री केजरीवाल जी भी पहले आरक्षणविरोधी अंादोलनों के लिए जाने जाते थे, उन्हें भी धर्मनिरपेक्ष बैकडेट में बनाया गया था।

बहरहाल, अंग्रेज़ चले गए, श्री नेहरु भारत के प्रधानमंत्री बने, श्री जिन्ना पाक़िस्तान के सदर बने, गांधीजी कुछ नहीं बने।
उन्हें गोली लग गई।

कहते हैं कि गोली गौडसे नाम के आदमी ने मारी थी। कहते हैं कि गौडसे आर एस एस नाम की संस्था का आदमी था। और आर एस एस एस नामक संस्था किन लोगों ने बनाई थी ? 

जिस किसीने भी लिखी थी, गांधीजी की भूमिका शायद ऐसी और इतने तक ही लिखी थी।

हे राम!

-संजय ग्रोवर
06-01-2019


Friday 4 January 2019

‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी’

ईश्वर को सिद्ध करने में एक वाक्य आलू और पनीर की तरह काम आता है। यह चमत्कारी वाक्य आसानी से कहीं भी घुसेड़ा जा सकता है। 

एक आदमी सड़क पर निकले और जाकर किसी गाड़ी से टकरा जाए तो कम-अज़-कम चार संभावनाएं हैं-

1. आदमी गाड़ी से टकराकर मर जाए-

आप आराम से कह सकते हैं-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

2. आदमी गाड़ी से टकरा जाए और बच जाए-

आप आराम से कह सकते हैं-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

3. आदमी गाड़ी से टकराकर बच तो जाए मगर उसकी टांग टूट जाए-

आप आराम से कह सकते हैं-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

4. यह संभावना थोड़ी अजीब है, मगर संभव है कि आदमी तगड़ा हो कि गाड़ी को नुकसान पहु्रंचा दे-

आप आराम से कह सकते हैं-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

इसी तरह सुबह आप मलत्याग को बैठें मगर असफ़ल हो जाएं-
कह सकते हैं कि-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’
आप सफ़ल होकर फ्रेश मूड में निकलें-
कह सकते हैं कि-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

इसी तरह सुबह आप मलत्याग को बैठें मगर असफ़ल हो जाएं-

कह सकते हैं कि-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

आप सफ़ल होकर फ्रेश मूड में निकलें-

कह सकते हैं कि-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

तो निश्चय ही यह चमत्कारी वाक्य है और यहां तक किसी तरह बर्दाश्त किया जा सकता है। मगर तब

क्या हो जब कोई किसीको गाड़ी के नीचे धक्का दे दे और कहे कि ईश्वर की यही मर्ज़ी थी !

कोई बलात् किसीको शारीरिक नुकसान पहुचाए और कह दे कि ईश्वर की यही मर्ज़ी थी !!

कोई किसीकी हत्या कर/करवा दे और घोषणा करे/करवाए कि ईश्वर की यही मर्ज़ी थी !?

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
23 August 2013



Thursday 3 January 2019

क्या ईश्वर क़िताबें लिखता है!?

क्या ईश्वर क़िताबें लिखता है!? हम सब कभी न कभी ऐसे दावों से दो-चार होते रहे हैं। कमाल की बात यह है कि कथित ईश्वर की लिखी और आदमी की लिखी क़िताबों में ज़रा-सा भी अंतर नहीं दिखाई देता। वही पीला क़ाग़ज़, वही काली स्याही ! ईश्वर को लिखनी ही थीं तो ज़रा अलग़ तरह से लिखता कि ग़रीब आदमी भी पढ़ लेता, अनपढ़ भी पढ़ लेता, मुसीबत में फंसा आदमी भी पढ़ लेता। कहीं लिख देता आसमान पर कि सुबह उठकर ऊपर देखते और चमचमाते अक्षर दिखाई पड़ते। अक्षर तो छोड़िए, आजकल तो आकाशवाणी भी नहीं होती। लिखनी थी तो लिखता कहीं नदी पर, समुद्र पर, पहाड़ पर। कुछ ऐसे अक्षरों में लिखता कि अशिक्षित भी पढ़ ले। मगर यह तो ऐसी भाषा है कि पढ़े-लिखे को भी आसानी से समझ में नहीं आती। जैसे कई लेखक लिखते हैं सिर्फ़ इसलिए कि हमारी तो लग ही जानीं हैं सारी प्रतियां, सारी संस्थाओं में ; सैटिंग जो बढ़िया है अपनी।

मगर यह तो ऐसी भाषा है कि पढ़े-लिखे को भी आसानी से समझ में नहीं आती। जैसे कई लेखक लिखते हैं सिर्फ़ इसलिए कि हमारी तो लग ही जानीं हैं सारी प्रतियां, सारी संस्थाओं में ; सैटिंग जो बढ़िया है अपनी।


और इन क़िताबों के बारे में कोई अपने विचार तो प्रकट करे ज़रा! ईश्वर को तो किसने देखा है, लेकिन उसके स्वघोषित रक्षक। डंडे ले-लेकर निकल आते हैं। इनकी भावनाएं आहत हो जातीं हैं। ज़िंदा आदमी को कोई दिन-दहाड़े मार डाले, इनके सामने मार डाले, इन्हीं में से कोई मार डाले, क्या फ़र्क पड़ता है, आदमी तो है ही इसीलिए, सड़ने-मरने के लिए, मगर क़िताबों का तो कहना ही क्या! इनका बस चले तो क़िताबें भी डंडे से लिख डालें। पता नहीं इनकी भावनाएं इनके दिल में हैं कि इनके डंडों में हैं, कुछ समझ में नहीं आता। और इनकी क़िताबों से दूसरों की भावनाएं तो क्या, जिंदगियां ही ख़राब हो जाएं, हो जाएं तो हो जाएं, क्या फ़र्क पड़ता है! इनके डंडे में भी अतिकोमल भावनाएं निवास करतीं हैं और दूसरों के प्राण भी निकल जाएं तो क्या, आना-जाना तो लगा ही रहता है। इनकी क़िताबों को कुछ कह दो तो ये मारे-पीटें, मुकदमा ठोंक दें और इनकी क़िताबों का लिखा लोगों की पीढ़ियों की पीढ़ियों का ख़ून पी जाए तो वे किसे पकड़ें? इनके तो लेखकों का अता-पता ही नहीं, कोई फ़ोन नंबर नहीं, ईमेल नहीं, घर-दफ्तर का पता ठिकाना नहीं। कमाल की बात कि जिसकी क़िताब की वजह से तरह-तरह के लफ़ड़े हो रहे हैं उसका पता ही नहीं किधर छुपा है!?

कमाल की बात कि जिसकी क़िताब की वजह से तरह-तरह के लफ़ड़े हो रहे हैं उसका पता ही नहीं किधर छुपा है!?

ग़़ैर-ज़िम्मेदारी पता नहीं किसे कहते हैं!? 

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
12 June 2013

Tuesday 1 January 2019

धर्म+त्यौहार=?

आप भी देख ही रहे होंगे, एक न एक न्यूज़-चैनल दिखा रहा होगा कि किस तरह त्यौहारों पर हर जगह मिलावटी मिठाईयां मिलतीं हैं जो स्वास्थ्य के लिए बेहद ख़तरनाक़ होतीं हैं। यहां क़ाबिले-ग़ौर तथ्य यह है कि सभी त्यौहार धर्म से जुड़े हैं, दुकानदार और सप्लाईकर्त्ता भी धार्मिक ही होते होंगे। मैं सोचता हूं कि किसी दुकानदार का कोई रिश्तेदार/चाचा/मामा/भतीजा/दोस्त उसकी दुकान से मिठाई लेने आ जाए तो क्या वह यह कहेगा कि भई, तुम मेरे रिश्तेदार हो, दोस्त हो, मैं किसी भी हालत में तुम्हे यह मिठाई नहीं दे सकता, तुम किसी और दुकान से ले लो।

सवाल उठता है कि धर्म आदमी को आखि़र कैसे प्रभावित करता है!?

या क्या बनाके छोड़ देता है ?

और जो क़रीबियों की चिंता न कर पाए, आम ग्राहकों की चिंता कर पाएगा, मुमकिन नहीं लगता।

सवाल उठता है कि धर्म आदमी को आखि़र कैसे प्रभावित करता है!?

या क्या बनाके छोड़ देता है ?

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
2 November 2013

सबसे ज़्यादा परेशानियों के बावजूद सुखद

मैं शायद उस वक़्त दसवीं या बारहवीं में होऊंगा जब पहली बार स्थानीय आर्य समाज के डेरे पर एक प्रसिद्ध महात्मा की कथा सुनने गया। वहां मैंने पहली बार रिशी दयानंद की चूहे वाली कथा सुनी और काफ़ी प्रभावित हुआ। मेरी सोच और व्यवहार वैसे भी दूसरों से आसानी से नहीं मिलते थे शायद इसलिए भी मुझे लगा कि मुझे अपने जैसा कोई मिल रहा है, एक उम्मीद-सी बंधने लगी। फिर एक दिन माता या पिता में से कोई ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी ख़रीद लाया। मैंने कई बार पढ़ने की कोशिश की मगर पहले पेज़ से आगे नहीं जा सका। कोई भी क़िताब जो शुरु के दो-तीन पेज़ो में रुचि न जगा पाए, मैं पढ़ नहीं पाता। उसे भी नहीं पढ़ पाया। बाद में आर्यसमाजियों का आचरण देखकर उससे भी मोह भंग होने लगा। मुझे समझ में नहीं आता था कि अगर आप मूर्त्तिपूजा की जगह हवन कर लेते हैं तो प्रगतिशील कैसे हो जाते हैं !? आप दूसरे पंडित के बजाय आर्यसमाजी पंडित को बुला लेते हैं तो आपको दूसरों को रुढ़िवादी कहने का अघिकार कैसे हो जाता है !? आप साकार भगवान से ध्यान हटाकर निराकार भगवान की बात करते हैं तो उससे क्या बदल जानेवाला है !? मूर्त्ति को तो फिर भी आप आसानी से पत्थर और इसीलिए निरर्थक सिद्ध कर सकते हैं मगर निराकार भगवान के साथ बहुत आसानी से ऐसा नहीं कर सकते। बाद में मुझे लगने लगा कि यह कहीं बड़ी चालाक़ी है। वैसे भी मैं निरंतर देख रहा था कि व्यवहार के स्तर पर मेरे जानकार में आए आर्य समाजियों में और दूसरे लोगों में कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं था। व्यापार में बेईमानी करने से लेकर दुनियादारी/रिश्तेदारी में झांसेबाज़ी तक उनका सब कुछ दूसरों जैसा था। फ़र्क़ बस एक ही था कि उन्हें यह भारी ग़लतफ़हमी थी कि वे दूसरों से कुछ ज़्यादा समझदार, बेहतर और श्रेष्ठ हैं। आज मैं इसे दूसरों से ज़्यादा शातिर होना भी कह सकता हूं।

समझ में नहीं आता था कि अगर आप मूर्त्तिपूजा की जगह हवन कर लेते हैं तो प्रगतिशील कैसे हो जाते हैं !? आप दूसरे पंडित के बजाय आर्यसमाजी पंडित को बुला लेते हैं तो आपको दूसरों को रुढ़िवादी कहने का अघिकार कैसे हो जाता है !? आप साकार भगवान से ध्यान हटाकर निराकार भगवान की बात करते हैं तो उससे क्या बदल जानेवाला है !?

आज मुझे यह भी समझ में आता है कि पिताजी और माताजी जो दूसरों जैसे होशियार नहीं थे और यह अद्भुत संयोग(वैसे मैं ये दोनों शब्द इस्तेमाल करना नहीं चाहता क्योंकि मुझे लगता है कि इनके साथ जो भाव जुड़ गए हैं वे अंधविश्वास, चमत्कार और धर्म को बढ़ावा देते हैं) था कि दोनों ने पूजापाठ को लेकर बच्चों से कभी ज़बरदस्ती नहीं की, ज़बरदस्ती क्या ऐसा कोई आग्रह तक नहीं किया, दोनों ने अपनी समझ से कम दबाव या डर की वजह से कभी-कभार कुछ कर्मकांड किए। मैंने भी कभी-कभी यह किया (जैसे अपने या दूसरे घर की किसी शादी में शामिल हो जाना) बाद में वह भी छोड़ दिया।

मुझे नहीं लगता कि कर्मकांडों का विकल्प ढूंढते रहनेवाले लोग ज़्यादा कुछ कर सकते हैं। यह ऐसे ही है जैसे आप कहें कि हम बुर्क़े का रंग काले के बजाय सफ़ेद कर देंगे या घूंघट में जाली लगा देंगे और स्त्री आज़ाद हो जाएगी। बेकार की चीज़ों का भी हम विकल्प ढूंढते हैं तो उसके पीछे मुझे दो-तीन ही कारण समझ में आते हैं-एक, हमारे अंदर अपने विचारों और व्यवहार को लेकर पूरा आत्मविश्वास नहीं आया, दूसरे, हम समाज, भीड़ और अतीत से बहुत ज़्यादा डरे हुए हैं और तीसरे हम बिना कोई ख़तरा उठाए (यहां तक कि सोशल साइट्स् पर लाइक्स् की संख्या कम हो जाने का भी) ही प्रगतिशील हो जाना चाहते हैं यानि कि हमें फ़ायदे हर तरह के चाहिएं नुकसान दूसरों के लिए छोड़ देना चाहते हैं।

ख़ैर, बाद में यह हुआ कि अब मैं किसी क़िताब, आयकन, फ़िल्मस्टार, बड़े(!) आदमी, महापुरुष, मीडिया चैनल, पत्र-पत्रिका, लेखक, कवि....वगैरह-वगैरह की बात को उतना ही स्वीकार करता हूं जितना वह मेरी समझ में आती है।

और यह मेरे जीवन का सबसे ज़्यादा सुखद और संतोषदायक अनुभव है। तरह-तरह की, अब तक की सबसे ज़्यादा परेशानियों के बावजूद यह बहुत ही आनंददायक है।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
23 November 2014

नये विचारों के लिए तैयार दुनिया में

एक पूर्वाग्रहों और धारणाओं से मुक्त समाज वह होगा जो किसी भी व्यक्ति बल्कि विचार को ख़ुले दिल से सुनने को तैयार होगा। वहां किसीके लिए भूमिका नहीं बांधनी पड़ेगी कि इस व्यक्ति को इसलिए सुनिए कि इनके चाचा बड़े अच्छे विचारक थे, कि इन्होंने दस विषयों में डिग्री ले रखी है, कि इनकी वर्ण-परंपरा विद्वानों की परंपरा है, ये फ़लां ख़ानदान से ताल्लुक रखते हैं, फ़लां संपादक के नीचे इनकी चिंतन-भूमि विकसित हुई है, कि साहित्य की दुनिया में इनकी ज़बरदस्त ख़्याति है.......

विचार का इस सारी बक़वास से कोई मतलब नहीं होता। करनेवाला जानता हो कि न जानता हो मगर अंततः ये सारा खेल धंधेबाज़ी और अहंकार से जुड़ा है।

अगर आपके पास कहने को कुछ है, कुछ है जो परेशान करता है, सोने नहीं देता, जीने नहीं देता, कहे बिना नहीं बनता तो बिना इस बात की परवाह किए कहें कि आपसे पहले ऐसा किसीने कहा या नहीं, कोई क्या सोचेगा, क्या मेरी हैसियत है कि मैं कुछ बोलूं.....

एक बेहतर समाज, किसी व्यक्ति(विशेष) का नहीं, विचार का स्वागत करेगा। अगर एक छोटा वच्चा भी कोई महत्वपूर्ण बात कह रहा है तो एक जागरुक समाज पूरी गंभीरता से उसकी बात सुनेगा। बात समाज के काम की है तो काम की है, इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि किसने कही, कहां खड़े होकर कही, किसके रिश्तेदार किसके दोस्त ने कही, पढ़कर कही कि बिना पढ़े कही, चार लोगों में कही कि चार सौ में कही, गुरुघंटाल टाइम्स में कही कि फ़ेसबुक पर कही, चार बड़ों(?) द्वारा परिचय कराने के बाद कही कि ख़ुद ही आकर कह दी !?

बात ही समाज के काम की होती है, झालरें और झाड़फ़ानूस नहीं।

अगर आपके पास कहने को कुछ है, कुछ है जो परेशान करता है, सोने नहीं देता, जीने नहीं देता, कहे बिना नहीं बनता तो बिना इस बात की परवाह किए कहें कि आपसे पहले ऐसा किसीने कहा या नहीं, कोई क्या सोचेगा, क्या मेरी हैसियत है कि मैं कुछ बोलूं.....

अपनी बात कहिए, यह आपके लिए भी ज़रुरी है और दूसरों के लिए भी

-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
19 July 2014

एक बड़ा खेल है प्रतीकात्मकता

प्रतीकात्मकता के कुछ वास्तविक फ़ायदे भी होते होंगे जो कि मुझे मालूम नहीं हैं लेकिन दुरुपयोग इसका जाने-अनजाने में ख़ूब होता लगता है। यहां तक कि ईमानदारी के आंदोलनों के दौरान या अंत में लोग अपनी कलाई में बंधे धागे नचाते हैं और स्टेज पर रोज़े खोलते हैं। पता नहीं ये लोग जानते हैं या नहीं जानते कि यह ईमानदारी को धर्म से कन्फ्यूज़ करने की कोशिश हो जाती है। आम लोगों में प्रचलित कर्मकांडो का ईमानदारी से सीधे-सीधे कोई भी संबंध नहीं है। तिसपर यही लोग इन्हीं आंदोलनों में धर्म और जाति से ऊपर उठने के उपदेश भी बांच रहे होते हैं।

दरअसल व्यवहारिक जीवन में ईमानदारी इतना मुश्क़िल काम है कि इसकी सही-सही परिभाषा तक संभव नहीं लगती। इसके विपरीत कर्मकांड बेहद ही आसान, लगभग बचपन में खेले जानेवाले गुड्डे-गुड़िया के खेल की तरह होते हैं। कई बार मुझे लगता है कि जब हम मिले हुए आदर्शों/नैतिकताओं को वास्तविक या व्यवहारिक जीवन में नहीं उतार पाते तो प्रतिक्रियास्वरुप उत्पन्न अपराधबोध को कर्मकांडों या प्रतीकात्मकता से छुपाकर/भुलाकर/ढंककर अपने खोखलेपन को भरने की, ख़ुदको झूठी तसल्ली देने की कोशिश में लग जाते हैं। ज़ाहिर है कि सड़क पर लपककर किसीके पांव छूने में, सुबह उठकर नहाने में, राखी बंधवाने में ऐसा कोई ख़तरा नहीं है जैसा कि किसी तथाकथित बड़े या सफ़ेदपोश अपराधी की असभ्यता की तरफ़ इशारा कर देने भर में है।

प्रतीकात्मकता, अपने यहां, बिना कुछ किए-धरे अपनी कई-कई पीढ़ियों को ऊंचा, अच्छा और महान बना/ठहरा लेने का जुगाड़ ज़्यादा रहा है। पुरानी कहानियों में राक्षसों का बुरा बताने के लिए उनके सर पर सींग तक उगा दिए गए, उनका रंग काला कर दिया गया, उनके चेहरे डरावने कर दिए गए। आदमी की अच्छाई-बुराई का उसकी शक़्ल और रंग से क्या मतलब हो सकता है भला ? लेकिन इस तरह की प्रतीकात्मकता ने सैकड़ों सालों के लिए आदमी को धुंध में डाले रखा। संभवतः यह एक बड़ा खेल है और इसे बारीक़ी से समझना चाहिए।

-संजय ग्रोवर
25/26-02-2014
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)

सारी दुनिया के मर्दों और स्त्रियों का ठेका !

अगर मुझसे कोई पूछे कि मर्द स्त्री से क्या चाहता है तो मुझे इस सवाल पर हैरानी होगी। मैं अकेला सारी दुनिया के मर्दों का ठेका कैसे ले सकता हूं !? जबकि मुझे मालूम है कि मैं ख़ुद ही स्त्रियों से सौ प्रतिशत वह नहीं चाहता जो कि अकसर क़िताबों में लिखा पाता हूं, लोगों से सुनता हूं, पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता हूं, टीवी पर देखता हूं कि मर्द स्त्री से यह चाहता है। मैं बिलकुल भी नहीं चाहता कि स्त्री मेरे या किन्हीं सुनी-सुनाई मान्यताओं के दबाव में मेरी पसंद के अनुसार ढलने की कोशिश करे। तो मैं यह भी कैसे चाह सकता हूं कि कोई स्त्री मुझे अपनी तरह ढालने की कोशिश करे ? यह तो सीधे-सीधे दोहरे मानदण्ड हुए।

जो कोई भी किसी पर अपने मूल्य लादने की कोशिश करता है, मुझे नहीं लगता कि वह सचमुच किसीका सम्मान कर सकता है।

न तो बेवजह मैं किसी पुरुष का सम्मान कर सकता हूं न स्त्री का। और सम्मान न करने का मतलब अपमान करना नहीं है। अगर ऐसा मान लिया जाए तो फ़िर तो यह मतलब निकलता है कि दिन भर में हम स्त्रियों का अपमान ज़्यादा करते हैं सम्मान कम। क्योंकि सुबह जब हम घर से निकलते हैं तो रात तक हमें सड़क पर, दुकानों पर, दफ़तरों में.....पचासियों स्त्रियां मिलती हैं- क्या हम सबके पांव छूते हैं, सबको नमस्ते करते हैं, सबको वेलकम और हाउ डू यू डू करते हैं ? तो क्या इसका मतलब हम उनका अपमान कर रहे होते हैं ?

जो कोई भी किसी पर अपने मूल्य लादने की कोशिश करता है, मुझे नहीं लगता कि वह सचमुच किसीका सम्मान कर सकता है।

अभिनय और कर्मकांडों की बात अलग़ है। उनको करने और देखने के तो हम आदी हैं।

-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
25-07-2014