Wednesday 22 July 2015

न तो क़िताब मूर्ति है न लेखक भगवान

बचपन से लेकर काफ़ी बाद तक कितने ही पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा कि हमारा समाज बहुत भावुक है और पश्चिम बहुत भौतिकतावादी है। मगर व्यवहार में देखा कि हमारे यहां नये, पवित्र कहे जानेवाले, और जनम-जनम के कहे जानेवाले रिश्तों की नींव भी पैसे के आधार पर रखी जाती है, बाक़ी कोई भी रीति-रिवाज-त्यौहार लिफ़ाफ़ो के लेन-देन के बिना ज़रा-सा भी आगे नहीं सरकता।

और आगे चलकर जैसे-जैसे अपना सोचने, ख़ुदको ही डरानेवाले ख़्यालों पर ख़ुलकर विश्लेषण करने का होश और हिम्मत आते गए तो लगने लगा कि हमारी क़िताबों में लोगों ने अपनी आज़माई बातों के साथ सुनी-सुनाई और पढ़ी-पढ़ाई बातें भी अच्छी-ख़ासी मात्रा में लिख रखीं हैं। ऐसे और भी कुछ कारण रहे कि क़िताबों में पहले जैसी रुचि नहीं रह गई।

क़िताबों के प्रति भगवान-भक्त जैसी आस्था और श्रद्धा पैदा करने की कोशिशें अब ज़रा नहीं सुहातीं। क़िताब को लगभग मूर्ति, लेखक को लगभग भगवान बनाने और बिक्री को चढ़ौती की तरह हासिल करने की मानसिकता अजीब लगती है। क़िताबें ज़रुरी हैं, उपयोगी हैं, मगर लेखक कोई पवित्रता (?) की लाँड्री में से निकला मसीहा नहीं है कि उसके लिखे को पढ़ने के बजाय चरनामृत की तरह खोपड़े पर उड़ेलकर यह सोचा जाए कि इसमें से जो निकलेगा सब अंदर घुसकर अपने-आप कोई रास्ता बनाएगा और हमारे दिल-दिमाग़ को सिर्फ़ सच्चाई की ओर ही ले जाएगा। जैसा मैंने समाज को देखा है, मुझे तो बिलकुल भी नहीं लगता कि लेखक सिर्फ़ सच ही लिखता है। लेकिन हम अगर हिंदू-मुस्लिम या वाम-दक्षिण जैसे खानों में बंटे हो तो हमारे झूठ और सच को समझने के पैमाने पूर्वाग्रही हो ही जाते हैं।

अगर समाज की जड़ों तक पाखंड पसरा हो तो पाठक भी झूठ को सच की तरह ही पढ़ता है। जो लेखक शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाई जानेवाली क़िताबों में शामिल होने के लिए सर के बल हो जाते हैं उनके द्वारा लिखे गए स्वाभिमान के निबंध में कितना दम और कितनी सच्चाई हो सकती है !?

तुलसीदास और मनुमहाराज के महाग्रंथ किसीके लिए छाती से लगाए रखने के क़ाबिल हैं तो दूसरे कई लोगों के लिए क़ाबिले-बर्दाश्त भी नहीं हैं।

क़िताबों के प्रति जागरुकता पैदा करनी चाहिए, श्रद्धा, आस्था और अंधभक्ति नहीं।

-संजय ग्रोवर
03-09-2014

Tuesday 21 July 2015

वफ़ा और ग़ुलामी

नास्तिकों और प्रगतिशीलों ने ‘आस्था’ और ‘श्रद्धा’ की अच्छी-ख़ासी आलोचना की है। ऐसा ही एक और शब्द है-‪वफ़ादारी‬। ‪आस्था‬ और ‪श्रद्धा‬ शब्द किसी तथाकथित ऊपरी शक्ति से संबंध के संदर्भ में इस्तेमाल होते हैं तो ’वफ़ादारी’ पशु और इंसान या इंसान और इंसान के संबंधों के संदर्भ में। वफ़ादारी को क़िताबों और फ़िल्मों तक में बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है। पर मुझे लगता है कि एक हद के बाद वफ़ादारी भी (ख़ासकर इंसानी संबंधों में) आस्था और श्रद्धा की तरह मूढ़तापूर्ण हो जाती है और ‪‎ग़ुलामी‬ में बदल जाती है। एक मजबूर आदमी जिसने कई हफ्तों से कुछ नहीं खाया, आप उसे एक थाली भोजन भी दे देंगे तो वह ख़ुदको आपका अहसानमंद महसूस करेगा। एक आदमी जिसे समाज चारों चरफ़ से सता रहा है, आप उसके पास जाकर दो घड़ी बैठ भी जाएंगे तो वह कृतज्ञ महसूस करेगा। अब यह मदद करनेवाले के ऊपर है कि वह कब तक इस अहसान का बदला लेता रहगा!

कई बार तो लोग मदद भी बिना कहे या ज़बरदस्ती करते हैं। फिर भी बदला चाहते हैं! फ़िल्मों में तो ख़ूब दिखाया गया है कि मुसीबत का मारा आदमी किसी छोटी-सी मदद के एवज में अपनी पूरी ज़िंदगी गिरवी रख देता है। मैं इसे बिलकुल भी मानवीय नहीं मानता। यह तो एक तरह की ‪‎बंधुआ‬ मज़दूरी या दासत्व है। ख़ुदको चिंतक या बौद्धिक माननेवाले लोगों को तो इस तरह की कोशिशें बिलकुल शोभा नहीं देतीं कि किसीको अपनी वैचारिक बंधुआगिरी पर मजबूर करें।

पशुओं के बारे में तो जानना मुश्क़िल है कि वे वफ़ादारी पर क्या सोचते हैं मगर इंसानी संबंधों को हद से ज़्यादा वफ़ादारी, शायद दोनों ही पक्षों को, पशुता के ही स्तर पर ले जाती है। किसी संगठन के प्रति वफ़ादारी का तो सीधा मतलब ही यह है कि या तो आप सच बोल लें या वफ़ादारी निभा लें। वहां सच और झूठ का कोई महत्व नहीं होता, संगठन का पक्ष ही आपका पक्ष होता है। आपको सच के पक्ष में नहीं, संगठन के विचार/धारा/रुख़ के पक्ष में तर्क जुटाने होते हैं। यहां थोड़ा विषय से भटककर कहना चाहूंगा कि संगठनों के काम करने के तरीक़ों, सफ़लता के मानकों, संख्या बढ़ाने की कोशिशों, अपने संगठन के व्यक्ति को नायक की तरह स्थापित करने की तिकड़मों और विरोधी को गिराने के हथकंडों में उन्नीस-बीस से ज़्यादा का अंतर नहीं होता, उनके बैनरों में परस्पर चाहे जितना कड़ा विरोध दर्शाया जा रहा हो।

बहरहाल, वफ़ादारी जब इंसानियत के खि़लाफ़ जाती हुई दिखने लगे तो उसपर एक बार ज़रुर सोचना चाहिए।

‪-‎संजयग्रोवर‬
24-09-2014

(ये मेरे ‪व्यक्तिगत‬ ‎विचार‬ हैं, कोई इन्हें मानने को बाध्य नहीं है ; ठीक वैसे ही जैसे मैं अपनी बुद्धि, कार्यक्षेत्र और स्वतंत्रता के दायरे में किसीको मानने को बाध्य नहीं हूं।)

Saturday 18 July 2015

झूठ से पैदा समस्याएं झूठ से हल कैसे होंगी !?

आंकड़े हमेशा ज़रुरी नहीं होते, कई तथ्य ऐसे होते हैं जो हम अकसर अपनी आंखों से देखते हैं मगर समाज में फ़ैली कुछ मान्यताओं या परंपराओं, क़िताबें पढ़-पढ़कर बनी कुछ धारणाओं के डर से ख़ुदसे भी छुपाते रहते हैं। कई लोग कहते हैं कि समलैंगिकता जैसी चीज़ भारत में बाहर/यूरोप से आ गई है, हम तो बड़े अध्यात्मिक लोग हैं......

मुझे यह जानने के लिए क़तई आंकड़ों की ज़रुरत नहीं है कि यह चीज़ भारत में बहुत पहले से मौजूद है। मैं जिस कस्बे में पैदा हुआ वह पुरुष समलैंगिकता के लिए मशहूर था। वहां मेरे जैसे लड़के बिलकुल उसी तरह डरे रहते थे जैसे लड़कियां डरी रहती थीं। कई लोग इसी दृष्टि से घूरते भी थे, या मुझे लगता होगा कि ऐसा है। जैसे डरी हुई लड़कियां किसी भी पुरुष का विश्वास आसानी से नहीं कर पातीं, अगर मेरे जैसे लड़कों को भी यह लगता था तो इसमें असामान्य क्या है! इस तथ्य(पुरुष समलैंगिकता की वजह से हमारे कस्बे की मशहूरी) की पुष्टि उस दिन हुई जब दूसरे शहर के हॉस्टल के कुछ सीनियर लड़कों ने रैगिंग के दौरान मेरा परिचय जानने के बाद अपने हाथ पीछे ले जाते हुए कहा कि भई, इससे तो डर लग रहा है, हाथरस से आया है।

मैं समझता हूं कि हमारी समलैंगिकता से उनकी बेहतर इसलिए है क्योंकि वे ज़बरदस्ती नहीं करते, सहमति से संबंध बनाते हैं, छुपाते नहीं हैं। भारत के लोगों को बहुत कुछ इसलिए छुपाना पड़ता है क्योंकि यहां के लोगों ने अपनी महानता(?) और पवित्रता(?) को लेकर दुनिया-भर में बड़ी-बड़ी डींगें हांक रखीं हैं कि तुम सब भौतिकतावादी हो इसलिए बड़े ख़राब हो, चरित्रहीन हो।

इसी तरह जानवरों के साथ संबंधों के क़िस्से भी मैंने तभी सुन लिए थे। इसमें कितनी नमक-मिर्च थी, कितनी ‘आंखिन-देखी’ थी यह तो मैं नहीं बता सकता मगर आज मुझे इसमें कोई हैरानी भी नहीं होती। अगर हम मनुष्य के साथ बिना सहमति के कोई संबंध बना सकते हैं, ऊंच-नीच कर सकते हैं तो पशुत्व की तरफ़ क़दम तो हम पहले ही बढ़ा चुके हैं।

इस्मत चुगताई की कहानी ‘लिहाफ़’ पहले ही इशारा कर रही थी कि स्त्री-समलैंगिकता भी अपने यहां कहीं न कहीं मौजूद है। हमारे पास कुछ है तो बस यही कि हर चीज़ को छुपाओ, किसीको भी, ख़ासकर विदेशियों को कुछ पता न लगने दो। मगर सोचने की बात यह है कि छुपाने से दूसरी बहुत सारी (मानसिक) समस्याएं/बीमारियां पैदा हो जातीं हैं। मैंने जो थोड़ा-बहुत मनोविज्ञान पढ़ा या सुना है और ख़ुद भी अनुभव किया है उससे तो यही पता चलता है कि मनुष्य की बहुत-सी मानसिक समस्याओं/बीमारियों की वजह उसका दोहरा व्यवहार/'छुपाओ' यानि ‘करो कुछ बताओ कुछ’ का रवैय्या है। तिस पर एक और बड़ी मुसीबत यह है कि यही लोग आए दिन दूसरों को, ख़ासकर उन लोगों को पागल/सनकी/विकृत करार देते और नुकसान पहुंचाते रहते हैं जो एक साफ़-सुथरी और स्पष्ट ज़िंदगी जीने की कोशिश कर रहे हैं।

झूठ समझने और बताने के लिए हमेशा आंकड़ों और सर्वे की ज़रुरत नहीं होती, दोहरी ज़िंदगी जीने वाले समाजों में या अतीत में घट चुकी घटनाओं के मामले में हमेशा यह संभव भी नहीं हैं। लेकिन कुछ बातें सहज समझ और अनुभवों से भी समझी जा सकती हैं। एक-दो ऐसे उदाहरण बताता हूं। जैसे कि बीच में कहा गया कि चाउमिन की वजह से छेड़छाड़ या बलात्कार होते हैं। इसका मतलब क्या हुआ ? इसके अलावा और क्या कि चाउमिन पुरुषों की किसी क्षमता या उत्तेजना में वृद्धि करते हैं। मगर सोचने की बात यह है कि तब क्या चाउमिन इतने सस्ते मिलते !? तब लोग महंगे शिलाजीत और महामहंगे वियाग्रा की तरफ़ क्यों भागते !? तब इनपर भी बैन क्यों नहीं होना चाहिए ? जब आदमी का कोई भरोसा ही नहीं है तो वह कुछ भी खाकर कहीं भी कुछ भी कर सकता है। सही बात यह है कि ज़्यादातर घटनाएं इन सब कारकों की अनुपस्थिति में होतीं हैं। दूसरे उदाहरण में, जो राजा हज़ार-हज़ार और पांच-पांच सौ रानियां रखते थे उनमें से कई अपने हरमों में उन रानियों की सेवा के लिए हिजड़ो (आज की सभ्य भाषा में लैंगिक विकलांग) की नियुक्ति करते थे। इससे तो यही समझ में आता है कि वे भी मर्द की सीमित क्षमताओं को जानते थे और अपनी अनुपस्थिति में घट सकने वाली सहज-संभाव्य घटनाओं से बचने की फ़ौरी जुगाड़ करते थे। यानि कि मर्दों की वास्तविक/सीमित क्षमता पर परदा डालने का प्रयत्न करते थे। एक झूठे अहंकार की रक्षा करते थे।

इसमें सोचने की बात यही है कि ऐसे प्रयत्नों से समस्याएं सुलझेंगी कि बढ़ती जाएंगी !?   

-संजय ग्रोवर    
18-07-2015



Sunday 12 July 2015

नास्तिकता क्या है

अगर मैं कहीं रास्ते से निकल रहा होऊं और वहां कहीं कीर्तन-जागरन होता दिख जाए और मैं पता लगाना शुरु कर दूं कि यह व्यक्ति किस राजनीतिक दल से जुड़ा है ; अगर यह किसी वामपंथ से जुड़ा है तो यह प्रगतिशील जागरन है, अगर कांग्रेसी है तो यह मॉडरेट कट्टरपंथी है, अगर यह संघी वगैरह है तो यह पूरी तरह रुढ़िवादी जागरन-कीर्तन है।

क्या यही नास्तिकता है ?

मेरे लिए तो बिलकुल भी नहीं। अगर जागरन कराना मेरी नज़र में फ़ालतू के कर्मकांडों को ढोना है तो मुझे उसके लिए यह पता लगाने की बिलकुल भी ज़रुरत नहीं है कि करानेवाला किस दल, किस गुट, किस बिरादरी, किस जाति से जुड़ा है। जो बात साफ़ समझ में आ रही हो उसके लिए ख़ामख़्वाह दीवारों से टकराने की क्या ज़रुरत है भला !?

जहां हर किसीके अपने बाबा हों, अपने भगवान हों, अपने कर्मकांड हों.....वहां किसी एक को निशाना बनाकर ख़ुदको नास्तिक और प्रगतिशील साबित करने की कोशिश मेरी समझ में  अजीबो-ग़रीब तो है ही, शायद कभी-कभार (या अकसर) एक सुविधा की स्थिति भी है। नास्तिकता को सिर्फ़ एक-दो समूहों या लोगों के विरोध तक संकुचित/रिड्यूस कर देने से नास्तिकता और इंसानियत का क्या भला हो सकता है ? यह तो जाने-अनजाने आप उन्हीं लोगों का काम कर रहे हैं जो नहीं चाहते कि लोग नास्तिकता को समझें। यह कुछ ऐसे ही हुआ कि बेईमानी के विरोध के नाम पर आप सिर्फ़ किसी तथाकथित ‘बेईमान दल’ को ग़ालियां देते रहें और समाज में चारों तरफ़ जो बेईमानियां चल रहीं है उनसे एडजस्ट किए चले जाएं! इस शौक़िया प्रगतिशीलता से कब तक काम चलेगा !?

मेरे लिए नास्तिकता सिर्फ़ भगवान और धर्म से जुड़ी चीज़ों को ही खोलना-परखना नहीं है। भगवान भी आखि़र एक मान्यता, विज्ञापन और धारणा से ज़्यादा क्या है ? भगवान और धर्म से जोड़कर या उन्हींकी तरह दुनिया-भर में कई उल्टी-सीधी कारग़ुज़ारियां चलती आ रही हैं जो कि इंसानियत के लिए कम नुकसानदेय नहीं हैं। इनमें सफ़लता है, पुरस्कार है, ट्रॉफ़ी है, प्रतिष्ठा है, रैंक है, नाम है, मशहूरी है.......। आदमी कुछ भी कहे मगर इन सबके पीछे दूसरों से ऊंचा होने का, दूसरों को डराने का, अपने काम प्रॉपर चैनल से करने में शरमाते हुए पिछली खिड़की से करवाकर गर्व करने का, विपरीत सैक्स के लोगों में लोकप्रियता हासिल कर उसका फ़ायदा उठाने का भाव या नीयत कहीं न कहीं रहते ही हैं। भगवान के पास भी आखि़र लोग और किन कारणों से जाते हैं !? अगर मैं किसी आदमी से इसलिए प्रभावित नहीं होता कि वह कुछ मूर्त्तियां सजाए बैठा है तो मैं किसी ऐसे आदमी से भी क्यों प्रभावित होऊं जो अपने ड्रॉइंगरुम में दस-बीस ट्रॉफ़ियां सजाए है ? मूर्त्ति सजानेवाला आदमी अगर बिना सोचे-समझे किसी व्यवस्था का हिस्सा बन गया है तो ट्रॉफ़ी सजानेवाले ने कब इस परंपरा को लेकर बहुत चिंतन-मनन किया है ? किन्हीं दस-बीस लोगों का पैनल किसीको महान और श्रेष्ठ बताता है और बाद में कुछ अख़बार और टीवी चैनल उसकी महिमा गाते हैं तो गाएं !! मेरी क्या मजबूरी है कि मैं यह मानूं कि यही देश और दुनिया के सबसे प्रतिभाशाली लोग हैं!? ख़ासकर तब,जब मैंने होश संभालते से जोड़-जुगाड़-तिकड़म-मक्ख़नबाज़ी से मलाई खाते लोगों के झुंड के झुंड देखे हों !? मैं कैसे मान लूं कि इनकी नीयत और तौर-तरीक़े भगवान के विज्ञापनकर्त्ताओं और लाभार्थियों से अलग हैं ? आप मेरी कमी या ग़लती बताएं, मैं बहस के लिए तैयार हूं।

कोई भी चीज़ हम सिर्फ़ इसलिए करते चले जाएं कि वह होती चली आ रही है !? इसके अलावा हमें उसे करने का दूसरा कोई भी ढंग का कारण मालूम न हो, फिर भी हम ख़ुद तो करें ही करें, दूसरों को भी करने पर मजबूर करें! कितनी अजीब बात है!! वे सारे कर्मकांड जिनसे सिर्फ़ वक़्त की बर्बादी के अलावा जो भी होता हो वो सिर्फ़ हमारी ख़ामख़्याली और फ़ैंटसी के अलावा कुछ न हो, को सिरे से नकार देने में मैं तो कोई दिक़्क़त नहीं मानता।

मेरे लिए नास्तिकता का मतलब हैं हम एक-एक बात का कारण जानने की कोशिश करें, जिसे समाज ने ‘कुछ होना’ कहा है, उसके बारे में हम ख़ुद पता लगाएं कि इसमें वाक़ई होने जैसा क्या है ; हमें उसमें कुछ होने जैसा लगे तभी उसमें शामिल हों। मसलन जैसे किसीको पुरस्कार मिलता है तो लोग मानते हैं कि कुछ हुआ। जिसे पुरस्कार मिला उसके लिए ज़रुर कुछ हुआ होगा, थोड़ी व्यक्तिगत उपलब्धि, संतुष्टि उसे लगी होगी लेकिन समाज का इसमें क्या फ़ायदा है ? मुझे तो लगता है कि अगर उस व्यक्ति ने पुरस्कार के लिए कुछ जोड़-तोड़, मक्खनबाज़ी, जातिबाज़ी की तो उसने समाज को नुकसान पहुंचाया। उसने समाज में पहले से व्याप्त इस धारणा को बल दिया कि बेटा, बिना जान-पहचान के कुछ नहीं होता, कहीं न कहीं एडजस्ट तो करना ही पड़ता है। तिसपर यह तो और भी शर्मनाक़ है कि ऐसे चार लोग बैठकर परस्पर ईमानदारी पर बहस करें और टीवी दर्शक उनसे ‘ईमानदारी’ और ‘त्याग’ वगैरह की ‘प्रेरणा’ लें।

नास्तिकता का मतलब है हम सारी मान्यताओं, धारणाओं, परंपराओं, इतिहास, मशहूरी, प्रतिष्ठा, नाम, सफ़लता.....एक-एक चीज़ के महत्व, प्रासंगिकता और नुकसान को अपनी आंख से देखें। जहां तक मेरी बात है, अपनी नास्तिकता के हवाले से मैं इस बात पर शक़ कर सकता हूं कि भगतसिंह के द्वारा दो छोटे-छोटे, सिर्फ़ धुंआ छोड़नेवाले बम फेंक देने से उस अंग्रेजी साम्राज्य की चूलें हिल सकतीं हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने सारी दुनिया पर राज किया! मैं पूछ सकता हूं वे किस तरह के धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील लोग थे जिन्होंने हमारी पाठ्य-पुस्तकों में स्पष्ट अंधविश्वासविरोधी कबीर की लाश में से फूल निकाल दिए !? मैं अपने इस आश्चर्य और संदेह को प्रकट करने में कोई बुराई नहीं मानता कि भगवान को नकारने के लिए अरबों-ख़रबों रुपए लगा कर किए गए प्रयोग का नाम ‘गॉड पार्टीकिल’ रखना क्यों ज़रुरी समझा गया ? अहिंसा के पुजारी कहे जानेवाले महात्मा गांधी की प्रिय पुस्तक वह कैसे हो सकती थी जिसमें हिंसा और मारकाट के अलावा और कुछ है ही नहीं !? छुआछूत जैसी व्यवस्था बनानेवालों को सिर्फ़ इसलिए ‘अहिंसक’ कैसे कहा जा सकता है कि वे अपने हाथों से किसीको नहीं पीटते !? दरअसल तो उन्होंने लोगों की पीढ़ियों की पीढ़ियों को जीतेजी मार डाला है। मैं आराम से कह सकता हूं कि हर बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है।

मेरे लिए यही नास्तिकता है।

इस लेख में कई बार ‘मैं’ या ‘मेरे’ शब्द आए हैं जिनके लिए, अगर वे आपको बुरे लगे तो, मैं माफ़ी चाहूंगा, मगर चूंकि मैं नास्तिकता पर ‘अपने’ विचार रख रहा हूं तो इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था।

-संजय ग्रोवर
12/13-07-2015


Saturday 11 July 2015

ग़ुम नास्तिक

व्यंग्य

समाज अकसर ग़ुम नास्तिकों को पसंद करता है।

किसी दुर्घटना के दौरान जब किसीको अंदरुनी चोट, जो कि बाहर से दिखाई नहीं देती, लग जाए तो कई लोग कहते हैं कि फ़लां व्यक्ति को गुम चोट पहुंची है। समानार्थी या निकटार्थी शब्दों में आप गुमसुम, लुल्ल, ग़ायब, ख़ामोश, अंतर्मुखी आदि शब्दों को शामिल कर सकते हैं।

गुम नास्तिक भी कुछ ऐसी ही चीज़ है। कई बार तो इसके अपने अलावा किसीको मालूम ही नहीं होता कि यह नास्तिक है।

पड़ोसी जागरन में बुलाए, यह बिलकुल दूसरों की तरह जाता है।

कोई दहेज़दार शादी में बुलाए, यह बिलकुल दूसरों की तरह मनोयोग के साथ लिफ़ाफ़ा तैयार करता है।

कोई इससे कहे कि धर्मस्थल में घुसने से पहले सर पर कपड़ा, रुमाल, तौलिया वगैरह डाल लो ; यह तत्परता से डाल लेता है।

कोई कुलबुलाहट, कोई ग़ुस्सा, कोई विरोध, कोई विद्रोह !? 

अजी, चेहरे पर एक चिन्ह तक दिखाई नहीं देता।

पूछो कि करवाचौथ की तैयारियां चल रहीं हैं, तुम कुछ बोलते क्यों नहीं !?

‘‘अरे, इतना तो चलता है,’’ यह कहता है।

कहो कि देखो उन्होंने कीर्तन के नाम पर रास्ता जाम कर दिया, हमें उन्हें समझाना चाहिए।

‘‘तो क्या सब तुम्हारी तरह जिएं ? ऐसे चलती है क्या ज़िंदग़ी ?’’ इसे ग़ुस्सा आने लगता है।

इससे कहो कि बच्चे की ख़ाल बहुत नाज़ुक है, उसे दर्द होगा, इन्फ़ेक्शन भी हो सकता है, मुंडन-वुंडन का लफ़ड़ा छोड़ क्यों नहीं देते ?

‘‘अरे बच्चे का मुंडन करा रहे हैं, तुम्हारा तो नहीं करा रहे, तुम्हारा क्यों ख़ून जल रहा है ?’’ इसके तर्क ‘प्रैक्टीकल’ होना शुरु हो जाते हैं। 

कहो कि आप श्राद्ध क्यों कर रहे हो, आप तो नास्तिक हो !?

‘‘ये प्रैक्टीकल लाइफ़ है। तुम्हे कुछ पता भी है!’’ यह डांटने पर उतर आता है। 

मगर जिन्हें डांटना चाहिए, उनके साथ खड़े होकर यह खी खी करेगा।

अब आप पूछेंगे कि यह नास्तिक किधर से है !?

मगर इनमें से कई होते हैं- किसी गोष्ठी में, किसी सेमिनार में, किसी मुशायरे में, किसी सम्मेलन में, दोस्तों के साथ किसी गपशप या बहस में, कभी-कभार होते हैं।

कभी-कभी किसी कविता में जिसमें ठीक-ठीक पता भी नहीं लगता कि यह कविता किसी ईश्वर के होने के संदर्भ में है या न होने के बारे में है, ये वहां नास्तिक होते हैं ; अगर आपको वह कविता ठीक से समझ में आ जाए। 

किसी मुशायरे में ग़ज़ल के पांचवे-छठे शेर में ये नास्तिक होते हैं जिसमें यह पता लगाना मुश्क़िल होता है कि ये ख़ुदा को डांट रहे हैं या उससे डांट खा रहे हैं। ये शेर* इस ‘कलात्मक’ ढंग से रचे गए होते हैं कि ख़ुदा के मानने वाले समझते हैं कि बंदा ख़ुदा की शान में क़सीदे पढ़ रहा है और न मानने वाले समझते हैं कि क्या हिम्मती आदमी है, सरे-आम ख़ुदा को नकार रहा है। 

जैसे कई लोग इंटरव्यू देते वक़्त पीछे दीवार पर भगतसिंह, विवेकानंद आदि का फ़ोटो टांग देते हैं। अच्छा है कि भगतसिंह ख़ुद मौजूद नहीं हैं वरना आप जानते ही हैं, टांगनेवाले कुछ भी टांग सकते हैं। भगतसिंह का फ़ोटो देखकर राष्ट्रवादी लोग समझते हैं कि इंटरव्यू देनेवाले सज्जन राष्ट्रवादी हैं और मानवतावादी नास्तिक समझते हैं कि बंदा नास्तिक है। अब भगतसिंह तो हैं नहीं जो आके बताएं कि वे क्या हैं और किस तरफ़ हैं। आकर करेंगे भी क्या ? आखि़र कितनी बार ख़ुदको टंगवाएंगे ? टांगनेवालों की तो टांगे भी नहीं थकती टांगते-टांगते!

तो ऐसा नास्तिक फिर भी न सिर्फ़ ख़ुदको नास्तिक मानता है बल्कि प्रगतिशील भी मानता है। और सिर्फ़ ख़ुद ही नहीं मानता, अगर मौक़ा और माहौल अनुकूल हों तो, दूसरों से भी मनवाता है।

कई ग़ुम नास्तिक नौकरी न लगने तक, कैरियर न बनने तक ग़ज़ब के बग़ावती, विद्रोही, रिबेल (तीनों का एक ही मतलब है) नास्तिक रहते हैं। नौकरी लगने या कैरियर बनने के बाद इनका पहला काम होता है 
नास्तिकता से पीछा छुड़ाना। उसके बाद इनमें से कई, ग़ुमों से भी ज़्यादा ग़ुम हो जाते हैं। 

पता ही नहीं लगता कि हैं या नहीं हैं।   

दुनियादार लोग ऐसे नास्तिकों को प्रेम से पास बिठाते हैं।


वे भी जानते हैं कि इनका होना न होना बराबर है।


-संजय ग्रोवर
11-07-2015


*ऐसे दो-चार शेर कभी इस ख़ाक़सार ने भी लिखे हैं।

Friday 10 July 2015

ए के बाद बी, सी, डी आदि ग्रेड के भगवान

भगवान के बाद हमारे अंधविश्वास के दूसरे बड़े साधनों और कारणों में होते हैं-महापुरुष, सेलेब्रिटीज़, आयकन्स्, स्टार्स इत्यादि। इनके बारे में भी कवि, लेखक, मीडिया आदि कुछ-कुछ ऐसा ही वर्णन करते हैं जैसा भगवानों का किया जाता है। वे इनकी सफ़लता और संघर्ष का किंचित भीना-भीना वर्णन करते हैं। मुश्क़िल यह है कि सफ़लता तो फ़िर भी दिखाई पड़ती है, मगर संघर्ष !! 

दूसरे का संघर्ष आप जान भी कैसे सकते हैं!? या तो आप उसके बिलकुल क़रीब रहे हों, और यह भी काफ़ी नहीं, आपके पास संघर्ष को परखने-समझने की अपनी एक दृष्टि भी होनी चाहिए। वरना मीडिया कथित बड़े लोगों के बारे में जो बता देता है वही आपको मानना पड़ता है। संघर्ष और सफ़लता पर हमने कितना चिंतन किया है पता नहीं, इनके दो ही रुपों पर बात करते ज़्यादातर लोगों को देखा गया है-पहले एक आदमी के पास पैसा नहीं था अब पैसा आ गया और पहले किसीका नाम नहीं था अब उसका नाम हो गया। 

कहा जाता है कि इन महापुरुषों और स्टार्स से आम आदमी प्रेरणा लेता है, ताक़त पाता है। सवाल यह है कि जिस व्यक्ति के संघर्ष को ज़्यादातर लोगों ने क़रीब से कभी देखा ही नहीं, उनसे क्या और कैसी प्रेरणा कोई लेगा!? जो लोग स्टूडियों, सभाओं और डायसो पर थोड़ी-थोड़ी देर बाद पानी के घूंट लेते हैं उनके बारे में बताया गया होता है कि वे कड़े परिश्रम और निरंतर प्रयासों के फ़लस्वरुप यहां तक पहुंचे हैं! निश्चित ही शारीरिक मेहनत, कम या ज़्यादा, उन्होंने की होती है। स्त्रियों को पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा परेशानियां उठानी पड़ती है, इसमें भी कोई शक़ नहीं। और जिन लोगों को हाशिए पर रखा गया, जिन्हें मेहनत के बदले ग़ालियां मिलती रहीं, उनकी व्यथा तो ख़ैर हम क्या खाकर समझ पाएंगे। फ़िर भी शारीरिक मेहनत के सामने क्या सब कुछ नगण्य है!? 

फ़िर तो प्रेरणा अपराधियों और आतंकवादियों से भी ली जा सकती है। संभवतः वे दूसरों से ज़्यादा मेहनत करते हैं, ख़तरे भी ज़्यादा उठाते हैं, समझौते भी शायद कम ही करते होंगे। फ़िर क्या है जिससे प्रेरणा ली जाए!? कितने लोगों ने किसी आजके आयकन को किसी लाइन में लगकर नियम-क़ायदे से अपना काम कराते देखा होगा !? आखि़र बर्थ सर्टीफ़िकेट, डैथ सर्टीफ़िकेट तो वे भी बनवाते होंगे! कैसे, कब होते हैं उनके काम? और ऐसे लोगों से प्रेरणा लेने वालों को उनसे नियम-क़ानून मानने की प्रेरणा कैसे मिल सकती है? कोई-कोई सेलेब्रिटी तो इसी बात पर नाराज़ हो जाते हैं कि उनकी तलाशी क्यों ली गई? कल यही आदमी बताएगा कि क़ानून के लिए सब बराबर हैं तो उससे क्या प्रेरणा मिलेगी, किस तरह की ताक़त मिलेगी? 

प्रेरणा लेना चाहे तो आप उस आदमी से भी ले सकते हैं जिसके पास कोई ताक़त नहीं, कोई हैसियत नहीं, फ़िर भी वह, सभी ग़लत रास्तों से बचते हुए, सुविधाओं को दरकिनार करते हुए, कष्ट उठाते हुए और कुछ नए कष्टों में पड़ जाने की संभावनाओं के बीच, मीडिया और इतिहास में नाम आ जाने की कोई भी संभावना और गारंटी न होने के बावजूद भी नियम और ईमानदारी से अपना काम कराता है। 

बड़ा तो उसका संघर्ष और सफ़लता है, आप और मैं उसे नहीं जानते, इसमें उसकी क्या ग़लती है?

ज़्यादातर लोग, आप और मैं भी, अपने भीतर जाकर ख़ुदको ईमानदारी से समझे  तो, सफ़लता और मशहूरी चाहते ही इसीलिए हैं कि उनके बहुत सारे काम घर बैठे हो जाया करेंगे, बहुत सारे लोग जो कल तक उनसे बड़े या बराबर नज़र आते थे, अब उनसे छोटे नज़र आएंगे, उन्हें सलाम बजाएंगे, उनके चक्कर काटेंगे। सफ़लता के संघर्ष में, ईमानदारी और बेईमानी के बाद, दो और तरीक़े भी हैं। एक तो यह है कि आपके अपने कुछ विचार हैं और आप धीरे-धीरे लोगों को, दलीलें दे-देकर, उदाहरण दे-देकर, उन नए या अलग तरह के विचारों का क़ायल कर दें। या जो दूसरा पारंपरिक और आसान तरीक़ा है-जहां जाएं, जैसे वहां लोग हों, जो उनमें पहले से स्वीकृत मान्यताएं और मानसिकताएं हैं, उन्हींके अनुरुप बातें कहना शुरु करदें। 

बुद्ध हों, अंबेडकर हों, ओशो हों......उनका तरीक़ा पहला तरीक़ा ही हो सकता है। और दूसरे तरीक़े से सफ़लता का आनंद लेते तो हम रोज़ाना ही लोगों को देखते हैं। तीसरे तरह का एक और संघर्ष और सफ़लता भी आप देखते होंगे। कई बार सारे प्रचार माध्यम एकाएक किसी व्यक्ति के बारे में एक इमेज बरसाना शुरु कर देते हैं कि फ़लां साब नयी सोच, नयी उम्मीद वगैरह-वगैरह लेकर आए हैं। मगर जब ध्यान से उन्हें सुनो तो समझ में आता है कि भाईसाहब बातें तो वही सड़ी-गली, पुरानी ही घसीट रहे हैं, तो नई सोच क्या ऊपर-नीचे की पट्टियों पर लिख देने, बड़े-बड़े कैप्शन्स् और ग्राफ़िक्स् में दिखा देने से हो जाएगी? 

सफ़लता हो कि संघर्ष, ईमानदारी हो कि बेईमानी, शारीरिक मेहनत हो या वैचारिक चिंतन, भगवान हो कि आयकन......कोई भी इतना निरापद, सच्चा और बहस व शक़ के दायरे से इस तरह बाहर नहीं है कि उसे बिना आंखे और दिमाग़ खोलकर देखे, चुपचाप आंखें मूंदकर उसपर साइन कर दिए जाएं, उसे पास कर दिया जाए।

-संजय ग्रोवर
15-09-2013

Sunday 5 July 2015

छोटी समझ और ‘बड़े’ आदमी

जो लोग समानता और मानवता की वक़ालत करते हैं, वही जब इंसान को ‘बड़े’ और ‘छोटे’ में बांटते हैं और इसपर किसीको हंसी आती है तो उसे हंस लेना चाहिए। यह बहुत साफ़-सुथरी पूर्वाग्रहरहित और हिम्मत-भरी हंसी होगी। और ऐसे लोग ख़ुदको नास्तिक कहें तो इसपर भी सोचना चाहिए। क्योंकि इसका भी बहुत मजबूत आधार है। इनके पीछे लगभग एक जैसी ही मानसिकता है। आप देखेंगे कि जब किसी तथाकथित भगवान या देवता के बारे में आप कोई आलोचना करते हैं तो आपकी आलोचना चाहे कितनी ही तर्क और तथ्यपूर्ण क्यों न हो, भक्तगण डंडा लेकर आपके पीछे दौड़ पड़ते हैं। ठीक वैसे ही जब आप किसी तथाकथित बड़े आदमी की कितनी ही तार्किक आलोचना क्यों न करें, पुंछल्ले तलवार निकालकर चमकाना शुरु कर देते हैं। कई तथाकथित प्रगतिशीलों और तथाकथित नास्तिकों में भी भगवान-सा, चमत्कारी-सा, जादूगर-सा, करिश्माई-सा होने की और उससे मिलनेवाले सभी फ़ायदे उठाने की वैसी ही लालसा या हवस होती है जैसी की दूसरों में वे आलोचना करते हैं।

अकसर पुंछल्लों की ‘फ़ैनियत’ का आधार उनके द्वारा अपने ‘फ़ैवरिट’ के पक्ष में दिए जानेवाले तर्कों से ही समझ में आने लगता है। उनके तर्क अकसर इस तरह के होते हैं - ‘चांद पर थूकोगे तो तुम्हारे ही मुंह पर गिरेगा’, ‘बड़े’(!) नाम का सहारा लेकर ख़ुदका नाम करना चाहते हो’, ‘जो ख़ुद बड़ा नहीं बन सकता, वो दूसरों को छोटा(!) बनाना चाहता है’......वगैरह। 

आपको क्या लगता है कि वाक़ई इन्हें तर्क कहा जा सकता है ?

इन बचकाना बातों को थोड़ी देर को तर्क मान भी लें तो इनसे पूछना चाहिए कि सूरज और चांद क्या चमचों के बल पर चमकते हैं ? अगर तुम सूरज की तारीफ़ नहीं करोगे, उसपर अविता-कविता नहीं लिखोगे तो उसकी वोल्टेज कम हो जाएगी क्या ? उसकी धूप में कुछ अंतर आ जाएगा क्या ? भैया रे! तुलना तो ज़रा सोच-समझ कर किया करो ? और अगर तुम्हे लग रहा है कि हर कोई ‘बड़े’ आदमी की आलोचना अपना नाम आगे बढ़ाने के लिए करता है तो तुम ‘बड़े’ आदमी की प्रशंसा, उसके लिए लट्ठबाज़ी क्या त्याग करने के लिए करते हो ? 

सही बात यह है कि हर कोई आसानी से समझ सकता है कि हमारे जैसे समाजों में आलोचना में ख़तरे ही ख़तरे हैं, नुकसान ही नुकसान हैं, और प्रशंसा में फ़ायदे ही फ़ायदे हैं। थोड़ा अक़्ल लगाते तो तुम्हे यह भी पता लगता कि ‘बड़ा’ आदमी बनने को वे लोग मरे जाते हैं जो ख़ुदको ‘छोटा’ मानते या समझते हैं, ये हीनभावना से ग्रस्त लोग होते हैं। ईमानदारी से ख़ुदको समझने वाला आदमी आसानी से समझ सकता है कि ‘बड़े’ बनने से पहले भी, और बाद में भी ज़्यादातर छोटे ही काम करने होते हैं। आदमी को चाहिए कि वह अपनी हीनभावना से उबरे, न कि दूसरे की हीनभावना को उभारना शुरु कर दे, उसे बढ़ाने लगे। 

मज़े की बात है कई लोग तर्क देते हैं कि जो ख़ुद बड़ा नहीं बन सकता वो दूसरों को छोटा करने लगता है। इससे ज़्यादा बचकाना और हास्यास्पद तर्क दूसरा नहीं हो सकता। पूछो कि तुम्हारे ‘बड़े’ आखि़र ‘बड़े’ हुए कैसे ? ज़ाहिर है कि वे दूसरों की तुलना में बड़े हैं। इसके अलावा इनके पास और कोई तरीक़ा था क्या ‘बड़े’ होने का ? ख़ुद ऐसा किया इसलिए समझ रहे हैं कि सभी यही करते होंगे! 

अगर तुम समझते हो कि आलोचना के पीछे सिर्फ़ यही कारण होते हैं, तब तो आलोचना नाम की चीज़ को हमेशा के लिए बंद कर देना चाहिए। फ़िर क्यों इतनी गंदी-भद्दी चीज़ को ज़िंदा रखे बैठे हो !? मगर तुम यह भी नहीं कर सकते! क्योंकि तुम्हे इस बात का भी तो क्रेडिट चाहिए कि देखिए फ़लां साहब कितने विनम्र हैं, कोई आलोचना भी करे तो उसका भी सम्मान करते हैं। क्या कहने ? यह तो ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’ वाली बात हो गई। तिसपर भी तारीफ़ से पेट न भरे तो एक और महान अस्त्र/शस्त्र उपलब्ध है-आत्मालोचना। अपनी ही आलोचना! ग़ज़ब है रे भैय्या! एक तरफ़ तो भाईसाहब आत्मालोचना जैसी शहीदाना कसरत कर रहे हैं, दूसरी तरफ़ पुंछल्ले जनता को वास्तविक आलोचना करने से रोक रहे हैं !! इस विचित्र स्थिति के लिए कोई ठीक-ठाक मुहावरा भी नहीं सूझ पा रहा!! छोड़िए यहीं।

और फिर ये ‘निंदक नियरे राखिए’ का झंडा क्यों सजाए फिरते हो ? फेंको इसे कचरे में!

अगर बड़े आदमी को हमारी आलोचना नहीं चाहिए तो प्रशंसा भी क्यों चाहिए !? अजीब बात है !! सूरज की तरह चमको न अपनेआप। आसमान की तरह लटको बिना किसी सहारे के।

एक और समझने की बात यह है कि ‘छोटे’ लोग ‘बड़े’ लोगों की ज़िंदगी में कभी उस तरह से बाधा नहीं बनते, बन भी नहीं सकते जिस तरह ‘बड़े’ लोग बनते हैं। ‘बड़े’ लोग रेडियो, टीवी, पत्र-पत्रिका, विज्ञापन आदि के माध्यम से हमारे घरों को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश करते हैं। वे अरबों रुपयों से बने धारावाहिकों और फ़िल्मों के ज़रिए अंधविश्वासों, रुढ़ियों, अजीबो-ग़रीब कर्मकांडों और जीवनशैली को धार्मिक और नैतिक आधार देकर हमारे घरों के कोने-कोने तक पहुंचाते हैं। धर्म/ब्राहमणवाद को जैसे का तैसा बनाए रखकर सुधार की कोशिशें पहले से भ्रमित लोगों को और भ्रमित और दुराग्रही बनातीं हैं। टीवी पर, रेडियो पर, अख़बारों में, कलंडरों में कहानियों में, कविताओं में, विज्ञापनों में, पाठ्यक्रमों में......हर कहीं ‘बड़े’ लोग कहीं परंपरा तो कहीं प्रगतिशीलता का मास्क चढ़ाए, हाथों में धर्म/ब्राहमणवाद का इंजेक्शन लिए खड़े हैं। आप अपने परिजनों/मित्रों को मिसगाइड होने से बचाएंगे भी तो आखि़र कैसे बचाएंगे!? क्या आप समझते हैं कि यह सिर्फ़ संयोग है कि जिस ज़माने में दुनिया सीधे दिमाग़ से स्क्रीन पर टाइपिंग करने की सोच रही है, हम दहेज और करवाचौथ में उलझे हुए हैं!?

गांवों में ख़ाप पंचायत वही लोग लगाते हैं जो वहां ‘बड़े’ माने जाते हैं, वर्णव्यवस्था भी उन्हीं लोगों ने बनाई जिन्हें ‘बड़ा’ कहा गया, ‘पवित्र’ सतीप्रथा भी ‘बड़े’ और ‘पवित्र’ लोगों की देन है। जाओ, तुम्ही ‘फ़ॉलो’ करो ‘बड़े’ लोगों को। 

यह लेख ‘बड़े’ लोगों के ‘विरोध’ में या उनके ‘ऊपर’ नहीं लिखा गया। यह आदमी के ख़ुदको ख़ामख्वाह ‘बड़ा’ और दूसरों को बेवजह ‘छोटा’ समझने या ‘बनाने’ की मानसिक बीमारी को समझने-समझाने के लिए लिखा गया है।

इस लेखक के लिए ‘बड़े’ तब तक ही ‘बड़े’ थे जब तक इसकी समझ ‘छोटी’ थी।


-संजय ग्रोवर
05-07-2015


Saturday 4 July 2015

नमस्कार में इंसानियत कम गणित ज़्यादा !

समाज में हम कई लोगों से पैसा देकर सेवाएं लेते हैं।

मगर उनका सम्मान करने या न करने का ढंग हमारा अलग-अलग होता है।

आखि़र उसका आधार क्या होता है-उम्र, पेशा, पैसा, ईमानदारी, जाति, पद, डर, लालच या कुछ और ?

क्या हम रिक्शेवाले को नमस्कार करते हैं ? कई बार वह हमसे उम्र में बड़ा होता है। कभी-कभी हम एक ही आदमी के रिक्शे में रोज़ाना बैठते हैं।
क्या हम अपने मोची को नमस्कार करते हैं ?
क्या हम अपने सफ़ाईवाले को नमस्कार करते हैं ?
क्या हम अपने मजदूर को नमस्कार करते हैं ?

हम डॉक्टर को नमस्कार करते हैं।
हम अपने वक़ील को नमस्कार करते हैं।
हम सरकारी ऑफ़ीसर और बाबू को नमस्कार करते हैं।
हम मशहूर लेखक-समीक्षक को नमस्कार करते हैं.....

इसका पैमाना क्या होता है ?
उदाहरण के लिए डॉक्टर को ही लीजिए, हम उसे नमस्कार क्यों करते हैं-

1. सभी डॉक्टर उम्र में हमसे बड़े होते हैं।

2. कोई डॉक्टर किसीसे पैसा नहीं लेता।

3. सभी डॉक्टर महान होते हैं।

4. डॉक्टर चमत्कार करते हैं। हम चमत्कृत हो जाते हैं और हमारे हाथ अपनेआप जुड़ जाते हैं, मुंह से नमस्ते ख़ुदबख़ुद निकल जाती है।

5. हम डॉक्टर से डरते हैं। हमारी या हमारे किसी रिश्तेदार/परिचित की बीमारी के वक्त हमारी सबसे क़ीमती चीज़, हमारी जान डॉक्टर के हाथ में होती है। अगर डॉक्टर नाराज़ हो गया तो हमारा कितना भी बड़ा नुकसान हो सकता है।

6. डॉक्टर बहुत पढ़ा-लिखा होता है और पढ़ा-लिखा हर आदमी बिना जाने-बरते, देखे-परखे, निर्विवाद रुप से महान होता है।

7. हमारे यहां बेईमानी बहुत है, हमें आशा ही नहीं होती कि कोई किसीका काम बिना जान-पहचान-जुगाड़ के एक जैसी ज़िम्मेदारी से कर सकता है। इसलिए नमस्ते कर-करके हम एक संबंध विकसित कर लेना चाहते हैं जो कि भविष्य में भी हमारे काम आएगा।

8. इनके अलावा कुछ और ?

?




-संजय ग्रोवर
19-06-2014