Friday 17 November 2017

खेल-खेल में

खेलों के लिए किसीको पुरस्कार दिए जाएं या साहित्य के लिए, उसके लिए नियम तोड़े जाएं या नए जोड़े जाएं, व्यक्तिगत रुप से मुझे पुरस्कार कभी भी महत्वपूर्ण नहीं लगे। विवाह और राजनीति की तरह यह भी आदमी के दिमाग़ की उपज हैं। और ऐसी सब व्यवस्थाओं पर आज सवाल उठ रहे हैं, बहुत-से लोग इन्हें नकार भी रहे हैं। फ़िलहाल, अंधविश्वासों से उबरने के प्रयासों के तहत खेलों पर बात की जाए कि इससे ‘राष्ट्र’ और ‘समाज’ को क्या फ़ायदे होते हैं:-

1. खेल देखने/खेलनेवाले व्यक्ति अपने जीवन में ईमानदार होते हैं या दूसरों से ज़्यादा ईमानदार होते हैं ?

2. खेलों में रुचि रखनेवाले व्यक्ति दहेज नहीं लेते ?

3. खेलों में रुचि रखनेवाले व्यक्ति लड़के-लड़की में भेद नहीं करते ?

4. खेलों में रुचि रखनेवाले बलात्कार नहीं करते ?


5. खेलों में रुचि रखनेवाले लाइन में लगकर काम कराते हैं (जो कि स्वानुशासन की तरफ़ एक क़दम है) ? वे मैच की टिकट कभी ब्लैक में नहीं ख़रीदते ?

6. खेल को पसंद करनेवाले लोग पर्यावरण का ख़्याल रखते हैं ? वे पेड़ नहीं काटते, पेड़ पर चढ़कर मैच नहीं देखते ?

7. खेलप्रेमी लोग अपने दफ़तर हमेशा वक्त पर पहुंचते हैं ?

8. खेलप्रेमी नियमित व्यायाम करते हैं ? व्यायाम करनेवाले सभी लोग खेलप्रेमी होते हैं ?

9. खेलप्रेमी मैच देखते समय रस्सी कूद रहे होते हैं ?

10. खेलप्रेमी अपने सभी टैक्स और बिल ईमानदारी से, सही वक्त पर चुकाते हैं ?

11. खेलप्रेमी होने के लिए भारी ख़तरे उठाने पड़ते हैं ? इसलिए ज़्यादा खेल देखनेवाले लोग ख़तरों से जूझने के अभ्यस्त हो जाते हैं ?

12. खेलप्रेमी कभी सट्टा नहीं खेलते, पैसे के लेन-देनवाली शर्त्तें नहीं लगाते, फ़िक्सिंग का तो उन्होंने नाम तक नहीं सुना होता।

13. मैच देखने से आदमी में न्याय, ईमानदारी और समानता का भाव पैदा होता है, ऊंच-नीच ख़त्म होती है ?

यह चीज़ों की वास्तविकता को समझने का एक छोटा-सा प्रयास है। हो सकता है यह बिलकुल ग़लत हो, हो सकता है काफ़ी हद तक सही हो। आप अपनी तरह से इसे आगे बढ़ा सकते हैं। खेलों से संस्थाओं इत्यादि को आमदनी होती है, इतना ज़रुर समझ में आता है। मगर क्या यह इतनी बड़ी बात है कि खिलाड़ियों को सबके सिर पर बिठा दिया जाए ? पैसा तो कोई भी तमाशा खड़ा करके कमाया जा सकता है।

आपकी तार्किक प्रतिक्रियाओं का स्वागत है। आप इसमें नए सवाल जोड़ सकते हैं। इसी क्रम में किसी दिन पुरस्कारों की ‘उपयोगिता’ पर भी बात करेंगे।

-संजय ग्रोवर

17-11-2013 ( on facebook )

Wednesday 15 November 2017

संघियों/कट्टरपंथियों/अंधविश्वासियों/बहुरुपियों की पहचान-

1. किसी न किसी तरह धार्मिक स्थलों का प्रचार-प्रसार करते हैं, ख़ुद जाना पड़े तो ख़ुद भी चले जाते हैं।

2. प्रगतिशील लोगों के नाम पर भी मंदिर बना देते हैं, और वहां जा-जाकर भी विचारों को पूजा-पाठ में बदलने का शर्मनाक खेल खेलते रहते हैं।

3. दहेज न सिर्फ़ लेते-देते हैं बल्कि दहेजवाली शादियों में जा-जाकर लोगों को ऐसा करने के लिए दुष्प्रेरित करते हैं।

4. तरह-तरह के गुट-दल-संस्थाएं आदि बनाकर पूरे समाज को अपने अनुकूल बनाए रखने की कोशिश करते हैं।

5. स्वतंत्र व्यक्ति को तरह-तरह से सताते हैं, डराते हैं, उसे किसी-न-किसी तरह, किसी-न-किसी धर्म से जुड़ा दिखाने की कोशिश करते हैं।

6. त्यौहार न मनानेवाले, कर्मकांडों में विश्वास न करनेवाले, बिना किसी संस्था-दल-गुट से जुड़े अपने दम पर और जेनुइन लोगों को ढूंढ/जोड़कर स्वतंत्र रुप से समाज बदलने का काम करनेवालों को बदनाम करते हैं, परेशान करते हैं, डराते हैं।

7. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ऐसे विरोधियों को जो डायरियों/संस्मरणों/आत्मकथाओं/संपादकीयों/लेखों यानि जिस तरह के लेखन में स्पष्ट और खुले सच की उम्मीद हो, का विरोध करते हों, को बढ़ावा देते हैं और ऐसा स्पष्ट और खुला सच लिखनेवाले को बदनाम करते हैं, उनके विचारों और क़िताबों को लोगों तक पहुंचने से रोकते हैं।

8. कविता, कथा, कहानी यानि कि गल्प/गप्प/फ़ैंटसी लिखनेवालों को प्रोत्साहित/पुरस्कृत करते हैं जिनकी रचनाएं इस क़दर प्रतीकबाज़ी से भरी होतीं हैं कि उनके एक ही समय में कई मनमाने/अवसरानुकूल अर्थ निकाले जा सकते हैं। इनके कार्यकर्ता अपने विरोधियों/स्वतंत्र लोगों की माफ़िक न आनेवाली बातों का ग़लत अर्थ फैलाते हुए आम देखे जा सकते हैं।

9. जब भी इन्हें लगता है कि लोगों को पता चल गया है कि समाज में विभिन्न पदों/जगहों पर इन्हींके बेईमान लोग तरह-तरह की अच्छी शक्लें/इमेजें बनाए बैठे हैं, आपस में झगड़ने का ज़ोरदार ड्रामा करते हैं।

10. किन्हीं दो घटनाओं/चुनावों के बीच समाज की स्मृति मिटाने की कोशिश करते हैं जिससे कि लोगों को यह पता न चल सके कि हर समय में हर जगह पर एक ही तरह के लोगों/बेईमानों का क़ब्ज़ा रहता है।

11. समाज को बेहूदी बहसों में अटकाएं रखते हैं मसलन मरने के बाद आदमी को टेढ़ा लिटाया जाता है कि आड़ा, खड़ा लिटाया जाता है कि बैठा, अंतिम संस्कार भाई करेगा या बेटा, स्त्री करती है या पुरुष। बाद में यही बातें व्यक्तियों/समूहों/संप्रदायों/गुटों/परिवारों/देशों में झगड़े का आधार बन जातीं हैं।

12. अच्छाई के नाम पर लोगों को प्रतीकों, कर्मकांडों, त्यौहारो में फंसाए रखते हैं बिना यह समझे कि रक्षाबंधन मनानेवाले कितने भाईयों ने आज तक बहिनों की रक्षा की ? लोग भी ख़ुशी-ख़ुशी फंस जाते हैं क्योंकि सच बोलकर भीड़ से पंगा लेने से कहीं आसान होता है अच्छाई के नाम पर कोई नाटक/अभिनय करके अपने ही जैसे लोगों की तारीफ़ पा लेना।

13. किसी-न-किसी बहाने अपने गुटों/धर्मों/परिवारों/वंशों/जातियों से जुड़े अतीत/इतिहास की तारीफ़ में लगे रहते हैं बिना इस मामूली से तथ्य को समझे कि अतीत/इतिहास को बनाने में इनका कोई भी हाथ/योगदान नहीं होता बल्कि ये बाई चांस उससे जुड़ गए होते हैं। ये सचमुच ही उस अतीत/इतिहास से जुड़े हैं जिसको ये अपना मान/समझकर लड़-मर रहे हैं/जान दे रहे हैं, अकसर इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण भी नहीं होता।

14. संघ/ कट्टरपंथ/अंधविश्वास/पाखंड जितना अपनी संस्थाओं/गुटों/दलों के अंदर है उससे कई गुना ज़्यादा दूसरी संस्थाओं/गुटों/दलों और समाज की आदतों/रीति-रिवाजों/कर्मकांडों/अंधविश्वासों/बेईमानियों/मानसिकता में फैला हुआ है। जब तक समाज बेईमान, पाखंडी, दोमुंहा, तानाशाह है, संघ/ कट्टरपंथ/अंधविश्वास/बहुरुपिएपन को ख़त्म नहीं किया जा सकता। समाज क़ाग़ज़ के पुतले जलाने यानि कर्मकांड और प्रतीकबाज़ी से नहीं बदलता बल्कि जिन्हें यथास्थिति बनाए रखनी हो वही ऐसे कर्मकांडो का आविष्कार कर लेते हैं। 

-संजय ग्रोवर
14/15-11-2017

Thursday 26 October 2017

ध्यानाकर्षण का धंधा और शहादत का शोशा


कोई पांच-एक साल पहले की बात है एक व्यक्ति के बयान पर तथाकथित हंगामा खड़ा हो गया। उस व्यक्ति का नाम मैंने पहली बार उसी दिन सुना था। शहर भी छोटा ही था जहां बिना मतलब कोई आता-जाता नहीं है। इधर मेरे कॉमन सेंस ने मेरे लिए समस्या पैदा कर दी, हमेशा ही करता है। मैंने सोचा कि ऐन उसी वक़्त, जब वह आदमी बयान दे रहा था, कैमरेवाले कैसे वहां पहुंच गए !? क्या कैमरे भारत के घर-घर में, सड़क-सड़क पर, छोटे-छोटे गांव-क़स्बों में तैनात हैं !? क्या कैमरे-वालों को पहले ही पता होता है कि फ़लां छोटे-से गांव में एक नामालूम-सा आदमी फ़लां बयान देने वाला है, पहले ही पहुंच जाओ। यह कैसे हो सकता है, आप भी अंदाज़ा लगा सकते हैं।

वह आदमी तो नामालूम-सा था लेकिन मैं देखता हूं जो लोग अकसर कहते पाए जाते हैं हमें ट्रॉल किया जा रहा है, उनमें से कई लोग ख़ुद ध्यानाकर्षण के धंधों से जुड़े होते हैं। उनका प्रोफ़ेशन या व्यवसाय ही ऐसा होता है जिसमें लोगों का ध्यान आकर्षित किए बिना एक क़दम भी चलना मुश्क़िल होता है। फ़िल्म, राजनीति, मॉडलिंग, टीवी, सीरियल, उद्योग, समाजसेवा, धर्म आदि में बहुत-से लोग नाम करने के लिए ही आते हैं, उनके संस्कारों में और आसपास के वातावरण में इस बात पर पूरा दबाव होता है कि नाम करो, प्रतिष्ठा बनाओ, इमेज अच्छी होनी चाहिए, आदमी को प्रसिद्ध होना चाहिए आदि-आदि। ये चीज़ें क्या अच्छा काम करतीं हैं यह तो पता नहीं, पर वास्तविकता को छुपाने में अक्सर काम आतीं हैं। जैसे कि किसी भी नामवाले आदमी की सही आलोचना की भी हिम्मत लोगों को आसानी से नहीं होती। एक बार नाम हो जाए तो कोई नहीं पूछता कि नाम कैसे हुआ, किन तरीक़ों को आज़माने से हुआ, सच से हुआ कि हथकंडों से हुआ ?

बहरहाल, विज्ञापन और ‘शहादत’ के अर्थ में, समझा जा सकता है कि कई लोगों को ट्ॉल की सख़्त ज़रुरत रहती होगी। आज जब हर क्षेत्र में नये-पुराने लोगों की बाढ़ आई हुई है, लोगों कांे अपनी फ़िल्में ख़ुद प्रोड्यूस करनी पड़ रहीं हैं, कभी कॉमेडी को छोटा काम समझनेवाले आज कैसे भी कॉमेडी शो में कैसी भी कॉमेडी करने को तैयार हैं ; यह आसानी से समझ में आता है कि कई लोग इसलिए भी तरसते होंगे कि यार कोई ग़ाली ही दे दे, दो-चार दिन तो नाम हो ही जाएगा। मैं अपने ‘नास्तिक’ ग्रुप के लोगों को कई बार इसलिए भी ग़ाली-ग़लौच से बचने की सलाह देता रहा क्योंकि मुझे मालूम था कि उन लोगों को इससे फ़ायदा ही होगा, एक दम शहीद बनके सड़क पर ही रोने लग जाएंगे कि ‘हाय दैया! हमें यहां भी मारा, वहां भी मारा, कहां-कहां मारा!’ और आपकी तर्कपूर्ण बातों पर भी कोई ध्यान नहीं देगा क्योंकि लोगों को भी तमाशों में ही ज़्यादा मज़ा आता है।

अतीत या निकट अतीत में कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं जिनमें कुछ साहसी लोगों को सच बोलने या तार्किक बातों के लिए ग़ालियां, प्रताड़नाएं, बदनामी झेलनी पड़ी। लेकिन दूसरे लोग ज़्यादा चतुर हैं, उन्होंने साहसपूर्ण लोगों के स्वतस्फूर्त स्वभाव को सफ़लता के फ़ॉमूर्ले में बदल लिया हैं।  उन्होंने ऐसा माहौल बना लिया कि जैसे दूसरे की ग़ालियां ही पहले की सफ़लता, महानता या शहादत की गारंटी हों। आजकल तो तक़नीक़ भी ऐसी आ गई है कि ख़ुद ही दो फ़ेक आई डी बनाकर अपनी असली आईडी को चार ग़ालियां दे दो, बस शहीद हुए कि हुए। इस टैक्नोलॉजी ने सभी शहादताकांक्षियों को आत्मनिर्भर बना दिया है।

ग़ालिया तो भारत के ज़र्रे-ज़र्रे में, चप्पे-चप्पे पर मौजूद हैं। यहां ग़ालियों की कोई कमी है। कई लोगों में तो परिवारों में आपस में ग़ालियां आर्शीवाद की तरह बांटीं जातीं हैं। ‘बोस डी के’ तो याद ही होगी आपको, कई लोगों ने उस वक़्त ग़ालियों के पक्ष में चिंतन किया था, आजकल उन्हींमें से कुछ शालीनता को चोला ओढ़े होंगे। मज़े की बात तो यह है कि मेरे पास तो एक बार एक युवा मित्र का ईमेल आया कि वे और उनके कुछ मित्र ग़ालियों पर एक प्रायोजित बहस चलाना चाहते हैं, उन्होंने यह भी तय कर लिया है कि कौन मित्र ग़ालियों के पक्ष में रहें और कौन विपक्ष में, और इसके लिए पहले रिहर्सल भी कर लेंगे। मेरा मक़सद यहां व्यक्तियों पर नहीं प्रवृतियों पर बात करना है इसलिए मित्र के नाम में मैं ज़्यादा अर्थ नहीं देखता, वैसे भी यहां किसके कंधे पर रखकर कौन बंदूक चला रहा है, पता लगाना आसान नहीं है ; सो मैंने कहा कि मैंने ऐसे काम कभी किए नहीं हैं और आगे भी मैं ख़ुद में ऐसी कोई संभावना देखता नहीं हूं। औ

एक बार अख़बार निकालने की प्लानिंग हो रही थी तो एक अनुभवी सज्जन ने बताया कि चलाने के लिए पहले एक संस्था बनानी पड़ेगी जो हमारे अख़बार का विरोध करेगी। वहां से जैसे-तैसे छुटकारा पाया। तिसपर और ग़ज़ब एक बार यह हुआ कि एक महिला-मित्र को पता नहीं क्या फ़ितूर चढ़ा कि पीछे ही पड़ गईं कि पहले ग़ाली दो तभी आगे कोई बात होगी। फिर कहने लगी कि मैं सिखाऊंगी। अब मैं क्या कहूं कि ग़ालिया तो मैंने दसवीं क्लास में ही सीख लीं थी, तंेतालीस छात्रों की क्लास में 35-40 ऐसे थे जो धंुआधार ग़ालियां बकते थे। हमें भी सीखनी पड़ी, काम ही नहीं चलता था। अंत में, लगभग आधे घंटे बाद मैंने धीरे-से मां की एक ग़ाली बकी तब उनकी कुछ संतुष्टि हुई। मैं भी क्या करुं, ग़ुस्से में, विरोध में, ख़ासकर ज़ुल्म और अन्याय के विरोध में मैं कभी-कभी ग़ाली बक भी देता हूं पर कर्मकांड, अभिनय, लीला रस्म आदि की तरह कोई भी काम करते हुए मुझे काफ़ी संकोच होता है।

ट्रॉल करने का जो धंधा पहले सिर्फ़ एकतरफ़ा था, अब टू-वे बल्कि मल्टी-वे और मल्टीपरपज़ हो गया है। इसलिए जिनको एकतरफ़ा हरक़तों यानि कुछ-कुछ तानाशाही की आदत थी, उन्हें थोड़ी तक़लीफ़ होना स्वाभाविक है।

हालांकि शहादत के मज़े भी अभी तक वे ही ले रहे हैं।

-संजय ग्रोवर
26-10-2017


Saturday 7 October 2017

आपकी छोटी बच्ची ने सुझाया....

जब आपको मरीज़ की जान की चिंता होती है तो आपको इसकी परवाह नहीं होती कि वह होमियोपैथी से ठीक होगा, ऐलोपैथी से होगा कि आयुर्वेद से होगा कि और किसी तरीके से होगा। आप यथासंभव कोशिश करते हैं, जितना जेब अलाउ करती है, पैसा ख़र्च करते हैं, कर्ज़ भी ले लेते हैं, भाग-दौड़ करते हैं। मरीज़ बच जाए तब ज़रुर आप लोगों को बताते हैं कि बचाने का श्रेय किसे जाता है।

दवा कंपनी या डॉक्टर इसपर गर्व करे, इसकी पब्लिसिटी करे तो समझ में आता है। क्योंकि उनका यह धंधा है। मरीज़ मेरी दवा से बचे कि तेरी दवा से, इससे हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है!?

मगर सामाजिक समस्याओं के मामले में हमारा रवैय्या अजीब है। समस्या हल भी नहीं हुई कि लोग क्रेडिट लेने को तैयार बैठे हैं। कोई पंद्रह हज़ार साल पुरानी क़िताब लिए चला आ रहा है कि देखो, यहीं सारे सवालों के जवाब लिखे हैं तो कोई पंद्रह सौ साल पुराना पोथन्ना लिए खड़ा है कि इससे हल न हुआ तो फिर किसीसे न होगा। कोई कह रहा है कि हमारी तरक़ीब तो तुमने कभी आज़माई नहीं, एक बार इसे भी ट्राई करके देखो न ! यह तरकीब कहां से आई! यह भी एक क़िताब से आई जो किसी समाज की किसी बदमाशी की वजह से कहीं दब-ढंक गई थी। अरे, मतलब तो समस्या हल होने से है, सबको अपना बैनर लगाने की इतनी चिंता क्यों लगी है !?

यह मसला सिर्फ़ अहंकार का है। वरना मैं बिना किसी शोध, बिना सर्वे के दावा कर सकता हूं कि दुनिया में कोई धर्म, कोई वाद, कोई देश, कोई समूह, कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता जो सब कुछ जानता हो, जिसके पास सारी समस्याओं के हल हों। इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण सोच कोई हो नहीं सकती। अगर कोई ऐसा दावा करता है तो समझिए कि वह ख़ुद ही एक समस्या है।

मान लीजिए स्त्रियों की कोई समस्या है, तो पहले तो हम यहीं लड़ने-मरने में वक्त लगा रहे हैं कि मेरा फ़ॉर्मूला अप्लाई होगा, नहीं मेरा बैटर है, नहीं हमारा बैस्ट है। अरे समस्या जिससे हल हो रही हो उसे अपना लो। वह तरीक़ा चाहे पश्चिम से आया हो, बाबा साहेब ने बताया हो, सनातन से निकला हो, इस्लाम ने दिया हो कि आपकी छोटी बच्ची ने सुझाया हो। जिसका जितना सही है उतना ले लो। मतलब तो समस्या हल होने से है।

मुझे तो लगता है कि मीडिया द्वारा किसीको भी सार्वजनिक तौर पर क्रेडिट दिया जाना बंद कर दिया जाना चाहिए। इससे एक तो क्रेडिट के झगड़े भी बंद हो जाएंगे, दूसरे यह भी पता चल जाएगा कि सचमुच निस्वार्थ समाजसेवा में कितने लोगों की रुचि है।

-संजयग्रोवर

07-10-2013
(on facebook)

Friday 11 August 2017

गांधीजी को पहननेवाले

भारत में बच्चों की ख़पत कितनी और कैसी है यह तो ठीक-ठीक मालूम नहीं मगर उत्पादन भरपूर मात्रा में होता है। हलचल और हरक़तें भी इतनी और ऐसी है कि कई बार लगता है यहां सिर्फ़ बच्चे ही बच्चे हैं। बच्चों की उम्र कितनी भी हो पर वे अकसर कहते पाए जाते हैं- ‘माई पापा इज़ द बेस्ट’, माई मम्मी इज़ बेस्ट मम्मी ऑफ़ वर्ल्ड’, माई दीदी इज़ बैस्ट दीदी’, ‘माई अंकल.....। यही बच्चे जब कहते हैं कि ‘गांधीजी बहुत महान व्यक्ति थे’ तो मैं सोचता हूं कि गांधीजी बेचारे कुछ भी रहे हों पर बैस्ट तो तुम्हारे पापा हैं। अगर तुम्हारे घर-परिवार के लोगों ने ही बैस्ट रहना है तो गांधीजी और लिंकन जी को तो दूसरे-तीसरे स्थान के लिए ही संघर्ष करना होगा। ख़ैर, कोई परेशानी की बात नहीं है, ऐसी विरोधाभासी दलीलों से मुझे आए दिन गुज़रना होता है। कई साल पहले किसी अख़बार की उल्टे पन्ने पर छपी किसी ख़बर में पढ़ा था कि भारत में हर तीसरा आदमी सीज़ोफ्रीनिक है। तबसे ही मैं तीसरा और पहला के बीच फ़र्क पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं।

भारत के लोग गांधीजी का बहुत आदर करते हैं, ऐसा मैंने सुना भी है और पढ़ा भी है। देखा आपने होगा। मैंने तो अभी-अभी देखा कि उपराष्ट्रपति के आदरणीय चुनाव में गांधीजी के पोते श्री गोपाल कृष्ण गांधी को हारने के लिए खड़ा किया गया। उससे पहले एक बार श्री राजमोहन गांधी अमेठी से खड़े हुए थे और हार गए थे। ऐसा लगता है कि गांधीजी से ऐसा कोई अनुबंध हुआ था कि जब भी हारने के लिए कोई आदमी चाहिए होगा तो आपके परिवार से काम ले लिया जाएगा। इस तरह देश भी आपको याद रखेगा भले हारने से ही याद रखे। वैसे भी गांधीजी का लड़का या पोता होना चुनाव लड़ने के लिए कोई योग्यता तो है नहीं, बल्कि यह तो सीधे-सीधे वंशवाद ही लगता है। इसमें नयी बात यही है कि वंशवाद का इस्तेमाल हारने के लिए (शायद) पहली बार किया जा रहा है।
(साभार)

मैं गांधीजी से सीधे-सीधे कभी मिला नहीं इसलिए नहीं कह सकता कि उन्होंने लंगोटी पहनना कब शुरु किया था, किया था कि नहीं किया था, परंतु यह पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं कि गांधीजी के किसी चाहनेवाले को मैंने लंगोटी पहनते नहीं देखा। मैं सोचता हूं कि यह बहुत प्रैक्टीकल साबित हो सकता है कि गांधीजी के सभी प्रशंसक साल में कम से कम कुछ दिन लंगोटी पहनें, इससे उनके फ़ालतू कपड़े ग़रीबों में बांटे जा सकेंगे। कोशिश करके देखना चाहिए क्योंकि ‘कोशिश करनेवालों की हार नहीं होती है’। पर क्या ये लोग लंगोटी पहन पाएंगे, ये तो सर से पांव तक पूरे के पूरे गांधीजी को ही पहने बैठे हैं। शक़ होता है कि ये कोशिश ही तभी शुरु करते हैं जब जीत निश्चित हो या निश्चित कर ली गई हो। जब आपने पूरे के पूरे गांधीजी को ही महज़ प्रतीक में बदल दिया हो तो आपमें और उनमें, प्रतीक के तौर पर ही सही, कुछ तो समानता या सामंजस्य दिखना चाहिए। 

( 4:20 से देखें )
पिछले सालों में भारत में आज़ादी के जो फ़ोटोकॉपी आंदोलन हुए उनसे मुझे गांधीजी के वादीजीयों को समझने में मदद मिली। दो-तीन साल तक तो मसीहा क़िस्म के पत्रकार/एंकर भी इन्हें स्वत-स्फ़ूर्त आंदोलन बताते रहे। आदरणीय विनोद दुआ ने तो अभी पांच-छै साल बाद बताया कि यह आंदोलन मीडिया का बनाया हुआ था। सारे चैनलों पर एक जैसे भजननुमां ग़ज़लें पहले दिन से ही बज रहे थे, सारी टोपियां नई-नकोर थीं और एक ही दुकान से आई लगतीं थीं। मैं काफ़ी दिन तक चिंतनरत रहा कि महापुरुष पैदा होते हैं, बनाए जाते हैं या बनवाए जाते हैं ! 

कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक सदस्य गोडसे ने गांधीजी की हत्या गोली मारकर की। गांधीजी उस वक़्त प्रार्थना करके लौट रहे थे। प्रार्थना में सुनते हैं संघ का भी काफ़ी विश्वास है। वैसे गांधीजी का और संघ का झगड़ा जो भी रहा हो पर इनमें समानताएं भी कई रहीं हैं। जैसा कि मैंने पढ़ा है 
गांधीजी भी वर्णव्यवस्था को मानते थे और संघ भी। गांधीजी गीता पढ़ते थे और संघ तो सुना है गोरखपुर में बेचता भी है। गांधीजी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी और संघ के साथी बाबा रामदेव को आप अपने पसंदीदा चैनलों पर देख ही रहे होंगे जो कह रहे हैं कि विदेशी छोड़ो पतंजलि ख़रीदो। गांधीजी भी स्वराज की बात करते थे और बात तो संघ भी करता है। गांधीजी भी धार्मिक थे और संघ भी। वैसे धार्मिक लोगों की आपस में कम ही पटती है। यहां तक कि गोडसे ने गोली मारने से पहले बाक़ायदा भारतीय संस्कृति-अनुसार गांधीजी को हाथ जोड़कर नमस्कार किया यानि कि सम्मान किया अर्थात् आदर किया तत्पश्चात् तुरंत गोली मारदी। आदर करने के सबके अपने-अपने कांसेप्ट हैं। गांधीजी का अहिंसा का जो कांसेप्ट था उससे बताते हैं कि श्री अंबेडकर के लिए काफ़ी समस्या खड़ी हो गई थी।

भारत में अकसर ज़्यादातर लोग श्री मोहनदास गांधी को ‘गांधीजी-गांधीजी’ के संबोधन से पुकारते हैं। इधर मैंने यह भी सुना है कि इस तरह से ‘जी’ का प्रयोग संघी ही ज़्यादा करते हैं।


मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा हूं। 


मैं कोई इतिहासकार नहीं हूं। एक सोचनेवाला व्यक्ति हूं।


-संजय ग्रोवर
11-08-2017


Sunday 23 July 2017

दुनिया को नई नज़र से देखो, प्यारेलाल

"भगवान नही है चलो मान भी लिया जाये और ये भी मान लिया जाये की सृष्टि की रचना अपने आप हो गयी तो हर चीज का जोड़ा कैसे बना? पशु-पक्षी बने और उनके भी जोड़े बने फिर नस्ल आगे बढ़ने के लिये भी इंतेज़ाम हो गया? पेड़ पौधे चन्द सूरज और तारे सब के सब अपने आप बन गये और अपनाकाम भी बखूबी कर रहे हैं? वैज्ञानिको की मशीने खराब हो जाती है लेकिन ये बिना रुके अपना काम करते जा रहे हैं? सबमेबड़ा सवाल सृष्टि की रचना अपनेआप हुई को पहले नर बना या नारी अगर एक बना तो दूसरी की उत्पत्ती संभव नही? पहले मुर्गी आई या मुर्गा? दोनो के बिना अंडे की उत्पत्ती संभव नही?" on सुनो पीके

कोई मित्र हैं जिन्होंने पहले फ़ेसबुक पर फिर इस ब्लॉग पर यह सवाल पूछा है। इस सवाल में नया कुछ भी नहीं है, बचपन से सुनता आ रहा हूं, आस्तिकों/अनामों के पास वही घिसे-पिटे सवाल हैं, पर चलो मैं उत्तर नया दे देता हूं।

प्यारे दोस्त, दो-तीन बातें आपको ठीक से समझ लेनी चाहिएं वरना बार-बार लोगों को परेशान करते रहेंगे। पहली बात, अगर आपको सड़क पर कोई पायजामा गिरा हुआ मिलता है और लाख ढूंढने पर उसका मालिक़ नहीं मिलता तो क्या आप यह समझ लेते हैं कि यह पायजामा भगवान का है या इसे भगवान फेंक गया है ? जिस चीज़ का कोई कर्त्ता या मालिक़ नहीं उसके लिए आप एक काल्पनिक मालिक़ न सिर्फ़ अपने लिए ढूंढ लेते हैं बल्कि दूसरों पर भी थोपने लगते हैं ? यह तो ऐसा ही हुआ कि किसी फ़िल्म का सारा प्रचार किसी एक आयटम नंबर के आधार पर किया जाए और जब देखने जाओ तो वह आयटम ही उस फ़िल्म में सिरे से ग़ायब हो ! भगवान को आपने ऐसा ही आयटम नंबर बना रखा है, दोस्त! उस काल्पनिक शख़्सियत से बिना उसकी मर्ज़ी पूछे बस अपने मतलब या डरों की वजह से आप उसे नचाए जा रहे हैं।

दूसरी बात, आप कहते हैं कि भगवान नहीं है तो जोड़े कैसे बने, नस्ल कैसे बढ़ी, मुर्गी और अंडा कैसे आया ? प्यारेलाल, आपको लगता है मालूम नहीं कि इस दुनिया में बहुत-से लोग बिना जोड़े के भी रहते हैं। जिनके जोड़े बन गए हैं उनमें से भी कईयों की आपस में पटती नहीं है, कईयों के पति या पत्नी उन्हें बीच सफ़र में अकेला फंसाकर ख़ुद दुनिया से निकल लेते हैं। जोड़ा बना है तो पूरा तो चलना चाहिए न प्यारेलाल ? दुकानदार तो फिर भी अपने सामान की साल-छै महीने की गारंटी/वारंटी लेते हैं और उसे निभाते भी हैं मगर आपका भगवान! इसके प्रोडक्ट का तो छै दिन का भरोसा नहीं। सबसे घटिया उत्पाद लगता हैं यहीं पैदा होते हैं। और प्यारेलाल, अगर जोड़े आपके भगवान ने बनाए हैं तो लड़के-लड़कियों को ये सही वक़्त पर क्यों नहीं मिलते ? उनके मां-बापों-रिश्तेदारों को क्यों दस-दस साल चप्पल घिसने पड़ते हैं ? भगवान के बनाए जोड़ों के बावजूद उनकी दहेज मांगने की हिम्मत कैसे पड़ जाती है ? मुझे तो लगता है कि इन्हीं दहेजखोरों और बेईमानों ने अपने मतलब के लिए भगवान को पैदा कर लिया है। आपको तो लगता है पूरा मालूम नहीं है कि आजकल सभी लड़के-लड़कियां दो-दो के जोड़ों में नहीं रहते, कहीं-कहीं दो-तीन लड़के, एक लड़की या दो-चार लड़कियां, एक-दो लड़के भी मिलजुलकर रहते हैं। आजकल भारत में भी बहुत-से बच्चे प्रेमविवाह कर रहे हैं जबकि पहले वे शादी के लिए अकसर रिश्तेदारों पर निर्भर रहते थे। अब आप ही सोचो कि यह वाला सिस्टम भगवान ने बनाया है या पिछलावाला ? जब समझ में आ जाए तो बता देना। आगे बात कर लेंगे। और एक बात बताऊं, दुनिया में सिर्फ़ शादियां नहीं होतीं, बलात्कार और छेड़खानियां भी होतीं हैं, गर्भ में लड़कियों की हत्या भी होती है ; कहोकि वो भी भगवान ने बनाया है, कहो ना।

और, प्यारेलाल, आदमी की मशीन और भगवान के पहाड़ों की तुलना बिलकुल बेमतलब है। आदमी कैसा भी काम करे, उसे करते हुए वह सौ प्रतिशत, बिलकुल प्रामाणिक रुप से दिखाई देता है। भगवान को आपने कब बारिश करते या सुनामी लाते हुए देखा ? क़िताबें बहुत-सी पढ़ीं होंगी आपने, कभी कोई चिंतन वग़ैरह भी किया है ? कैसी उल्टी-सीधी तुलना करते रहते हो ?

ये अंडा-मुर्गी बेमतलब की बातें हैं, प्यारेलाल! नस्ल आगे बढ़ने से क्या होता है ? मेरी जानकारी में कई लोग जवानी में ही मर गए, कई पेट में ही मर गए, तो ये दुनिया रुक गई क्या ? इत्ते बड़े-बड़े डायनासोर मर गए तो क्या बिगड़ गया ? नस्ल तो ऊंट और चूहे की भी चल रही है, आपको उनसे कितने दिन काम पड़ता है ? कॉक्रोच की नस्ल से आपको कुछ फ़ायदा होता होगा, मुझे तो उनका न होना ही अच्छा लगता है। मुर्गी और अंडा नहीं होगा तो लोग कुछ और खा/पाल लेंगे। आपने देखा नहीं लोगों को, क्या-क्या खा जाते हैं!

और मेरे प्यारे, आखि़र में सबसे मज़ेदार और सबसे नई बात बताऊं, यह दुनिया किसीने बनाई नहीं है, यह अपनेआप बनी है ? अगर आपको लगता है कि यह किसी भगवान ने बनाई है तो साबित करके दिखाओ-

-संजय ग्रोवर

23-07-2017



Thursday 13 July 2017

भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस-3

भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस-2

मुझे इस बात पर न तो कोई गर्व है न शर्म कि आर एस एस एस से मेरा कभी कोई किसी भी तरह का संबंध नहीं रहा। और मेरे लिए यह बात भी किसी झटके की तरह नहीं है कि कभी मेरे प्रिय रहे ऐंकर/न्यूज़रीडर विनोद दुआ का बचपन में शाखाओं में न सिर्फ़ आना-जाना रहा बल्कि उन्होंने आर एस एस एस के संस्कारों की तारीफ़ भी की है (4ः18 पर देखिए)।



अन्य संदर्भों में मुझे विनोद दुआ साहब के दो और वीडियो भी उल्लेखनीय लगे जिनका ज़िक्र आगे कभी करुंगा।

-संजय ग्रोवर
13-07-2017

भीड़ और भगवान-1

एक प्रसिद्ध व्यक्ति ट्वीट करता है कि एक सरकारी संस्था ने मुझसे पांच लाख रुपए रिश्वत मांगी है।

कोई पत्रकार उससे नहीं पूछता कि यह रिश्वत किस वजह से मांगी गई है !? वह रिश्वत मांगनेवाले का नाम नहीं बताता। 

वही टीवी चैनल बताते हैं कि यह व्यक्ति ख़ुद भी रेज़ीडेंशियल इलाक़े में कमर्शियल दफ़्तर बनाने के इरादे से अवैद्य निर्माण करवा रहा था। थोड़े दिन चैनलों पर समाचार चलता है, छोटी-मोटी बहसें चलतीं हैं, नतीज़तन वह आदमी और ज़्यादा मशहूर हो जाता है।  

जनता और बुद्धिजीवियों में से कोई नहीं पूछता कि आपने नाम नहीं बताया, आपके अपने अवैद्य निर्माण की हक़ीक़त क्या है ?

उस प्रसिद्ध आदमी के टीवी कार्यक्रम में आए दिन उस ट्वीट की चर्चा उपलब्धि की तरह होती है। भीड़ हंसती है, तालियां बजाती है।

इस भीड़ से किसीको कोई शिक़ायत नहीं है।

अतार्किक मानसिकता अतार्किक भीड़ का निर्माण करती है। अतार्किक भीड़ अतार्किक महापुरुष और सेलेब्रिटी बनाती है।

भीड़ हमारे लिए तालियां बजाती है, हमारे घर के नीचे खड़े होकर हाथ हिलाती है, हमारे ऑटोग्राफ़ लेती है, हमें माला पहनाती है, हमारा सम्मान करती है......

जब तक यह सब होता है, भीड़ हमें महान लगती है, हम नहीं पूछते, नहीं सोचते कि यह सब ठीक है या ग़लत, इससे समाज या दूसरे व्यक्तियों का फ़ायदा होगा या नुकसान.....

इस भीड़ को अंततः झेलता कौन है ?

मेरे आसपास जब भी कोई अवैद्य निर्माण होता है और मैं उसे रुकवाने की कोशिश करता हूं तो मुझे हमेशा यही 
तर्क मिलता है कि सब यही कर रहे हैं तो फिर तुम अकेले कैसे सही हो ?

मेरा मन होता है, संभवतः एक बार मैंने कहा भी कि अगर सब बलात्कार करने लगें तो क्या मैं भी शुरु कर दूं !? कलको सब छेड़खानी करने तुम्हारे घर आएंगे तो तुम चाय-पेप्सी के साथ ख़ुद भी उनमें शामिल हो जाओंगे ?

अवैद्य निर्माणकर्ताओं की यह बात तो सही ही होती है कि ‘सब यही कर रहे हैं’। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, साहित्यकार, पत्रकार, बंगाली, मद्रासी, पंजाबी, गुजराती, आस्तिक, नास्तिक, ब्राहमण, दलित, मार्क्सवादी, राष्ट्रवादी.........कौन है जो यह नहीं करता ?

हममें से किसने इस भीड़ पर ऐतराज़ किया ?

भीड़ हमें भगवान बनाती है और हम ही उसे इसके लिए तैयार करते हैं। अगर कोई भीड़ की ज़्यादा परवाह नहीं करता तो ‘महापुरुष’ तक उसे घमंडी, सनकी, पागल तक करार देने लगते हैं।  

जिस वक़्त भीड़ के खि़लाफ़ एक भीड़ विरोध करने खड़ी होती है ठीक उसी वक़्त दो फ़िल्मी सितारों के घरों के नीचे ‘युवाओं’ की भीड़ हाथ हिलाने और उनके दर्शन के लिए इंतज़ार कर रही होती है।

क्या हमने कभी इस भीड़ के बारे में सोचा ? क्या यह भीड़ बहुत सोच-समझकर आती है ? क्या ये बहुत तार्किक लोग हैं ? हममें से कई लोग इसपर सोचने तक को तैयार नहीं हैं, वजह बड़ी साफ़ है कि उन्हें भी इसी तरह लोकप्रिय होना है, महापुरुष, सेलेब्रिटी, आयकन और आयडल बनना है।

किसी दिन यह भीड़ हमें छोड़कर किसी और के पास चली जाती है, नतीज़तन कोई लोकप्रिय स्टार शराब में डूब जाता है, कोई आयकन प्रसिद्धि वापिस पाने के लिए अजीबोग़रीब हरक़तें शुरु कर देता है.......

इससे भी बुरी स्थिति तब होती है जब हमारी ही बनाई भीड़ हमारे खि़लाफ़ होने लगती है। और भी ख़राब तब यह होता है कि हम ख़ुद कुछ समझने के बजाय दूसरों को समझाना शुरु कर देते हैं......

(जारी)

-संजय ग्रोवर
13-07-2017

Tuesday 4 July 2017

मेरे साथ कौन जाएगा ?

04-07-2017

मेरे पीछे का फ़्लैट(134-ए, पॉकेट-ए, दिलशाद गार्डन, दिल्ली) जो कई सालों से खाली पड़ा था, कुछ दिन पहले बिक गया है। कई दिनों से वहां से खटर-पटर, धूम-धड़ाम की आवाज़ें आ रहीं हैं। आज मैंने पिछले कई साल से बंद पड़ा अपने पिछले कोर्टयार्ड का दरवाज़ा खोला जो गंदगी से भरा मिल़ा। इस गंदगी में मेरा योगदान ज़रा भी नहीं है। ऊपर मजदूर काम करते दिखाई दिए, मैंने कहा यहां कमरा तो नहीं बना रहे? उन्होंने कहा कि बना तो रहे हैं। मैंने कहा कि यह नहीं हो सकता, यह ग़ैरक़ानूनी है, मैंने यह डीडीए फ़्लैट इसलिए ख़रीदा था कि आगे-पीछे ख़ुला था, मैं इसे बंद नहीं होने दूंगा। मजदूर बोले कि मालिक़ से बात करलो, मैंने कहा इसमें बात क्या करनी है, क़ानून स्पष्ट है। उन्होंने मालिक़ को फ़ोन मिलाकर मुझे पकड़ा दिया। मालिक़ कहने लगे कि मिल-बैठकर बात कर लेंगे। मैंने कहा इसमें बात क्या करनी है, पैसे मैंने लेने नहीं हैं, क़ानून मुझे तोड़ना नहीं है। फिर वे बोले कि चार-चार बच्चे हैं, जगह तो चाहिए। मैंने कहा कि इसमें मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं है, मेरी कोई ग़लती नहीं है, मैं क्यों भुगतूं ? काफ़ी बातचीत के बाद उन्होंने कहा कि आपकी मर्ज़ी नहीं होगी तो नहीं बनाएंगे मगर साथ-साथ एक बार मिलने की बात भी कहे जा रहे थे। 


यह स्टेटस मैंने किसी मदद के लिए नहीं बल्कि सूचनार्थ लिखा है। आज से कुछ चार-पांच साल पहले जब मैं चारों तरफ़ से घिरा हुआ था, कई तरह के प्रयत्न और तजुर्बे कर चुका था, उसी एक घड़ी में मैंने एक निर्णय ले लिया था-रोज़-रोज़ मरने से अच्छा है, एक ही दिन मर जाओ। वो दिन है और आज का दिन है मैंने किसीको मदद के लिए नहीं पुकारा। बड़ी से बड़ी परेशानी में एक ही चीज़ मुझे सहारा देती है-कि ज़्यादा से ज़्यादा कोई जान ले लेगा मगर मैं किसी ग़लत आदमी के दबाव में नहीं आऊंगा, मैं पाखंडियों को हीरो नहीं बनने दूंगा, मैं बेईमानों को सम्मान के साथ नहीं सुनूंगा, मैं कट्टरपंथियों से प्रगतिशीलता नहीं सीखूंगा, मैं वर्ण और श्रेष्ठतावादियों से समानता नहीं सीखूंगा, मैं मानवताविरोधी, वर्णसमर्थक पुरुषों/स्त्रियों से स्त्रीवाद नहीं सीखूंगा। तब तो बिलकुल भी नहीं जब मैं इनको भी अच्छी तरह जानता होऊं और ख़ुदको भी...... 



आज या आगे कभी भी, मुझे कुछ होता है तो मुझे कोई अफ़सोस नहीं होगा। पिछले 5-7 सालों में, मैंने अपनी पसंद की ज़िंदगी जी है, अपनी पसंद का लेखन किया है, अपनी तरह से क़िताबें छापीं हैं। कई-कई तरह के भयानक दर्दों के बीच खाना बनाना, कपड़े धोना, बर्तन धोना, वीडियो बनाना, ई-क़िताब छापना, बेईमानों से निपटना....सब कुछ अपने आप सीखा। अगर ज़िंदा रहा तो बचे हुए काम भी साल-दो-साल में पूरे हो जाएंगे।


अगर मुझे कुछ होता है तो इसके ज़िम्मेदार होंगे-धार्मिकता, धर्मनिरपेक्षता और ब्राहमणवाद क्योंकि ये सब ही इंसान को सिखाते हैं कि पहले नाजायज़ काम कर लो, बेईमानी और बलात्कार कर लो और बाद में डुबकी लगालो, चढ़ावा चढ़ा दो, भंडारा करा दो, कीर्तन-जागरन करा दो, पुरस्कार बांट दो और आराम से सो जाओ।
इसे विस्तार से अभी लिखना है। अभी तो सबसे ओपन नेटवर्क चलानेवालों के बारे में भी लिखना है कि वे पिछले कई सालों से बीच-बीच में क्या-क्या अजीब हरक़तें मेरे साथ करते रहते हैं। 

न तो मैं किसीका कोई काम पिछले रास्ते से या जुगाड़ से करा सकता हूं, न ही मैं किसी विचारधारा पर ज़बरदस्ती हामी भर सकता हूं, न ही किसी जाति-बिरादरी-धर्म-गुट-दल में शामिल हो सकता हूं, न किसीकी समीक्षा कर या करा सकता हूं, न किसीको अख़बार, सेमिनार या चैनल में जगह दिला सकता हूं, न किसीको नौकरी दिला सकता हूं, न समाज के मानवविरोधी कर्मकांडों, रीति-रिवाजों में शामिल हो सकता हूं....इसके बावजूद भी कोई अगर बात करना चाहे तो कर सकता है.... 


5-7 साल पहले जब ऐसी परेशानी आई थी तो कुछ दोस्त मदद के लिए आए थे, उनमें से एक-दो ने काफ़ी काम भी किया। बाद में मैंने उन्हें भी मुक्त कर दिया....


05-07-2017


मैं यह बताना चाहता हूं कि लोग ख़ुलें में सिर्फ़ टट्टी नहीं करते, बल्कि और भी बहुत बड़े-बड़े काम करते हैं। और इन कामों में अकसर महिलाओं की भी पूरी सहमति रहती है। मुझे याद है पिछली बार जब मैंने ऐसे ही नाजायज़ कमरा बनानेवालों को रोका था और उन लोगों ने मुझे दाएं-बाएं, दोनों तरफ़ से पकड़ा हुआ था तो एक महिला मुंह पर चुन्नी डाले हंस रही थी। कल को इस औरत के साथ कुछ होगा तो क्या मेरे लिए इसकी मदद करना आसान होगा ?


पिछली बार ही फ़ेसबुक पर किन्हीं सज्जन ने सुझाव दिया था कि अपने पड़ोसियों को लेकर थाने जाओ। मैंने सोचा आधे पड़ोसियों ने ऐसे कमरे बना रखे हैं और कईयों ने बनाने हैं, मेरे साथ कौन जाएगा ?


बाद में यही हुआ भी, मेरे आसपास के कई घरों में कई कमरे और बन गए।


मेरा शक़ एक दिन यक़ीन में न बदल जाए कि धर्म और भगवान और कुछ नहीं सिर्फ़ बेईमानों का सुनियोजित गठजोड़ है, माफ़िया है  !! 


यह कमरा बनता है कि नहीं बनता, यह कुछ समय में सामने आ जाएगा मुझे ये बातें वैसे भी उठानी ही थी, आज ही सही।






(गाने भी मज़ेदार हैं-पहली पंक्ति में कहा है, ‘इंसाफ़ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके...’..अगली पंक्ति है-‘दुनिया के रंज सहना, और कुछ न मुंह से कहना...फिर अगली पंक्तिओं में कहा है-‘अपने हों या पराए, सबके लिए हो न्याय.....
गाया भी अच्छा है..... )

-संजय ग्रोवर
05-07-2017


Wednesday 21 June 2017

असफ़ल लोगों का सफ़ल नाटक

एक बार मैंने फ़्लैट बेचने के लिए अख़बार में विज्ञापन दे दिया, बाद में उसे 4-5 बार रिपीट भी करवा दिया। एक सज्जन (लिखते समय थोड़ा शिल्प-शैली का ध्यान रखना पड़ता है वरना ‘श्रेष्ठजन’ उखड़ जाते हैं:-) जो प्रॉपर्टी का काम करते थे, मेरे पास चले आए कि हमारे होते अख़बार में विज्ञापन क्यों दे दिया ? उनका अंदाज़ ऐसा था जैसे मैंने कोई चोरी या बेईमानी कर ली हो। इसमें मुझे ज़्यादा हैरानी नहीं हुई क्योंकि ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ या ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ के उदाहरण मैं यहां बचपन से ही देखता आया हूं। मुझे थोड़ी हैरानी इस बात पर ज़रुर हुई कि विज्ञापन मैंने अंग्रेज़ी के अख़बार में दिया था और मेरी जानकारी में वह सज्जन यह भाषा नहीं जानते लगते थे। इधर फ़ोन की घंटिया धकाधक बजने लगीं। एक महिला जो हमारे घर में काम करती थी, घंटी बजते ही किसी-न-किसी बहाने फ़ोन के पास दौड़ी चली आती। बाद में उसने बड़े अपनत्व भरे लहज़े में शिक़ायत भी की कि आपने अपने इस निर्णय में मुझे शामिल नहीं किया, मुझे नहीं बताया। ऐसी घटनाएं देखते-समझते धीरे-धीरे निराकार-साकार-भगवान, माफ़िया, सफ़लता आदि के सही मायने या रहस्य समझ में आने लगे। जिस दिन पहली बार गणेश की मूतियों के दूध पीने की अफ़वाह फैली थी, मुझे याद है कि एक आदमी हमारे घर इसकी सूचना देने आया था। उससे जब पूछा कि आपको कैसे पता चला तो उसने कहा कि कई लोगों के घर फ़ोन आए थे। हमारे यहां उस वक़्त फ़ोन नहीं था। हमें क्या मालूम था कि फ़ोन की सबसे ज़्यादा ज़रुरत ‘भगवानों’ को पड़ती है। इसके बिना बेचारे मुर्दा के मुर्दा पड़े रहते हैं। 

इन माफ़ियानुमां गठबंधनों के कई रुप देखने को मिलते हैं। कई दुकानदार पब्लिसिटी के लिए साइनबोर्ड सड़क पर रख देते हैं। दुकान खोलने के बाद मुझे यह पता चला कि जैसे ही बोर्ड हटानेवाली गाड़ी अपने दफ़्तर से चलती है, बाज़ार में सूचना आ जाती है कि अपने-अपने बोर्ड हटा लो, गाड़ी आ रही है। जब अपने मकान में कोई कुछ अवैद्य काम करवा रहा होता है तो ऐन वक़्त पर क्या होता है, आप जानते ही हैं। बड़ी हैरानी की बात है कि जब बाक़ी सब कामों के लिए इतने सुगठित, सुनियोजित माफ़िया काम करते हैं, चप्पे-चप्पे की ख़बर रखते-पहुंचाते हैं तो जब औरतों के साथ छेड़छाड़ या बलात्कार की घटनाएं होतीं हैं तब ये लोग क्यों सामने नहीं आते ? क्यों छुपकर भी कुछ नहीं करते ? क्या आपको मालूम है कि जाने-अनजाने इसमें औरतें भी शामिल होतीं हैं। इसमें प्रगतिशील और कट्टरपंथी, बंगाली और हैदराबादी,  अकेले और पारिवारिक...सभी लोग शामिल होते हैं। फिर यही लोग जंतर-मंतर और रामलीला ग्राउंड में जाकर रोना-पीटना मचा देते हैं। मैंने पिछले कुछ सालों में इंटरनेट पर कई लोगों को शराफ़त का मज़ाक़ उड़ाते देखा। इसमें सबसे मज़ेदार बात मुझे यह लगी कि यही लोग ईमानदारी के नाम पर चलाए गए सर्कसनुमां तथाकथित आंदोलनों का सबसे आगे बढ़कर समर्थन कर रहे थे।

आप ज़रा सोचिए कि अगर मुझे मकान बेचने में सफ़ल होना था तो मुझे क्या करना चाहिए था ? 

(जारी)

-संजय ग्रोवर
21-06-2017


Sunday 18 June 2017

वीभत्स स्वच्छता

कभी एफ़ एम पर, कभी टीवी पर, कभी-कभी खोलो तब भी महानता दिख ही जाती है। कोई बता रहा है कि हरा डिब्बा, नीला डिब्बा, दो डब्बे कचरे के लिए रखो वरना लोग तुम्हे ख़राब नज़र से देखेंगे, इज़्ज़त ख़राब हो जाएगी.....। कोई समझा रहा है नहाना बहुत ज़रुरी है, पीने को पानी न हो तब भी नहाना ज़रुर चाहिए, पॉज़ीटिव एनर्जी पैदा होती है, पवित्रता आती है। सबसे ज़्यादा सामाजिक कार्य आजकल टट्टी के फ़ील्ड में चल रहा है। हर कोई पाख़ाने का महत्व समझाने में लगा है, सेलेब्रिटी वगैरह बताते हैं टट्टी हमेशा इनडोर करनी चाहिए, आउटडोर करने से बदनामी होती है, इमेज ख़राब होती है। लेकिन जिसके घर में जगह नहीं है, पाख़ाना बनाने का पैसा नहीं है, वह आपके कहने से टट्टी पेट में रोक भी ले, तो ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या मिलेगा ? अच्छी इमेज ? और क्या ? पेट में बीमारियां लेकर वो उस इमेज का करेगा क्या ? उसे क्या दो-चार विज्ञापनों में काम मिल जाएगा ?

यह अच्छी बात है कि आप लोगों को समझा सकते हैं, लेकिन आप ग़रीबों को कुछ ज़्यादा ही समझाते हैं। क्या इसलिए कि वे समझाने के लिए ही पैदा हुए हैं ? समझाने के लिए और भी तो लोग हैं। अभी तीन दिन पहले मैंने एक पार्क में बड़े-बड़े तंबू लगे देखे, पूरे सर्कस के जैसे इंतज़ाम। वहां किसी साध्वी के प्रवचन की आवाज़ आ रही थी। दूर-दूर तक लाउडस्पीकर लगे थे। फिर एक दिन छोड़कर फिर वहां से निकला तो देखा कथा तो संपन्न हो गई थी पर सामान अभी भी पूरे पार्क में बिखरा था। कौन इसे साफ़ करेगा ? ज़ाहिर है बाबा और साध्वियां तो करेंगे नहीं, वे तो निकल गए। तो क्या उनके भक्त साफ़ करेंगे ? क्या आपको लगता है कि वे करते होंगे ? आपको मालूम ही है कि सफ़ाई आखि़रकार किसको करनी पड़ती है। 

आए दिन यहां लोग बच्चों के खेलने के लिए बनाए गए पार्कों में घास रौंदकर बाबा बुलाते हैं, वहां शादियां कराते हैं, रातोरात मंदिर बना देते हैं, मेले लगा देते हैं, कौन इन्हें परमिशन देता है ? कौन से क़ानून और नियम से यह होता है ? खुले में शौच करना इतना बुरा है तो खुले में पार्क रौंद कर लाउडस्पीकर पर चिल्लाना कैसे बेहतर है ? शौच करनेवाले अकसर ग़रीब, अनपढ़ और मजबूर लोग हैं, कथा करने और सुननेवाले अकसर संपन्न और पढ़े-लिखे लोग हैं। लेकिन इनको समझाने कोई नहीं आता, ये जो चाहते हैं करते हैं। धार्मिक हो या धर्मनिरपेक्ष, इनके मामले में कोई नहीं पड़ता।


कमज़ोर को समझाना आसान काम है, बिलकुल किसी फ़िल्म के बनावटी ऐक्शन सीन में पचास गुंडों को दीवार में गड़ढा करके उसके पार फेंक देने जैसा आसान काम, लेकिन देश के तथाकथित धार्मिक ऊंचे और पवित्र वर्ग पर उंगली उठाना मुश्क़िल काम है। यह इसलिए भी मुश्क़िल है क्योंकि यहां प्रगतिशील लोगों की जगह दहेज़बाज़ अंधविश्वासियों और कट्टरपंथियों ने हड़प रखी है।

ऐसे में स्वच्छता के नाम पर आए दिन ग़रीब लोगों को हड़काने की तथाकथित स्वच्छता को एक वीभत्स स्वच्छता ही कहा जा सकता है।

-संजय ग्रोवर
18-06-2017

Sunday 4 June 2017

बच्चे की मासूमियत और बड़ों का बचपना

‘अगर आपको भगवान के होने का सबूत चाहिए तो इस वीडियो को देखिए’
ऐसा ही कुछ फ़ेसबुक पर लगे एक वीडियो के ऊपर स्टेटस में लिखा था, नीचे वीडियो में एक छोटा बच्चा सड़क पर अपना किनारा छोड़कर डिवाइडर की तरफ़ भाग पड़ता है। गाड़ियां धीरे-धीरे चल रहीं हैं, शायद लाल बत्ती अभी-अभी हरी हुई है। बच्चा अचानक गिर पड़ता है या लेट जाता है। एक कार उसके ऊपर से आर-पार निकल जाती है। नीचे बच्चा सुरक्षित है। वीडियो बनाने या लगानेवाले के अनुसार यह भगवान के होने का सबूत है। धार्मिक लोगों के मुख से इस तरह की घटनाएं और उनपर इस तरह के उनके रिएक्शन मैंने अकसर देखे-सुने हैं, ज़रुर आपने भी सुने होंगे।

तथाकथित धार्मिकों के अनुसार तो जो भी होता है, भगवान की मर्ज़ी से होता है। तो फिर जब भगवान ने उसे बचाना ही था तो पहले उसे भगाया क्यों ? भगवान क्या बच्चे के साथ सांप-सीढ़ी खेल रहा था ? यह तथाकथित भगवान तो बच्चों का माईबाप है। कोई मां-बाप पने बच्चों के साथ इस तरह टाइमपास करते हैं क्या ?

यह बच्चा बच गया तो यह भगवान के होने का सबूत है। और जो बच्चे मर जाते हैं वो किस बात का सबूत है ? ज़ाहिर है कि वो फिर भगवान के न होने का सबूत है। और ध्यान रहे कि सड़को-फुटपाथों पर, घरों-अस्पतालों में बहुत-सारे बच्चे मरते हैं। इसका मतलब है कि न होने का सबूत बहुत बड़ा है।

आगे ज़रा कल्पना कीजिए कि कोई बच्चा या व्यक्ति किसी दुर्घटना में अपना नीचे का हिस्सा तुड़ा बैठे और ऊपर-ऊपर से बच जाए तो यह किस बात का सबूत होगा ? कि भगवान आधा है और आधा नहीं है ? आधा टूटा है, आधा साबुत है ?   

इससे ज़रा और आगे सोचते हैं-यह बच्चा या व्यक्ति आज तो बच गया इसलिए आज भगवान भी बच गया लेकिन आगे की क्या गारंटी है ? क्या आगे इसके साथ कोई दुर्घटना नहीं होगी ? क्या यह अमर हो गया ? दुर्घटना ना भी हो तो स्वाभाविक मौत तो सभी मरते हैं। फिर वो किस बात का सबूत होगा ? कि भगवान कभी-कभार छोटी-मोटी दुर्घटना में/से तो बच या बचा सकता है मगर उसके आगे उसके भी बस का कुछ नहीं है।

और अगर लोगों के मरने से ही भगवान के होने, न होने का फ़ैसला होना है तो आए दिन हज़ारों लोग मरते हैं। फिर तो समझिए कि भगवान भी एक-एक दिन में कई-कई बार मरता है। आए दिन होनेवाली लाखों घटनाओं में से एक घटना आपने उठा ली, वह भी ऐसी घटना जो सालों में एकाध बार होती है, और उसे भगवान के होने का सबूत बता दिया। बाक़ी लाखों घटनाएं-बलात्कार, चोरी, बेईमानी, भ्रष्टाचार, तकनीक का दुरुपयोग, दुर्घटनाएं, कुपोषण से होनेवाली बच्चों की मौतें.....उनके बारे में क्या ख़्याल है ? वो किसकी कारिस्तानी है ?

आप यह भी बताएं कि इतना अहंकार आपमें आया कहां से कि भगवान के होने के सबूत आप देते फिरते हैं। भगवान क्या आपसे कमज़ोर है ? वह अपने होने के सबूत ख़ुद क्यों नहीं देता ?

सबसे मज़े की बात तो यह है कि जब हम आपसे कहते हैं कि अपने पिताजी से मिलवाओ तो आप सीधा ही मिलवा देते हो लेकिन इतने बड़े (आप ही के हिसाब से) सर्वशक्तिमान, सर्वविद्यमान भगवान की बात चलती है तो आप सबूत दिखाना शुरु कर देते हो !?

अरे किसी दिन सीधे ही मिलवा दो। सारा झंझट ही ख़त्म हो जाएगा।

-संजय ग्रोवर
04-06-2017

Thursday 1 June 2017

क्या मोर को यह मालूम है !

व्यंग्य

क्या मोर को यह बात मालूम है कि वह सैक्स नहीं करता इसलिए राष्ट्रीय पक्षी है ? या वह राष्ट्रीय पक्षी है इसलिए सैक्स नहीं करता या कर सकता ? क्या पता पहले करता हो मगर बाद में राष्ट्रीय होने के चक्कर में छोड़ दिया हो !? पदों-पुरस्कारों-उपाधियों आदि के चक्कर में लोग क्या-क्या नहीं छोड़ देते ? लोग तो जल्दी-जल्दी मशहूर होने के  चक्कर में अजब-ग़ज़ब बयान देने के लिए बुद्धि तक छोड़ देते हैं। फिर मोर तो पढ़ा-लिखा भी नहीं है, इंसान भी नहीं है। कपड़े-वपड़े तो उसने पहले ही छोड़ रखे हैं, मगर सैक्स नहीं करता! क्यों नहीं करता! क्या किसी न्यायप्रेमी ने ऑर्डर निकाला है ? मोर को डर क्या है !? बाक़ी सब पशु-पक्षी तो करते हैं, पशु-पक्षी तो क्या, मैंने तो सुना है आदमी भी करता है!

लेकिन शर्मा जी ने यह पता कैसे लगाया होगा कि मोर सैक्स नहीं करता ? क्या मोर ने उन्हें बताया ? मोरों से उनका संवाद कबसे चल रहा है, बताना चाहिए, देश को फ़ायदा होगा। देश को पता चलेगा कि जिन भाषाओं के लिए हम लड़-भिड़ रहे हैं, उनके अलावा भी मर-मिटने के लिए कई नई भाषाएं पैदा हो चुकीं हैं। या फिर शर्मा जी ने दो-चार महीने पेड़ों के बीच जंगल में जाकर पता लगाया होगा जैसे डिस्कवरी चैनल या एनीमल प्लैनेट वाले कई महीने पेड़ों पर लटक कर सांप के बच्चे होने या शेर के गाय वगैरह मारने के वीडियो बना लाते हैं। शेर राष्ट्रीय पशु है मगर उसे नहीं मालूम कि किसको मारना है किसको छोड़ना है। क्या मोर को मालूम होगा कि उसे सैक्स करना है या नहीं करना ? बहरहाल, मोर सैक्स नहीं करता, इसका कोई वीडियो या अन्य कोई सबूत हो तो देश को दिखाना चाहिए, देश देखना चाहता है।

हमारे घर के पीछे एक लंबा-चौड़ा, पेड़-पौधों से भरा, दाल मिल था जहां मोर अकसर आ जाते थे। कई बार हमारी छत पर पंख भी छोड़ जाते थे। पंख सुंदर होते थे, हम रख लेते थे। लेकिन इस सबके बावज़ूद मोरों की जनसंख्या मुझे इतनी ज़्यादा कभी नहीं लगी कि यह ख़्याल भी आए कि इनके बच्चे किसी करामात से पैदा हो जाते होंगे। हां, मक्खी, मच्छर, तिलचट्टे, चींटी, आदमी आदि के बारे में यह बात कही जाए तो फिर भी समझ में आती है क्योंकि इन सब की ही जनसंख्या इतनी तेज़ी से बढ़ती है कि लगता है बढ़ने के लिए इन्हें कुछ करना ही नहीं पड़ता, बिना सोचे-समझे पड़े-पड़े बढ़ते रहते हैं।


मेरे माथे और सिर के बीच में कोई छेद नहीं था इसलिए सिर पर मोरपंख लगाने का आयडिया मुझे नहीं आया वरना बचपने में लगा भी सकता था। लेकिन कृष्ण नाम का एक ऐसा पौराणिक शख़्स सुनने में आता है जो अपने मुकुट में मोरपंख धारण करता था। यह शख़्स मोरपंख मोर से पूछकर लाता होगा इसपर विश्वास करना ज़रा मुश्क़िल है क्योंकि इस चरित्र से संबंधित प्रचलित कहानियों में बताया गया है कि पहले यह मक्खन चुराता रहा बाद में औरतों के कपड़े चुराने लगा। इस शख़्स की कहानियों में सोलह हज़ार रानियां/पत्नियां थीं। उस दिन मैं हिसाब लगाने बैठा कि सब पत्नियों से एक-एक दिन भी मिला जाए तो कितना वक़्त चाहिए ? मैंने सोलह हज़ार में तीन सौ पैंसठ का भाग दे दिया। उत्तर आया लगभग चौवालीस साल। इससे पहले पंद्रह-सोलह साल बच्चे को जवान होते-होते तक संभलने के लिए चाहिए, तो हो गए लगभग साठ साल। फिर जमुना के तट पर गोपियां अलग से आतीं थीं। 15-20 साल उनके लिए भी चाहिए। इसके अलावा दोस्तों-रिश्तेदारों को आपस में लड़वाना था, महाभारत कराना था, 18 दिन उसके लिए भी चाहिए थे। कुछ काम न करते हुए भी यह आदमी कितना कामकाजी रहा होगा। अब पता लगा है कि यह आदमी गोपियों के बीच में रोता था। हमने तो सुना है कि बांसुरी से उनका मन बहलाता था। रोता था तो फिर हो सकता है जमुना उसके आंसुओं से ही पैदा हुई हो। कृष्ण के बच्चे कितने थे इसकी जानकारी मुझे नहीं है। एक हाथ में सुदर्शन चक्र/चक्कर, दूसरे में बांसुरी, तीसरे, आंखों से रोना........धुंधलाहट में काफ़ी बैलेंस बनाना पड़ता होगा। फिर कैलेंडर में मैंने देखा कि एक पैर पर खड़े होना........करामात जैसी बात है भले इससे होता कुछ भी न हो। 

हम लोगों को ऐसे चमत्कार काफ़ी पसंद हैं जो बेवजह, बेमतलब, बेनतीजा ही होते रहते हैं। 


-संजय ग्रोवर
01-06-2017


Thursday 20 April 2017

कौन अल्ला! कौन ईश्वर! किसने है देखा कभी

ग़ज़ल

दौर कुछ ऐसा चला है धर्म की अभिव्यक्ति का
एकता ने खून पी डाला अकेले व्यक्ति का

लूट, दंगे, अंधश्रद्धा, आपसी रिश्तों में फूट
कौन सा चेहरा है बाक़ी अब तुम्हारी भक्ति का

कौन अल्ला! कौन ईश्वर! किसने है देखा कभी
भीतरी चेहरा तो ढूंढो इस अजब आसक्ति का

आदमी बिलकुल अकेला, फिर भी ज़िंदा बाजुनून
से बेहतर और क्या परिचय मिलेगा शक्ति का

आसमां का ख़्वाब देकर कुंए में बिठला दिया
वाह क्या तुमने दिखाया रास्ता ये मुक्ति का

पत्थरों की आड़ में इतने भी मत पत्थर बनो
सच नही तो काम छोड़ो बेतुकी पुनरुक्ति का

सुनने में अच्छी लगे पर काम कुछ आती न हो
खुद बताओ यार फिर हम क्या करें उस उक्ति का

पुनरुक्ति = repetition


-संजय ग्रोवर

Monday 3 April 2017

आर्शीवाद के अंडे

व्यंग्य

अपने देश में ऐसी चीज़ों को बहुत महत्व दिया जाता है जो कहीं दिखाई ही नहीं पड़तीं, पता ही नहीं चलता होतीं भी हैं या होती ही नहीं हैं। हम लोग कुछ पता करने की कोशिश भी नहीं करते। कई बार लगता है कि सिर्फ़ टीवी चैनल ही नहीं बल्कि आम लोग भी टीआरपी देखकर अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले लेते हैं। आपने कई बार विजेताओं/सफ़ल लोगों को यह कहते देखा या सुना होगा कि मैं आज जो कुछ भी हूं फ़लाने के आर्शीवाद की वजह से हूं, यह पुरस्कार/ट्रॉफ़ी/मेडल मुझे ढिकानों की दुआओं की वजह से मिला है आदि-आदि। मैं सोचता हूं कि जो बेचारे दूसरे-तीसरे नंबर पर आए हैं उनके शुभचिंतकों ने आर्शीवाद कुछ कम दिया था क्या !? और जो हार गए उनके घरवालों ने क्या श्राप देकर भेजा था !? या उनका आर्शीवाद नक़ली था!? उसमें मिलावट थी!? वे क्यों हार गए ? किसी भी क्षेत्र या प्रतियोगिता में जीतनेवाले तो दो-चार ही होते हैं, हारनेवाले कई बार सैकड़ों-हज़ारों में होते हैं। इससे तो लगता है कि आर्शीवाद इत्यादि जीतने के काम कम और हारने में काम ज़्यादा आता है।

मैं तो सोचता हूं अगर आर्शीवाद और दुआओं में इतनी शक्ति है तो गुरुओं/कोच/संबंधित अधिकारियों को कहना चाहिए कि जो लोग बिना आर्शीवाद के आए हैं वे लोग नेट-प्रैक्टिस/रियाज़/अभ्यास करें और जो आर्शीवाद साथ लाए हैं उन्हें डायरेक्ट ऐंट्री दी जाती है। क्योंकि असली काम तो आर्शीवाद से ही होता है, बाक़ी चीज़े तो टाइमपास ही हैं। फ़ालतू का झंझट ख़त्म ही करो न। जिनको आर्शीवाद वगैरह पर कुछ डाउट वगैरह है उनके भी मुंह वगैरह अपनेआप बंद हो जाएंगे जब वो देखेंगे कि लोग बिना कुछ किए ही सिर्फ़ आर्शीवाद के बल पर ईनाम और सफ़लता वगैरह ले-लेकर जा रहे हैं। 

कई लोग गंभीर बीमारी या ऐक्सीडेंट के बाद जब ठीक हो जाते हैं तो डॉक्टर या विज्ञान को परे फेंककर कहते हैं कि मैं फलां जी के आर्शीवाद और ढिकां जी की दुआओं और भगवान की मर्ज़ी से ठीक हो गया हूं। इनसे पूछना चाहिए कि जब तुम्हारी टांग टूटी थी तो वो किसके आर्शीवाद से टूटी थी ? कैंसर किसकी दुआओं से हुआ था ? अटैक किसकी मर्ज़ी से आया था ? ज़रा उसके लिए भी तो फ़लां-ढिकां के दुआ/आर्शीवाद और भगवान साहब की मर्ज़ी को क्रेडिट दे दो। मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू!?

एक दफ़ा जब मैं घर बदलने जा रहा था तो एक प्रगतिशील परिचित ने हिदायत दी कि वहां पर पड़ोसियों से पटाकर रखना। मैंने सोचा कि पड़ोसी क्या कोई गुंडे वगैरह होते हैं जो सुबह-शाम उनकी शान में आदाब बजाना ज़रुरी है!? मैंने क्या कोई उल्टे-सीधे काम करने हैं जो इससे-उससे पटाके रखूं!? अगर ठीक काम करने हैं तो फिर डरना क्यों ? अगर ग़लत काम करुं तो सज़ा मिलनी ही चाहिए, चाहे जितना भी पटाके रखूं। पटाके रखने से क्या ग़लत काम सही हो जाएंगे!? अगर हर किसीसे पटाकर ही रखनी पड़ेगी तो फिर इतने सारे आर्शीवाद और दुआएं क्या फ़ालतू में जमा करके रखे थे!? फिर लोकतंत्र और उदारता क्या त्यौहार मनाने भर के लिए हैं !? मेरे पास वक़्त हो, काम जायज़ हो, मेरे बस का हो, मेरा मूड हो तो रास्ता चलते आदमी का भी कर सकता हूं ; ग़लत काम हो तो पड़ोसी का भी क्यों करुं!? दरअसल जो बात सिखाने की है वो यह है कि पड़ोसी से ज़बरदस्ती मत करो, पड़ोसी क्या किसीसे भी ज़बरदस्ती मत करो। अपनी उंगलियों पर थोड़ा नियंत्रण रखो।   

फिर यही लोग छाती भी पीटते हैं कि रास्तों पर कोई किसीकी मदद नहीं करता! कैसे करेगा भैया ? बीच में तुमने ही तो इतनी शर्तें लागू कर रखीं हैं-कि पड़ोसी से पटाके रखो, बुर्ज़ूगों का आर्शीवाद लो, दोस्ती पहले निभाओ.......। अब रास्ता चलनेवाला हर आदमी पड़ोसी, दोस्त, रिश्तेदार तो होता नहीं ; इसलिए लोग दूसरों को पिटता-मरता छोड़ भाग जाते हैं। पहले दर्द भी तुम्ही दे देते हो, फिर दवाएं भी अजीब-अजीब लेकर आ जाते हो!

बाक़ी दुआओं के महत्व पर आपने पुराना और प्रसिद्व गाना सुन ही रखा होगा कि ‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले...’ । हर शादी में सुबह-सुबह पौ-फटे यह गाना बजता था। आजकल कौन-सा गाना फटता है, पता नहीं। कई लोग रोने लगते थे। तमाम उलाईयों-रुलाईयों बावजूद लोगों को यह आयडिया नहीं आता था कि ऐसे रीति-रिवाज क्यों न बंद कर दें जिनकी वजह से सुबह-सवेरे जुकाम नाक में लटक आता है और आदमी ख़ुद भी ज़िंदगी-भर लटका ही रहता है। क्योंकि कोई भारतीय ख़ाली दुआएं लेकर नहीं टलता, अच्छा-ख़ासा दहेज भी हड़प जाता है। उसके बाद भी आए दिन क़िस्तें देनी होतीं हैं, देती ही रहनी होती हैं। उस सबके बाद दुआएं ले जानेवाली को कौन-सा सुखी संसार मिलता है, यह इसीसे पता चलता है कि आज तक वही कॉमेडी की केंद्रीय पात्रा बनी हुई है और दहेज का बाल तक बांका नहीं हुआ।

और ले लो आर्शीवाद। बटोर ले जाओ दुआएं। सुखी संसार रसोई की काली कोठरी में इंतज़ार कर रहा है।

-संजय ग्रोवर
03-04-2017

Wednesday 22 March 2017

अपनी जान के दुश्मन

बचपन में कभी-कभी मंदिर चला जाता था। कहना चाहिए कि मंदिर तक चला जाता था। अकेला नास्तिक था, करता भी क्या !? रास्ते-भर हंसी उड़ाता जाता, दोस्त भी रास्ते-भर हंसते जाते और मंदिर जाकर सीरियस हो जाते। मैं कहता जाओ तुम लोग दर्शन करके आओ मैं तुम्हारी चप्पलें देखता हूं। उन्हें भी मालूम था और मुझे तो मालूम ही था कि भगवान इन्हें जो भी देगा, पता नहीं कब देगा, पर इनकी चप्पलें नहीं बचा सकता। चप्पलें भगवान-भरोसे नहीं छोड़ी जा सकतीं। सही बात तो यह है कि मंदिर तक भगवान भरोसे नहीं छोड़े जा सकते। मंदिरों को बचाने के लिए कई बार क़ानून का सहारा लिया जाता है, उन्हें बनाया चाहे जैसे भी गया हो।

अंदर से मंदिर तो दो-चार बार ही देखे हैं, हां रास्ते में आ जाएं तो कभी-कभी उड़ती-सी नज़र मार लेता हूं। कई मंदिर बहुत-ही छोटी-सी ज़मीन घेर कर बनाए गए होते हैं। उनमें पुजारी, आधे अंदर आधे बाहर, दरवाज़े पर ही बैठे रहते हैं। मुझे उनसे सहानुभूति होती है। मैं सोचता हूं इनकी भी क्या ज़िंदगी है ? पूरे दिन दरवाज़े पर बैठे देखते रहो, कोई आए, प्रसाद लाए तो हम उठकर उसे भगवान को चढ़ाएं। चढ़ाकर लिफ़ाफ़ा वापिस करें और फिर वहीं बैठ जाएं। अगले भक्त का इंतज़ार करो। न आए तो बैठे रहो। आए तो फिर लिफ़ाफ़ा लो, फिर चढ़ाओ।

मुझे नहीं पता मंदिर के अंदर क्या-क्या बना रहता है ? टॉयलेट, बाथरुम, डाइनिंग रुम, टीवी, वीडियो, किचेन...आदि-आदि होते हैं कि नहीं। जब भक्त नहीं आते तो पुजारी लोग क्या करते होंगे, कैसे वक़्त काटते होंगे ? एक ही जगह, एक ही पोज़ में कोई कब तक बैठ सकता है!? मैं तो पिक्चर-हॉल में भी कई बार करवट बदलता हूं। कई मंदिर तो इतने छोटे-छोटे से रहते हैं, कि उनमें करवट क्या पॉश्चर बदलने में दिक़्क़त आती होगी। हां, चेहरे के भाव ज़रुर बदले जा सकते हैं। या बदल रहे हों तो छुपाने की कोशिश की जा सकती है।

मैं कई बार बाज़ार जाता हूं, मंदिर रास्ते में पड़ जाए तो मन करता है पुजारी को उठाकर साथ ले चलूं कि भैय्या आओ ज़रा तुम भी हवा खा लो। थोड़ा घूम-फिर लो। गोलगप्पे वगैरह खा लो। क्या मजबूरी है जो इस तरह एक ही जगह बैठे रहते हो ? बोर नहीं होते ? ख़ालीपन महसूस नहीं होता ? दुनिया कहां से कहां जा रही है, तुम वहीं के वहीं बैठे हो !? समस्या क्या है!? मुझे कोई सोना दे, चांदी दे, पैसे दे, कुछ भी क्यों न दे दे, मैं तो आधे घंटे में ही बोरियत से मर जाऊं।

आखि़र पुजारी के लिए आकर्षण क्या है ? कुछ लोग पैर छूते हैं, कुछ लोग आर्शीवाद लेते हैं, कुछ लोग समझते हैं कि ये श्रेष्ठ हैं, इनमें बड़ी शक्तियां हैं! मेरी समझ से बाहर है ऐसी हालत में रहना पड़े तो श्रेष्ठता और शक्ति का फ़ायदा क्या है, अर्थ क्या है ? बिना शक्ति और श्रेष्ठता वाले लोग भी तो ऐसे ही रहते हैं, रह लेते हैं। इनमें फ़र्क़ क्या है ?

पता लगा है कि आज भी कई लोग चाहते हैं कि मंदिर-मस्ज़िद-चर्च-गुरुद्वारे ज़्यादा से ज़्यादा बनाए जाएं। मैं सोचता हूं यह भी करके देखना चाहिए। समझता हूं कि अगर दुनिया को भगवान/ख़ुदा/गॉड वगैरह ही चलाते हैं, और मंदिरों, मस्ज़िदों से ही चलाते हैं तो बाक़ी सारी चीज़ें बंद करके हमें इसी काम में लग जाना चाहिए। दुकान, मकान, घर, दफ़्तर, स्टेडियम, कार्यालय, वाचनालय, पुस्तकालय, शौचालय, विद्यालय....आदि सब छोड़कर और ज़रुरत पड़े तो तोड़कर, सब कहीं मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे आदि बना देने चाहिए। जो करना है अब कर ही डालो, कई सदियां तो निकल गई, मंदिर-मस्जिद तक पूरे नहीं बन सके!! तुमसे नहीं बन पड़ता तो भगवान/ख़ुदा/गॉड से कहो कि ख़ुद ही बना ले, तुम्हारे चक्कर में कब तक बैठा रहेगा। या उससे भी नहीं बन पा रहे!? अगर उससे इतना भी नहीं हो पा रहा तो आगे का काम कैसे करेगा !? 

बहरहाल, ये सब बना लेने के बाद इनके सामने बैठकर भगवान की आज्ञा का इंतज़ार करना चाहिए कि वो पहले कौन-सा पत्ता हिलाना चाहता है। उसकी मर्ज़ी होगी तो हम हिलेंगे वरना पड़े रहेंगे। वो नहीं चाहेगा तो हम चाहें तो भी क्या कर पाएंगे !? 

मुझे उम्मीद है कि कल सुबह जब मैं सोकर उठूंगा तो देश मंदिरों-मस्ज़िदो से भरा मिलेगा, देश में या तो भक्त बचेंगे या पुजारी। कोई अपनी बुद्धि नहीं लगाएगा, बस सब कठपुतलियों की तरह भगवान की तरफ़ से डोरियां हिलाए जाने का इंतज़ार करेंगे। अगर डोरी खिंचीं तो लोग भी हिलेंगे वरना पड़े रहेंगे।

आईए, हम सब पड़ जाएं, अभी और कई सदियों तक पड़े रहें।


-संजय ग्रोवर
22-03-2017



Sunday 19 February 2017

इतने फूल कहां से लाओगे, प्यारे बच्चों!

प्यारे बच्चो,

अंकल को फूल ज़रुर दो लेकिन याद रखो कि तुम्हारे पापा भी किसीके अंकल हैं। और अंकल भी किसीके पापा हैं। अपने पापा पर भी नज़र रखो, कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन कोई तुम्हारा दोस्त, कोई बच्चा तुम्हारे पापा को पूरा बग़ीचा दे जाए। ज़रा अपना घर देखो, क्या यह स्वीकृत नक़्शे के हिसाब से ही बना है ? इसकी बालकनी, इसके कमरे ज़रा ध्यान से देखो। अपने पानी-बिजली के मीटर देखो, क्या यह ठीक से चलते हैं ? उससे भी पहले यह देखो कि क्या यह चलते भी हैं ? उससे भी पहले ये देखो कि क्या ये लगे भी हैं ? अगर तुम्हारा ऐडमीशन किसी जुगाड़ या डोनेशन से हुआ है तो अपनेआप को भी सड़क पर फूल भेंट करो।

यह भी देखो कि तुम्हे फूल देना किसने सिखाया ? उसकी ख़ुदकी ज़िंदग़ी में कितनी ईमानदारी है ? कहीं कोई अपनी राजनीति के लिए तुम्हारा इस्तेमाल तो नहीं कर रहा ? अगर तुम्हे लगता है कि ऐसा हो रहा है तो सबसे पहले उन अंकल को फूल दो जो अपनी राजनीति चमकाने के लिए तुम्हे मिस्यूज़ कर रहे हैं। ध्यान रहे कि राजनीति यहां सिर्फ़ राजनीति में नहीं होती, घर-घर में होती है। अगर अंदर तुम अपने पापा की बेईमानियां छुपा लेते हो और बाहर अंकलों को फूल देते हो तो तुम भी राजनीति कर रहे हो। राजनीति इसीको कहते हैं मेरे प्यारे बच्चो।


सभी बच्चे अपने मां-बाप को महान समझते हैं। तुम जिन अंकल को फूल दे रहे हो उनके बच्चे भी अपने पापा को महान समझते आए हैं। तुम्हारे फूल से वो अंकल चोर से दिखने लगेंगे। तब उनके बच्चों को कैसा लगेगा ? महान लोग ऐसे होते हैं ? वैसे तुम्हे सोचना चाहिए कि सभी मां-बाप महान होते हैं तो फिर चोरी कौन करता है, भ्रष्टाचार कौन करता है, बलात्कार कौन करता है, टैक्स कौन चुराता है, लूटमार कौन करता है, मकान में से दुकान कौन निकालता है, मकान में नाजायज़ कमरे और बालकनी कौन बनाता है ? अगर मां-बाप यह नहीं करते तो क्या बच्चे करते हैं ? फिर तो बात तुम पर आ जाएगी, प्यारे बच्चो!


कहीं तुम किसीको फूल इसलिए तो नहीं दे रहे कि किसी टीवी वाले अंकल ने तुमसे कहा है कि अगर फूल दो तो तुम्हें टीवी पर दिखाया जाएगा ? इसका मतलब है कि तुम बस थोड़ी देर के लिए अच्छा और साहसी दिखने का अभिनय कर रहे हो। यह राजनीति भी है, पाखंड भी है, मौक़ापरस्ती भी है और बेईमानी भी है। इसके लिए ख़ुदको भी फूल दो और टीवी वाले अंकल-आंटियों को भी फूल दो। वैसे इतने फूल तुम लाओगे कहां से, प्यारे बच्चो !? इस तरह तो देश के सारे बाग़-बग़ीचे उजड़ जाएंगे।


मैं तो कहता हूं कि फूलों का मिस्यूज़ किसी भी हालत में नहीं होना चाहिए। और तुम तो ख़ुद ही फूल जैसे हो। 


ज़रुरी हुआ तो फिर मिलेंगे-


तुम्हारा दोस्त,

-संजय ग्रोवर
20-02-2017

Tuesday 14 February 2017

दुआ का मतलब

‘मैं तुम्हारे लिया दुआ करता हूं’ का मतलब है-

1. कोई चमत्कार हो जाए और तुम्हारी सब समस्याएं ख़त्म हो जाएं...

2. दुआ दरअसल एक बहुत बड़ा काम है जो कि मैं तुम्हारे लिए करता हूं.....

3. मेरी सामाजिकता/ऊंगली की वजह से ही तो तुम पर मुसीबत/
बीमारी 
 आई है इसलिए मैं तुम्हारे लिए सिर्फ़ दुआ करता हूं, अगर कोई वास्तविेक काम किया तो कहीं तुम ठीक न हो जाओ।

4. दुआ मालिश/मक्खनबाज़ी/चमचागिरी/पॉलिश/भक्ति/फ़ैनियत का ही पर्यायवाची/समानार्थी शब्द है और मुझे बस यही आता है।

5. दुआ मेरे नर्सिंग होम का नाम है और मैं तुम्हे उसमें मुफ़्त में भर्ती करता हूं।

6. धरती पर तो अब कोई ढंग का आदमी(अगर कभी था) बचा नहीं इसलिए मैं आसमान की तरफ़ टकटकी लगाकर देखता हूं, शायद वहां से ही तुम्हारी समस्या का कोई हल टपक पड़े।

7. दरअसल मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं करना चाहता मगर अब सामने पड़ ही गए हो, फंस ही गया हूं, इमेज अच्छी बनाए रखनी है, सबसे पटाके रखनी है, दुनियादारी निभानी है तो कुछ तो बोलना ही था......

8. इसके अलावा कुछ और.....

-संजय ग्रोवर
14-02-2017