Sunday 28 February 2016

सौ बार क्या ?

अकसर लोग कहते हैं कि झूठ को सौ बार बोला जाए तो सच लगने लगता है।

लेकिन क्या यह सिर्फ़ बोलने वाले पर निर्भर है ?

क़तई नहीं। 

यह सुननेवाले पर भी उतना ही निर्भर है। सुननेवाला या तो सही स्रोतों से जानने की कोशिश नहीं करता या वह बोलनेवाले पर अंधा विश्वास करता है या उसमें ख़ुदमें आत्मविश्वास की कमी होती है या वह भीड़/संख्या से प्रभावित होने का आदी होता है या वह ख़ुद भी मिलते-जुलते ग़लत संस्कारों, मान्यताओं, शिक्षाओं के बीच पला-बढ़ा होता है।

ज़रुरी नहीं कि झूठ को सौ बार बोला जाए, इससे ज़्यादा असरमंद तरीक़ा तो मैंने यह देखा है कि दो-चार, दस-बीस, सौ-पचास लोग मिलकर झूठ बोलते हैं और एक-दो बार में काम हो जाता है।

झूठ को सौ बार बोलने की आलोचना करनेवाले लोग ख़ुद सच को सौ दफ़ा बोलने की कोशिश अपनी पूरी ज़िंदगी में कितनी बार करते हैं ?

अकसर यह होता है कि ज़्यादा शातिर झूठ को हम सच समझ लेते हैं और कम शातिर को झूठ।

-संजय ग्रोवर
28-02-2016


Friday 26 February 2016

सुनो पीके

तुम कहते हो-

एक ईश्वर वह है जिसने हमें बनाया।
एक ईश्वर वह है जिसे हमने बनाया।

इसका क्या मतलब हुआ ?


हमें बनाया मतलब सिर्फ़ मुझे या आपको !?


जिसने सारी दुनिया बनाई।


जिसने सारी दुनिया बनाई, उसकी दुनिया में आगे जो भी बनेगा क्या उसकी सहमति के, उसके चाहे बिना बनेगा !?


चारों तरफ़, तरह-तरह के भक्त, साकार और निराकार, धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष, क़िताबें और अख़बार, टीवी और फ़िल्में, यही तो बांच रहे हैं कि ‘उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं होता’।


जब उसकी मर्ज़ी के बिना हम नहीं हो सकते तो उसकी मर्ज़ी के बिना वह दूसरा ईश्वर कैसे हो सकता है जिसे हमने बनाया ?


बात बड़ी साफ़ है।


या तो दोनों ईश्वर झूठे हैं या दोनों सच्चे हैं। या तो दोनों हमने बनाए हैं या दोनों ख़ुद बने हैं।


या तो दोनों ख़ुद बने हैं या दोनों किसी चालू आदमी की बदमाशी हैं।


या तो दोनों हैं या कोई भी नहीं है। 



अब क्या कहते हो ?


-संजय ग्रोवर
27-02-2016


Wednesday 24 February 2016

भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस-2

(भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस-1)

अभी मैं इस लेख का अगला हिस्सा लिखने का मन बना ही रहा था कि ‘पाखंड वर्सेस पाखंड’ का नया उदाहरण सामने आ गया। किसीने आरोप लगाया कि जेएनयू में प्रतिदिन इतनी मात्रा में कंडोम, इतने ये, उतने वो आदि-आदि पाए जाते हैं। इसपर दूसरा पक्ष लगातार इस बात पर हंस रहा है कि देखो, अब कंडोम गिने जा रहे हैं.....


अगर कोई स्पष्टवादी, बेबाक़ और पारदर्शी सोचवाला समाज/गुट/व्यक्ति इसपर हंसता तो बात समझ में आती मगर क्या जेएनयू के लोगों की स्थिति वाक़ई ऐसी है कि वे इसपर हंस सकें ? वे उन कंडोमों की ‘उपयोगिता’, इस्तेमाल या मौजूदगी के बारे में कोई स्पष्ट बात नहीं बता रहे। इतना ही नहीं वे तो यह भी कह रहे हैं कि ऐसे आरोपों के बाद उन लड़कियों के घरवाले क्या सोचेंगे जो यहां पढ़ने आतीं हैं ?


सोचिए कि इसका क्या मतलब निकलता है ?


यानि कि वे कहना चाह रहे हैं कि वह सब यहां नहीं होता जो उन लड़कियों के घर वाले सोच बैठेंगे ? अगर नहीं होता तो आप कंडोम गिनने पर हंस क्यों रहे हैं ? फिर तो यह जानना बनता कि यहां कंडोम आते कहां से हैं ? क्या शहर के दूसरे लोग अपने कंडोम यहां फेंक जाते हैं ? क्या यहां कोई फ़ैक्टरी लगी है ? क्या यहां कंडोम का कोई पेड़ लगा है जिससे पतझर में कंडोम झर-झरके गिरते हैं ?


अगर यहां यह सब नहीं होता तो आप उनपर हंस किस बात पर रहे हैं ? आप तो ऐसे हंस रहे हैं जैसे कि आप प्रगतिशील हों और वे कट्टरपंथी हों !? जबकि आप लड़कियों के घरवालों के सामने एक परंपरावादी इमेज भी बनाए रखना चाहते हैं। यह तो सौ प्रतिशत पाखंड हुआ। अगर आपमें यह कहने का साहस नहीं है कि कंडोम का यहां पर क्या इस्तेमाल होता है तो कृपा करके अपने को बेबाक़, प्रगतिशील, साहसी वग़ैरह कहना बंद करें। आप और आर एस एस एस एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।


खिड़की से घुसकर, अलमारी में छुपकर, अंधेरे में घुसकर, खाट के नीचे बैठकर संबंध बनाना कोई आधुनिकता नहीं है ; यह पाखंडी, कायर और मौक़ापरस्त लोगों का पुराना क़रतब है।


और अगर आपमें स्पष्ट और पारदर्शी ज़िंदगी जीने की हिम्मत है तो आपको यह चिंता क्यों लगी है कि लड़कियों के घरवाले क्या सोचेंगे ? क्या यहां पढ़नेवाली लड़कियों में वह हिम्मत नहीं है कि अपने घरवालों को साफ़-साफ़ बता सकें !? तो फिर इसमें और दूसरे विश्वविद्यालयों में फ़र्क़ क्या हुआ ? छुपा-छुपी के क़िस्से किस विश्वविद्यालय में नहीं चलते ?

यानि कि पकड़े गए तो प्रगतिशील वरना राष्ट्रप्रेमी और परंपरावादी ! 

क्या आपने कभी सोचा है कि आप जैसे कृत्रिम प्रगतिशीलों के बनाए समाज में उन लोगों के लिए कितनी समस्याएं और तक़लीफ़ें खड़ी हो जातीं हैं जो सचमुच अपने हर रिश्ते को साफ़गोई और ईमानदारी से जीना चाहते हैं ?

जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि यहां के ‘प्रगतिशीलों’ को एक भ्रम/ग़लतफ़हमी है कि वे आर एस एस एस से कुछ अलग हैं, दरअसल इनमें उन्नीस-बीस से ज़्यादा का अंतर नहीं है।


(जारी)

-संजय ग्रोवर
24-02-2016



 

Friday 12 February 2016

नास्तिकता पर गोलमोल बातें


4.17 मिनट का यह वीडियो है। फ़ेसबुक पर कुछ लोगों ने इस सलाह के साथ लगाया कि इसे देखकर आपकी आंखें खुल जाएंगी। मैंने, देखा तो मुझे इसमें कोई ख़ास या नई बात नज़र नहीं आई। मैंने पूरा वीडियो ढूंढने की कोशिश की, क़रीब आधा घंटा लगाया, नहीं मिला। एक अन्य वीडियो मिला जो तकरीबन दस मिनट का था।
बहरहाल, कहीं पूरा वीडियो मिल गया और उसमें कुछ अलग निष्कर्ष निकलता दिखाई दिया तो हम दोबारा बात कर लेंगे। अभी इसीपर करते हैं।

यहां यह समझना मुश्क़िल है कि जावेद अख़्तर क्यों यह सफ़ाई दे रहे हैं कि ‘मैंने तो हमेशा कहा आयम एन अथीस्ट.....’, मगर यह स्पष्ट है कि बात पीके की चल रही है और फ़िल्म के निर्देशक राजू हिरानी भी वहीं कुर्सी डाले बैठे हैं। सोचने की बात है कि इससे पहले कब किसीको यह सफ़ाई देनी पड़ती थी कि वह नास्तिक है। यह माहौल नास्तिकता के खि़लाफ़ माना जाए कि उसके पक्ष में माना जाए !? यहां जावेद अख़्तर सहिष्णुता की बात करते हुए 1975 में बनी अपनी ‘शोले’ के उस दृश्य का हवाला दे रहे हैं कि किस तरह नायक एक मंदिर में भगवान की मूर्ति के पीछे छुपकर भगवान बनकर बोल रहा है। वे कहते हैं कि शायद आज मैं इस दृश्य को न लिखता। अब सोचने की बात यह है कि क्या ‘शोले’ अंधविश्वास के खि़लाफ़ और नास्तिकता के पक्ष में बनी कोई फ़िल्म थी !? क़तई नहीं। यह फ़िल्म बदले पर आधारित, नाटकीय दृश्यों से भरी एक साधारण फ़िल्म थी। इसे भी छोड़िए। क्या नायक इस दृश्य में अंधविश्वास हटाने की कोशिश कर रहा है ? क्या वह भगवान का न होना साबित कर रहा है ? बिलकुल भी नहीं। वह तो उसके होने के अंधविश्वास का लाभ उठा रहा है। यह लाभ उसे मिल रहा है यह इसीसे पता चलता है कि नायिका तुरंत इस पर विश्वास कर लेती है। यह दृश्य अंधविश्वास और भगवान के होने के पक्ष में है, उसके खि़लाफ़ नहीं।  इसपर कोई भक्त क्यों ऐतराज़ करेगा ? वीडियो के इस टुकड़े से तो यही समझ में आता है कि वे ग़लत उदाहरण दे रहे हैं। वे और भी फ़िल्मों का उदाहरण देते हैं जिनमें से किसीमें कोई पात्र भगवान की मूर्ति उठाकर फ़ेंक देता है। ऐसी तो बहुत फ़िल्में बनी हैं। अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘नास्तिक’, 1954 में बनी ‘नास्तिक’, सुनील दत्त अभिनीत ‘रेलवे प्लेटफॉर्म’ ऐसी ही, या ऐसे ही कुछ दृश्यों वाली फ़िल्में हैं। मुद्दे की असली बात यह है कि ऐसी किसी फ़िल्म में भगवान के अस्तित्व से इंकार नहीं किया गया। 


जावेद अख़्तर किस तरह के नास्तिक हैं यह तो वही बताएंगे, लेकिन इस तरह की जितनी फ़िल्में बनी हैं, वे भगवान के होने की पुष्टि करतीं हैं, वे किसीकी आंखें नहीं खोलती बल्कि जागते हुए लोगों को भी सुलाने की कोशिश करती लगतीं हैं। आंखें क्या वे तो खुले हुए दिमाग़ों को भी बंद कर देतीं हैं। जावेद यहां कह रहे हैं कि वे भगवान में विश्वास नहीं करते जबकि उन्हींके बराबर में बैठे राजू हिरानी कह रहे हैं कि फ़िल्म दो तरह के भगवानों के बारे में बताती है-एक, जिसे हमने बनाया है ; दूसरा, जिसने हमें बनाया है। और जैसाकि फ़िल्म में भी दिखाया गया है कि दूसरा वाला भगवान असली है। अब जावेद अख़्तर का इसपर क्या मानना है यह तो, अगर उन्होंने इसपर कुछ कहा है तो, बाक़ी वीडियो से ही पता लग सकता है। मेरी समझ में, जावेद अख़्तर की नास्तिकता(अगर वे नास्तिकता का मतलब भगवान के वजूद से इंकार करना मानते हैं) और राजू हिरानी के अंधविश्वास-विरोध का अंतर तो यहीं साफ़ हो जाता है। 


पहले तो इस देश के ज़िम्मेदार प्रगतिशीलों और अंधविश्वास-विरोधियों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उनके नास्तिकता के अर्थ क्या हैं-भगवान को न मानना या मूर्ति और कर्मकांड को न मानना। अब जिन तालिबान की मूढ़ता का हवाला देकर जावेद प्रगतिशीलता का मतलब समझाने की कोशिश कर रहे हैं, मूर्तिपूजा तो वे भी नहीं करते। इससे उनको हासिल क्या हुआ ? असली समस्या सिर्फ़ मूर्तिपूजा नहीं है, असली समस्या 
है किसी निराकार, ग़ायब भगवान/ख़ुदा/शक्ति/गॉड के होने का समर्थन या फिर इसपर चुप्पी या गोलमोल बातें।

12-02-2016

असली समस्याएं हैं इस तरह की मान्यताएं कि कोई अदृश्य शक्ति या शक्तियां इस दुनिया को चलातीं हैं जो कि इंसान से कई गुना ज़्यादा ताक़तवर हैं, इंसान की उस/उनके सामने कोई औक़ात नहीं है, वह बेबस, मजबूर और कमज़ोर है, वह उनके हाथों की कठपुतली है, उसके बस का कुछ नहीं है जब तक कि वह उन तथाकथित शक्तिओं के आगे सिर न झुकाए, उनका अहसान न माने, उन अहसानों का बदला न चुकाए, उन तथाकथित शक्तिओं के होने को बेशर्त स्वीकार न कर ले। मूर्तियां, कर्मकांड, संस्कार, कलंडर, भजन, फ़िल्में, लेख आदि तो उन तथाकथित शक्तिओं के विज्ञापन या रीमाइंडर्स की तरह हैं। ‘भगवान सर्वशक्तिमान है’, ‘वह सर्वत्रविद्यमान है’, ‘उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती’, ‘उसके आगे किसीका बस नहीं चलता’, ‘उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं होता’, ‘उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता’, ‘जाको राखे साईयां’,.....जैसे प्रचलित और आम लोगों में स्वीकृत कहावतें और मुहावरे ही बताते हैं कि समस्या मूर्ति तक सीमित नहीं है। दूरदराज़ गांवों में ओझाओं द्वारा औरतों को उल्टा लटकाकर, आग में मिर्ची झोंककर उनका तथाकथित ‘भूत’ उतारना हो या ज्योतिषी द्वारा किसीका हाथ देखकर भविष्य बताते हुए पैसा झाड़ लेना हो, इन सबकी जड़ में मूर्ति नहीं बल्कि कुछ निराकार/ग़ायब/अदृश्य शक्तिओं पर आदमी का विश्वास है। उन तथाकथित निराकार शक्तियों पर स्पष्ट बातचीत के बिना हम काला जादू, मिडिलमैन और बाबावाद का कुछ कर पायेंगे, यह एक बचकाना ख़्याल ही लगता है। कट्टरपंथिओं को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप ऐसी या वैसी, कैसी शक्तियों को मानते हैं ; उनके लिए इतना काफ़ी है कि आप किसी अमानवीय यानि मानवता से इतर/ऊपर किसी रहस्यमय शक्ति में विश्वास करते हैं। तालिबान भी किसी मूर्ति की वजह से नहीं बल्कि किसी निराकार शक्ति में विश्वास की वजह से ही सब कुछ कर रहे हैं।

जावेद 1975 और आज के फ़र्क़ की बात कर रहे हैं। मेरे पास यह नापने का कोई तरीक़ा नहीं है कि आजकल असहिष्णुता की मात्रा क्या है। लेकिन मैं कह सकता हूं कि असहिष्णुता कि जड़ सिर्फ़ वहां नहीं है, जहां तयशुदा नतीजों के साथ ढूंढी जा रही है। कर्मकांडों और अंधविश्वासों के स्पष्ट विरोधी कहे जानेवाले कबीर की लाश में से फूल 1975 से पहले ही निकाले जा चुके थे। बिना शिक्षा दिए दक्षिणा में ‘शिष्य’ एकलव्य का अंगूठा काट लेनेवाले ‘गुरु’ द्रोणाचार्य के नाम पर पुरस्कार 1975 से पहले से चल रहे हैं। बाबरी मस्ज़िद कांड और दुग्धपान कांड के वक़्त सहिष्णुता थी या असहिष्णुता, कैसे पता लगाया जाए ? ‘जय संतोषी मां’ भी 1974-75 के आसपास ही सुपरहिट हो चुकी थी।

हालांकि उस वक़्त की स्टंट और कमर्शियल फ़िल्मों को हर समझदार दर्शक एक जैसी गंभीरता से लेता होगा, लगता तो नहीं है। फिर भी बात आई है तो ठीक से कर ही लेनी चाहिए कि मूर्ति के साथ भक्तों को इस तरह बातचीत करते शायद ही किसीने देखा होगा जैसा ‘शोले’ व अन्य फ़िल्मों में होता है। वे लोग भजन वग़ैरह गाते हैं, प्रसाद इत्यादि चढ़ाते हैं पर तेज़ आवाज़ में इस तरह बातचीत....! कुछ फ़िल्मों में तथाकथित नास्तिक नायक मंदिर में जाकर भगवान की मूर्ति से लड़ता है कि ‘मैं तुझे नहीं मानता, नहीं मानूंगा.....’ आदि-आदि। नास्तिकता का यह कांसेप्ट सिरे से ग़लत है। जो भगवान के अस्तित्व में ही विश्वास नहीं करता वह उससे लड़ने क्यों जाएगा !? यह तो फ़िल्मी नास्तिकता हुई। यहां यह ज़िक्र करना ज़रुरी है कि मैं 4-5 साल से यूट्यूब पर खोज रहा हूं, मुझे असली नास्तिकता पर आज तक न तो एक भी हिंदी गीत मिला है न एक भी हिंदी फ़िल्म। मेरी खोज में कमी हो सकती है पर यह अभी जारी है।  

यह अनुमान लगाना भी अजीब लगता है कि शोले का वह दृश्य आज स्वीकृत न हो पाता। ‘पीके’ 2015 की रिलीज़ है। 2012 में ‘ओह माय गॉड’ रिलीज़ हुई थी जिसमें नास्तिक शब्द का ख़ुला इस्तेमाल है और परेश रावल मूर्तियों और बाबाओं के साथ कई बार, कई तरह की छेड़खानियां करते हैं। ‘पीकू’ जैसी फ़िल्म भी आजकल में ही रिलीज़ हुई है जिसमें एक बाप अपनी बेटी के सामने उसके सैक्स-संबंधों की चर्चा करता है। ‘तेरे बिन लादेन’ नाम की फ़िल्म का अगला भाग तैयार है। जैसे बोल्ड विषयों पर और बोल्ड संवादों के साथ आजकल फ़िल्में बन रहीं हैं, 1975 में सोचना भी मुश्क़िल रहा होगा। और मैं यह क़तई नहीं कह रहा कि इसका श्रेय किसी सरकार या विचारधारा को जाता है। मेरी सीमित समझ के अनुसार इसका श्रेय टैक्नोलॉजी को जाता है जिसने इंटरनेट, वाई-फ़ाई, स्मार्टफ़ोन, लैपटॉप जैसे माध्यम और उपकरण देकर इंसान को इंसान के क़रीब आने, नये विचार बांटने और एक-दूसरे की संस्कृतियों को जानने में मदद की है, उसकी सोच-समझ के दायरे को बड़ा कर दिया है। 

जावेद यहां यह भी कह रहे हैं कि आपको तालिबान जैसा क्यों बनना चाहिए, क्यों नहीं आप उन्हें अपने जैसा बनाएं। लेकिन भारत की तथाकथित उदारवादी या प्रगतिशील विचारधाराओं से जुड़ी संस्थाएं/पार्टियां क्यों नहीं आर एस एस/मुस्लिम लीग को अपने जैसा बना पाईं ? क्या इसलिए कि उनमें बस उतना ही अंतर है जितना कि साकार और निराकार या ग़ायब और हाज़िर में होता है ?


यानि कि न के बराबर !  

17-02-2016

-संजय ग्रोवर

(इस संदर्भ में ये लेख भी प्रासंगिक हैं- पहलादूसरा)

(‘ओह माई गॉड’ की समीक्षा और नास्तिकता पर बनी कुछ अन्य हिंदी फ़िल्मों पर बात जल्दी ही)









Sunday 7 February 2016

भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस

प्रगतिशील होने का दावा करनेवाले किसी युवा से आप पूछें कि वह कैसे कह सकता है कि वह प्रगतिशील है ; जवाब में वह कहे कि क्योंकि मेरे सामनेवाला कट्टरपंथी है इसलिए मैं प्रगतिशील हूं ; तो इस जवाब पर शायद आप हंसेंगे, हैरान होंगे या सर पीटेंगे। मगर ग़ौर से देखें तो भारत में प्रगतिशीलता के मायने लगभग यही हैं। और यहां सामनेवाला नब्बे पिच्यानवें प्रतिशत मामलों में आर एस एस एस होता है। जिस तरह आर एस एस एस को या किसी तथाकथित राष्ट्रवादी को अपना राष्ट्रप्रेम साबित करने के लिए पाक़िस्तान और मुसलमान की ज़रुरत पड़ती है ठीक उसी तरह से यहां के प्रगतिशीलों को अपनी प्रगतिशीलता बताने के लिए आर एस एस एस की ज़रुरत पड़ती है। कल्पना कीजिए कि पाक़िस्तान न हो तो आर एस एस एस क्या करेगा ? साथ ही यह भी कल्पना कीजिए कि आर एस एस एस न हो तो तथाकथित प्रगतिशील क्या करेगा ?

भारतीय बुद्धिजीविता की खोखली प्रगतिशीलता के प्राण आर एस एस एस जैसे संगठनों में ही बसते हैं। यहां के तथाकथित प्रगतिशील विद्वान आर एस एस एस की बातों को कितनी गंभीरता से लेते हैं, इसके दो ताज़ा-ताज़ा उदाहरण मुझे याद आ रहे हैं। पहला उदाहरण फ़िल्म पीके पर चले विवाद का है। आर एस एस एस ने कहा कि इसमें हिंदू धार्मिक प्रतीकों की हंसी उड़ाई गई है। भारत के तथाकथित प्रगतिशील तुरंत उसके साथ बहस में उलझ गए जैसेकि वे इसीका इंतज़ार कर रहे हों। हैरानी की बात यह है कि इन तथाकथित प्रगतिशीलों को यह क्यों नहीं दिखाई दिया कि उसी कथित फ़ासीवादी विचाराधारा के सेंसरबोर्ड ने ही यह फ़िल्म इन दृश्यों के साथ पास की है जिसे ये मुंह भर-भर कर ग़ालियां देते हैं !? दूसरी तरफ़ मेरे जैसा आदमी यह कह रहा था कि इस फ़िल्म में नया या क्रांतिकारी कुछ नहीं है, इसमें वही किया गया है जो कट्टरपंथ, अंधविश्वास और सांप्रदायिकता के विरोध के नाम पर पहले भी कुछ फ़िल्मों में किया जा चुका है। इस फ़िल्म के अंत में भी उसी कथित भगवान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया है जो वस्तुतः सारे अंधविश्वासों, झगड़ों और बेईमानियों की जड़ है (इस संदर्भ में ये लेख पढ़ें-पहला, दूसरा )। फ़ेसबुक और नास्तिक ग्रुप के कुछ युवाओं ने इस बात को समझा और बात आगे चलाई। लेकिन
राष्ट्रीय न्यूज़चैनलों पर इस मुद्दे का ज़िक्र कहीं दिखाई नहीं पड़ा। क्यों दिखाई नहीं पड़ा, इसपर आगे बात करेंगे।

दूसरी घटना पुरस्कार वापस लौटाने के हास्यास्पद प्रकरण की रही। मेरे जैसे लोग पूछ रहे थे कि एक सरकार से लिए पुरस्कार दूसरी को कैसे लौटाए जा सकते हैं, आप जैसे ‘स्वाभिमानी’ जो बात-बात में नेताओं, सेठों और राजनीति को ग़ालियां देते हैं, उन्हींके दिए पुरस्कार लेते ही क्यों हैं, आप जो एक सरकार को लोकतांत्रिकता की दृष्टि से लगभग अछूत मान रहे हैं, उसीके चैनलों पर बहसों में दिखते हुए ख़ुश कैसे हो सकते हैं, पुरस्कार आपने लौटाए इसका सबूत क्या है.........आदि-आदि (इस संदर्भ में यह लेख पढ़ें)। इसमें भी किसीकी रुचि नहीं दिखाई दी। वे लोग तो आर एस एस एस के ‘महत्वपूर्ण’ सवालों के जवाब देनें में लगे हुए थे।

सवाल यह है कि ये लोग दूसरे या दूसरों के प्रश्नों को छोड़ आर एस एस एस के लचर प्रश्नों में इतनी रुचि क्यों लेते हैं ? दो-तीन बातें समझ में आती हैं-एक यह कि इनका बौद्धिक स्तर ही इतना है कि इन्हें आर एस एस एस से ही बहस में आसानी दिखाई देती है। दूसरी, इन्हें कुछ प्रतीकों, बैनरों, कपड़ों, भाषाओं, भंगिमाओं के फ़र्क़ के चलते अपने प्रगतिशील होने का भ्रम हो गया है, दरअसल इनमें और आर एस एस एस में उन्नीस-बीस से ज़्यादा का अंतर नहीं है। तीसरी, भारत में ज़्यादातर संस्थाओं के शीर्ष पर ब्राहमणवाद बैठा हुआ है और अलग-अलग मुंहों से वही अपनी बात कह रहा होता है। चौथी, इनका एक निश्चित एजेंडा है और ये ऐसे हर व्यक्ति, विचार, तथ्य और तर्क से घबराते हैं जो उस एजेंडा के बाहर जाकर, समस्या की जड़ की तरफ़ इशारा कर रहा होता है। पांचवीं, इनका झगड़ा दिखावटी है, दरअसल ये एक-दूसरे के पूरक हैं। 

मैं कई साल तक टीवी की बहसें बड़ी रुचि के साथ देखता रहा हूं। अंततः मैंने पाया कि यहां अंधविश्वास और कट्टरता के विरोध के नाम पर ‘धर्म बनाम विज्ञान’, ‘अध्यात्म बनाम तर्क’, ‘नया बनाम पुराना’, ‘मंदिर बनाम मस्ज़िद’, जैसे कुछ मिलते-जुलते नामों से इधर-उधर की बहसें चलाई जातीं हैं। नास्तिकता शब्द का उच्चारण भी मैंने नास्तिक ग्रुप शुरु करने के बाद भी हिंदी चैनलों के किसी एंकर के मुख से दो-चार बार ही सुना है। ‘ईश्वर है या नहीं’ ऐसी कोई बहस तो मेरे देखने में कभी भी नहीं आई। यही हाल हिंदी फ़िल्मों का भी रहा है। बात समझना इतना मुश्क़िल भी नहीं है कि ऐसे लोगों को आर एस एस एस सूट नहीं करेगा तो और कौन सूट करेगा। ‘हींग लगे न फ़िटकरी और रंग चोखा का चोखा’। किया कुछ भी नहीं, बस आर एस एस एस को ग़ाली देने का दैनिक कर्मकांड निपटाया और प्रगतिशील बनके बैठ गए।

दरअसल ऐसे ‘प्रगतिशीलों’ ने ब्राहमणवाद, आर एस एस एस या धर्म से उपजी हर बुराई को विस्तार दिया है। साकार भगवान से निपटने के नाम पर इन्होंने निराकार भगवान नाम की बड़ी चालाक़ी खड़ी कर दी। प्रगतिशीलों, उदारवादियों और तार्किकों के बीच धर्म को मान्यता और स्वीकृति दिलानेवाली सबसे बड़ी और भ्रामक अवधारणा ‘धर्मनिरपेक्षता’ ऐसी ही बुद्धिओं() का ‘चमत्कार’ लगती है (इस संदर्भ में ये भी पढ़ें-पहलादूसरा )। आर एस एस एस का दिखावटी विरोध करनेवाली तथाकथित गंगा-जमुनी संस्कृति भी ऐसी ही अजीबो-ग़रीब मानसिकताओं का जोड़ मालूम होती है। ये गाय को मां बताए जाने पर तो हंसते हैं पर यह भूल जाते हैं कि ये ख़ुद नदियों को मां बनाए बैठे हैं। आप नदियों व ‘भारतीयता’ पर राज कपूर व अन्य तथाकथित प्रगतिशीलों की फ़िल्मों के गाने देखिए-सुनिए। ज़रा सोचिए कि अगर ‘होंठों पर सचाई रहती है, हर दिल में सफ़ाई रहती है’ तो इतने सारे ट्रकों की पीठ पर ‘सौ में से निन्यानवें बेईमान’ किसने और क्यों लिख दिया था!? ‘हम उस देस के वासी हैं जिस देस में गंगा बहती है’........तो ? दुनिया में आपका क्या अकेला ऐसा देश है जिसमें कोई नदी बहती है !? आपकी वजह से बहती है क्या ? आप न होते तो न बहती ? यहां अंग्रेज़ आए तो गंगा बहना बंद हो गई थी क्या ? बहने से सारी समस्याएं भी अपने-आप बह जाएंगी क्या ? साहिर कहते हैं कि ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा’ और फिर अगली ही पंक्तियों में यह भी कह देते हैं कि ‘कुरआन न हो जिसमें वो मंदिर नहीं तेरा, गीता न हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है’....., अब पूछिए कि गीता और क़ुरान होंगे और हिंदू और मुसलमान नहीं होंगे !?’ गीता और क़ुरान में क्या अचार डालने के तरीक़े बताए गए हैं !? इंटरनेट की बहसों में दूसरों के अलावा कुछ तथाकथित प्रगतिशील भी सलाहें देते पाए जाते हैं कि क़िताबें ज़रुर पढ़नी चाहिएं, अध्ययन ज़्यादा से ज़्यादा करना चाहिए। भाईजी, आपने साहिर को गीता का अध्ययन करते देखा था क्या ? अगर अध्ययन करने के बाद भी उन्हें यह महान नुस्ख़ा सूझा तो कहने ही क्या !! मेरी तलवार आपके घर रख दें और आपका भाला मेरे घर में रख दे तो हम दोनों का झगड़ा ख़त्म हो जाएगा !? कमाल का आयडिया है!  दूसरे क्रांतिकारी शायर फ़ैज़ ‘हम देखेंगे, हम देखेंगे...के बाद भविष्य के संदर्भ में कुछ घोषणाएं करते हुए आखि़रकार कहते हैं कि ‘बस नाम रहेगा अल्लाह का, जो ग़ायब भी है हाज़िर भी......’। तो लीजिए, यह रही आपकी क्रांति। आर एस एस एस लिखेगा तो इससे कुछ अलग लिखेगा क्या ? उसकी तो तबियत चकाचक हो जाती होगी ऐसे गाने सुनकर।

(भारतीय ‘प्रगतिशीलों’ का पसंदीदा संगठन आर एस एस एस-2)

-संजय ग्रोवर
07-02-2016