Monday 27 May 2019

नास्तिकता और भीड़ का रुझान

नक़ली नास्तिकता की बात इस ग्रुप में कई बार उठी है। समझना मुश्क़िल हो जाता है कि कैसे पता लगाएं कि कौन नक़ली है कौन असली, अगर कोई नक़ली है तो उसे नक़ली होने से मिलता क्या है ?

इसपर एकदम कोई फ़ैसला कर लेना बहुत आसान तो नहीं है, ठीक भी नहीं लगता फिर भी लोग ‘जगत मिथ्या है, भ्रम सत्य है’ जैसे कथनों का मर्म समझ लेंगे उनके लिए समझना कुछ आसान ज़रुर हो जाएगा। जिन्होंने ‘न कोई मरता है न कोई मारता है‘ जैसी अजीबो-ग़रीब दर्शन रच लिए हों, साफ़ ही है कि वे जीवन की वास्तविकताओं से हारे और डरे हुए लोग हैं और उनका जीवन अभिनय बनकर ही रह गया होगा। एक अभिनेता के लिए आस्तिकता और नास्तिकता, वाम और दक्षिण, ईमानदारी और बेईमानी..... सब भूमिकाएं हैं, रोल हैं। इसीलिए उनका सबसे ज़्यादा ज़ोर अभिनय, प्रदर्शन, प्रतीक, शिल्प, शैली, कर्मकांडों आदि पर ही रहता है। एक मृत शरीर जो सिर्फ़ जीने का अभिनय कर रहा है, जिसके भीतर संवेदना से लेकर विचार तक सब अभिनय ही है, वह और कर भी क्या सकता है, सिवाय इसके कि रोज़ाना अपने मृत शरीर को नए ढंग से सजा-धजाकर लोगों के सामने पेश करता रहे, लोगों को अपनी तरह मृत बनाने की कोशिश करता रहे। मृतकों में जो थोड़ा-सा भी ज़िंदा दिख रहा है, वही श्रेष्ठ लगने लगेगा।

जिसके लिए अभिनय ही जीवन है उसके लिए मौक़ापरस्ती क्या बड़ी बात होगी। वह देखेगा कि इंटरनेट पर नास्तिकता स्वीकृत हो रही है तो वह तुरंत वहां नास्तिक हो जाएगा ; जहां आस्तिकता में सुविधा है, आस्तिक बना रहेगा। कोई सवाल उठाएगा तो कह देगा कि मैं तो समय के साथ बदल रहा हूं, मैं तो प्रगतिशील हूं। फ़िर आप क्या कहेंगे ? क्या कर लेंगे ?

जहां तक मैंने देखा है, ऐसे लोग किसी भी चीज़ को बदलने के लिए अपनी तरफ़ से बहुत प्रयत्न नहीं करते, ख़ासकर वहां, जहां पागल, सनकी, अव्यवहारिक, अकेला कहलाने या हो जाने का डर हो वहां से तो बिलकुल बच निकलने की कोशिश करते हैं, वे सिर्फ़ तुरंत फ़ायदा देनेवाले ख़तरे (कैलकुलेटेड रिस्क) उठाते हैं। और यही नहीं, उनमें से कई तो, अगर कोई और ऐसा कर रहा है तो उसका मज़ाक़ उड़ाने से, उसको तरह-तरह की कोशिश करके गिराने से भी नहीं चूकते। 

और यहां तक भी ग़नीमत होती, मगर मौक़ापरस्ती की हद तो यह है कि जैसे ही उन्हें लगता है कि वह व्यक्ति सफ़ल हो रहा है वे उन मूल्यों के साथ तुरंत अपना नाम जोड़ने की कोशिश शुरु कर देते हैं। फ़िर उन्हें वे सब मूल्य महत्वपूर्ण लगने लगते हैं जिनका वे कल तक मज़ाक़ उड़ा रहे होते हैं। फ़िर उन्हें न तो पागलपन में बुराई दिखाई देती है, न नास्तिकता में, न निष्पक्षता में, न ईमानदारी में, न किसी और में........।


दरअसल उनकी मूल्यों की अपनी कोई समझ होती ही नहीं है, उनकी तो असली कसौटियां हैं-फ़ायदा, लोकप्रियता, सफ़लता यानि कि भीड़ की संख्या, भीड़ का रुझान। ऐसे लोगों की नीयत उस वक़्त बिलकुल साफ़ हो जाती है जब वे न सिर्फ़ किसी और की वजह से सफ़ल हो गए मूल्यों को न सिर्फ़ अपना नाम देने में लग जाते हैं बल्कि मूल व्यक्ति का नाम मिटाने की भी पूरी कोशिश करते हैं। यहां तक कि ऐसे मूल्यों, परंपराओं, कहानियों और क़िस्सों जिन्हें वे कलतक अपना बनाया कहकर गर्व कर रहे थे, का ज़िम्मा भी दूसरे लोगों पर थोपने लगते हैं क्योंकि आज वे मूल्य बदनाम, हास्यास्पद और अव्यवहारिक हो गए हैं।

ऐसे लोगों को मैं लगभग लाश की तरह मानता हूं और उनकी बहुत परवाह नहीं करता।

कई बार मुझे लगता है कि हो सकता है कि कोई अच्छा काम करने के लिए कोई रुप बदलकर आया हो, किसीकी कुछ मजबूरी रही हो ; उससे कुछ सख़्त बात न कह दी जाए, बाद में ख़ुदको भी पछतावा होता है। और इस ग्रुप में भी ऐसे लोग हैं जो (संभवतः)किसी पक्ष से जुड़े होने के बावजूद यथासंभव निष्पक्ष होने की कोशिश करके लिखते हैं। कई लोग यह काम अपने वास्तविक नाम के साथ करते हैं। यह आसान बिलकुल भी नहीं है, ख़ासकर उन लोगों के लिए जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति अपेक्षाकृत बहुत कमतर है।

लेकिन मेरी नज़र में वही ज़िंदा लोग हैं और ऐसे लोगों को मैं बार-बार सलाम करता हूं।

-संजय ग्रोवर
15-02-2015
(नास्तिकTheAtheist Group)

Sunday 26 May 2019

नास्तिकता और स्त्रियां

कुछेक बार यह बात उठाई गई कि इस ग्रुप में स्त्रियां नहीं हैं, या कम हैं। अगर ऐसा है तो क्यों है?

इस संदर्भ में कुछ बातें तो पहले से ही साफ़ हैं, कुछ मैं अब साफ़ किए देता हूं।

पुराने तो लगभग सभी सदस्य जानते हैं, नये भी जानते ही होंगे कि हम अपनी तरफ़ से किसीको भी ग्रुप में ऐड नहीं करते, जो रिक्वेस्ट आतीं हैं उनमें से ही सदस्य चुनते हैं ; उनमें अगर स्त्रियों की रिक्वेस्ट होतीं हैं तो उन्हें चुनने की हमारी कोई अलग प्रक्रिया नहीं है। हमारे मित्र सुधीर कु. जाटव लगभग शुरु से ही मेरे साथ एडमिन रहे हैं, वे भी इस स्थिति को स्पष्ट कर सकते हैं।

दूसरे, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि इस देश में नास्तिकता को लेकर स्त्रियों की दिशा और (मनो)दशा स्पष्ट, संतोषजनक और उल्लेखनीय कभी भी नहीं रही। इस ग्रुप से बाहर भी स्त्रियों के नास्तिकता पर कितने स्टेटस देखने में आते हैं ? कई महीने पहले मैंने यूट्यूब पर जाकर नास्तिकता को खोजा तो पाया कि वहां 16-18 साल की विदेशी लड़कियां पूरे आत्मविश्वास के साथ नास्तिकता पर अपने विचार रख रहीं हैं और उनके वीडियो लगा रहीं हैं। और भारत के तो पुरुषों की स्थिति भी वहां नगण्य है। किसी पार्टी-विशेष, संस्था-विशेष या नेता-विशेष को ग़ालियां देने को ही अगर कोई नास्तिकता और प्रगतिशीलता मानता हो तो उसको उसके हाल पर छोड़ देने के अलावा चारा भी क्या है!?

ये दो कारण तो पहले से ही बहुत-से मित्र समझते हैं। अपने बारे में स्पष्ट कर दूं कि चूंकि मेरे लिए नास्तिकता का मतलब ही सभी धारणाओं, मान्यताओं, परिभाषाओं, मुहावरों, संस्कारों और संस्कृतियों आदि से ऊपर उठकर सोचना है; उनपर पुनर्विचार करना है इसलिए मेरी इस गणितबाज़ी में कोई दिलचस्पी नहीं है कि किस ग्रुप में कितनी स्त्रियां हैं, कितने पुरुष हैं, ग्रुप के सदस्यों की संख्या कितनी है, बच्चे कितने हैं, सेलेब्रिटीज़ कितनी हैं, मशहूर लोग कितने हैं आदि-आदि। मैंने कई बार कहा है कि अगर आपके पास कहने के लिए कुछ है तो इस बात की चिंता कतई न करें कि आप स्त्री हैं, कि पुरुष हैं, कि ग़रीब हैं, कि अमीर हैं,लेखक हैं, अलेखक हैं, छोटे हैं, बड़े हैं, ऊंच हैं, नीच हैं (कृपया सबमें ‘कथित’ जोड़कर पढ़ें), लैंगिक विकलांग हैं, कि समलैंगिक हैं, कि ......जो कुछ भी हैं। हमारे लिए स्त्रियां कोई स्टेटस-सिंबल नहीं हैं, हमारे ग्रुप में ऐसी कोई परंपरा नहीं है कि कोई विशेष अतिथि आएगा तो स्त्रियां फूलमाला-वाला डालकर उसका स्वागत करेंगीं। एक तो ये वैसे भी घटिया, अहंकारों को पालने-पोसने वाले, स्त्रियों को सामान की तरह इस्तेमाल करनेवाले कर्मकांड हैं, दूसरे, हमारे यहां विशेष अतिथि नाम की चिड़िया पर भी नहीं मार सकती। दोस्त की तरह, इंसान की तरह जो भी आए, सबका स्वागत है। ‘विशेष अतिथि’ का ज़माना गया।

मुझे कहने में कतई संकोच नहीं कि सिर्फ़ स्त्री होने की वजह से किसीको सर पर नहीं बिठाया जा सकता। घुमा-फिराकर बार-बार पुरानी बीमारियों को जारी रखने की मूर्खता में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। पुरुष को सर से उठाकर फेंक देने का मतलब यह नहीं है कि अब हम उसकी जगह स्त्रियों को बिठा देंगे कि पहले ये गुंडाग़र्दी कर रहा था, अब तुम्हारी बारी है, करो ख़ुलके, यही हमारा समस्या हल करने का तरीक़ा है। मैंने जब स्त्री-मुक्ति पर लिखना शुरु किया तो मैं छोटे क़स्बे मैं रहता था। मेरे दो-चार ही लेख छपे होंगे कि हमारे घर पर टट्टी फेंकी जाने लगी। यह टट्टी एक पढ़ी-लिखी ब्राहमण स्त्री के घर से फ़ेकी जाती थी। उस स्त्री की वजह से मैंने नारी-मुक्ति पर लिखना बंद नहीं कर दिया। जहां तक मुक्ति की बात है, मैं हर तरह की मुक्ति का समर्थक हूं, मैं कहता रहा हूं कि अगर एक आदमी भी अपनी बिलकुल अलग जीवन-शैली में जीना चाहता है तो उसे भी अपनी तरह से जीने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए बशर्ते कि वह किसीको सता न रहा हो। लेकिन स्त्री-मुक्ति के नाम पर कोई जातिवादी खेल खेले, यह बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यह मैं बहुत देख चुका हूं कि समानता, प्रगतिशीलता, अनेकता में एकता, वामपंथ आदि के नाम पर अपनी जाति और वर्ण को फ़ायदा पहुंचाने, दूसरों की मेहनत और दूसरों के विचारों को हड़पकर अपनी इमेज बनाने के शर्मनाक़ खेल रचे जाते हैं और कोई इसपर आपत्ति करे, इसे बताए तो उसे स्त्री-विरोधी की तरह पेश करने की कोशिश की जाती है। ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ का अमानवीय, बेशर्म, ढीठ और घिनौना कृत्य हमारे ग्रुपों में किसी क़ीमत पर नहीं चलेगा। ब्राहमणवाद चाहे किसी संघ की चुनरिया ओढ़ के आए या किसी पंथ का टॉप चढ़ाके, हम उसे बिना किसी चश्में के देखते हैं और समझते हैं। जिसको धोखा खाने और पुंछल्ला बनने का शौक़ हो, उसे इसकी पूरी स्वतंत्रता है, मगर हम पक्ष और विपक्ष के बंटवारे की मूर्खता में बहकर किसी भी गंदी नीयत और चालबाज़ी की पीठ नहीं थपथपाने वाले।

ज़रुरत हुई तो इससे आगे भी लिखूंगा।
-संजयग्रोवर
24-05-2015
नास्तिकTheAtheist Group