Sunday 6 January 2019

गांधीजी, उनके भक्त और अहिंसा में छुपी हिंसा

भक्त बताते हैं कि गांधीजी धर्मनिरपेक्ष आदमी थे। आपको मालूम ही है आजकल भक्तों से तो भक्त भी पंगा नहीं लेते। लेकिन इससे एक बात पता लगती है कि धर्मनिरपेक्ष लोगों के भी भक्त होते हैं।

मैंने सुना है कि ख़ुद गांधीजी भी राम के भक्त थे। हालांकि गांधीजी अहिंसक थे और राम तीर लिए घूमते थे और उन्होंनें काफ़ी लोगों को युद्ध में मारा भी था। गांधीजी गीता भी पढ़ते थे जिसमें बताया जाता है कि काफ़ी मारकाट हो रखी थी। आज होते तो शायद वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास भी पढ़ते, शायद सुरेंद्रमोहन पाठक की विमल सीरीज़ का बखिया-कांड उनको काफ़ी मुआफ़िक आता।

अगर कोई बच्चा ग़लती से भी पूछ ले कि भई गांधीजी की इस टाइप की आदतों का उनकी अहिंसा के साथ क्या रिश्ता था तो इस देश के ऐतिहासिक बुद्धिजीवी एक अद्भुत तथ्य का वर्णन करते हैं-
'गांधीजी के राम वो राम नहीं थे, उनके राम अलग थे!!'
उनके राम अलग थे ? कैसे ?
बड़ी चमत्कारी बातें हैं, हर किसीको कैसे समझ में आ सकतीं हैं ?
कभी टीवी पर एक सॉस का विज्ञापन आता था, सॉस वही थी जैसे सॉस होती है-लाल रंग की, बोतल भी वही थी, स्वाद भी वही था, लेकिन विज्ञापन में सॉस को चाटने के बाद एक अभिनेता कहता था-‘इट’ज़् डिफ़रेंट’। 
इससे पता लगता है कि किस चीज़ का विज्ञापन किस वक़्त में कैसे करना है, इसका भी काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है।

गांधीजी के राम अलग थे तो उनका नाम भी अलग हो सकता था। या फिर हो सकता है कि राम को चमत्कारी शक्ति से पता चला हो कि मेरे भक्तों में एक गांधीजी भी होंगे, कुछ काम उनके हिसाब से भी कर चलो जो उनके अलावा बस उनके भक्तों की ही समझ में आ सकें, बाक़ी किसीके पल्ले ही न पड़ें। बड़े भक्तों को एक बार समझ में आ गया तो वो छोटे-मोटे भक्तों को तो किसी भी तरह समझा लेंगे।

गांधीजी के अलग राम से मुझे ‘गोलमाल’ के अमोल पालेकर याद आ जाते हैं जिन्हें किसी मजबूरी में एक ही वक़्त में, एक ही ज़िंदगी में, एक ही दफ़्तर में, एक ही घर में दो-दो रोल करने पड़ रहे थे।

जहां तक मुझे पता है राम के काम तो वही थे तीर मारना, युद्ध करना, स्त्रियों के नाक-कानों के कटपीस बनाना, आज्ञाकारिता के नाम पर पिता के अन्याय बर्दाश्त करना...। राम सही जगह पर अन्याय का विरोध नहीं कर पाए, शायद इसीकी क़ीमत रावण को चुकानी पड़ी। लेकिन एक मामले में राम ने धर्मनिरपेक्षों वाला ही काम किया, सूपर्णखा की नाक छोटे भाई लक्षमण से कटवा दी। अपनी इमेज साफ़ की साफ़ रही आई और लक्षमण की इमेज तो लगता है शुरु से ही कुछ आरएसएस टाइप की चली आ रही थी। इस देश के अटल नायक इसके समानांतर कार्य बाद में भी, लगता है, करते/कराते आए होंगे।

गांधीजी को तो मैंने नहीं देखा पर टीवी पर उनके कुछ भक्तों को ज़़रुर देखा। इनमें एक थे अन्ना हज़ारे जिन्होंने तथाकथित रुप से एक ज़़बरदस्त आंदोलन, भ्रष्टाचार के विरुद्ध छेड़ दिया। आईए, अन्ना हज़ारे की मार्फ़त अहिंसा को समझने की कोशिश करें-

अन्ना हज़ारे-मैं इस देश से भ्रष्टाचार मिटाके रहूंगा। सरकार यहां पर आकर हमसे बातचीत करे।
वरना क्या होगा अन्नाजी ?
मैं अनशन पर हूं, जब तक सरकार मांगे नहीं मानती, अनशन जारी रहेगा।
अनशन जारी रहेगा तो क्या होगा अन्नाजी ?
ज़ाहिर है कि आदमी ज़्यादा दिन भूखा-प्यासा रहेगा तो एक-न-एक दिन उसका देहांत हो जाएगा।
फिर क्या हासिल होगा ?
फिर मरनेवाले के समर्थक, भीड़ में बदल जाएंगे, आग लगाएंगे, दंगे करेंगे, लब्बो-लुआब यह कि भयानक हिंसा कर देंगें।

तो यह है अहिंसा ! इसकी परिणति हिंसा में होगी जिसके अंजाम से पहले ही डराया जा रहा है।
यानि होगी तो हिंसा ही पर भूमिका अहिंसा की बांधी जाएगी।
अपने हाथ से, अपने नाम से नहीं करेंगे तो दूसरे से करवा देंगे।
हमारी इमेज साफ़-सुथरी रहेगी, कोई और बदनाम हो जाएगा। 

इस आंदोलन को आज़ादी का दूसरा आंदोलन कहा गया। मेरी जान-पहचान की एक महिला ने बाद में मुझे बताया कि वह भी इस आंदोलन में थी। मैंने दो-चार तर्कपूर्ण मज़ाक़ अन्ना और आंदोलन के बारे में किए तो वह घबरा गई, बोली-‘अन्ना क्या मेरा चाचा लगता है कि मुझसे हिसाब मांग रहे हो ?’

देश के तमाम चैनल हमारी आंखों के सामने झूठा वर्तमान लिख रहे थे और हम सब पढ़े-लिखे जागरुक लोग देख रहे थे। 

इन्हीं में से कई लोग इतिहास लिखते हैं।

इस आंदोलन की वजह से कई लोगों को आज़ादी के पहले आंदोलन पर भी शक़ होने लगेगा।

फिर आठवें-नौंवे दिन अन्नाजी गुड़गांव के सबसे महंगे बताए जानेवाले अस्पताल में दाखि़ल हो गये (अन्ना के अलावा इस अस्पताल की अच्छी-ख़ासी पब्लिसिटी सारे घुन्ना चैनलोें ने की, अपवाद नाम के लिए भी नहीं है)। 
चार्ज केजरीवाल ने संभाल लिया।

एक पतला-सा लड़का जो बैंड के पीछे-से लोगों को तालियां बजाने का इशारा करता था, आजकल टीवी पर कई तरह के शो संभाले बैठा है।

अहिंसा कितना कुछ देती है। हालांकि कोई बड़ा अनशन कभी अपने मुकाम या देहांत तक नहीं पहुंचा मगर तथाकथित अहिंसा ने किसीको ग्लैमर दिया, किसीको पॉपुलैरिटी दी, किसीको ऐक्सपोज़र दिया, शो दिलाए, कैरियर दिया, किसीको...... 

दिलचस्प है कि रावण के खि़लाफ़ राम को अनशन का आयडिया क्यों नहीं आया !?

तिसपर और मज़े की बात है कि गांधीजी की आर एस एस से क्या लड़ाई थी ?

वे गीता पढ़ते थे, शराब नहीं पीते थे, ब्रहमचर्य पर भी ज़ोर देते रहे, फ़िल्में नहीं देखते थे, स्वराज और स्वदेशी को पसंद करते थे (क्या आपने कभी ग़ौर किया कि ठीक यही सारी चीज़ें आर एस एस की भी पसंद रहीं हैं), उनका पसंदीदा भजन था-

रघुपति राघव राजा राम
पतित पावन सीता राम
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम
सबको सन्मति दे भगवान

ध्यान से पढ़ें-पूरे भजन में रघुपति, राघव, राजा, राम, सीता, राम, ईश्वर, भगवान ही बार-बार आते हैं, धर्मनिरपेक्षता तो नाममात्र के लिए भी मुश्क़िल से आई लगती है। धर्मनिरपेक्षता की इतनी जगह तो कट्टरपंथियों के यहां भी रहती ही है।

वैसे श्री केजरीवाल जी भी पहले आरक्षणविरोधी अंादोलनों के लिए जाने जाते थे, उन्हें भी धर्मनिरपेक्ष बैकडेट में बनाया गया था।

बहरहाल, अंग्रेज़ चले गए, श्री नेहरु भारत के प्रधानमंत्री बने, श्री जिन्ना पाक़िस्तान के सदर बने, गांधीजी कुछ नहीं बने।
उन्हें गोली लग गई।

कहते हैं कि गोली गौडसे नाम के आदमी ने मारी थी। कहते हैं कि गौडसे आर एस एस नाम की संस्था का आदमी था। और आर एस एस एस नामक संस्था किन लोगों ने बनाई थी ? 

जिस किसीने भी लिखी थी, गांधीजी की भूमिका शायद ऐसी और इतने तक ही लिखी थी।

हे राम!

-संजय ग्रोवर
06-01-2019


Friday 4 January 2019

‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी’

ईश्वर को सिद्ध करने में एक वाक्य आलू और पनीर की तरह काम आता है। यह चमत्कारी वाक्य आसानी से कहीं भी घुसेड़ा जा सकता है। 

एक आदमी सड़क पर निकले और जाकर किसी गाड़ी से टकरा जाए तो कम-अज़-कम चार संभावनाएं हैं-

1. आदमी गाड़ी से टकराकर मर जाए-

आप आराम से कह सकते हैं-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

2. आदमी गाड़ी से टकरा जाए और बच जाए-

आप आराम से कह सकते हैं-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

3. आदमी गाड़ी से टकराकर बच तो जाए मगर उसकी टांग टूट जाए-

आप आराम से कह सकते हैं-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

4. यह संभावना थोड़ी अजीब है, मगर संभव है कि आदमी तगड़ा हो कि गाड़ी को नुकसान पहु्रंचा दे-

आप आराम से कह सकते हैं-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

इसी तरह सुबह आप मलत्याग को बैठें मगर असफ़ल हो जाएं-
कह सकते हैं कि-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’
आप सफ़ल होकर फ्रेश मूड में निकलें-
कह सकते हैं कि-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

इसी तरह सुबह आप मलत्याग को बैठें मगर असफ़ल हो जाएं-

कह सकते हैं कि-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

आप सफ़ल होकर फ्रेश मूड में निकलें-

कह सकते हैं कि-‘ईश्वर की यही मर्ज़ी थी।’

तो निश्चय ही यह चमत्कारी वाक्य है और यहां तक किसी तरह बर्दाश्त किया जा सकता है। मगर तब

क्या हो जब कोई किसीको गाड़ी के नीचे धक्का दे दे और कहे कि ईश्वर की यही मर्ज़ी थी !

कोई बलात् किसीको शारीरिक नुकसान पहुचाए और कह दे कि ईश्वर की यही मर्ज़ी थी !!

कोई किसीकी हत्या कर/करवा दे और घोषणा करे/करवाए कि ईश्वर की यही मर्ज़ी थी !?

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
23 August 2013



Thursday 3 January 2019

क्या ईश्वर क़िताबें लिखता है!?

क्या ईश्वर क़िताबें लिखता है!? हम सब कभी न कभी ऐसे दावों से दो-चार होते रहे हैं। कमाल की बात यह है कि कथित ईश्वर की लिखी और आदमी की लिखी क़िताबों में ज़रा-सा भी अंतर नहीं दिखाई देता। वही पीला क़ाग़ज़, वही काली स्याही ! ईश्वर को लिखनी ही थीं तो ज़रा अलग़ तरह से लिखता कि ग़रीब आदमी भी पढ़ लेता, अनपढ़ भी पढ़ लेता, मुसीबत में फंसा आदमी भी पढ़ लेता। कहीं लिख देता आसमान पर कि सुबह उठकर ऊपर देखते और चमचमाते अक्षर दिखाई पड़ते। अक्षर तो छोड़िए, आजकल तो आकाशवाणी भी नहीं होती। लिखनी थी तो लिखता कहीं नदी पर, समुद्र पर, पहाड़ पर। कुछ ऐसे अक्षरों में लिखता कि अशिक्षित भी पढ़ ले। मगर यह तो ऐसी भाषा है कि पढ़े-लिखे को भी आसानी से समझ में नहीं आती। जैसे कई लेखक लिखते हैं सिर्फ़ इसलिए कि हमारी तो लग ही जानीं हैं सारी प्रतियां, सारी संस्थाओं में ; सैटिंग जो बढ़िया है अपनी।

मगर यह तो ऐसी भाषा है कि पढ़े-लिखे को भी आसानी से समझ में नहीं आती। जैसे कई लेखक लिखते हैं सिर्फ़ इसलिए कि हमारी तो लग ही जानीं हैं सारी प्रतियां, सारी संस्थाओं में ; सैटिंग जो बढ़िया है अपनी।


और इन क़िताबों के बारे में कोई अपने विचार तो प्रकट करे ज़रा! ईश्वर को तो किसने देखा है, लेकिन उसके स्वघोषित रक्षक। डंडे ले-लेकर निकल आते हैं। इनकी भावनाएं आहत हो जातीं हैं। ज़िंदा आदमी को कोई दिन-दहाड़े मार डाले, इनके सामने मार डाले, इन्हीं में से कोई मार डाले, क्या फ़र्क पड़ता है, आदमी तो है ही इसीलिए, सड़ने-मरने के लिए, मगर क़िताबों का तो कहना ही क्या! इनका बस चले तो क़िताबें भी डंडे से लिख डालें। पता नहीं इनकी भावनाएं इनके दिल में हैं कि इनके डंडों में हैं, कुछ समझ में नहीं आता। और इनकी क़िताबों से दूसरों की भावनाएं तो क्या, जिंदगियां ही ख़राब हो जाएं, हो जाएं तो हो जाएं, क्या फ़र्क पड़ता है! इनके डंडे में भी अतिकोमल भावनाएं निवास करतीं हैं और दूसरों के प्राण भी निकल जाएं तो क्या, आना-जाना तो लगा ही रहता है। इनकी क़िताबों को कुछ कह दो तो ये मारे-पीटें, मुकदमा ठोंक दें और इनकी क़िताबों का लिखा लोगों की पीढ़ियों की पीढ़ियों का ख़ून पी जाए तो वे किसे पकड़ें? इनके तो लेखकों का अता-पता ही नहीं, कोई फ़ोन नंबर नहीं, ईमेल नहीं, घर-दफ्तर का पता ठिकाना नहीं। कमाल की बात कि जिसकी क़िताब की वजह से तरह-तरह के लफ़ड़े हो रहे हैं उसका पता ही नहीं किधर छुपा है!?

कमाल की बात कि जिसकी क़िताब की वजह से तरह-तरह के लफ़ड़े हो रहे हैं उसका पता ही नहीं किधर छुपा है!?

ग़़ैर-ज़िम्मेदारी पता नहीं किसे कहते हैं!? 

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
12 June 2013

Tuesday 1 January 2019

धर्म+त्यौहार=?

आप भी देख ही रहे होंगे, एक न एक न्यूज़-चैनल दिखा रहा होगा कि किस तरह त्यौहारों पर हर जगह मिलावटी मिठाईयां मिलतीं हैं जो स्वास्थ्य के लिए बेहद ख़तरनाक़ होतीं हैं। यहां क़ाबिले-ग़ौर तथ्य यह है कि सभी त्यौहार धर्म से जुड़े हैं, दुकानदार और सप्लाईकर्त्ता भी धार्मिक ही होते होंगे। मैं सोचता हूं कि किसी दुकानदार का कोई रिश्तेदार/चाचा/मामा/भतीजा/दोस्त उसकी दुकान से मिठाई लेने आ जाए तो क्या वह यह कहेगा कि भई, तुम मेरे रिश्तेदार हो, दोस्त हो, मैं किसी भी हालत में तुम्हे यह मिठाई नहीं दे सकता, तुम किसी और दुकान से ले लो।

सवाल उठता है कि धर्म आदमी को आखि़र कैसे प्रभावित करता है!?

या क्या बनाके छोड़ देता है ?

और जो क़रीबियों की चिंता न कर पाए, आम ग्राहकों की चिंता कर पाएगा, मुमकिन नहीं लगता।

सवाल उठता है कि धर्म आदमी को आखि़र कैसे प्रभावित करता है!?

या क्या बनाके छोड़ देता है ?

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
2 November 2013

सबसे ज़्यादा परेशानियों के बावजूद सुखद

मैं शायद उस वक़्त दसवीं या बारहवीं में होऊंगा जब पहली बार स्थानीय आर्य समाज के डेरे पर एक प्रसिद्ध महात्मा की कथा सुनने गया। वहां मैंने पहली बार रिशी दयानंद की चूहे वाली कथा सुनी और काफ़ी प्रभावित हुआ। मेरी सोच और व्यवहार वैसे भी दूसरों से आसानी से नहीं मिलते थे शायद इसलिए भी मुझे लगा कि मुझे अपने जैसा कोई मिल रहा है, एक उम्मीद-सी बंधने लगी। फिर एक दिन माता या पिता में से कोई ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी ख़रीद लाया। मैंने कई बार पढ़ने की कोशिश की मगर पहले पेज़ से आगे नहीं जा सका। कोई भी क़िताब जो शुरु के दो-तीन पेज़ो में रुचि न जगा पाए, मैं पढ़ नहीं पाता। उसे भी नहीं पढ़ पाया। बाद में आर्यसमाजियों का आचरण देखकर उससे भी मोह भंग होने लगा। मुझे समझ में नहीं आता था कि अगर आप मूर्त्तिपूजा की जगह हवन कर लेते हैं तो प्रगतिशील कैसे हो जाते हैं !? आप दूसरे पंडित के बजाय आर्यसमाजी पंडित को बुला लेते हैं तो आपको दूसरों को रुढ़िवादी कहने का अघिकार कैसे हो जाता है !? आप साकार भगवान से ध्यान हटाकर निराकार भगवान की बात करते हैं तो उससे क्या बदल जानेवाला है !? मूर्त्ति को तो फिर भी आप आसानी से पत्थर और इसीलिए निरर्थक सिद्ध कर सकते हैं मगर निराकार भगवान के साथ बहुत आसानी से ऐसा नहीं कर सकते। बाद में मुझे लगने लगा कि यह कहीं बड़ी चालाक़ी है। वैसे भी मैं निरंतर देख रहा था कि व्यवहार के स्तर पर मेरे जानकार में आए आर्य समाजियों में और दूसरे लोगों में कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं था। व्यापार में बेईमानी करने से लेकर दुनियादारी/रिश्तेदारी में झांसेबाज़ी तक उनका सब कुछ दूसरों जैसा था। फ़र्क़ बस एक ही था कि उन्हें यह भारी ग़लतफ़हमी थी कि वे दूसरों से कुछ ज़्यादा समझदार, बेहतर और श्रेष्ठ हैं। आज मैं इसे दूसरों से ज़्यादा शातिर होना भी कह सकता हूं।

समझ में नहीं आता था कि अगर आप मूर्त्तिपूजा की जगह हवन कर लेते हैं तो प्रगतिशील कैसे हो जाते हैं !? आप दूसरे पंडित के बजाय आर्यसमाजी पंडित को बुला लेते हैं तो आपको दूसरों को रुढ़िवादी कहने का अघिकार कैसे हो जाता है !? आप साकार भगवान से ध्यान हटाकर निराकार भगवान की बात करते हैं तो उससे क्या बदल जानेवाला है !?

आज मुझे यह भी समझ में आता है कि पिताजी और माताजी जो दूसरों जैसे होशियार नहीं थे और यह अद्भुत संयोग(वैसे मैं ये दोनों शब्द इस्तेमाल करना नहीं चाहता क्योंकि मुझे लगता है कि इनके साथ जो भाव जुड़ गए हैं वे अंधविश्वास, चमत्कार और धर्म को बढ़ावा देते हैं) था कि दोनों ने पूजापाठ को लेकर बच्चों से कभी ज़बरदस्ती नहीं की, ज़बरदस्ती क्या ऐसा कोई आग्रह तक नहीं किया, दोनों ने अपनी समझ से कम दबाव या डर की वजह से कभी-कभार कुछ कर्मकांड किए। मैंने भी कभी-कभी यह किया (जैसे अपने या दूसरे घर की किसी शादी में शामिल हो जाना) बाद में वह भी छोड़ दिया।

मुझे नहीं लगता कि कर्मकांडों का विकल्प ढूंढते रहनेवाले लोग ज़्यादा कुछ कर सकते हैं। यह ऐसे ही है जैसे आप कहें कि हम बुर्क़े का रंग काले के बजाय सफ़ेद कर देंगे या घूंघट में जाली लगा देंगे और स्त्री आज़ाद हो जाएगी। बेकार की चीज़ों का भी हम विकल्प ढूंढते हैं तो उसके पीछे मुझे दो-तीन ही कारण समझ में आते हैं-एक, हमारे अंदर अपने विचारों और व्यवहार को लेकर पूरा आत्मविश्वास नहीं आया, दूसरे, हम समाज, भीड़ और अतीत से बहुत ज़्यादा डरे हुए हैं और तीसरे हम बिना कोई ख़तरा उठाए (यहां तक कि सोशल साइट्स् पर लाइक्स् की संख्या कम हो जाने का भी) ही प्रगतिशील हो जाना चाहते हैं यानि कि हमें फ़ायदे हर तरह के चाहिएं नुकसान दूसरों के लिए छोड़ देना चाहते हैं।

ख़ैर, बाद में यह हुआ कि अब मैं किसी क़िताब, आयकन, फ़िल्मस्टार, बड़े(!) आदमी, महापुरुष, मीडिया चैनल, पत्र-पत्रिका, लेखक, कवि....वगैरह-वगैरह की बात को उतना ही स्वीकार करता हूं जितना वह मेरी समझ में आती है।

और यह मेरे जीवन का सबसे ज़्यादा सुखद और संतोषदायक अनुभव है। तरह-तरह की, अब तक की सबसे ज़्यादा परेशानियों के बावजूद यह बहुत ही आनंददायक है।

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
23 November 2014

नये विचारों के लिए तैयार दुनिया में

एक पूर्वाग्रहों और धारणाओं से मुक्त समाज वह होगा जो किसी भी व्यक्ति बल्कि विचार को ख़ुले दिल से सुनने को तैयार होगा। वहां किसीके लिए भूमिका नहीं बांधनी पड़ेगी कि इस व्यक्ति को इसलिए सुनिए कि इनके चाचा बड़े अच्छे विचारक थे, कि इन्होंने दस विषयों में डिग्री ले रखी है, कि इनकी वर्ण-परंपरा विद्वानों की परंपरा है, ये फ़लां ख़ानदान से ताल्लुक रखते हैं, फ़लां संपादक के नीचे इनकी चिंतन-भूमि विकसित हुई है, कि साहित्य की दुनिया में इनकी ज़बरदस्त ख़्याति है.......

विचार का इस सारी बक़वास से कोई मतलब नहीं होता। करनेवाला जानता हो कि न जानता हो मगर अंततः ये सारा खेल धंधेबाज़ी और अहंकार से जुड़ा है।

अगर आपके पास कहने को कुछ है, कुछ है जो परेशान करता है, सोने नहीं देता, जीने नहीं देता, कहे बिना नहीं बनता तो बिना इस बात की परवाह किए कहें कि आपसे पहले ऐसा किसीने कहा या नहीं, कोई क्या सोचेगा, क्या मेरी हैसियत है कि मैं कुछ बोलूं.....

एक बेहतर समाज, किसी व्यक्ति(विशेष) का नहीं, विचार का स्वागत करेगा। अगर एक छोटा वच्चा भी कोई महत्वपूर्ण बात कह रहा है तो एक जागरुक समाज पूरी गंभीरता से उसकी बात सुनेगा। बात समाज के काम की है तो काम की है, इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि किसने कही, कहां खड़े होकर कही, किसके रिश्तेदार किसके दोस्त ने कही, पढ़कर कही कि बिना पढ़े कही, चार लोगों में कही कि चार सौ में कही, गुरुघंटाल टाइम्स में कही कि फ़ेसबुक पर कही, चार बड़ों(?) द्वारा परिचय कराने के बाद कही कि ख़ुद ही आकर कह दी !?

बात ही समाज के काम की होती है, झालरें और झाड़फ़ानूस नहीं।

अगर आपके पास कहने को कुछ है, कुछ है जो परेशान करता है, सोने नहीं देता, जीने नहीं देता, कहे बिना नहीं बनता तो बिना इस बात की परवाह किए कहें कि आपसे पहले ऐसा किसीने कहा या नहीं, कोई क्या सोचेगा, क्या मेरी हैसियत है कि मैं कुछ बोलूं.....

अपनी बात कहिए, यह आपके लिए भी ज़रुरी है और दूसरों के लिए भी

-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
19 July 2014

एक बड़ा खेल है प्रतीकात्मकता

प्रतीकात्मकता के कुछ वास्तविक फ़ायदे भी होते होंगे जो कि मुझे मालूम नहीं हैं लेकिन दुरुपयोग इसका जाने-अनजाने में ख़ूब होता लगता है। यहां तक कि ईमानदारी के आंदोलनों के दौरान या अंत में लोग अपनी कलाई में बंधे धागे नचाते हैं और स्टेज पर रोज़े खोलते हैं। पता नहीं ये लोग जानते हैं या नहीं जानते कि यह ईमानदारी को धर्म से कन्फ्यूज़ करने की कोशिश हो जाती है। आम लोगों में प्रचलित कर्मकांडो का ईमानदारी से सीधे-सीधे कोई भी संबंध नहीं है। तिसपर यही लोग इन्हीं आंदोलनों में धर्म और जाति से ऊपर उठने के उपदेश भी बांच रहे होते हैं।

दरअसल व्यवहारिक जीवन में ईमानदारी इतना मुश्क़िल काम है कि इसकी सही-सही परिभाषा तक संभव नहीं लगती। इसके विपरीत कर्मकांड बेहद ही आसान, लगभग बचपन में खेले जानेवाले गुड्डे-गुड़िया के खेल की तरह होते हैं। कई बार मुझे लगता है कि जब हम मिले हुए आदर्शों/नैतिकताओं को वास्तविक या व्यवहारिक जीवन में नहीं उतार पाते तो प्रतिक्रियास्वरुप उत्पन्न अपराधबोध को कर्मकांडों या प्रतीकात्मकता से छुपाकर/भुलाकर/ढंककर अपने खोखलेपन को भरने की, ख़ुदको झूठी तसल्ली देने की कोशिश में लग जाते हैं। ज़ाहिर है कि सड़क पर लपककर किसीके पांव छूने में, सुबह उठकर नहाने में, राखी बंधवाने में ऐसा कोई ख़तरा नहीं है जैसा कि किसी तथाकथित बड़े या सफ़ेदपोश अपराधी की असभ्यता की तरफ़ इशारा कर देने भर में है।

प्रतीकात्मकता, अपने यहां, बिना कुछ किए-धरे अपनी कई-कई पीढ़ियों को ऊंचा, अच्छा और महान बना/ठहरा लेने का जुगाड़ ज़्यादा रहा है। पुरानी कहानियों में राक्षसों का बुरा बताने के लिए उनके सर पर सींग तक उगा दिए गए, उनका रंग काला कर दिया गया, उनके चेहरे डरावने कर दिए गए। आदमी की अच्छाई-बुराई का उसकी शक़्ल और रंग से क्या मतलब हो सकता है भला ? लेकिन इस तरह की प्रतीकात्मकता ने सैकड़ों सालों के लिए आदमी को धुंध में डाले रखा। संभवतः यह एक बड़ा खेल है और इसे बारीक़ी से समझना चाहिए।

-संजय ग्रोवर
25/26-02-2014
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)

सारी दुनिया के मर्दों और स्त्रियों का ठेका !

अगर मुझसे कोई पूछे कि मर्द स्त्री से क्या चाहता है तो मुझे इस सवाल पर हैरानी होगी। मैं अकेला सारी दुनिया के मर्दों का ठेका कैसे ले सकता हूं !? जबकि मुझे मालूम है कि मैं ख़ुद ही स्त्रियों से सौ प्रतिशत वह नहीं चाहता जो कि अकसर क़िताबों में लिखा पाता हूं, लोगों से सुनता हूं, पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता हूं, टीवी पर देखता हूं कि मर्द स्त्री से यह चाहता है। मैं बिलकुल भी नहीं चाहता कि स्त्री मेरे या किन्हीं सुनी-सुनाई मान्यताओं के दबाव में मेरी पसंद के अनुसार ढलने की कोशिश करे। तो मैं यह भी कैसे चाह सकता हूं कि कोई स्त्री मुझे अपनी तरह ढालने की कोशिश करे ? यह तो सीधे-सीधे दोहरे मानदण्ड हुए।

जो कोई भी किसी पर अपने मूल्य लादने की कोशिश करता है, मुझे नहीं लगता कि वह सचमुच किसीका सम्मान कर सकता है।

न तो बेवजह मैं किसी पुरुष का सम्मान कर सकता हूं न स्त्री का। और सम्मान न करने का मतलब अपमान करना नहीं है। अगर ऐसा मान लिया जाए तो फ़िर तो यह मतलब निकलता है कि दिन भर में हम स्त्रियों का अपमान ज़्यादा करते हैं सम्मान कम। क्योंकि सुबह जब हम घर से निकलते हैं तो रात तक हमें सड़क पर, दुकानों पर, दफ़तरों में.....पचासियों स्त्रियां मिलती हैं- क्या हम सबके पांव छूते हैं, सबको नमस्ते करते हैं, सबको वेलकम और हाउ डू यू डू करते हैं ? तो क्या इसका मतलब हम उनका अपमान कर रहे होते हैं ?

जो कोई भी किसी पर अपने मूल्य लादने की कोशिश करता है, मुझे नहीं लगता कि वह सचमुच किसीका सम्मान कर सकता है।

अभिनय और कर्मकांडों की बात अलग़ है। उनको करने और देखने के तो हम आदी हैं।

-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
25-07-2014