Sunday 6 January 2019

गांधीजी, उनके भक्त और अहिंसा में छुपी हिंसा

भक्त बताते हैं कि गांधीजी धर्मनिरपेक्ष आदमी थे। आपको मालूम ही है आजकल भक्तों से तो भक्त भी पंगा नहीं लेते। लेकिन इससे एक बात पता लगती है कि धर्मनिरपेक्ष लोगों के भी भक्त होते हैं।

मैंने सुना है कि ख़ुद गांधीजी भी राम के भक्त थे। हालांकि गांधीजी अहिंसक थे और राम तीर लिए घूमते थे और उन्होंनें काफ़ी लोगों को युद्ध में मारा भी था। गांधीजी गीता भी पढ़ते थे जिसमें बताया जाता है कि काफ़ी मारकाट हो रखी थी। आज होते तो शायद वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास भी पढ़ते, शायद सुरेंद्रमोहन पाठक की विमल सीरीज़ का बखिया-कांड उनको काफ़ी मुआफ़िक आता।

अगर कोई बच्चा ग़लती से भी पूछ ले कि भई गांधीजी की इस टाइप की आदतों का उनकी अहिंसा के साथ क्या रिश्ता था तो इस देश के ऐतिहासिक बुद्धिजीवी एक अद्भुत तथ्य का वर्णन करते हैं-
'गांधीजी के राम वो राम नहीं थे, उनके राम अलग थे!!'
उनके राम अलग थे ? कैसे ?
बड़ी चमत्कारी बातें हैं, हर किसीको कैसे समझ में आ सकतीं हैं ?
कभी टीवी पर एक सॉस का विज्ञापन आता था, सॉस वही थी जैसे सॉस होती है-लाल रंग की, बोतल भी वही थी, स्वाद भी वही था, लेकिन विज्ञापन में सॉस को चाटने के बाद एक अभिनेता कहता था-‘इट’ज़् डिफ़रेंट’। 
इससे पता लगता है कि किस चीज़ का विज्ञापन किस वक़्त में कैसे करना है, इसका भी काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है।

गांधीजी के राम अलग थे तो उनका नाम भी अलग हो सकता था। या फिर हो सकता है कि राम को चमत्कारी शक्ति से पता चला हो कि मेरे भक्तों में एक गांधीजी भी होंगे, कुछ काम उनके हिसाब से भी कर चलो जो उनके अलावा बस उनके भक्तों की ही समझ में आ सकें, बाक़ी किसीके पल्ले ही न पड़ें। बड़े भक्तों को एक बार समझ में आ गया तो वो छोटे-मोटे भक्तों को तो किसी भी तरह समझा लेंगे।

गांधीजी के अलग राम से मुझे ‘गोलमाल’ के अमोल पालेकर याद आ जाते हैं जिन्हें किसी मजबूरी में एक ही वक़्त में, एक ही ज़िंदगी में, एक ही दफ़्तर में, एक ही घर में दो-दो रोल करने पड़ रहे थे।

जहां तक मुझे पता है राम के काम तो वही थे तीर मारना, युद्ध करना, स्त्रियों के नाक-कानों के कटपीस बनाना, आज्ञाकारिता के नाम पर पिता के अन्याय बर्दाश्त करना...। राम सही जगह पर अन्याय का विरोध नहीं कर पाए, शायद इसीकी क़ीमत रावण को चुकानी पड़ी। लेकिन एक मामले में राम ने धर्मनिरपेक्षों वाला ही काम किया, सूपर्णखा की नाक छोटे भाई लक्षमण से कटवा दी। अपनी इमेज साफ़ की साफ़ रही आई और लक्षमण की इमेज तो लगता है शुरु से ही कुछ आरएसएस टाइप की चली आ रही थी। इस देश के अटल नायक इसके समानांतर कार्य बाद में भी, लगता है, करते/कराते आए होंगे।

गांधीजी को तो मैंने नहीं देखा पर टीवी पर उनके कुछ भक्तों को ज़़रुर देखा। इनमें एक थे अन्ना हज़ारे जिन्होंने तथाकथित रुप से एक ज़़बरदस्त आंदोलन, भ्रष्टाचार के विरुद्ध छेड़ दिया। आईए, अन्ना हज़ारे की मार्फ़त अहिंसा को समझने की कोशिश करें-

अन्ना हज़ारे-मैं इस देश से भ्रष्टाचार मिटाके रहूंगा। सरकार यहां पर आकर हमसे बातचीत करे।
वरना क्या होगा अन्नाजी ?
मैं अनशन पर हूं, जब तक सरकार मांगे नहीं मानती, अनशन जारी रहेगा।
अनशन जारी रहेगा तो क्या होगा अन्नाजी ?
ज़ाहिर है कि आदमी ज़्यादा दिन भूखा-प्यासा रहेगा तो एक-न-एक दिन उसका देहांत हो जाएगा।
फिर क्या हासिल होगा ?
फिर मरनेवाले के समर्थक, भीड़ में बदल जाएंगे, आग लगाएंगे, दंगे करेंगे, लब्बो-लुआब यह कि भयानक हिंसा कर देंगें।

तो यह है अहिंसा ! इसकी परिणति हिंसा में होगी जिसके अंजाम से पहले ही डराया जा रहा है।
यानि होगी तो हिंसा ही पर भूमिका अहिंसा की बांधी जाएगी।
अपने हाथ से, अपने नाम से नहीं करेंगे तो दूसरे से करवा देंगे।
हमारी इमेज साफ़-सुथरी रहेगी, कोई और बदनाम हो जाएगा। 

इस आंदोलन को आज़ादी का दूसरा आंदोलन कहा गया। मेरी जान-पहचान की एक महिला ने बाद में मुझे बताया कि वह भी इस आंदोलन में थी। मैंने दो-चार तर्कपूर्ण मज़ाक़ अन्ना और आंदोलन के बारे में किए तो वह घबरा गई, बोली-‘अन्ना क्या मेरा चाचा लगता है कि मुझसे हिसाब मांग रहे हो ?’

देश के तमाम चैनल हमारी आंखों के सामने झूठा वर्तमान लिख रहे थे और हम सब पढ़े-लिखे जागरुक लोग देख रहे थे। 

इन्हीं में से कई लोग इतिहास लिखते हैं।

इस आंदोलन की वजह से कई लोगों को आज़ादी के पहले आंदोलन पर भी शक़ होने लगेगा।

फिर आठवें-नौंवे दिन अन्नाजी गुड़गांव के सबसे महंगे बताए जानेवाले अस्पताल में दाखि़ल हो गये (अन्ना के अलावा इस अस्पताल की अच्छी-ख़ासी पब्लिसिटी सारे घुन्ना चैनलोें ने की, अपवाद नाम के लिए भी नहीं है)। 
चार्ज केजरीवाल ने संभाल लिया।

एक पतला-सा लड़का जो बैंड के पीछे-से लोगों को तालियां बजाने का इशारा करता था, आजकल टीवी पर कई तरह के शो संभाले बैठा है।

अहिंसा कितना कुछ देती है। हालांकि कोई बड़ा अनशन कभी अपने मुकाम या देहांत तक नहीं पहुंचा मगर तथाकथित अहिंसा ने किसीको ग्लैमर दिया, किसीको पॉपुलैरिटी दी, किसीको ऐक्सपोज़र दिया, शो दिलाए, कैरियर दिया, किसीको...... 

दिलचस्प है कि रावण के खि़लाफ़ राम को अनशन का आयडिया क्यों नहीं आया !?

तिसपर और मज़े की बात है कि गांधीजी की आर एस एस से क्या लड़ाई थी ?

वे गीता पढ़ते थे, शराब नहीं पीते थे, ब्रहमचर्य पर भी ज़ोर देते रहे, फ़िल्में नहीं देखते थे, स्वराज और स्वदेशी को पसंद करते थे (क्या आपने कभी ग़ौर किया कि ठीक यही सारी चीज़ें आर एस एस की भी पसंद रहीं हैं), उनका पसंदीदा भजन था-

रघुपति राघव राजा राम
पतित पावन सीता राम
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम
सबको सन्मति दे भगवान

ध्यान से पढ़ें-पूरे भजन में रघुपति, राघव, राजा, राम, सीता, राम, ईश्वर, भगवान ही बार-बार आते हैं, धर्मनिरपेक्षता तो नाममात्र के लिए भी मुश्क़िल से आई लगती है। धर्मनिरपेक्षता की इतनी जगह तो कट्टरपंथियों के यहां भी रहती ही है।

वैसे श्री केजरीवाल जी भी पहले आरक्षणविरोधी अंादोलनों के लिए जाने जाते थे, उन्हें भी धर्मनिरपेक्ष बैकडेट में बनाया गया था।

बहरहाल, अंग्रेज़ चले गए, श्री नेहरु भारत के प्रधानमंत्री बने, श्री जिन्ना पाक़िस्तान के सदर बने, गांधीजी कुछ नहीं बने।
उन्हें गोली लग गई।

कहते हैं कि गोली गौडसे नाम के आदमी ने मारी थी। कहते हैं कि गौडसे आर एस एस नाम की संस्था का आदमी था। और आर एस एस एस नामक संस्था किन लोगों ने बनाई थी ? 

जिस किसीने भी लिखी थी, गांधीजी की भूमिका शायद ऐसी और इतने तक ही लिखी थी।

हे राम!

-संजय ग्रोवर
06-01-2019


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