मैंने जब तसलीमा नसरीन को पढ़ा, दोबारा पढ़ा, अगली बार पढ़ा और मैं हैरान होता गया। वह महिला बिना किन्हीं इंबों-बिबों के, अलंकारों-झलंकारों के, अर्तीकों-प्रतीकों के, सीधे और साफ़ शब्दों में, हर धर्म और सभी धार्मिक किताबों पर वह कह रही थी जो साहित्य और पत्रकारिता की तथाकथित तोपों को बहुत पहले करना चाहिए था। और ऐसा वह कविता, उपन्यास, लेख सभी में कर रही थी। उसका नाम तेज़ी से फ़ैलने लगा। जल्दी ही वह दुनिया-भर में छा गईं। संभवतः उसके पीछे कोई विचारधारा, कोई दल, कोई समूह रहा होगा। लेकिन एक बात का फ़र्क़ साफ़ था कि धर्मों और मर्दों पर इतने साफ़ शब्दों में कोई पहली बार लिख रहा था। यह उन लोगों की आंखों में खटकना तो स्वाभाविक ही था जो प्रत्यक्ष रुप से, घोषित कट्टरपंथी थे ; धीरे-धीरे उन लोगों की भी मानसिकता सामने आने लगी जो अप्रत्यक्ष रुढ़िवादी या स्वघोषित प्रगतिशील थे।
फ़िर वही, पुराना शातिर सवाल उठाया गया कि तसलीमा की रचनाएं साहित्य की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं। मेरी समझ से तब भी बाहर था और आज भी बाहर है कि हमारे लिए दुनिया की, इंसानियत की, महिलाओं की, वंचितों की, अलग पड़ गए या अलग कर दिए गए लोगों की भलाई महत्वपूर्ण है या साहित्य की कसौटी !? एक-एक आदमी दुखी हो, बरबाद हो तो हमें ऐसे साहित्य और उसकी कसौटी को क्या चाटना है जिसकी बिंबयुक्त, प्रतीकात्मक, उलझी हुई भाषा ग़रीब, मेहनतकश, साधारण और पीड़ित पाठक को और उलझा देती हो, भटका देती हो!? जिन लोगों ने कबीर जैसे प्रकट पाखंडविरोधी की लाश में से फूल पैदा कर दिए हों, जिन लोगों के रेडियो, टीवी और पत्र-पत्रिकाओं में कभी नास्तिक नाम का शब्द तक न पढ़ा-देखा-सुना गया हो, तसलीमा पर उनकी तक़लीफ़ समझना कम-अज़-कम मेरे लिए तो क़तई मुश्क़िल नहीं था। किसीने समझने की कोशिश नहीं की जिन लुल्लों ने अख़बार से लेकर सेमिनार तक और फ़िल्म से लेकर टीवी तक नक़ली प्रगतिशीलता की पटरियां बिछाई, वे किसी असली प्रगतिशील की असली रफ़्तार को बर्दाश्त कर भी कैसे सकते थे!?
कमअक़्ल, कमपढ़ लोगों को तसलीमा किसी धर्मविशेष की समर्थक या विरोधी लगे यह तो समझ में आता था, मगर तथाकथित पढ़े-लिखे और तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी तसलीमा में ऐसे ही खोट नज़र आएं, यह मामला संदेह के घेरे में क्यों नहीं होना चाहिए !?
फ़िर तिकड़मियों की तिकड़में शुरु हो गईं। जब तक तसलीमा अमेरिका में थीं तब तक वे ख़ूब छपतीं भी थीं और जानी भी जातीं थीं। इधर दुनिया-भर में अचानक विभिन्न मीडिया-माध्यमों पर कुछ इस क़िस्म की ‘आधुनिक’ महिलाएं ‘प्रकट’ होने लगीं जो ‘परदा करते हुए भी प्रगतिशील’ थीं और ‘अपने धर्मग्रंथों को पूरी श्रद्धा से मानते हुए भी’ स्त्रीमुक्ति की समर्थक थीं। आज भी इंटरनेट/फ़ेसबुक पर इस ‘टोटकेबाज़ी’ के ढंके-ख़ुले रुप आसानी से देखे भी जा सकते हैं और थोड़ी अक़्ल और सजगता हो तो पहचाने भी। अलावा इसके, पीके से पीकू तक और दीपिका पादुकोण के चर्चित वीडियो तक, यहां की कथित प्रगतिशील स्त्रियां धर्म और भगवान पर कितना चोट कर पा रहीं हैं, करना चाह रहीं हैं, इसका पता आप इन प्रयासों को बारीक़ी से परखकर लगा सकते हैं। धर्म/ब्राहमणवाद के विरोध के नाम पर ‘ओह माय गॉड’ और ‘पीके’ जैसी फ़िल्मों में भी उक्तवर्णित टोटकेबाज़ी ही की गई है।
कहते हैं कि तसलीमा कई सालों से भारत में है। पहले दो-एक कॉलमों और समारोंहों में यदा-कदा नज़र आतीं थीं, बाद में ट्वीट करतीं दिखाई देतीं थीं ; अब कहां क्या कर रहीं हैं, मालूम नहीं। पत्र-पत्रिकाएं मैं न के बराबर पढ़ता हूं, टीवी कभी-कभार देखता हूं इसलिए किसी भी बात को तथ्य की तरह पेश करना ग़लत होगा ; उम्मीद है तसलीमा अपने दोस्तों की देख-रेख में ख़ुश होंगी, कहीं छप रहीं होंगी, कहीं दिख रही होंगीं।
मैं कल भी उनका प्रशंसक था, आज भी हूं।
बाक़ी शिल्प-शैली, इंबो-बिंबों वाले लोग अपनी शिक्षा-संबंधी क़िताबों में भी बहुत पढ़े, उसके बाद भी बहुत पढ़े । इन लोगों को पुरस्कार वगैरह मिलें, ये मशहूर हों, पैसा कमाएं, अच्छे कपड़े पहनें, लोग इनसे ऑटोग्राफ़ लें, इनकी बातों पर भक्त की तरह विश्वास करें....ये सब हमारे जैसे समाजों में कोई बहुत हैरानी की बात नहीं लगती।
पर इनके लिखे से वाक़ई कुछ बदलता है, कुछ अच्छा होता है, इसपर आसानी से न तो मैं पहले विश्वास कर पाता था न आज कर पाता हूं।
-संजय ग्रोवर
18-06-2015
फ़िर वही, पुराना शातिर सवाल उठाया गया कि तसलीमा की रचनाएं साहित्य की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं। मेरी समझ से तब भी बाहर था और आज भी बाहर है कि हमारे लिए दुनिया की, इंसानियत की, महिलाओं की, वंचितों की, अलग पड़ गए या अलग कर दिए गए लोगों की भलाई महत्वपूर्ण है या साहित्य की कसौटी !? एक-एक आदमी दुखी हो, बरबाद हो तो हमें ऐसे साहित्य और उसकी कसौटी को क्या चाटना है जिसकी बिंबयुक्त, प्रतीकात्मक, उलझी हुई भाषा ग़रीब, मेहनतकश, साधारण और पीड़ित पाठक को और उलझा देती हो, भटका देती हो!? जिन लोगों ने कबीर जैसे प्रकट पाखंडविरोधी की लाश में से फूल पैदा कर दिए हों, जिन लोगों के रेडियो, टीवी और पत्र-पत्रिकाओं में कभी नास्तिक नाम का शब्द तक न पढ़ा-देखा-सुना गया हो, तसलीमा पर उनकी तक़लीफ़ समझना कम-अज़-कम मेरे लिए तो क़तई मुश्क़िल नहीं था। किसीने समझने की कोशिश नहीं की जिन लुल्लों ने अख़बार से लेकर सेमिनार तक और फ़िल्म से लेकर टीवी तक नक़ली प्रगतिशीलता की पटरियां बिछाई, वे किसी असली प्रगतिशील की असली रफ़्तार को बर्दाश्त कर भी कैसे सकते थे!?
कमअक़्ल, कमपढ़ लोगों को तसलीमा किसी धर्मविशेष की समर्थक या विरोधी लगे यह तो समझ में आता था, मगर तथाकथित पढ़े-लिखे और तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी तसलीमा में ऐसे ही खोट नज़र आएं, यह मामला संदेह के घेरे में क्यों नहीं होना चाहिए !?
फ़िर तिकड़मियों की तिकड़में शुरु हो गईं। जब तक तसलीमा अमेरिका में थीं तब तक वे ख़ूब छपतीं भी थीं और जानी भी जातीं थीं। इधर दुनिया-भर में अचानक विभिन्न मीडिया-माध्यमों पर कुछ इस क़िस्म की ‘आधुनिक’ महिलाएं ‘प्रकट’ होने लगीं जो ‘परदा करते हुए भी प्रगतिशील’ थीं और ‘अपने धर्मग्रंथों को पूरी श्रद्धा से मानते हुए भी’ स्त्रीमुक्ति की समर्थक थीं। आज भी इंटरनेट/फ़ेसबुक पर इस ‘टोटकेबाज़ी’ के ढंके-ख़ुले रुप आसानी से देखे भी जा सकते हैं और थोड़ी अक़्ल और सजगता हो तो पहचाने भी। अलावा इसके, पीके से पीकू तक और दीपिका पादुकोण के चर्चित वीडियो तक, यहां की कथित प्रगतिशील स्त्रियां धर्म और भगवान पर कितना चोट कर पा रहीं हैं, करना चाह रहीं हैं, इसका पता आप इन प्रयासों को बारीक़ी से परखकर लगा सकते हैं। धर्म/ब्राहमणवाद के विरोध के नाम पर ‘ओह माय गॉड’ और ‘पीके’ जैसी फ़िल्मों में भी उक्तवर्णित टोटकेबाज़ी ही की गई है।
कहते हैं कि तसलीमा कई सालों से भारत में है। पहले दो-एक कॉलमों और समारोंहों में यदा-कदा नज़र आतीं थीं, बाद में ट्वीट करतीं दिखाई देतीं थीं ; अब कहां क्या कर रहीं हैं, मालूम नहीं। पत्र-पत्रिकाएं मैं न के बराबर पढ़ता हूं, टीवी कभी-कभार देखता हूं इसलिए किसी भी बात को तथ्य की तरह पेश करना ग़लत होगा ; उम्मीद है तसलीमा अपने दोस्तों की देख-रेख में ख़ुश होंगी, कहीं छप रहीं होंगी, कहीं दिख रही होंगीं।
मैं कल भी उनका प्रशंसक था, आज भी हूं।
बाक़ी शिल्प-शैली, इंबो-बिंबों वाले लोग अपनी शिक्षा-संबंधी क़िताबों में भी बहुत पढ़े, उसके बाद भी बहुत पढ़े । इन लोगों को पुरस्कार वगैरह मिलें, ये मशहूर हों, पैसा कमाएं, अच्छे कपड़े पहनें, लोग इनसे ऑटोग्राफ़ लें, इनकी बातों पर भक्त की तरह विश्वास करें....ये सब हमारे जैसे समाजों में कोई बहुत हैरानी की बात नहीं लगती।
पर इनके लिखे से वाक़ई कुछ बदलता है, कुछ अच्छा होता है, इसपर आसानी से न तो मैं पहले विश्वास कर पाता था न आज कर पाता हूं।
-संजय ग्रोवर
18-06-2015
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteसुंदर
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