लगभग होश संभालते से ही देखा है कि अपने यहां की सामाजिकता और मानसिकता में ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ या ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ का तत्व प्रमुख रहता है। मैं देखता हूं कि यहां दूसरों में ‘मैं’ होने का आरोप लोग तब लगाते हैं जब चीज़ें उनके ‘मैं’ के हाथ से फ़िसलने लगतीं हैं। समाज जो चंद अहंकारियों की इच्छानुसार जी रहा होता है, जब अपनी मर्ज़ी और समझ से काम करने लगता है तो उन्हें समाज में ‘मैं’, ‘नकारात्मकता’, ‘स्वार्थवादिता’ वगैरह-वगैरह बढ़ती लगने लगती है। असल में ये ख़ुद हद दर्ज़े के पाखंडी, स्वार्थी और ‘मैं’वादी लोग होते हैं। इनकी बेशर्मी की हद यह होती है कि जिस चीज़ से सिर्फ़ इन्हें फ़ायदा होता है, करनेवाले तक को नुकसान होता है (जैसे कि भारत की परंपरागत सार्वजनिक सफ़ाई व्यवस्था), उसे ये नुकसान सहनेवाले के लिए भी सकारात्मक घोषित कर देते हैं। ये एक क़िस्म की सार्वजनिक, सरे-आम ठगी है जिसके लिए भारी सज़ा होनी चाहिए, मगर ऐसे लोग यहां समाज को दिशा देते पाए जाते हैं।
और भी मज़े की बात है कि यहां जब दस-बीस छिछले स्तर के ‘मैं’ जुड़कर एक साथ बैठ जाते हैं तो वे समझते हैं कि अब हम ‘हम’ हो गए हैं और बड़े ‘सामाजिक’ हो गए हैं। मगर कोई यथार्थवादी, व्यवहारिक और अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करनेवाला व्यक्ति आसानी से समझ सकता है जितने ज़्यादा ‘मैं’वादी इकट्ठे होंगे, उतना ‘मैं’ का विस्तार होगा और समाज के लिए ख़तरों और नुकसान की संभावनाएं बढ़ेंगीं।
आपने कविसम्मेलनों से लेकर अन्य सभाओं तक में आम देखा होगा कि किस तरह मंच पर उपस्थित एक ‘मैं’ दूसरे ‘मैं’ को भगवान(?)समान साबित करने में शब्दों, वाक्यों और भाषा की सारी सीमाएं पार कर जाने में भी नहीं चूकता। इसलिए नहीं चूकता कि थोड़ी देर बाद ही उसको भी ऐसी ही ‘प्राप्ति’ होनेवाली है। यह कोई सामाजिकता, समाजसेवा या परोपकार नहीं है बल्कि ‘मैं’ और ‘मैं’ का अवसरवादी गठजोड़ है, माफ़िया है, नेक्सस है।
‘मैं’वादी को समाज की ज़रुरत सबसे ज़्यादा होती है, क्योंकि जब तक दूसरा साथ नहीं होगा, अहंकार की पूर्ति संभव ही नहीं है। सिर्फ़ आईने की तारीफ़ के बल पर ज़्यादा दिन नहीं काटे जा सकते। जब तक कोई 'नीचा' सामने नहीं होगा, आप ऊंचे कहलाओगे कैसे!?
इसके अलावा भी, ‘मैं’वादी आदमी वह होता है जो चाहता है कि दुनिया में सभी लोग उसीकी तरह, या उसीके कहे अनुसार खाएं, वैसे ही बोलें, वैसे ही नाचें, वैसे ही जिएं। इसके लिए ऐसा अहंकारी आदमी कुछ भी करने, कहीं भी जाने, कहीं भी घुसने को तैयार रहता है।
सभी को अपनी तरह बना देने का यह मानसिक रोग है ही कुछ ऐसा।
-संजय ग्रोवर
10-06-2015
और भी मज़े की बात है कि यहां जब दस-बीस छिछले स्तर के ‘मैं’ जुड़कर एक साथ बैठ जाते हैं तो वे समझते हैं कि अब हम ‘हम’ हो गए हैं और बड़े ‘सामाजिक’ हो गए हैं। मगर कोई यथार्थवादी, व्यवहारिक और अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करनेवाला व्यक्ति आसानी से समझ सकता है जितने ज़्यादा ‘मैं’वादी इकट्ठे होंगे, उतना ‘मैं’ का विस्तार होगा और समाज के लिए ख़तरों और नुकसान की संभावनाएं बढ़ेंगीं।
आपने कविसम्मेलनों से लेकर अन्य सभाओं तक में आम देखा होगा कि किस तरह मंच पर उपस्थित एक ‘मैं’ दूसरे ‘मैं’ को भगवान(?)समान साबित करने में शब्दों, वाक्यों और भाषा की सारी सीमाएं पार कर जाने में भी नहीं चूकता। इसलिए नहीं चूकता कि थोड़ी देर बाद ही उसको भी ऐसी ही ‘प्राप्ति’ होनेवाली है। यह कोई सामाजिकता, समाजसेवा या परोपकार नहीं है बल्कि ‘मैं’ और ‘मैं’ का अवसरवादी गठजोड़ है, माफ़िया है, नेक्सस है।
‘मैं’वादी को समाज की ज़रुरत सबसे ज़्यादा होती है, क्योंकि जब तक दूसरा साथ नहीं होगा, अहंकार की पूर्ति संभव ही नहीं है। सिर्फ़ आईने की तारीफ़ के बल पर ज़्यादा दिन नहीं काटे जा सकते। जब तक कोई 'नीचा' सामने नहीं होगा, आप ऊंचे कहलाओगे कैसे!?
इसके अलावा भी, ‘मैं’वादी आदमी वह होता है जो चाहता है कि दुनिया में सभी लोग उसीकी तरह, या उसीके कहे अनुसार खाएं, वैसे ही बोलें, वैसे ही नाचें, वैसे ही जिएं। इसके लिए ऐसा अहंकारी आदमी कुछ भी करने, कहीं भी जाने, कहीं भी घुसने को तैयार रहता है।
सभी को अपनी तरह बना देने का यह मानसिक रोग है ही कुछ ऐसा।
-संजय ग्रोवर
10-06-2015
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