Saturday 20 June 2015

नास्तिक के लिए ईश्वर भी रिश्वत और बलात्कार की तरह है

‪इंटरनेट‬ का प्रसार और ‪‎नास्तिकता‬ पर बहसें बढ़ने के बाद से एक नया ‎तर्क‬ प्रचलन में आया है कि ये ‪धर्मग्रंथ‬, ये क़िताबें और ये ‎कहानियां‬ झूठी हैं, तुम नास्तिक इसपर बहस क्यों करते हो ? पहला सवाल तो यह है कि जो लोग यहां यह क़बूल कर रहे हैं कि यह सब झूठ है क्या उन्होंने अपने जीवन में इन क़िताबों-कहानियों पर आधारित सब ‎रीति‬-रिवाज, कर्मकांड इत्यादि छोड़ दिए हैं या यह सिर्फ़ क़िताबों की आलोचना से बचने की रणनीति है? क्या इन्हें मालूम नहीं कि ऐसी (इन्हीं के क़बूलनामें के अनुसार) झूठी कहानियों पर अरबों रुपए ख़र्च करके सीरियल और फ़िल्में बन रहीं हैं जिनमें पारिवारिक कलह और प्रॉपर्टी के झगड़े से उपजी मार-काट तक को सत्य, आदर्श और अनुकरणीय की तरह दिखाया जाता है। क्या इन्होंने कभी उनका विरोध किया ? लेकिन इन्हें एक छोटे-से वर्चुअल ग्रुप में चल रही तार्किक बहस के विरोध का कितना ध्यान है, कितना वक़्त है, कितनी चिंता है !!

ऐसे लोग कहते हैं कि जब कहानियां झूठी हैं तो आलोचना किसलिए ? ऐसा ही तर्क तथाकथित ‪‎ईश्वर‬ को लेकर भी दिया जाता है कि जब वह है ही नही तो उसपर बात क्यों ? 

अगर इन लोगों ने सचमुच अपने सामाजिक दायरे में यह घोषणा करके कि यह कहानियां झूठी हैं, रीति-रिवाज, कर्मकांड छोड़े होते तो इन्हें अच्छी तरह मालूम होता कि हमारे छोड़ते ही दुनिया से किसी चीज़ या परंपरा का प्रचलन एक दिन में समाप्त नहीं हो जाता। आज की तारीख़ में बहुत-सी स्त्रियां मुक्ति चाहतीं हैं, लेकिन यह सिर्फ़ स्त्रियों पर निर्भर नहीं है ; जब तक समाज का बड़ा हिस्सा नहीं बदल जाता, स्त्रियों को परेशानियां आती रहेंगीं। कौन ‎स्त्री‬ चाहेगी कि ‪‎बलात्कार‬ हो!? मगर होते हैं। होते हैं तो उनपर बात भी करनी पड़ती है। बहुत-से लोग हैं जो ‪‎रिश्वत‬ नहीं देना चाहते ; मगर जब वे कोई काम कराने जाते हैं तो रिश्वत मांगी जाती है। मांगी जाती है और आप नहीं देते तो आपको तर्क-वितर्क करना पड़ता है। भले आप न करना चाहते हों पर करना पड़ता है। वरना किसके पास वक़्त फ़ालतू है ? पचास-सौ रुपए दे दें तो काम हो जाएगा और वक्त भी बचेगा मगर, अगर आपको लगता है कि रिश्वत देना ग़लत है और न देते तो ‪मानवता‬ के लिए कुछ कर पाते, तो इसे न करने की टीस आपको सताती रहेगी। नास्तिक के लिए ईश्वर भी रिश्वत और बलात्कार की तरह है, वह चाहे न चाहे, ‪सामाजिक‬ परिस्थितियों की वजह से उसे ईश्वर पर बात करनी पड़ती है।


मुझे हैरानी होती है कि तथाकथित ‎आस्तिक‬ इतनी मामूली बात भी नहीं जानते कि किसी भी ‎बच्चे‬ के पास अपनी मनपसंद स्थितियों में पैदा होने का विकल्प नहीं होता। अगर किसी बच्चे का जन्म ‪जेल‬ में हुआ है तो क्या उसे ज़िंदग़ी-भर जेल में ही रहना चाहिए ? क्या जेल में पैदा होना बच्चे का अपना अपराध है कि वह ज़िंदगी-भर इसकी सज़ा भुगतता रहे ? ईश्वर और ‪धर्म‬ के नाम पर बचपन से दी गई ‪धारणाएं‬, ‎मान्यताएं‬, मानसिकताएं, सामाजिक स्थितियां, ‪कर्मकांड‬, रीति-रिवाज आदि किसी विवेकवान नास्तिक के लिए काराग़ार की तरह हैं। जब तक वह इनसे मुक्त नहीं हो जाएगा, छटपटाता रहेगा और ‪‎मुक्ति‬ की कोशिश करता रहेगा।




‪-संजयग्रोवर‬

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