कई बार सोचता हूं कि अगर मैं भी कभी जातिवादी, संप्रदायवादी, अंथ-पंथवादी, अगड़मवादी, बगड़मवादी होना चाहूं तो मेरे पास भी कोई ‘ढंग की उपलब्धियां’ हैं क्या! दूर-दूर तक कुछ नज़र नहीं आता। न कभी किसीको इसलिए फ़्रेंड-रिक्वेस्ट भेजी कि वो ग्रोवर है, न बाक़ी ज़िंदग़ी में किसीसे इसलिए संबंध बनाए। संबंध क्या यह ख़्याल तक नहीं आया कि ऐसा भी सोचना चाहिए। इंटरनेट पर आए तो यह ज़रुर सोचा कि कुछ प्रगतिशील और नास्तिक मित्र ढूंढे जाएं, ग्रोवर का तो कहीं सपना तक नहीं आया। अब जो प्रगतिशील और नास्तिक दरअसल वेदवादी, क़ुरानवादी, गीतावादी ब्राहमणवादी, अगड़म-बगड़मवादी निकले तो यह उनकी समस्या है, इसके लिए मैं क्यों परेशान होता फिरुं !? अपने तो भेजे में कभी यह ख़्याल तक नहीं आया कि पता किया जाए कि ग्रोवर या पंजाबी होते कौन हैं। इस पहचान का तोहफ़ा भी जब दिया, दूसरों ने ही दिया। अपने लिए तो साफ़ है कि जिन शब्दों का मतलब अपने लिए औपचारिकता से ज़्यादा है ही नहीं, उसमें ढूंढने को बचता ही क्या है!? कोई ग्रुप बनाते समय भी यह ख़्याल फटका तक नहीं कि इनमें ढूंढ-ढूंढकर ग्रोवरों और पंजाबियों को शामिल किया जाए। न हीं कुछ लिखते या करते समय यह जताने का पवित्र विचार आया कि देखो, यह मैंने इसलिए अच्छा या बुरा किया, कर दिखाया कि मैं ग्रोवर या पंजाबी हूं।
इसके विपरीत दुष्प्रचारवादियों के मानसिक हालात उनके एक-एक क़रतब में दिखाई पड़ते हैं। उनकी मित्रता-सूचियां, उनके ग्रुप, उनको लाइक करनेवाले, त्यौहारों-रीति-रिवाजों-प्रतीकों, खिलाड़ियों-आयकनों-महापुरुषों-अभिनेताओं की सफ़लता(!) आदि-आदि के नाम पर अपनी पहचान और गर्व जताने की उनकी ललक.....सब कुछ इतना स्पष्ट होता है कि ज़्यादा बताने की ज़रुरत ही नहीं है। यहां तक कि वे दूसरे ग्रुपों में भी अपने गुट बनाकर अपनी मानसिकता बता देते हैं, छुपा नहीं पाते। भले वे ये सब परंपरा के नाम पर करें या प्रगतिशीलता के नाम पर, आजकल लोग तुरंत पहचान भी जाते हैं।
मैं तो दुष्प्रचारवादियों को इतना ही बताना चाहता हूं कि दुष्प्रचार वे चाहे जितना करें, यह उनका स्वभाव ही है, इसी हेतु उनका जन्म हुआ है मगर वे मुझे सचमुच ही अपने जैसा जातिवादी, संप्रदायवादी, वर्णवादी, अगड़म-बगड़मवादी कभी बना पाएंगे, यह ख़्याल दिमाग़ से निकाल कर फेंक दें।
मेरे लिए नास्तिकता का क्या मतलब है, मैं इसी तरह बताता रहूंगा।
-संजय ग्रोवर
(December10, 2014 on facebook)
इसके विपरीत दुष्प्रचारवादियों के मानसिक हालात उनके एक-एक क़रतब में दिखाई पड़ते हैं। उनकी मित्रता-सूचियां, उनके ग्रुप, उनको लाइक करनेवाले, त्यौहारों-रीति-रिवाजों-प्रतीकों, खिलाड़ियों-आयकनों-महापुरुषों-अभिनेताओं की सफ़लता(!) आदि-आदि के नाम पर अपनी पहचान और गर्व जताने की उनकी ललक.....सब कुछ इतना स्पष्ट होता है कि ज़्यादा बताने की ज़रुरत ही नहीं है। यहां तक कि वे दूसरे ग्रुपों में भी अपने गुट बनाकर अपनी मानसिकता बता देते हैं, छुपा नहीं पाते। भले वे ये सब परंपरा के नाम पर करें या प्रगतिशीलता के नाम पर, आजकल लोग तुरंत पहचान भी जाते हैं।
मैं तो दुष्प्रचारवादियों को इतना ही बताना चाहता हूं कि दुष्प्रचार वे चाहे जितना करें, यह उनका स्वभाव ही है, इसी हेतु उनका जन्म हुआ है मगर वे मुझे सचमुच ही अपने जैसा जातिवादी, संप्रदायवादी, वर्णवादी, अगड़म-बगड़मवादी कभी बना पाएंगे, यह ख़्याल दिमाग़ से निकाल कर फेंक दें।
मेरे लिए नास्तिकता का क्या मतलब है, मैं इसी तरह बताता रहूंगा।
-संजय ग्रोवर
(December10, 2014 on facebook)
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