Thursday 3 January 2019

क्या ईश्वर क़िताबें लिखता है!?

क्या ईश्वर क़िताबें लिखता है!? हम सब कभी न कभी ऐसे दावों से दो-चार होते रहे हैं। कमाल की बात यह है कि कथित ईश्वर की लिखी और आदमी की लिखी क़िताबों में ज़रा-सा भी अंतर नहीं दिखाई देता। वही पीला क़ाग़ज़, वही काली स्याही ! ईश्वर को लिखनी ही थीं तो ज़रा अलग़ तरह से लिखता कि ग़रीब आदमी भी पढ़ लेता, अनपढ़ भी पढ़ लेता, मुसीबत में फंसा आदमी भी पढ़ लेता। कहीं लिख देता आसमान पर कि सुबह उठकर ऊपर देखते और चमचमाते अक्षर दिखाई पड़ते। अक्षर तो छोड़िए, आजकल तो आकाशवाणी भी नहीं होती। लिखनी थी तो लिखता कहीं नदी पर, समुद्र पर, पहाड़ पर। कुछ ऐसे अक्षरों में लिखता कि अशिक्षित भी पढ़ ले। मगर यह तो ऐसी भाषा है कि पढ़े-लिखे को भी आसानी से समझ में नहीं आती। जैसे कई लेखक लिखते हैं सिर्फ़ इसलिए कि हमारी तो लग ही जानीं हैं सारी प्रतियां, सारी संस्थाओं में ; सैटिंग जो बढ़िया है अपनी।

मगर यह तो ऐसी भाषा है कि पढ़े-लिखे को भी आसानी से समझ में नहीं आती। जैसे कई लेखक लिखते हैं सिर्फ़ इसलिए कि हमारी तो लग ही जानीं हैं सारी प्रतियां, सारी संस्थाओं में ; सैटिंग जो बढ़िया है अपनी।


और इन क़िताबों के बारे में कोई अपने विचार तो प्रकट करे ज़रा! ईश्वर को तो किसने देखा है, लेकिन उसके स्वघोषित रक्षक। डंडे ले-लेकर निकल आते हैं। इनकी भावनाएं आहत हो जातीं हैं। ज़िंदा आदमी को कोई दिन-दहाड़े मार डाले, इनके सामने मार डाले, इन्हीं में से कोई मार डाले, क्या फ़र्क पड़ता है, आदमी तो है ही इसीलिए, सड़ने-मरने के लिए, मगर क़िताबों का तो कहना ही क्या! इनका बस चले तो क़िताबें भी डंडे से लिख डालें। पता नहीं इनकी भावनाएं इनके दिल में हैं कि इनके डंडों में हैं, कुछ समझ में नहीं आता। और इनकी क़िताबों से दूसरों की भावनाएं तो क्या, जिंदगियां ही ख़राब हो जाएं, हो जाएं तो हो जाएं, क्या फ़र्क पड़ता है! इनके डंडे में भी अतिकोमल भावनाएं निवास करतीं हैं और दूसरों के प्राण भी निकल जाएं तो क्या, आना-जाना तो लगा ही रहता है। इनकी क़िताबों को कुछ कह दो तो ये मारे-पीटें, मुकदमा ठोंक दें और इनकी क़िताबों का लिखा लोगों की पीढ़ियों की पीढ़ियों का ख़ून पी जाए तो वे किसे पकड़ें? इनके तो लेखकों का अता-पता ही नहीं, कोई फ़ोन नंबर नहीं, ईमेल नहीं, घर-दफ्तर का पता ठिकाना नहीं। कमाल की बात कि जिसकी क़िताब की वजह से तरह-तरह के लफ़ड़े हो रहे हैं उसका पता ही नहीं किधर छुपा है!?

कमाल की बात कि जिसकी क़िताब की वजह से तरह-तरह के लफ़ड़े हो रहे हैं उसका पता ही नहीं किधर छुपा है!?

ग़़ैर-ज़िम्मेदारी पता नहीं किसे कहते हैं!? 

-संजय ग्रोवर

(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट ग्रुप)
12 June 2013

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