बचपन से लेकर जवानी तक एक वाक्य से अकसर सामना होता रहा-‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है’। लेकिन स्वस्थ शरीर वालों की बातें और क्रिया-कलाप देखकर मन यह मानने को कभी राज़ी न हुआ। उस वक्त चूंकि स्वास्थ्य ज़रा-ज़रा सी बात पर ख़राब हो जाया करता था सो यह भी लगता कि कहीं यह स्वस्थ लोगों से मेरी चिढ़ या खीज तो नहीं है!? लेकिन विचार परिपक्व होते-होते यह बिलकुल ही साफ़ हो गया कि जड़ और यथास्थितिवादी समाजों में स्वस्थ और पढ़े लिखे होने से चीज़ों को जोड़कर देखना अत्यंत ख़तरनाक है। फ़िर तो कहीं-कहीं, कभी-कभी स्वस्थ मस्तिष्क तो क्या मस्तिष्क के होने पर भी शंका होने लगी।
बचपन से लेकर जवानी तक एक वाक्य से अकसर सामना होता रहा-‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है’। लेकिन स्वस्थ शरीर वालों की बातें और क्रिया-कलाप देखकर मन यह मानने को कभी राज़ी न हुआ। उस वक्त चूंकि स्वास्थ्य ज़रा-ज़रा सी बात पर ख़राब हो जाया करता था सो यह भी लगता कि कहीं यह स्वस्थ लोगों से मेरी चिढ़ या खीज तो नहीं है!?
नास्तिकता कोई आसान विषय नहीं है। इस ग्रुप को थोड़े ही दिन हुए हैं पर यहां कुछ उपलब्धियां भी हुईं हैं। कम-अज़-कम मेरे लिए व्यक्तिगत रुप से तो हैं ही। सुधीर कुमार जाटव और किरनपाल सिंह जैसे हमारे मित्रों के सशक्त तर्क और व्यंग्यपूर्ण भाषा ‘मेरिट’ की पुरानी धांधलेबाज़ स्थापनाओं को साफ़-साफ़ झुठला रहे हैं, कितने ही नए नास्तिक मित्रों से मैं यहां परिचित हुआ हूं। लेकिन हमारा समाज अभी भी नए को स्वीकार करने का अभ्यस्त नहीं हुआ है। तिस पर इंटरनेट के आगमन ने पुराने धाकड़ों के लिए हालात कुछ ख़राब कर दिए हैं। लोग यहां विचार पर ध्यान देने लगे हैं, पद-पदवियां-सामाजिक स्टेटस आदि सब अब पीछे खिसक रहे हैं। ऐसे में तरह-तरह की अजीबो-ग़रीब स्थितियां सामने आएंगी ही आएंगी।
मैं यह तो नहीं कहूंगा कि मेरी बात सौ प्रतिशत सच है पर कई बार देखा है कि जिन लोगों की नीयत ठीक होती है वे अपनी बात को समझाने के लिए तर्क रखते हैं, तथ्य देते हैं, उदाहरण दे-देकर तरह-तरह से अपनी बात समझाने की कोशिश करते हैं। इसके विपरीत जो लोग जेनुइन नहीं होते वे तरह-तरह से डराते हैं, क्लिष्ट से क्लिष्ट भाषा बोलेंगे, संस्कृतनुमा हिंदी बोलेंगे, बड़े-पुराने विद्वानों के उद्धरण देंगे, तर्क से नहीं क़िताबों के हवाले से ख़ुदको सही ठहराने की कोशिश करेंगे, कई बार तो बीच-बीच में, इशारों-इशारों में छोटे-मोटे लालच भी देंगे, फिर भी कुछ नहीं बचेगा तो ‘अकेले पड़ जाओगे’ कहकर डराना शुरु कर देंगे। कई बार लगता है कि बहस इनकी मजबूरी है, करना ये कुछ और ही चाहते हैं।
बहरहाल नास्तिकता अपनी नयी और अलग़ सोच-समझ से हर स्थिति को संभालेगी और निपटेगी।
-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
8 July 2013
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