आप ख़रगोश को देखेंगे और पहचान जाएंगे कि ख़रगोश है। बैल दिखे, घोड़ा दिखे, कबूतर दिखे, रीछ दिखे, सबको आसानी से पहचान लेंगे। उनकी कुछ आदतें हैं, रंग-रुप है, स्वभाव है, जो सामने है ; थोड़ा-बहुत फ़र्क होगा, लेकिन पहचान लेंगे। और आदमी को भी पहचान लेंगे, वह भी साफ़ दिखाई पड़ता है कि यह जो सामने से चला आ रहा है, आदमी है। स्त्री-पुरुष भी पहचान लेंगे। लेकिन आदमी के अलग-अलग धर्म, जातियां, नागरिकता !? अगर उनकी कहीं लिखा-पढ़ी न हो रखी हो, कोई प्रतीक न हो और वह ख़ुद न बताएं तो क्या है कोई ऐसा तरीक़ा कि कोई बता दे कि यह किस धर्म, किस जाति का आदमी है!? साइंस के पास भी ऐसा कोई टैस्ट नहीं है। ऐसा इसलिए है कि शेर वास्तविकता है, बिल्ली वास्तविकता है, आदमी वास्तविकता है, स्त्री-पुरुष वास्तविकता हैं मगर धर्म और जातियां या तो गढ़े गए हैं या गढ़ गए हैं। इन्हें आप पहचानते हैं कुछ बाहरी चीज़ों से, कुछ प्रतीकों से, कुछ तीज-त्यौहारों से, कुछ कपड़ों से, कुछ रीति-रिवाजों से....।
मगर आप देखते हैं कि यह भी पूरा सच नहीं है। आप देखते हैं कि अगर किसी कथित धर्म का प्रतीक दाढ़ी, मूंछ, सर के बाल या ऐसा ही कुछ और है तो कभी आप यह भी देखते हैं कि कोई उस कथित धर्म का कट्टर विरोधी भी ठीक वैसे ही प्रतीक धारण किए होता है। मुझे इसमें कोई हैरानी नहीं होती। क्योंकि थोपी गई चीज़ें थोपी हुई ही रहेंगी। कभी भी आदमी का मन उससे उकता सकता है।
कई जगह पढ़ा और सुना था कि हर स्त्री एक दिन फ़लां रंग का जोड़ा पहनना चाहती है, वहां अर्थ यह था कि शादी करना चाहती है। मगर फ़िर कहानियों में, फ़िल्मों में और फ़िर जीवन में देखा कि कुछ दूसरे धर्मों/संप्रदायों की स्त्रियां शादी के वक्त किसी और रंग के कपड़े पहने हुए हैं। समझ में आया कि यह बनाई हुई बात है, ज़रुरी नहीं कि यह स्त्रियों का स्वभाव हो। अब तो यह धारणा भी टूट रही है कि हर स्त्री शादी करना चाहती है, एक की होके रहना चाहती है, चूल्हा-चक्की करना चाहती है, बच्चे पैदा करना चाहती है।
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है।
कोई तीज-त्यौहार पर किसीको बधाई दे, ज़रुर दे, अच्छी बात है, दूसरे को क्या एतराज़ हो सकता है? मैंने तो कभी आपत्ति की नहीं। मैं तो आपत्ति करुंगा तो यह कहूंगा कि भाई जो बधाई न दे, उसे मूर्ख मत समझो/कहो। हो सकता है उसकी इंसानियत की समझ आपसे ज़्यादा गहरी हो। हो सकता उसकी बीमारी की समझ आपसे अलग हो, हो सकता है वह उस कुंए में कभी गया ही न हो जिससे बाहर निकलने के तरीक़े आप बता रहे हैं।
-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
9 August 2013
मगर आप देखते हैं कि यह भी पूरा सच नहीं है। आप देखते हैं कि अगर किसी कथित धर्म का प्रतीक दाढ़ी, मूंछ, सर के बाल या ऐसा ही कुछ और है तो कभी आप यह भी देखते हैं कि कोई उस कथित धर्म का कट्टर विरोधी भी ठीक वैसे ही प्रतीक धारण किए होता है। मुझे इसमें कोई हैरानी नहीं होती। क्योंकि थोपी गई चीज़ें थोपी हुई ही रहेंगी। कभी भी आदमी का मन उससे उकता सकता है।
कई जगह पढ़ा और सुना था कि हर स्त्री एक दिन फ़लां रंग का जोड़ा पहनना चाहती है, वहां अर्थ यह था कि शादी करना चाहती है। मगर फ़िर कहानियों में, फ़िल्मों में और फ़िर जीवन में देखा कि कुछ दूसरे धर्मों/संप्रदायों की स्त्रियां शादी के वक्त किसी और रंग के कपड़े पहने हुए हैं। समझ में आया कि यह बनाई हुई बात है, ज़रुरी नहीं कि यह स्त्रियों का स्वभाव हो। अब तो यह धारणा भी टूट रही है कि हर स्त्री शादी करना चाहती है, एक की होके रहना चाहती है, चूल्हा-चक्की करना चाहती है, बच्चे पैदा करना चाहती है।
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है
कुछ लोग कहते हैं कि तीज-त्यौहार विभिन्न प्रकार के संप्रदायों को क़रीब लानेवाले अवसर हैं, इनका स्वागत करना चाहिए। बात अच्छी लगती है, मैं भी कभी-कभार त्यौहार वगैरह मनाता रहा हूं। मगर सोचने की बात यह है कि आदमी-आदमी में भेद पैदा करनेवाली चीज़ें कौन-सी हैं ? वे भी तो तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, प्रतीक इत्यादि हैं। इन्हीं के जोड़-तोड़ को ही तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म वगैरह कहके परिभाषित किया जाता है।
कोई तीज-त्यौहार पर किसीको बधाई दे, ज़रुर दे, अच्छी बात है, दूसरे को क्या एतराज़ हो सकता है? मैंने तो कभी आपत्ति की नहीं। मैं तो आपत्ति करुंगा तो यह कहूंगा कि भाई जो बधाई न दे, उसे मूर्ख मत समझो/कहो। हो सकता है उसकी इंसानियत की समझ आपसे ज़्यादा गहरी हो। हो सकता उसकी बीमारी की समझ आपसे अलग हो, हो सकता है वह उस कुंए में कभी गया ही न हो जिससे बाहर निकलने के तरीक़े आप बता रहे हैं।
-संजय ग्रोवर
(फ़ेसबुक, नास्तिक द अथीस्ट)
9 August 2013
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