कभी क़िताब या कॉपी ज़मीन पर गिर जाती तो बच्चे झट से उठाते और ‘हाय! विद्या गिर गई!’ कहकर माथे से लगाने लगते। नहीं समझ पाता था कि ऐसा करने से क्या होगा? मेरी अपनी क़िताब-कॉपी गिरती तो मैं तो बस यही देखता कि फ़ट तो नहीं गई या मिट्टी तो नहीं लगी। लगी हो तो साफ़ करके बस्ते (स्कूल बैग) में रख लेता। प्रतीकात्मकता, कर्मकांड और रस्मो-रिवाज़ मेरी समझ में कभी नहीं आए। मैं यह भी जानता था कि क़िताब माथे से लगाने वाले कई बच्चे इम्तिहान के वक़्त नक़ल करने में कतई नहीं हिचकिचाते। उस वक़्त विरोध का साहस कम था, आत्मविश्वास का मतलब न तो पुरानी परिभाषाओं से समझ में आया था न ही उसको लेकर अपनी कोई समझ पैदा हुई थी, कई सालों तक बीच में लटकने जैसी स्थिति बनी रही।
दूसरे देशों का पता नहीं पर अपने यहां लगता है कि लोगों की आदत और दिलचस्पी असली काम करने या असली ज़िंदगी जीने से ज़्यादा रस्मों, कर्मकांडों और अभिनय में है। पता नहीं भारत में बहिनों की सचमुच रक्षा करनेवाले भाईयों का असली आंकड़ा क्या है मगर देखा है कि बहुत-से लोग धागों की रक्षा जमकर करते हैं। कई लोग रात को सोते समय या दिन में नहाते समय भी धागा अपने-से अलग नहीं करते। कई लोग हर साल रावण को मारकर बुराई का ख़ात्मा कर देते हैं तो कई लोग बीएसपी, कांग्रेस, आरएसएस, वामपंथ आदि को ग़ाली देकर बाक़ी समाज को भारमुक्त कर देते हैं। इस देश में तो, सुनने में आया है कि, शायरी और दर्ज़ीगिरी में भी काम सिखाने के पहले या बाद में उस्ताद और शागिर्द आपस में कुछ धागों की बांधा-बूंधी करते हैं। ऐसी जगह पर प्रगतिशीलता को समझ पाना या समझा पाना वाक़ई टेढ़ी खीर और कलेजे का काम है। कई लोग कपड़ों से प्रगतिशीलता और पढ़ाई-लिखाई नापा करते हैं। भारत में आठ महीने पड़नेवाली सड़ी गर्मी में कोट-टाई-जूते-जुराबें पहनकर पसीने-पसीने होते हुए, गिरते-पड़ते हुए भी ख़ुदको पढ़ा-लिखा और मॉडर्न कहलवा ले जाना मज़ाक़ कैसे हो सकता है !? प्रतीकात्मकता क्या कोई मज़ाक़ है!? कोई बोलके तो दिखाए! कई साल तक तो हम लोग छुरी-कांटों की ‘हाईजेनिकता’ समझने के बजाय उन्हें स्टेटस सिम्बल के तौर पर इस्तेमाल करते रहे।
दिलचस्प है कि अपने यहां लोग अकसर कर्मकांड निभाने को ही बड़ी सामाजिक ज़िम्मेदारी मानते हैं। अकसर प्रगतिशील समझे जानेवाले पुरुष और स्त्रियां भी दहेज, लगन, तिलक, चूड़ा, भात आदि देने को सामाजिक ज़िम्मेदारी मानते हैं और इन्हें हटाने, बदलने या रोकने की बात या कोशिश करनेवालों को ही एक बुराई की तरह स्थापित करने में लग जाते हैं। ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ या ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ यहां एक नितांत ‘सहज’ सामाजिक आदत या चलन है। मेरी समझ में ऐसे लोग इंसानियत के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से भागे हुए लोग होते हैं। इनकी दिलचस्पी कमज़ोर पक्ष की स्थिति सुधारने के बजाय अमानवीय रीति-रिवाजों को निपटाकर तुरत-फु़रत महान बन जाने में होती है। ज़ाहिर है कि आज भी हमारे समाज में रिश्तों के नाम पर पैसे का अश्लील लेन-देन ख़ुलेआम चलता है और स्पष्टतः इस सारे आयोजन में कमज़ोर स्थिति स्त्रियों या लड़कीवालों की होती है। लेकिन यहां मर्दों के साथ तथाकथित प्रगतिशील स्त्रियां भी ख़ुशी-ख़ुशी भाग लेती दिखाई देतीं हैं। इन अवसरों पर होनेवाले रीति-रिवाजों और कर्मकांडों की उपयोगिता मैं कभी समझ नहीं पाया। इन रीति-रिवाजों और कर्मकांडों से न तो किसी काम के सफ़ल होने की गारंटी होती है न ही इनकी कोई ठोस वजह समझ में आती है। जो काम कोर्ट में आधे घंटे और मामूली ख़र्चे में हो सकता है उसके लिए इस तरह पैसा और वक़्त बर्बाद करना कतई समझ में नहीं आता।
प्रतीकात्मकता में नाटकीयता या अभिनय का बड़ा रोल है। आप पूरे साल-भर सामाजिक बदलाव के लिए मामूली ख़तरा भी न उठाएं मगर दशहरे पर रावण के पुतले के दहन में ताली बजाकर समाज में सम्मानित बने रह सकते हैं। आप बहिन/स्त्री की रक्षा के वास्तविक काम को कभी न करते हुए भी मात्र धागा बंधाकर और कुछ धनराशि देकर अपने-आपको बहादुर, सामाजिक और मानवीय मान सकते हैं। लब्बो-लुआब यह कि प्रतीकात्मकता का ज़्यादातर खेल असली कामों को छोड़कर फ़ालतू के बचकाने रीति-रिवाजों से चलता है। जिस देश के लोग अपनी आधी से ज़्यादा ज़िंदगी बेमतलब के कर्मकांडों और (अपने ही बनाए अमानवीय रीति-रिवाजों के चलते) लड़के-लड़कियों के लिए रिश्ते देखने में लगा देते हों, उस देश का विज्ञान, विचार, आधुनिकता और मौलिकता में पिछड़ते चले जाना कोई हैरानी की बात नहीं मानी जानी चाहिए।
मैं रीति-रिवाजों में भाग लेने में बहुत उत्सुक तो कभी भी नहीं रहा और पिछले छः सात सालों से तो इस तरह के कामों से पूरी तरह छुटकारा पा चुका हूं। अब सिर्फ़ असली/वास्तविक और प्रामाणिक काम ही करता हूं। बेवजह, भीड़/समाज के डर से, वक़्त या पैसा बरबाद करनेवाला कोई काम नहीं करता।
-संजय ग्रोवर
03-08-2016
(असलियत से भागने के सम्मानित उपाय-2)
दूसरे देशों का पता नहीं पर अपने यहां लगता है कि लोगों की आदत और दिलचस्पी असली काम करने या असली ज़िंदगी जीने से ज़्यादा रस्मों, कर्मकांडों और अभिनय में है। पता नहीं भारत में बहिनों की सचमुच रक्षा करनेवाले भाईयों का असली आंकड़ा क्या है मगर देखा है कि बहुत-से लोग धागों की रक्षा जमकर करते हैं। कई लोग रात को सोते समय या दिन में नहाते समय भी धागा अपने-से अलग नहीं करते। कई लोग हर साल रावण को मारकर बुराई का ख़ात्मा कर देते हैं तो कई लोग बीएसपी, कांग्रेस, आरएसएस, वामपंथ आदि को ग़ाली देकर बाक़ी समाज को भारमुक्त कर देते हैं। इस देश में तो, सुनने में आया है कि, शायरी और दर्ज़ीगिरी में भी काम सिखाने के पहले या बाद में उस्ताद और शागिर्द आपस में कुछ धागों की बांधा-बूंधी करते हैं। ऐसी जगह पर प्रगतिशीलता को समझ पाना या समझा पाना वाक़ई टेढ़ी खीर और कलेजे का काम है। कई लोग कपड़ों से प्रगतिशीलता और पढ़ाई-लिखाई नापा करते हैं। भारत में आठ महीने पड़नेवाली सड़ी गर्मी में कोट-टाई-जूते-जुराबें पहनकर पसीने-पसीने होते हुए, गिरते-पड़ते हुए भी ख़ुदको पढ़ा-लिखा और मॉडर्न कहलवा ले जाना मज़ाक़ कैसे हो सकता है !? प्रतीकात्मकता क्या कोई मज़ाक़ है!? कोई बोलके तो दिखाए! कई साल तक तो हम लोग छुरी-कांटों की ‘हाईजेनिकता’ समझने के बजाय उन्हें स्टेटस सिम्बल के तौर पर इस्तेमाल करते रहे।
दिलचस्प है कि अपने यहां लोग अकसर कर्मकांड निभाने को ही बड़ी सामाजिक ज़िम्मेदारी मानते हैं। अकसर प्रगतिशील समझे जानेवाले पुरुष और स्त्रियां भी दहेज, लगन, तिलक, चूड़ा, भात आदि देने को सामाजिक ज़िम्मेदारी मानते हैं और इन्हें हटाने, बदलने या रोकने की बात या कोशिश करनेवालों को ही एक बुराई की तरह स्थापित करने में लग जाते हैं। ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ या ‘चोरी और सीनाज़ोरी’ यहां एक नितांत ‘सहज’ सामाजिक आदत या चलन है। मेरी समझ में ऐसे लोग इंसानियत के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से भागे हुए लोग होते हैं। इनकी दिलचस्पी कमज़ोर पक्ष की स्थिति सुधारने के बजाय अमानवीय रीति-रिवाजों को निपटाकर तुरत-फु़रत महान बन जाने में होती है। ज़ाहिर है कि आज भी हमारे समाज में रिश्तों के नाम पर पैसे का अश्लील लेन-देन ख़ुलेआम चलता है और स्पष्टतः इस सारे आयोजन में कमज़ोर स्थिति स्त्रियों या लड़कीवालों की होती है। लेकिन यहां मर्दों के साथ तथाकथित प्रगतिशील स्त्रियां भी ख़ुशी-ख़ुशी भाग लेती दिखाई देतीं हैं। इन अवसरों पर होनेवाले रीति-रिवाजों और कर्मकांडों की उपयोगिता मैं कभी समझ नहीं पाया। इन रीति-रिवाजों और कर्मकांडों से न तो किसी काम के सफ़ल होने की गारंटी होती है न ही इनकी कोई ठोस वजह समझ में आती है। जो काम कोर्ट में आधे घंटे और मामूली ख़र्चे में हो सकता है उसके लिए इस तरह पैसा और वक़्त बर्बाद करना कतई समझ में नहीं आता।
प्रतीकात्मकता में नाटकीयता या अभिनय का बड़ा रोल है। आप पूरे साल-भर सामाजिक बदलाव के लिए मामूली ख़तरा भी न उठाएं मगर दशहरे पर रावण के पुतले के दहन में ताली बजाकर समाज में सम्मानित बने रह सकते हैं। आप बहिन/स्त्री की रक्षा के वास्तविक काम को कभी न करते हुए भी मात्र धागा बंधाकर और कुछ धनराशि देकर अपने-आपको बहादुर, सामाजिक और मानवीय मान सकते हैं। लब्बो-लुआब यह कि प्रतीकात्मकता का ज़्यादातर खेल असली कामों को छोड़कर फ़ालतू के बचकाने रीति-रिवाजों से चलता है। जिस देश के लोग अपनी आधी से ज़्यादा ज़िंदगी बेमतलब के कर्मकांडों और (अपने ही बनाए अमानवीय रीति-रिवाजों के चलते) लड़के-लड़कियों के लिए रिश्ते देखने में लगा देते हों, उस देश का विज्ञान, विचार, आधुनिकता और मौलिकता में पिछड़ते चले जाना कोई हैरानी की बात नहीं मानी जानी चाहिए।
मैं रीति-रिवाजों में भाग लेने में बहुत उत्सुक तो कभी भी नहीं रहा और पिछले छः सात सालों से तो इस तरह के कामों से पूरी तरह छुटकारा पा चुका हूं। अब सिर्फ़ असली/वास्तविक और प्रामाणिक काम ही करता हूं। बेवजह, भीड़/समाज के डर से, वक़्त या पैसा बरबाद करनेवाला कोई काम नहीं करता।
-संजय ग्रोवर
03-08-2016
(असलियत से भागने के सम्मानित उपाय-2)
काफी दिनों बाद कुछ अच्छा पढ़ा है। सर लिखते रहा करो।
ReplyDeleteशुक्रिया लव सागर।
Deleteबहुत खूब ...
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