कई महीनें पहले मित्र नीलांबुज ने एक पोस्ट लगाई थी जिसमें निराला की प्रगतिशीलता का ज़िक्र यूं आया था कि उन्होंने अपनी बेटी की शादी में पंडित को नहीं बुलाया था, मंत्र ख़ुद ही पढ़ लिए थे। मैंने तभी कहा था मुझे तो इसमें कहीं प्रगतिशीलता नहीं नज़र आती।
क्या प्रगतिशीलता इतनी ही आसान चीज़ है!?
फ़िर तो ऐसा हो जाएगा कि यार मैं पहले सोमवार को अंधविश्वासी होता था, अब मैंने क्रांति कर दी है, परंपरा तोड़ डाली है अब मैं बुधवार को अंधविश्वासी होता हूं।
क्या प्रगतिशीलता मज़ाक़ है!?
प्रगतिशीलता के नाम पर अपने यहां यही सब चलता है कि अब स्त्रियां भी अंतिम संस्कार में जाने लगीं हैं, ग्रंथ पढ़ने लगीं हैं! कुछ स्त्रियां और कुछ पुरुष इसपर ख़ुश हो सकते हैं, मगर संपूर्णता में देखें तो यह रुढ़िवाद का विस्तार है, रुढ़िवादियों की जीत है। स्त्री सचमुच प्रगतिशील और साहसी होती तो कहती कि ये बेमतलब के कर्मकांड न तो मैं करुंगी और न, हे पुरुष, तुम्हे करने दूंगी।
'इतनी सारी प्रगतिशीलता' के बावज़ूद भारत में दहेज तक न बंद हो सका !!! असलियत जानने के लिए किसी विवाह समारोह में जा देखें। पुरुष तो क्या, किसी स्त्री को भी वहां चल रहे लेन-देन पर नाराज़ होता न पाएंगे। हो सकता है कोई मजबूरी हो बोल न पाने की मगर नाराज़गी हो तो चेहरे पर तो दिखाई देती है। चेहरे के भाव छुपा लो तो आंखें फ़िर भी बोल पड़तीं हैं। मगर कहां!! वहां तो सब ऐसे प्रसन्न दिखाई देते हैं जैसे दुनिया की सारी समस्याएं ख़त्म हो गईं हों!
और कोई क्यों ऐसे लोगों को प्रगतिशील कहेगा जो हर किसीको भगवान बनाने में लगे रहते हों!? पुराने भगवानों से छुटकारा हुआ नहीं और ये रोज़ाना नए खड़े किए जा रहे हैं! निराला पर कुछ न कहो, गुलज़ार पर मत बोलो, जावेद अख़्तर पर क्यों बोले.......
ये प्रगतिशील लोग हैं!? ये कहते हैं कि मशहूर आदमी की आलोचना करना चांद पर थूकना है!! कौन तय करेगा कौन चांद है!? यू तो साइंस ने बता दिया है कि चांद में गड्ढों के सिवाय कुछ नहीं है, चमकता भी सूरज की रोशनी से है। चलो झूठ-मूठ मान लिया कि चांद की रोशनी बड़ा चमत्कार है, फिर भी आदमी को चांद होने की क्या ज़रुरत है!? और मार्क्सवादी कहे कि ‘बड़े आदमी की छोटे लोग इसलिए आलोचना करते हैं कि इस बहाने उनका भी नाम हो जाता है’! ये ठहरे मार्क्सवादी! साम्यवादी! समानतावादी! बड़ा-छोटा कर रहे हैं!?
और अध्यात्मवादी !? महाविनम्र!! ईश्वर या किसी अध्यात्मिक शक्ति के सामने ख़ुदको तिनके समान मानते हैं!! इन्हें चांद बनने की क्या ज़रुरत पड़ गई!? अपने समय के सबसे ज़्यादा प्रगतिशील प्रेमचंद की लानत-मलामत हो सकती है, मार्क्स की दाढ़ी खींची जा सकती है, अंबेडकर को गलियाआ जा सकता हैं, नेहरु-गांधी पर बौछार हो सकती है तो निराला और प्रसाद उससे बाहर कैसे रह सकते हैं!? उदयप्रकाश जीतेजी रोज़ाना हड़काए जा सकते हैं तो गुलज़ार क्यों बचे रहें!?
कोई चांद-पांद नहीं है, जिसको चांद बनने का शौक हो उसे चांद पर ही जाकर रहना चाहिए। यह अजीब तमाशा है अपने यहां कि एक ही आदमी को ज़मीन से जुड़ा भी बताया जाता है फ़िर उसे चांद भी बताया जाता है। उसे समानता का पक्षधर भी बताया जाता है फ़िर उसीको इतना बड़ा भी बताया जाता है कि कोई उंगली भी न उठा सके!!
विचित्र प्रगतिशीलता है!!
मुझे तो कतई भी नहीं चाहिए चांद।
जिन्हें चाहिए उन्हें भी उसके गड़ढों की हक़ीकत समझने के लिए तैयार रहना चाहिए।
-संजय ग्रोवर
16 जुलाई 2013
(अपना एक फ़ेसबुक स्टेटस)
क्या प्रगतिशीलता इतनी ही आसान चीज़ है!?
फ़िर तो ऐसा हो जाएगा कि यार मैं पहले सोमवार को अंधविश्वासी होता था, अब मैंने क्रांति कर दी है, परंपरा तोड़ डाली है अब मैं बुधवार को अंधविश्वासी होता हूं।
क्या प्रगतिशीलता मज़ाक़ है!?
प्रगतिशीलता के नाम पर अपने यहां यही सब चलता है कि अब स्त्रियां भी अंतिम संस्कार में जाने लगीं हैं, ग्रंथ पढ़ने लगीं हैं! कुछ स्त्रियां और कुछ पुरुष इसपर ख़ुश हो सकते हैं, मगर संपूर्णता में देखें तो यह रुढ़िवाद का विस्तार है, रुढ़िवादियों की जीत है। स्त्री सचमुच प्रगतिशील और साहसी होती तो कहती कि ये बेमतलब के कर्मकांड न तो मैं करुंगी और न, हे पुरुष, तुम्हे करने दूंगी।
'इतनी सारी प्रगतिशीलता' के बावज़ूद भारत में दहेज तक न बंद हो सका !!! असलियत जानने के लिए किसी विवाह समारोह में जा देखें। पुरुष तो क्या, किसी स्त्री को भी वहां चल रहे लेन-देन पर नाराज़ होता न पाएंगे। हो सकता है कोई मजबूरी हो बोल न पाने की मगर नाराज़गी हो तो चेहरे पर तो दिखाई देती है। चेहरे के भाव छुपा लो तो आंखें फ़िर भी बोल पड़तीं हैं। मगर कहां!! वहां तो सब ऐसे प्रसन्न दिखाई देते हैं जैसे दुनिया की सारी समस्याएं ख़त्म हो गईं हों!
और कोई क्यों ऐसे लोगों को प्रगतिशील कहेगा जो हर किसीको भगवान बनाने में लगे रहते हों!? पुराने भगवानों से छुटकारा हुआ नहीं और ये रोज़ाना नए खड़े किए जा रहे हैं! निराला पर कुछ न कहो, गुलज़ार पर मत बोलो, जावेद अख़्तर पर क्यों बोले.......
ये प्रगतिशील लोग हैं!? ये कहते हैं कि मशहूर आदमी की आलोचना करना चांद पर थूकना है!! कौन तय करेगा कौन चांद है!? यू तो साइंस ने बता दिया है कि चांद में गड्ढों के सिवाय कुछ नहीं है, चमकता भी सूरज की रोशनी से है। चलो झूठ-मूठ मान लिया कि चांद की रोशनी बड़ा चमत्कार है, फिर भी आदमी को चांद होने की क्या ज़रुरत है!? और मार्क्सवादी कहे कि ‘बड़े आदमी की छोटे लोग इसलिए आलोचना करते हैं कि इस बहाने उनका भी नाम हो जाता है’! ये ठहरे मार्क्सवादी! साम्यवादी! समानतावादी! बड़ा-छोटा कर रहे हैं!?
और अध्यात्मवादी !? महाविनम्र!! ईश्वर या किसी अध्यात्मिक शक्ति के सामने ख़ुदको तिनके समान मानते हैं!! इन्हें चांद बनने की क्या ज़रुरत पड़ गई!? अपने समय के सबसे ज़्यादा प्रगतिशील प्रेमचंद की लानत-मलामत हो सकती है, मार्क्स की दाढ़ी खींची जा सकती है, अंबेडकर को गलियाआ जा सकता हैं, नेहरु-गांधी पर बौछार हो सकती है तो निराला और प्रसाद उससे बाहर कैसे रह सकते हैं!? उदयप्रकाश जीतेजी रोज़ाना हड़काए जा सकते हैं तो गुलज़ार क्यों बचे रहें!?
कोई चांद-पांद नहीं है, जिसको चांद बनने का शौक हो उसे चांद पर ही जाकर रहना चाहिए। यह अजीब तमाशा है अपने यहां कि एक ही आदमी को ज़मीन से जुड़ा भी बताया जाता है फ़िर उसे चांद भी बताया जाता है। उसे समानता का पक्षधर भी बताया जाता है फ़िर उसीको इतना बड़ा भी बताया जाता है कि कोई उंगली भी न उठा सके!!
विचित्र प्रगतिशीलता है!!
मुझे तो कतई भी नहीं चाहिए चांद।
जिन्हें चाहिए उन्हें भी उसके गड़ढों की हक़ीकत समझने के लिए तैयार रहना चाहिए।
-संजय ग्रोवर
16 जुलाई 2013
(अपना एक फ़ेसबुक स्टेटस)
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