|| नास्ति दतम् नास्ति हूतम् नास्ति परलोकम् ||
यह पंक्ति मैं पहली बार पढ़ रहा हूं।
जब मैं नास्तिक हुआ तो मैंने चार्वाक या मार्क्स का नाम तक नहीं सुना था। ऐसी कोई भारतीय या अन्य परंपरा है, इसकी मुझे हवा तक नहीं थी। कोई वामपंथी पार्टी भी है, यह भी मुझे बहुत बाद में जाकर पता चला। हां, बाद में सरिता-मुक्ता फ़िर हंस जैसी कुछ पत्रिकाओं से इस विचार को बल ज़रुर मिला। मेरा मानना है कि नास्तिकता सहज स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। हर बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है। धर्म, ईश्वर और आस्तिकता से उसका परिचय इस दुनिया में आने के बाद कराया जाता है, इसी दुनिया के कुछ लोगों द्वारा। कल्पना कीजिए कि इस पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह है जहां ईश्वर का नामो-निशान तक नहीं है। ईश्वर की कोई ख़बर तक उस देश में कहीं से नहीं आती। कोई मां-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी, समाज, बड़े होते बच्चों को ईश्वर की कैसी भी जानकारी देने में असमर्थ हैं, क्योंकि उन्हें ख़ुद ही नहीं पता। क़िस्सों और क़िताबों में ईश्वर का कोई ज़िक्र तक नहीं है। तब भी क्या वहां ईश्वर के अस्तित्व या जन्म की कोई संभावना हो सकती है !?
दूसरे, क्या नास्तिकता को किसी परंपरा की ज़रुरत है ? मेरी समझ में जहां तर्क, विवेक, विचार, मौलिकता और वैज्ञानिकता है वहां कभी न कभी नास्तिकता आ ही जाएगी। चाहे ऐसी कोई परंपरा हो न हो। नास्तिकता तो ख़ुद ही परंपरा के खि़लाफ़ एक विचार है। यह तो प्रगतिशीलता, तर्कशीलता वैज्ञानिेकता और मानवता का मिश्रण है। परंपरा के नष्ट होने से नास्तिकता नष्ट हो जाएगी, ऐसा मुझे नहीं लगता। हो सकता है कि परंपरा के रहते नास्तिकों की संख्या कुछ ज़्यादा होती। पर ऐसे नास्तिक परंपरा से आए आस्तिकों की तरह ही रुढ़ और हठधर्मी होते। जिस तरह हम देखते हैं कि कई बार राजनीतिक पार्टियों के संपर्क में आने से नास्तिक हो गए लोग घटना-विशेष की प्रतिक्रिया में ठीक कट्टरपंथिओं जैसा ही आचरण करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि हम यह आचरण घोषित कट्टरपंथियों के विरोध में कर रहे हैं इसलिए यह कट्टरपंथ नहीं, हमारी ‘वैचारिक प्रतिबद्धता’ है।
दोस्त लोग मानते हैं कि नास्तिकता किसी तरह घिसट-घिसट कर जीवित है। ऐसा शायद वे संख्या और सांसरिक/भौतिक सफ़लताओं के आधार पर तय कर लेते है। यही लोग ख़ुदको अघ्यात्मवादी भी मानते हैं। संख्या बल और भौतिक सफलता को मानक बनाएं तो इंसानियत भी एक अप्रासंगिक शय हो चुकी है और इसे भी दफ़ना देना चाहिए। और अगर आप सफ़लताओं की वजह से आस्तिकता के साथ हैं तो इसका एक मतलब यह भी है कि आप उस विचार और सही-ग़लत की वजह से कम और अपने फ़ायदे की वजह से उसके साथ ज़्यादा हैं। कलको आपको नास्तिकता में सांसरिक फ़ायदे दिखेंगे तो आप उसके गले में हाथ डाल देंगे। अगर नास्तिकता घिसटकर चल रही है और इस वजह से अप्रासंगिक है तो भैया सारी क्रांतियां और स्वतंत्रता आंदोलन भी कभी न कभी घिसटते ही हैं। घिसटने से इतना डरना या उसे हेय दृष्टि से क्यों देखना !? दलितों, अश्वेतों और महिलाओं के आंदोलन भी तो सैकड़ों सालों से घिसट ही रहे थे। आज किसी अंजाम पर पहुंचते भी तो दिख रहे हैं।
--संजय ग्रोवर
11-04-2016
24-04-2010 को ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ पर प्रकाशित
09-07-2010 को ‘संवादघर’ पर प्रकाशित
10-02-2014 को अंग्रेजी अनुवाद '(W)hues Me ?' पर प्रकाशित
यह पंक्ति मैं पहली बार पढ़ रहा हूं।
जब मैं नास्तिक हुआ तो मैंने चार्वाक या मार्क्स का नाम तक नहीं सुना था। ऐसी कोई भारतीय या अन्य परंपरा है, इसकी मुझे हवा तक नहीं थी। कोई वामपंथी पार्टी भी है, यह भी मुझे बहुत बाद में जाकर पता चला। हां, बाद में सरिता-मुक्ता फ़िर हंस जैसी कुछ पत्रिकाओं से इस विचार को बल ज़रुर मिला। मेरा मानना है कि नास्तिकता सहज स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। हर बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है। धर्म, ईश्वर और आस्तिकता से उसका परिचय इस दुनिया में आने के बाद कराया जाता है, इसी दुनिया के कुछ लोगों द्वारा। कल्पना कीजिए कि इस पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह है जहां ईश्वर का नामो-निशान तक नहीं है। ईश्वर की कोई ख़बर तक उस देश में कहीं से नहीं आती। कोई मां-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी, समाज, बड़े होते बच्चों को ईश्वर की कैसी भी जानकारी देने में असमर्थ हैं, क्योंकि उन्हें ख़ुद ही नहीं पता। क़िस्सों और क़िताबों में ईश्वर का कोई ज़िक्र तक नहीं है। तब भी क्या वहां ईश्वर के अस्तित्व या जन्म की कोई संभावना हो सकती है !?
दूसरे, क्या नास्तिकता को किसी परंपरा की ज़रुरत है ? मेरी समझ में जहां तर्क, विवेक, विचार, मौलिकता और वैज्ञानिकता है वहां कभी न कभी नास्तिकता आ ही जाएगी। चाहे ऐसी कोई परंपरा हो न हो। नास्तिकता तो ख़ुद ही परंपरा के खि़लाफ़ एक विचार है। यह तो प्रगतिशीलता, तर्कशीलता वैज्ञानिेकता और मानवता का मिश्रण है। परंपरा के नष्ट होने से नास्तिकता नष्ट हो जाएगी, ऐसा मुझे नहीं लगता। हो सकता है कि परंपरा के रहते नास्तिकों की संख्या कुछ ज़्यादा होती। पर ऐसे नास्तिक परंपरा से आए आस्तिकों की तरह ही रुढ़ और हठधर्मी होते। जिस तरह हम देखते हैं कि कई बार राजनीतिक पार्टियों के संपर्क में आने से नास्तिक हो गए लोग घटना-विशेष की प्रतिक्रिया में ठीक कट्टरपंथिओं जैसा ही आचरण करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि हम यह आचरण घोषित कट्टरपंथियों के विरोध में कर रहे हैं इसलिए यह कट्टरपंथ नहीं, हमारी ‘वैचारिक प्रतिबद्धता’ है।
दोस्त लोग मानते हैं कि नास्तिकता किसी तरह घिसट-घिसट कर जीवित है। ऐसा शायद वे संख्या और सांसरिक/भौतिक सफ़लताओं के आधार पर तय कर लेते है। यही लोग ख़ुदको अघ्यात्मवादी भी मानते हैं। संख्या बल और भौतिक सफलता को मानक बनाएं तो इंसानियत भी एक अप्रासंगिक शय हो चुकी है और इसे भी दफ़ना देना चाहिए। और अगर आप सफ़लताओं की वजह से आस्तिकता के साथ हैं तो इसका एक मतलब यह भी है कि आप उस विचार और सही-ग़लत की वजह से कम और अपने फ़ायदे की वजह से उसके साथ ज़्यादा हैं। कलको आपको नास्तिकता में सांसरिक फ़ायदे दिखेंगे तो आप उसके गले में हाथ डाल देंगे। अगर नास्तिकता घिसटकर चल रही है और इस वजह से अप्रासंगिक है तो भैया सारी क्रांतियां और स्वतंत्रता आंदोलन भी कभी न कभी घिसटते ही हैं। घिसटने से इतना डरना या उसे हेय दृष्टि से क्यों देखना !? दलितों, अश्वेतों और महिलाओं के आंदोलन भी तो सैकड़ों सालों से घिसट ही रहे थे। आज किसी अंजाम पर पहुंचते भी तो दिख रहे हैं।
--संजय ग्रोवर
11-04-2016
24-04-2010 को ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ पर प्रकाशित
09-07-2010 को ‘संवादघर’ पर प्रकाशित
10-02-2014 को अंग्रेजी अनुवाद '(W)hues Me ?' पर प्रकाशित
No comments:
Post a Comment