कई बार पढ़ने-सुनने को मिलता है कि फ़लां चीज़ खाने से ढिकाने को ज्ञान मिला या वैसे पेड़ के नीचे बैठे-बैठे ऐसे को ज्ञानप्राप्ति हो गई।
सोचता हूं कि आखि़र यह ज्ञान किस टाइप की चीज़ होती थी !? अगर कुछ खाने से किसीको ज्ञान मिलता हो तो उस खाद्य को बनानेवाले या खिलानेवाले के पास तो बहुत ज्ञान होना चाहिए था ! मगर क्या ऐसा था ?
आप लोग तो क़ाफ़ी क़िताबें पढ़ते होंगे, फ़िल्में देखते होंगे, टीवी देखते होंगे, इंटरनेट पर झक मारतें होंगे, तब जाकर कुछ पल्ले पड़ता होगा।
आपके दिमाग़ में कभी यह क्यों नहीं आया कि इतनी मेहनत करने से बेहतर है कि किसी पेड़-वेड़ के नीचे आराम से बैठा जाए, कभी न कभी तो कोई आएगा, ज़्यादा नहीं तो दो-चार गाने गा चुकने के बाद आएगा, कोई तो लाएगा, कैसे तो लाएगा, ले आया तो कैसा मज़ा आएगा! न कोई क्लास अटैंड की न कोई चैप्टर पढ़ा, मगर रिज़ल्ट आया तो पता चला कि यूनिवर्सिटी क्या ‘ब्रहमांड’ टॉप कर गए। छूटते ही गोल्ड मैडल।
मैं सोचता हूं जिन्हें ज्ञान मिला उनकी तो कई उपलब्धियां बताई जातीं हैं, पर जिन्होंने ज्ञान दिया उनके प्रोफ़ाइल में ज्ञान की दृष्टि से उल्लेखनीय कुछ नहीं दिखाई देता! यह अजीब नहीं कि बैंक ख़ुद तो कंगाल हो मगर उपभोक्ताओं को लाखों रुपए कर्ज़ा बांटे चला जा रहा हो !?
यह ज्ञान दिया किस विधि से, किस रुप में जाता होगा !? कोई पुढ़िया वगैरह या खाने-पीने की आयटम में कोई कैमिकल मिलाया जाता होगा ? जितनी तत्परता से ज्ञान एक से दूसरे को शिफ़्ट हो जाता था, उतनी जल्दी तो संक्रामक बीमारियां जैसे जुकाम, आई फ़्लू, टीबी आदि ही होते पाए जाते रहे हैं। इतने मामूली लम्हे में मिले ज्ञान में कितना स्लैबस संभव है, क्या-क्या इसके दायरे में आता होगा !? लोग तो ऐसे ज्ञानियों को सर्वज्ञानी से कम नहीं मानते थे! तो क्या इस ज्ञान में पायजामा काटने और मिठाई बनाने से लेकर अच्छा सेल्समैन बनने के नुस्ख़ों तक सब कुछ शामिल रहता होगा !?
तो आजकल लोग क्यों स्कूलों और यूनिवर्सिटियों में डोनेशन ले-लेके भागे फिरते हैं !?
भाईयो! किसी पेड़-वेड़ के नीचे डेरा जमाओ, देखो ज़रुर कोई तुम्हारे वास्ते कटोरा, थाली, पत्तल, क़ाग़ज़ की प्लेट या प्लास्टिक के दोनें में कुछ लेकर आता होगा। पांच-दस साल भी लग जाएं तो क्या दिक़्क़त है!? 20-30 साल धक्के खाकर आधा-पूधा अज्ञानी होने से तो बेहतर है। हैं कि नहीं !
लग जाओ। लगे रहो।
-संजय ग्रोवर
16-03-2016
सोचता हूं कि आखि़र यह ज्ञान किस टाइप की चीज़ होती थी !? अगर कुछ खाने से किसीको ज्ञान मिलता हो तो उस खाद्य को बनानेवाले या खिलानेवाले के पास तो बहुत ज्ञान होना चाहिए था ! मगर क्या ऐसा था ?
आप लोग तो क़ाफ़ी क़िताबें पढ़ते होंगे, फ़िल्में देखते होंगे, टीवी देखते होंगे, इंटरनेट पर झक मारतें होंगे, तब जाकर कुछ पल्ले पड़ता होगा।
आपके दिमाग़ में कभी यह क्यों नहीं आया कि इतनी मेहनत करने से बेहतर है कि किसी पेड़-वेड़ के नीचे आराम से बैठा जाए, कभी न कभी तो कोई आएगा, ज़्यादा नहीं तो दो-चार गाने गा चुकने के बाद आएगा, कोई तो लाएगा, कैसे तो लाएगा, ले आया तो कैसा मज़ा आएगा! न कोई क्लास अटैंड की न कोई चैप्टर पढ़ा, मगर रिज़ल्ट आया तो पता चला कि यूनिवर्सिटी क्या ‘ब्रहमांड’ टॉप कर गए। छूटते ही गोल्ड मैडल।
मैं सोचता हूं जिन्हें ज्ञान मिला उनकी तो कई उपलब्धियां बताई जातीं हैं, पर जिन्होंने ज्ञान दिया उनके प्रोफ़ाइल में ज्ञान की दृष्टि से उल्लेखनीय कुछ नहीं दिखाई देता! यह अजीब नहीं कि बैंक ख़ुद तो कंगाल हो मगर उपभोक्ताओं को लाखों रुपए कर्ज़ा बांटे चला जा रहा हो !?
यह ज्ञान दिया किस विधि से, किस रुप में जाता होगा !? कोई पुढ़िया वगैरह या खाने-पीने की आयटम में कोई कैमिकल मिलाया जाता होगा ? जितनी तत्परता से ज्ञान एक से दूसरे को शिफ़्ट हो जाता था, उतनी जल्दी तो संक्रामक बीमारियां जैसे जुकाम, आई फ़्लू, टीबी आदि ही होते पाए जाते रहे हैं। इतने मामूली लम्हे में मिले ज्ञान में कितना स्लैबस संभव है, क्या-क्या इसके दायरे में आता होगा !? लोग तो ऐसे ज्ञानियों को सर्वज्ञानी से कम नहीं मानते थे! तो क्या इस ज्ञान में पायजामा काटने और मिठाई बनाने से लेकर अच्छा सेल्समैन बनने के नुस्ख़ों तक सब कुछ शामिल रहता होगा !?
तो आजकल लोग क्यों स्कूलों और यूनिवर्सिटियों में डोनेशन ले-लेके भागे फिरते हैं !?
भाईयो! किसी पेड़-वेड़ के नीचे डेरा जमाओ, देखो ज़रुर कोई तुम्हारे वास्ते कटोरा, थाली, पत्तल, क़ाग़ज़ की प्लेट या प्लास्टिक के दोनें में कुछ लेकर आता होगा। पांच-दस साल भी लग जाएं तो क्या दिक़्क़त है!? 20-30 साल धक्के खाकर आधा-पूधा अज्ञानी होने से तो बेहतर है। हैं कि नहीं !
लग जाओ। लगे रहो।
-संजय ग्रोवर
16-03-2016
अच्छा लिखा है. :)
ReplyDeleteज़बरदस्त. इसको अक्षरौटी के फेसबुक पेज पर शेयर किया है आपसे बिना अनुमति लिए.
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