पक्षधरता कोई बुरी चीज़ नहीं बशर्त्ते कि पक्ष लेनेवाले व्यक्ति में अपनी दृष्टि हो, संवेदना हो, तार्किकता हो। अंधी पक्षधरता अंधी धार्मिकता या सांप्रदायिकता की ही तरह हो जाती है। अंधी पक्षधरता कहती है कि अगर आप किसी वंचित और पिछड़े समुदाय से संबंध रखते हैं तो हर हाल में वंचित और पिछड़े व्यक्ति का समर्थन करें। मगर तार्किकता, प्रगतिशीलता और निष्पक्षता आपको जगाती हैं कि वह कथित पिछड़ा व्यक्ति अगर सिर्फ़ देखने में पिछड़ा है, दरअसल सांप्रदायिक है और कथित अगड़े यथास्थितिवादियों के हाथ का खि़लौना है तो उसका समर्थन पिछड़ों के लिए ही सबसे ज़्यादा ख़तरनाक़ साबित हो सकता है। निष्पक्षता और तार्किकता ही आपको चेतातीं हैं कि स्त्री के समर्थन के नाम पर किसी कथित धर्मगुरु का समर्थन कर रही किसी भी स्त्री का समर्थन नहीं किया जा सकता, बहू को जलानेवाली सास का समर्थन नहीं किया जा सकता, स्त्रियों से ज़बरदस्ती धंधा करानेवाली का समर्थन नहीं किया जा सकता।
मगर कथित धर्म, जाति और गुटपरस्ती की तरह वाद और पक्षधरताएं भी कई सुविधाएं देतीं हैं। आदमी को पता होता है कि अब मैं कुछ भी बोलूंगा, हज़ार, पांच सौ, तीन सौ या डेढ़ सौ आदमी तो मेरी तरफ़ बोलेंगे ही बोलेंगे। बिना सही-ग़लत देखे मेरी तरफ़ से बहस में उतर जाएंगे। मुश्क़िल यह है कि कई कथित वादी या कथित पक्षधर कहने को कथित धर्म के खि़लाफ़ खड़े होते हैं, मगर मानसिकता और आदतें बिलकुल उनकी वैसी ही होतीं हैं। जिस तरह कि कथित धार्मिक आदमी को विश्वास नहीं होता अगर आप कहें कि मैं न तो हिंदू हूं न मुसलमान हूं न ऐसा ही कुछ और हूं। पहले तो उसकी दुनिया इतनी संकीर्ण है, समझ इतनी तंग है कि उसे विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा भी हो सकता है। दूसरे, अगर कथित हिंदू, कथित मुसलमान या ऐसा ही कोई और नहीं होगा तो वो लड़ेगा किससे !? उसकी ज़िंदगी का आधा चार्म, आधा ऐडवेंचर तो गया! ज़िंदगी में अच्छाई के नाम पर कईयों ने तो सिर्फ़ यही किया होता है।
ऐसा कथित धार्मिक आदमी, आप हिंदू या मुस्लिम हों कि न हों, पर वह आपको सिद्ध करके छोड़ेगा। इसमें उसकी अपनी सुविधा है। मगर कई वादी या पक्षधर जो हिंदू-मुस्लिम और उनकी कथित बुराईयों से ऊपर उठ गए होने का दावा कर रहे होते हैं, बिलकुल यही करते नज़र आते हैं। पहली आसानी तो बहस में ही हो जाती है कि ‘तुम तो क़ौमनष्ट(कम्युनिस्ट) आदमी हो, तुम्हारा कोई धर्म-ईमान तो है नहीं, तुमसे क्या बात करनीै’ या ‘तुम तो संघी हो, तुम्हारे परदादा के लकड़दादा ने फ़लां आदमी के पक्ष या विपक्ष में गवाही दी थी, तुमसे बात करना ही बेकार है’। संभवतः इसीलिए ऐसे लोग अपने सारे ख़ानदान, तमाम पीढ़ियों, पूरे इतिहास को धो-पौंछ-चमकाकर पवित्र-वीर-मानवीय वगैरह सिद्ध करने में लगे रहते हैं। क्योंकि उन्हें मालूम रहता है कि हम जब बहस करेंगे बात तर्क पर कम और ख़ानदान और इतिहास (यानि कि एक अर्थ में व्यक्तिगत) पर ज़्यादा जा ठहरेगी। पक्षधरता में दूसरी बड़ी सुविधा यह है कि वहां ईमानदारी और बेईमानी प्राथमिक मूल्य नहीं रह जाते, वहां इस पार्टी या उस पार्टी को जड़ से उखाड़ देने के ज़ोरदार हल्ले में बाक़ी सब कुछ स्वीकृत और कई दफ़ा तो प्रशंसनीय भी हो जाता है। बाक़ी जो सुविधाएं प्लस पर्कस् प्लस बोनस वगैरह गुटवादियों को मिलते होंगे, उनके बारे में कहना क्या और बताना क्या। अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है।
इस संदर्भ में मेरे अनुभव भी दिलचस्प हैं। जब किसी कट्टर इस्लामपरस्त से बहस हुई तो उसने तर्क से ज़्यादा जान मुझे संघी सिद्ध करने में लगा दी। जब नास्तिकता पर बहस चली तो अकसर मुझे मुस्लिमों और दलितों का अंधा पक्षधर ठहराने की कोशिश की गई। तकरीबन बीस साल पहले जब स्त्रियों के पक्ष में ख़ुलकर लिखा तो अपवाद छोड़ दे तो स्त्रियां पढ़कर या तो डरतीं थी या हंसतीं थीं(पुरुषों की तो बात क्या करें), मेरे घर पर टट्टी तक फ़ेंकी गई (मिलती-जुलती हरकतें यदा-कदा आज भी होतीं हैं)। टट्टी भी जिस घर से फेंकी जाती थी उसकी सर्वेसर्वा और सबसे ‘ऐक्टिव’ सदस्य भी एक स्त्री थी। ‘पक्षधरता का सिद्धांत’ कहता है कि मुझे उसी दिन स्त्रियों के विरुद्ध हो जाना चाहिए था। मगर नहीं, उसीके बाद ही, स्त्रियों ने मेरे लिए और मैंने स्त्रियों के लिए काफ़ी कुछ किया। आज स्त्रियों के पक्ष में कुछ हवा बनी है, मगर मुझे कोई बात अजीब लगे तो हवा की परवाह किए बिना कहता हूं। कोई चाहे तो स्त्री विरोधी कहे, मैं चिंता नहीं करता।
अगर कोई कहे कि फ़लां आदमी सांप्रदायिक है इसलिए उसे देश का प्रमुख नहीं बनाना चाहिए तो मैं बिलकुल समर्थन करुंगा। मगर वही आदमी कहे कि उसी आदमी को प्रमुख इसनिए नहीं बनाना चाहिए कि वह अंग्रेज़ी नहीं जानता तो मैं विरोध करुंगा क्योंकि अंग्रेज़ी का संवेदनशील, विकासशील, मानवीय या समानता का इच्छुक होने से कोई सीधा संबंध नहीं है।
तार्किकता और निष्पक्षता का इतना फ़ायदा तो मिलता ही है।
बाक़ी फ़ायदे जो भी जानना चाहता है, सचमुच तार्किक और निष्पक्ष होके देख सकता है। जानने का सबसे अच्छा तरीक़ा यही है कि ख़ुद करके देख लिया जाए।
-संजयग्रोवर
10-10-2013
(अपनी फ़ेसबुक वॉल से)
पक्षधरता जब वक़ालत जैसी हो जाती है यानि जब आप अपने पक्ष के पक्ष में झूठे गवाह खड़े करने से लेकर धमकियां देने और ब्लैकमेल करने तक तक को सामान्य समझने लगते हैं, तो आप या तो तानाशाह बन चुके होते हैं, या बन रहे होते हैं या पहले से ही होते हैं।
10-11-2015
मगर कथित धर्म, जाति और गुटपरस्ती की तरह वाद और पक्षधरताएं भी कई सुविधाएं देतीं हैं। आदमी को पता होता है कि अब मैं कुछ भी बोलूंगा, हज़ार, पांच सौ, तीन सौ या डेढ़ सौ आदमी तो मेरी तरफ़ बोलेंगे ही बोलेंगे। बिना सही-ग़लत देखे मेरी तरफ़ से बहस में उतर जाएंगे। मुश्क़िल यह है कि कई कथित वादी या कथित पक्षधर कहने को कथित धर्म के खि़लाफ़ खड़े होते हैं, मगर मानसिकता और आदतें बिलकुल उनकी वैसी ही होतीं हैं। जिस तरह कि कथित धार्मिक आदमी को विश्वास नहीं होता अगर आप कहें कि मैं न तो हिंदू हूं न मुसलमान हूं न ऐसा ही कुछ और हूं। पहले तो उसकी दुनिया इतनी संकीर्ण है, समझ इतनी तंग है कि उसे विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा भी हो सकता है। दूसरे, अगर कथित हिंदू, कथित मुसलमान या ऐसा ही कोई और नहीं होगा तो वो लड़ेगा किससे !? उसकी ज़िंदगी का आधा चार्म, आधा ऐडवेंचर तो गया! ज़िंदगी में अच्छाई के नाम पर कईयों ने तो सिर्फ़ यही किया होता है।
ऐसा कथित धार्मिक आदमी, आप हिंदू या मुस्लिम हों कि न हों, पर वह आपको सिद्ध करके छोड़ेगा। इसमें उसकी अपनी सुविधा है। मगर कई वादी या पक्षधर जो हिंदू-मुस्लिम और उनकी कथित बुराईयों से ऊपर उठ गए होने का दावा कर रहे होते हैं, बिलकुल यही करते नज़र आते हैं। पहली आसानी तो बहस में ही हो जाती है कि ‘तुम तो क़ौमनष्ट(कम्युनिस्ट) आदमी हो, तुम्हारा कोई धर्म-ईमान तो है नहीं, तुमसे क्या बात करनीै’ या ‘तुम तो संघी हो, तुम्हारे परदादा के लकड़दादा ने फ़लां आदमी के पक्ष या विपक्ष में गवाही दी थी, तुमसे बात करना ही बेकार है’। संभवतः इसीलिए ऐसे लोग अपने सारे ख़ानदान, तमाम पीढ़ियों, पूरे इतिहास को धो-पौंछ-चमकाकर पवित्र-वीर-मानवीय वगैरह सिद्ध करने में लगे रहते हैं। क्योंकि उन्हें मालूम रहता है कि हम जब बहस करेंगे बात तर्क पर कम और ख़ानदान और इतिहास (यानि कि एक अर्थ में व्यक्तिगत) पर ज़्यादा जा ठहरेगी। पक्षधरता में दूसरी बड़ी सुविधा यह है कि वहां ईमानदारी और बेईमानी प्राथमिक मूल्य नहीं रह जाते, वहां इस पार्टी या उस पार्टी को जड़ से उखाड़ देने के ज़ोरदार हल्ले में बाक़ी सब कुछ स्वीकृत और कई दफ़ा तो प्रशंसनीय भी हो जाता है। बाक़ी जो सुविधाएं प्लस पर्कस् प्लस बोनस वगैरह गुटवादियों को मिलते होंगे, उनके बारे में कहना क्या और बताना क्या। अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है।
इस संदर्भ में मेरे अनुभव भी दिलचस्प हैं। जब किसी कट्टर इस्लामपरस्त से बहस हुई तो उसने तर्क से ज़्यादा जान मुझे संघी सिद्ध करने में लगा दी। जब नास्तिकता पर बहस चली तो अकसर मुझे मुस्लिमों और दलितों का अंधा पक्षधर ठहराने की कोशिश की गई। तकरीबन बीस साल पहले जब स्त्रियों के पक्ष में ख़ुलकर लिखा तो अपवाद छोड़ दे तो स्त्रियां पढ़कर या तो डरतीं थी या हंसतीं थीं(पुरुषों की तो बात क्या करें), मेरे घर पर टट्टी तक फ़ेंकी गई (मिलती-जुलती हरकतें यदा-कदा आज भी होतीं हैं)। टट्टी भी जिस घर से फेंकी जाती थी उसकी सर्वेसर्वा और सबसे ‘ऐक्टिव’ सदस्य भी एक स्त्री थी। ‘पक्षधरता का सिद्धांत’ कहता है कि मुझे उसी दिन स्त्रियों के विरुद्ध हो जाना चाहिए था। मगर नहीं, उसीके बाद ही, स्त्रियों ने मेरे लिए और मैंने स्त्रियों के लिए काफ़ी कुछ किया। आज स्त्रियों के पक्ष में कुछ हवा बनी है, मगर मुझे कोई बात अजीब लगे तो हवा की परवाह किए बिना कहता हूं। कोई चाहे तो स्त्री विरोधी कहे, मैं चिंता नहीं करता।
अगर कोई कहे कि फ़लां आदमी सांप्रदायिक है इसलिए उसे देश का प्रमुख नहीं बनाना चाहिए तो मैं बिलकुल समर्थन करुंगा। मगर वही आदमी कहे कि उसी आदमी को प्रमुख इसनिए नहीं बनाना चाहिए कि वह अंग्रेज़ी नहीं जानता तो मैं विरोध करुंगा क्योंकि अंग्रेज़ी का संवेदनशील, विकासशील, मानवीय या समानता का इच्छुक होने से कोई सीधा संबंध नहीं है।
तार्किकता और निष्पक्षता का इतना फ़ायदा तो मिलता ही है।
बाक़ी फ़ायदे जो भी जानना चाहता है, सचमुच तार्किक और निष्पक्ष होके देख सकता है। जानने का सबसे अच्छा तरीक़ा यही है कि ख़ुद करके देख लिया जाए।
-संजयग्रोवर
10-10-2013
(अपनी फ़ेसबुक वॉल से)
पक्षधरता जब वक़ालत जैसी हो जाती है यानि जब आप अपने पक्ष के पक्ष में झूठे गवाह खड़े करने से लेकर धमकियां देने और ब्लैकमेल करने तक तक को सामान्य समझने लगते हैं, तो आप या तो तानाशाह बन चुके होते हैं, या बन रहे होते हैं या पहले से ही होते हैं।
10-11-2015
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