कोई राधे मां हैं जिनके स्कर्ट पहनने पर कई दिनों से चर्चा है। सोनू निगम को तो आजकल बहुत लोग जानते हैं। उन्होंने ट्वीट किए बताते हैं कि काली मां तो इससे भी कम कपड़े पहनतीं थीं और स्त्रियों पर कपड़ों के लिए मुकदमे करना अच्छी बात नहीं है। सोनू निगम से बहुत-से लोग सहमत होंगे, इतना परिवर्तन तो आया ही है कि लोग समझ रहे हैं कि दूसरे के शरीर के लिए कपड़े आप तय नहीं कर सकते, जिसका शरीर है, जिसके कपड़े हैं, जिसका पैसा है, वही अपने लिए उसका उपयोग भी तय करेगा।
लेकिन दो-तीन बातें समझ में ज़रा कम आ रही हैं। पहली बात है कि हम हर बात के लिए अतीत से उदाहरण क्यों लेते हैं !? अगर काली मां (?) न हुई हों, उन्होंने ऐसे कपड़े न पहने हों तो ? यह कहीं न कहीं, अपने दम पर बात न कह पाने को, परंपरा की ग़ुलामी को और आत्मविश्वास की कमी को ही दर्शाता है।
दूसरी बात यह है कि काली मां का उदाहरण देने का एक अर्थ यह भी निकलता है कि हम परिवर्तनों या स्त्री-मुक्ति को धर्म के दायरे से बाहर नहीं जाने देना चाहते और यही सबसे ख़तरनाक़ है। धर्म के नाम पर थोड़ा-सा फ़ायदा, बाद में बहुत-सी तक़लीफ़ें भी खड़ी कर सकता है।
तीसरी बात, यह कहना कि पुरुष भी कम कपड़े पहनता है, इसलिए स्त्रियां भी कम पहनें तो दिक़्क़त क्या है ? हमें ऐसे तर्कों से थोड़ा आगे जाना चाहिए। जिन घरों में पुरुष ऐसे कपड़े नहीं पहनता, ढंका-मुंदा रहता है, उन घरों की स्त्रियों के लिए दिक़्क़त खड़ी हो जाएगी। उन्हें मन मारके ढंका-मुंदा रहना पड़ेगा।
यहां यह भी प्रासंगिक है कि सोनू निगम का कैरियर ‘माता की चौकियों-जागरनों’ से शुरु हुआ बताते हैं, संभवतः वे अभी भी धार्मिक हैं और इसीलिए काली मां के उदाहरण तक ही जाते हैं।
राधे मां दहेज़-उत्पीड़न के किसी केस से भी जुड़ी बताई जा रहीं हैं। समझने की बात यह है कि धार्मिक लोग अकसर दहेज़ को बुराई की तरह नहीं देखते। भारत का आमजन भी दहेज़ और घरेलू हिंसा की बात पर बेचैनी से पहलू बदलने लगता है।
हममें से कई लोग इसके कारण जानते हैं।
-संजय ग्रोवर
17-08-2015
लेकिन दो-तीन बातें समझ में ज़रा कम आ रही हैं। पहली बात है कि हम हर बात के लिए अतीत से उदाहरण क्यों लेते हैं !? अगर काली मां (?) न हुई हों, उन्होंने ऐसे कपड़े न पहने हों तो ? यह कहीं न कहीं, अपने दम पर बात न कह पाने को, परंपरा की ग़ुलामी को और आत्मविश्वास की कमी को ही दर्शाता है।
दूसरी बात यह है कि काली मां का उदाहरण देने का एक अर्थ यह भी निकलता है कि हम परिवर्तनों या स्त्री-मुक्ति को धर्म के दायरे से बाहर नहीं जाने देना चाहते और यही सबसे ख़तरनाक़ है। धर्म के नाम पर थोड़ा-सा फ़ायदा, बाद में बहुत-सी तक़लीफ़ें भी खड़ी कर सकता है।
तीसरी बात, यह कहना कि पुरुष भी कम कपड़े पहनता है, इसलिए स्त्रियां भी कम पहनें तो दिक़्क़त क्या है ? हमें ऐसे तर्कों से थोड़ा आगे जाना चाहिए। जिन घरों में पुरुष ऐसे कपड़े नहीं पहनता, ढंका-मुंदा रहता है, उन घरों की स्त्रियों के लिए दिक़्क़त खड़ी हो जाएगी। उन्हें मन मारके ढंका-मुंदा रहना पड़ेगा।
यहां यह भी प्रासंगिक है कि सोनू निगम का कैरियर ‘माता की चौकियों-जागरनों’ से शुरु हुआ बताते हैं, संभवतः वे अभी भी धार्मिक हैं और इसीलिए काली मां के उदाहरण तक ही जाते हैं।
राधे मां दहेज़-उत्पीड़न के किसी केस से भी जुड़ी बताई जा रहीं हैं। समझने की बात यह है कि धार्मिक लोग अकसर दहेज़ को बुराई की तरह नहीं देखते। भारत का आमजन भी दहेज़ और घरेलू हिंसा की बात पर बेचैनी से पहलू बदलने लगता है।
हममें से कई लोग इसके कारण जानते हैं।
-संजय ग्रोवर
17-08-2015
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