07-08-2015
स्पेन में एक खेल चलता रहा है-बुलफ़ाइट। जिसमें हज़ारों-लाखों दर्शकों के सामने एक सांड और एक आदमी की लड़ाई दिखाई जाती थी/है। इस ख़तरनाक़ खेल में सांड और आदमी दोनों बिलकुल असली होते थे/ हैं और इनमें से किसीकी भी जान जा सकती थी/है। मनोरंजन और कमाई के अलावा इस खेल की कोई तीसरी वजह समझ में नहीं आती। समझने को कोई इसे उत्सव समझ सकता है, आंदोलन समझ सकता है, तरह-तरह से महिमा-मंडित कर सकता है ; अपने-अपने शौक़ हैं, अपनी-अपनी समझ है, जीवन में ‘कुछ करने’ के अपने-अपने मतलब हैं। यहां भी, पढ़ा है कि (समर्थ !) लोग-बाग़ तीतर वग़ैरह लड़ाकर अपना टाइम पास करते रहे हैं।
क्या इसे हम ‘कुछ करना’ कह सकते हैं ? मेहनत तो इन कामों में भी लगती ही है, कई बार जान का ख़तरा भी रहता है। क्या सिर्फ़ इन्हीं कारणों से इन गतिविधियों को महानताओं में शुमार कर लेना चाहिए !? कई लोग होते हैं जिन्हें शादियों में सबसे आगे, घुस-घुसकर फ़ोटो खिंचाने का शौक़ होता है। इसके लिए भी मेहनत तो लगती है। थोड़ा धक्का मारना पड़ता है, थोड़ा ‘ऐक्सक्यूज़ मी‘ वग़ैरह सीखना-बोलना पड़ता है, थोड़ा ‘जीजाजी’, ‘भाभीजी’ करना पड़ता है, ऐन फ़्लैश चमकने या कैमरा चालू होने के साथ ही एक ख़ास तरह की मुद्रा चेहरे पर सजा लेनी होती है। मगर जिसको यह शौक़ है, इतना तो उसे करना ही पड़ेगा।
इसी तरह देखने में आता है कि कुछ लोग आंदोलनों के बड़े शौक़ीन होते हैं। जब देखो आंदोलित-आंदोलित से रहते हैं। वे हरदम कुछ क्रांति टाइप करना चाहते हैं-इस क्रांति टाइप में भाषण देने, एनजीओ बनाने, फ़ोटो-वीडियो खिंचाने-बनाने, अख़बार-टीवी में आने से लेकर पूड़ी-हलवा खाने तक कई ख़तरनाक़ बाधाएं पार करनी पड़तीं हैं। लोग एक-दूसरे को माला वग़ैरह पहनाते हैं, बधाई देते हैं, शाबासी देते हैं, तालियां मारते हैं, चाय नाश्ता होता है। इसके बाद सबको लगता है कि मैंने कुछ किया, मैंने भी कुछ किया, मैंने तो काफ़ी कुछ किया और फ़िर हम सबने मिलकर बहुत कुछ किया। इन सबको लगता है कि इसीसे सब हो रहा है और बदल रहा है। सच अकसर यह होता है कि इस तरह के जमावड़ों में लोगों को व्यक्तिगत फ़ायदे ज़रुर होते हैं, प्रसिद्धि मिलती है, जान-पहचान बढ़ती है और आगे कुछ और कार्यक्रमों में आने का निमंत्रण या निमंत्रण की उम्मीद मिलती है। भारत में लोग इस जान-पहचान का उपयोग अकसर व्यक्तिगत फ़ायदों और कामों के लिए करते हैं, मगर उन्हें यह ग़लतफ़हमी भी रहती है कि उनमें ‘मैं’ बिलकुल नहीं है, वे बड़े निस्वार्थी और सामाजिक हैं। सामाजिक बदलावों के संदर्भों में इन समारोहों का असर ताली बजाती, गदगद दिखती भीड़ पर उतना ही होता है जितना धार्मिक सत्संगो में जानेवाली महिलायों व अन्यों पर बाबा के प्रवचन का होता है। ये लोग सत्संग के ठीक बाद भी बिलकुल वैसे के वैसे रहते हैं जैसे दो घंटे पहले सत्संग में जाते समय थे।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जो लोग ऐन वक़्त पर (अकसर) बदलाव के आगे खड़े दिखते हैं वे दरअसल भीड़ के पीछे, नज़र जमाए चल रहे होते हैं, जब भी इन्हें भीड़ का मूड बदलता दिखता है, ये भीड़ के आगे जा खड़े होते हैं। यह तथ्य ग़ौरतलब है कि ‘ओह माय गॉड’, ‘पीके’, ‘पीकू’, ‘क्वीन’ जैसी फ़िल्में भारत में तब देखने में आई हैं जब इंटरनेट का प्रसार बढ़ा और सभी विषयों पर खुली बहसें होने लगी, दूर-दूर देशों, शहरों, क़स्बों के लोग आपस में सीधी बात करने लगे। ‘पीकू’ से पहले कभी मैंने अमिताभ बच्चन को सैक्स शब्द का उच्चारण करते देखा हो, याद नहीं आता। अगर इस क़िस्म के आंदोलनों से वास्तविक बदलाव आता होता तो भारत शायद वह देश है जहां हर गली-मोहल्ले में दस-दस आंदोलनकारी बैठे हैं और दहेज, डायन, ज्योतिष, तांत्रिक, ओझा से लेकर अस्पृश्यता तक सब ज्यों का त्यों चलता चला जा रहा है।
पिछले तीन-चार सालों में हमने ऐसे आंदोलन ख़ूब देखे जिनका नब्बे-पिच्यानवें प्रतिशत हिस्सा टीवी पर विज़ुअल्स और पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया में तस्वीरों से बना था। ईमानदार से ईमानदार माने जानेवाले बुद्धिजीवी(!), एंकरादि कम-अज़-कम दो साल तक इन्हें स्वतःस्फ़ूर्त आंदोलन बताते रहे। इन आंदोलनों का चरित्र/मंतव्य इसीसे समझा जा सकता है कि एक तरफ़ इन आंदोलनों के प्रमुख वक्ता मंच पर ख़ुदको चमत्कारी और किसी तथाकथित भगवान के प्रतिनिधि की तरह बता रहे थे तो दूसरी तरफ़ इनके वॉलंटियर्स सोशल मीडिया पर, कई ग्रुपों में घुस-घुसकर ख़ुदको प्रगतिशील और नास्तिक की तरह पेश कर रहे थे।
ऐसे आंदोलनों से व्यक्तिगत फ़ायदों, लोकप्रियता और पूड़ी-हलवे के अलावा और कुछ भी निष्कर्ष निकलता होगा, समझ में आना मुश्क़िल है।
शुक्र है कि तक़नीक और विज्ञान लगातार आगे बढ़ रहे हैं वरना क्या पता हम सतीप्रथा और वर्णव्यवस्था की तरफ़ लौट रहे होते!
-संजय ग्रोवर
12-08-2015
स्पेन में एक खेल चलता रहा है-बुलफ़ाइट। जिसमें हज़ारों-लाखों दर्शकों के सामने एक सांड और एक आदमी की लड़ाई दिखाई जाती थी/है। इस ख़तरनाक़ खेल में सांड और आदमी दोनों बिलकुल असली होते थे/ हैं और इनमें से किसीकी भी जान जा सकती थी/है। मनोरंजन और कमाई के अलावा इस खेल की कोई तीसरी वजह समझ में नहीं आती। समझने को कोई इसे उत्सव समझ सकता है, आंदोलन समझ सकता है, तरह-तरह से महिमा-मंडित कर सकता है ; अपने-अपने शौक़ हैं, अपनी-अपनी समझ है, जीवन में ‘कुछ करने’ के अपने-अपने मतलब हैं। यहां भी, पढ़ा है कि (समर्थ !) लोग-बाग़ तीतर वग़ैरह लड़ाकर अपना टाइम पास करते रहे हैं।
क्या इसे हम ‘कुछ करना’ कह सकते हैं ? मेहनत तो इन कामों में भी लगती ही है, कई बार जान का ख़तरा भी रहता है। क्या सिर्फ़ इन्हीं कारणों से इन गतिविधियों को महानताओं में शुमार कर लेना चाहिए !? कई लोग होते हैं जिन्हें शादियों में सबसे आगे, घुस-घुसकर फ़ोटो खिंचाने का शौक़ होता है। इसके लिए भी मेहनत तो लगती है। थोड़ा धक्का मारना पड़ता है, थोड़ा ‘ऐक्सक्यूज़ मी‘ वग़ैरह सीखना-बोलना पड़ता है, थोड़ा ‘जीजाजी’, ‘भाभीजी’ करना पड़ता है, ऐन फ़्लैश चमकने या कैमरा चालू होने के साथ ही एक ख़ास तरह की मुद्रा चेहरे पर सजा लेनी होती है। मगर जिसको यह शौक़ है, इतना तो उसे करना ही पड़ेगा।
इसी तरह देखने में आता है कि कुछ लोग आंदोलनों के बड़े शौक़ीन होते हैं। जब देखो आंदोलित-आंदोलित से रहते हैं। वे हरदम कुछ क्रांति टाइप करना चाहते हैं-इस क्रांति टाइप में भाषण देने, एनजीओ बनाने, फ़ोटो-वीडियो खिंचाने-बनाने, अख़बार-टीवी में आने से लेकर पूड़ी-हलवा खाने तक कई ख़तरनाक़ बाधाएं पार करनी पड़तीं हैं। लोग एक-दूसरे को माला वग़ैरह पहनाते हैं, बधाई देते हैं, शाबासी देते हैं, तालियां मारते हैं, चाय नाश्ता होता है। इसके बाद सबको लगता है कि मैंने कुछ किया, मैंने भी कुछ किया, मैंने तो काफ़ी कुछ किया और फ़िर हम सबने मिलकर बहुत कुछ किया। इन सबको लगता है कि इसीसे सब हो रहा है और बदल रहा है। सच अकसर यह होता है कि इस तरह के जमावड़ों में लोगों को व्यक्तिगत फ़ायदे ज़रुर होते हैं, प्रसिद्धि मिलती है, जान-पहचान बढ़ती है और आगे कुछ और कार्यक्रमों में आने का निमंत्रण या निमंत्रण की उम्मीद मिलती है। भारत में लोग इस जान-पहचान का उपयोग अकसर व्यक्तिगत फ़ायदों और कामों के लिए करते हैं, मगर उन्हें यह ग़लतफ़हमी भी रहती है कि उनमें ‘मैं’ बिलकुल नहीं है, वे बड़े निस्वार्थी और सामाजिक हैं। सामाजिक बदलावों के संदर्भों में इन समारोहों का असर ताली बजाती, गदगद दिखती भीड़ पर उतना ही होता है जितना धार्मिक सत्संगो में जानेवाली महिलायों व अन्यों पर बाबा के प्रवचन का होता है। ये लोग सत्संग के ठीक बाद भी बिलकुल वैसे के वैसे रहते हैं जैसे दो घंटे पहले सत्संग में जाते समय थे।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जो लोग ऐन वक़्त पर (अकसर) बदलाव के आगे खड़े दिखते हैं वे दरअसल भीड़ के पीछे, नज़र जमाए चल रहे होते हैं, जब भी इन्हें भीड़ का मूड बदलता दिखता है, ये भीड़ के आगे जा खड़े होते हैं। यह तथ्य ग़ौरतलब है कि ‘ओह माय गॉड’, ‘पीके’, ‘पीकू’, ‘क्वीन’ जैसी फ़िल्में भारत में तब देखने में आई हैं जब इंटरनेट का प्रसार बढ़ा और सभी विषयों पर खुली बहसें होने लगी, दूर-दूर देशों, शहरों, क़स्बों के लोग आपस में सीधी बात करने लगे। ‘पीकू’ से पहले कभी मैंने अमिताभ बच्चन को सैक्स शब्द का उच्चारण करते देखा हो, याद नहीं आता। अगर इस क़िस्म के आंदोलनों से वास्तविक बदलाव आता होता तो भारत शायद वह देश है जहां हर गली-मोहल्ले में दस-दस आंदोलनकारी बैठे हैं और दहेज, डायन, ज्योतिष, तांत्रिक, ओझा से लेकर अस्पृश्यता तक सब ज्यों का त्यों चलता चला जा रहा है।
पिछले तीन-चार सालों में हमने ऐसे आंदोलन ख़ूब देखे जिनका नब्बे-पिच्यानवें प्रतिशत हिस्सा टीवी पर विज़ुअल्स और पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया में तस्वीरों से बना था। ईमानदार से ईमानदार माने जानेवाले बुद्धिजीवी(!), एंकरादि कम-अज़-कम दो साल तक इन्हें स्वतःस्फ़ूर्त आंदोलन बताते रहे। इन आंदोलनों का चरित्र/मंतव्य इसीसे समझा जा सकता है कि एक तरफ़ इन आंदोलनों के प्रमुख वक्ता मंच पर ख़ुदको चमत्कारी और किसी तथाकथित भगवान के प्रतिनिधि की तरह बता रहे थे तो दूसरी तरफ़ इनके वॉलंटियर्स सोशल मीडिया पर, कई ग्रुपों में घुस-घुसकर ख़ुदको प्रगतिशील और नास्तिक की तरह पेश कर रहे थे।
ऐसे आंदोलनों से व्यक्तिगत फ़ायदों, लोकप्रियता और पूड़ी-हलवे के अलावा और कुछ भी निष्कर्ष निकलता होगा, समझ में आना मुश्क़िल है।
शुक्र है कि तक़नीक और विज्ञान लगातार आगे बढ़ रहे हैं वरना क्या पता हम सतीप्रथा और वर्णव्यवस्था की तरफ़ लौट रहे होते!
-संजय ग्रोवर
12-08-2015
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