नास्तिकों और प्रगतिशीलों ने ‘आस्था’ और ‘श्रद्धा’ की अच्छी-ख़ासी आलोचना की है। ऐसा ही एक और शब्द है-वफ़ादारी। आस्था और श्रद्धा शब्द किसी तथाकथित ऊपरी शक्ति से संबंध के संदर्भ में इस्तेमाल होते हैं तो ’वफ़ादारी’ पशु और इंसान या इंसान और इंसान के संबंधों के संदर्भ में। वफ़ादारी को क़िताबों और फ़िल्मों तक में बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है। पर मुझे लगता है कि एक हद के बाद वफ़ादारी भी (ख़ासकर इंसानी संबंधों में) आस्था और श्रद्धा की तरह मूढ़तापूर्ण हो जाती है और ग़ुलामी में बदल जाती है। एक मजबूर आदमी जिसने कई हफ्तों से कुछ नहीं खाया, आप उसे एक थाली भोजन भी दे देंगे तो वह ख़ुदको आपका अहसानमंद महसूस करेगा। एक आदमी जिसे समाज चारों चरफ़ से सता रहा है, आप उसके पास जाकर दो घड़ी बैठ भी जाएंगे तो वह कृतज्ञ महसूस करेगा। अब यह मदद करनेवाले के ऊपर है कि वह कब तक इस अहसान का बदला लेता रहगा!
कई बार तो लोग मदद भी बिना कहे या ज़बरदस्ती करते हैं। फिर भी बदला चाहते हैं! फ़िल्मों में तो ख़ूब दिखाया गया है कि मुसीबत का मारा आदमी किसी छोटी-सी मदद के एवज में अपनी पूरी ज़िंदगी गिरवी रख देता है। मैं इसे बिलकुल भी मानवीय नहीं मानता। यह तो एक तरह की बंधुआ मज़दूरी या दासत्व है। ख़ुदको चिंतक या बौद्धिक माननेवाले लोगों को तो इस तरह की कोशिशें बिलकुल शोभा नहीं देतीं कि किसीको अपनी वैचारिक बंधुआगिरी पर मजबूर करें।
पशुओं के बारे में तो जानना मुश्क़िल है कि वे वफ़ादारी पर क्या सोचते हैं मगर इंसानी संबंधों को हद से ज़्यादा वफ़ादारी, शायद दोनों ही पक्षों को, पशुता के ही स्तर पर ले जाती है। किसी संगठन के प्रति वफ़ादारी का तो सीधा मतलब ही यह है कि या तो आप सच बोल लें या वफ़ादारी निभा लें। वहां सच और झूठ का कोई महत्व नहीं होता, संगठन का पक्ष ही आपका पक्ष होता है। आपको सच के पक्ष में नहीं, संगठन के विचार/धारा/रुख़ के पक्ष में तर्क जुटाने होते हैं। यहां थोड़ा विषय से भटककर कहना चाहूंगा कि संगठनों के काम करने के तरीक़ों, सफ़लता के मानकों, संख्या बढ़ाने की कोशिशों, अपने संगठन के व्यक्ति को नायक की तरह स्थापित करने की तिकड़मों और विरोधी को गिराने के हथकंडों में उन्नीस-बीस से ज़्यादा का अंतर नहीं होता, उनके बैनरों में परस्पर चाहे जितना कड़ा विरोध दर्शाया जा रहा हो।
बहरहाल, वफ़ादारी जब इंसानियत के खि़लाफ़ जाती हुई दिखने लगे तो उसपर एक बार ज़रुर सोचना चाहिए।
-संजयग्रोवर
24-09-2014
(ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, कोई इन्हें मानने को बाध्य नहीं है ; ठीक वैसे ही जैसे मैं अपनी बुद्धि, कार्यक्षेत्र और स्वतंत्रता के दायरे में किसीको मानने को बाध्य नहीं हूं।)
कई बार तो लोग मदद भी बिना कहे या ज़बरदस्ती करते हैं। फिर भी बदला चाहते हैं! फ़िल्मों में तो ख़ूब दिखाया गया है कि मुसीबत का मारा आदमी किसी छोटी-सी मदद के एवज में अपनी पूरी ज़िंदगी गिरवी रख देता है। मैं इसे बिलकुल भी मानवीय नहीं मानता। यह तो एक तरह की बंधुआ मज़दूरी या दासत्व है। ख़ुदको चिंतक या बौद्धिक माननेवाले लोगों को तो इस तरह की कोशिशें बिलकुल शोभा नहीं देतीं कि किसीको अपनी वैचारिक बंधुआगिरी पर मजबूर करें।
पशुओं के बारे में तो जानना मुश्क़िल है कि वे वफ़ादारी पर क्या सोचते हैं मगर इंसानी संबंधों को हद से ज़्यादा वफ़ादारी, शायद दोनों ही पक्षों को, पशुता के ही स्तर पर ले जाती है। किसी संगठन के प्रति वफ़ादारी का तो सीधा मतलब ही यह है कि या तो आप सच बोल लें या वफ़ादारी निभा लें। वहां सच और झूठ का कोई महत्व नहीं होता, संगठन का पक्ष ही आपका पक्ष होता है। आपको सच के पक्ष में नहीं, संगठन के विचार/धारा/रुख़ के पक्ष में तर्क जुटाने होते हैं। यहां थोड़ा विषय से भटककर कहना चाहूंगा कि संगठनों के काम करने के तरीक़ों, सफ़लता के मानकों, संख्या बढ़ाने की कोशिशों, अपने संगठन के व्यक्ति को नायक की तरह स्थापित करने की तिकड़मों और विरोधी को गिराने के हथकंडों में उन्नीस-बीस से ज़्यादा का अंतर नहीं होता, उनके बैनरों में परस्पर चाहे जितना कड़ा विरोध दर्शाया जा रहा हो।
बहरहाल, वफ़ादारी जब इंसानियत के खि़लाफ़ जाती हुई दिखने लगे तो उसपर एक बार ज़रुर सोचना चाहिए।
-संजयग्रोवर
24-09-2014
(ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, कोई इन्हें मानने को बाध्य नहीं है ; ठीक वैसे ही जैसे मैं अपनी बुद्धि, कार्यक्षेत्र और स्वतंत्रता के दायरे में किसीको मानने को बाध्य नहीं हूं।)
अच्छा और विचारोत्तेजक ब्लॉग.
ReplyDeleteसंजय जी, आज पहली बार आपका ब्लॉग पढ़ा. आपके विचार और लेखन शैली बहुत बढ़िया है .
ReplyDeleteJivan me pehali baar me mare khud ke hi vicharo ko pad raha hu
ReplyDeleteJivan me pehali baar me mare khud ke hi vicharo ko pad raha hu
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