आंकड़े हमेशा ज़रुरी नहीं होते, कई तथ्य ऐसे होते हैं जो हम अकसर अपनी आंखों से देखते हैं मगर समाज में फ़ैली कुछ मान्यताओं या परंपराओं, क़िताबें पढ़-पढ़कर बनी कुछ धारणाओं के डर से ख़ुदसे भी छुपाते रहते हैं। कई लोग कहते हैं कि समलैंगिकता जैसी चीज़ भारत में बाहर/यूरोप से आ गई है, हम तो बड़े अध्यात्मिक लोग हैं......
मुझे यह जानने के लिए क़तई आंकड़ों की ज़रुरत नहीं है कि यह चीज़ भारत में बहुत पहले से मौजूद है। मैं जिस कस्बे में पैदा हुआ वह पुरुष समलैंगिकता के लिए मशहूर था। वहां मेरे जैसे लड़के बिलकुल उसी तरह डरे रहते थे जैसे लड़कियां डरी रहती थीं। कई लोग इसी दृष्टि से घूरते भी थे, या मुझे लगता होगा कि ऐसा है। जैसे डरी हुई लड़कियां किसी भी पुरुष का विश्वास आसानी से नहीं कर पातीं, अगर मेरे जैसे लड़कों को भी यह लगता था तो इसमें असामान्य क्या है! इस तथ्य(पुरुष समलैंगिकता की वजह से हमारे कस्बे की मशहूरी) की पुष्टि उस दिन हुई जब दूसरे शहर के हॉस्टल के कुछ सीनियर लड़कों ने रैगिंग के दौरान मेरा परिचय जानने के बाद अपने हाथ पीछे ले जाते हुए कहा कि भई, इससे तो डर लग रहा है, हाथरस से आया है।
मैं समझता हूं कि हमारी समलैंगिकता से उनकी बेहतर इसलिए है क्योंकि वे ज़बरदस्ती नहीं करते, सहमति से संबंध बनाते हैं, छुपाते नहीं हैं। भारत के लोगों को बहुत कुछ इसलिए छुपाना पड़ता है क्योंकि यहां के लोगों ने अपनी महानता(?) और पवित्रता(?) को लेकर दुनिया-भर में बड़ी-बड़ी डींगें हांक रखीं हैं कि तुम सब भौतिकतावादी हो इसलिए बड़े ख़राब हो, चरित्रहीन हो।
इसी तरह जानवरों के साथ संबंधों के क़िस्से भी मैंने तभी सुन लिए थे। इसमें कितनी नमक-मिर्च थी, कितनी ‘आंखिन-देखी’ थी यह तो मैं नहीं बता सकता मगर आज मुझे इसमें कोई हैरानी भी नहीं होती। अगर हम मनुष्य के साथ बिना सहमति के कोई संबंध बना सकते हैं, ऊंच-नीच कर सकते हैं तो पशुत्व की तरफ़ क़दम तो हम पहले ही बढ़ा चुके हैं।
इस्मत चुगताई की कहानी ‘लिहाफ़’ पहले ही इशारा कर रही थी कि स्त्री-समलैंगिकता भी अपने यहां कहीं न कहीं मौजूद है। हमारे पास कुछ है तो बस यही कि हर चीज़ को छुपाओ, किसीको भी, ख़ासकर विदेशियों को कुछ पता न लगने दो। मगर सोचने की बात यह है कि छुपाने से दूसरी बहुत सारी (मानसिक) समस्याएं/बीमारियां पैदा हो जातीं हैं। मैंने जो थोड़ा-बहुत मनोविज्ञान पढ़ा या सुना है और ख़ुद भी अनुभव किया है उससे तो यही पता चलता है कि मनुष्य की बहुत-सी मानसिक समस्याओं/बीमारियों की वजह उसका दोहरा व्यवहार/'छुपाओ' यानि ‘करो कुछ बताओ कुछ’ का रवैय्या है। तिस पर एक और बड़ी मुसीबत यह है कि यही लोग आए दिन दूसरों को, ख़ासकर उन लोगों को पागल/सनकी/विकृत करार देते और नुकसान पहुंचाते रहते हैं जो एक साफ़-सुथरी और स्पष्ट ज़िंदगी जीने की कोशिश कर रहे हैं।
झूठ समझने और बताने के लिए हमेशा आंकड़ों और सर्वे की ज़रुरत नहीं होती, दोहरी ज़िंदगी जीने वाले समाजों में या अतीत में घट चुकी घटनाओं के मामले में हमेशा यह संभव भी नहीं हैं। लेकिन कुछ बातें सहज समझ और अनुभवों से भी समझी जा सकती हैं। एक-दो ऐसे उदाहरण बताता हूं। जैसे कि बीच में कहा गया कि चाउमिन की वजह से छेड़छाड़ या बलात्कार होते हैं। इसका मतलब क्या हुआ ? इसके अलावा और क्या कि चाउमिन पुरुषों की किसी क्षमता या उत्तेजना में वृद्धि करते हैं। मगर सोचने की बात यह है कि तब क्या चाउमिन इतने सस्ते मिलते !? तब लोग महंगे शिलाजीत और महामहंगे वियाग्रा की तरफ़ क्यों भागते !? तब इनपर भी बैन क्यों नहीं होना चाहिए ? जब आदमी का कोई भरोसा ही नहीं है तो वह कुछ भी खाकर कहीं भी कुछ भी कर सकता है। सही बात यह है कि ज़्यादातर घटनाएं इन सब कारकों की अनुपस्थिति में होतीं हैं। दूसरे उदाहरण में, जो राजा हज़ार-हज़ार और पांच-पांच सौ रानियां रखते थे उनमें से कई अपने हरमों में उन रानियों की सेवा के लिए हिजड़ो (आज की सभ्य भाषा में लैंगिक विकलांग) की नियुक्ति करते थे। इससे तो यही समझ में आता है कि वे भी मर्द की सीमित क्षमताओं को जानते थे और अपनी अनुपस्थिति में घट सकने वाली सहज-संभाव्य घटनाओं से बचने की फ़ौरी जुगाड़ करते थे। यानि कि मर्दों की वास्तविक/सीमित क्षमता पर परदा डालने का प्रयत्न करते थे। एक झूठे अहंकार की रक्षा करते थे।
इसमें सोचने की बात यही है कि ऐसे प्रयत्नों से समस्याएं सुलझेंगी कि बढ़ती जाएंगी !?
-संजय ग्रोवर
18-07-2015
मुझे यह जानने के लिए क़तई आंकड़ों की ज़रुरत नहीं है कि यह चीज़ भारत में बहुत पहले से मौजूद है। मैं जिस कस्बे में पैदा हुआ वह पुरुष समलैंगिकता के लिए मशहूर था। वहां मेरे जैसे लड़के बिलकुल उसी तरह डरे रहते थे जैसे लड़कियां डरी रहती थीं। कई लोग इसी दृष्टि से घूरते भी थे, या मुझे लगता होगा कि ऐसा है। जैसे डरी हुई लड़कियां किसी भी पुरुष का विश्वास आसानी से नहीं कर पातीं, अगर मेरे जैसे लड़कों को भी यह लगता था तो इसमें असामान्य क्या है! इस तथ्य(पुरुष समलैंगिकता की वजह से हमारे कस्बे की मशहूरी) की पुष्टि उस दिन हुई जब दूसरे शहर के हॉस्टल के कुछ सीनियर लड़कों ने रैगिंग के दौरान मेरा परिचय जानने के बाद अपने हाथ पीछे ले जाते हुए कहा कि भई, इससे तो डर लग रहा है, हाथरस से आया है।
मैं समझता हूं कि हमारी समलैंगिकता से उनकी बेहतर इसलिए है क्योंकि वे ज़बरदस्ती नहीं करते, सहमति से संबंध बनाते हैं, छुपाते नहीं हैं। भारत के लोगों को बहुत कुछ इसलिए छुपाना पड़ता है क्योंकि यहां के लोगों ने अपनी महानता(?) और पवित्रता(?) को लेकर दुनिया-भर में बड़ी-बड़ी डींगें हांक रखीं हैं कि तुम सब भौतिकतावादी हो इसलिए बड़े ख़राब हो, चरित्रहीन हो।
इसी तरह जानवरों के साथ संबंधों के क़िस्से भी मैंने तभी सुन लिए थे। इसमें कितनी नमक-मिर्च थी, कितनी ‘आंखिन-देखी’ थी यह तो मैं नहीं बता सकता मगर आज मुझे इसमें कोई हैरानी भी नहीं होती। अगर हम मनुष्य के साथ बिना सहमति के कोई संबंध बना सकते हैं, ऊंच-नीच कर सकते हैं तो पशुत्व की तरफ़ क़दम तो हम पहले ही बढ़ा चुके हैं।
इस्मत चुगताई की कहानी ‘लिहाफ़’ पहले ही इशारा कर रही थी कि स्त्री-समलैंगिकता भी अपने यहां कहीं न कहीं मौजूद है। हमारे पास कुछ है तो बस यही कि हर चीज़ को छुपाओ, किसीको भी, ख़ासकर विदेशियों को कुछ पता न लगने दो। मगर सोचने की बात यह है कि छुपाने से दूसरी बहुत सारी (मानसिक) समस्याएं/बीमारियां पैदा हो जातीं हैं। मैंने जो थोड़ा-बहुत मनोविज्ञान पढ़ा या सुना है और ख़ुद भी अनुभव किया है उससे तो यही पता चलता है कि मनुष्य की बहुत-सी मानसिक समस्याओं/बीमारियों की वजह उसका दोहरा व्यवहार/'छुपाओ' यानि ‘करो कुछ बताओ कुछ’ का रवैय्या है। तिस पर एक और बड़ी मुसीबत यह है कि यही लोग आए दिन दूसरों को, ख़ासकर उन लोगों को पागल/सनकी/विकृत करार देते और नुकसान पहुंचाते रहते हैं जो एक साफ़-सुथरी और स्पष्ट ज़िंदगी जीने की कोशिश कर रहे हैं।
झूठ समझने और बताने के लिए हमेशा आंकड़ों और सर्वे की ज़रुरत नहीं होती, दोहरी ज़िंदगी जीने वाले समाजों में या अतीत में घट चुकी घटनाओं के मामले में हमेशा यह संभव भी नहीं हैं। लेकिन कुछ बातें सहज समझ और अनुभवों से भी समझी जा सकती हैं। एक-दो ऐसे उदाहरण बताता हूं। जैसे कि बीच में कहा गया कि चाउमिन की वजह से छेड़छाड़ या बलात्कार होते हैं। इसका मतलब क्या हुआ ? इसके अलावा और क्या कि चाउमिन पुरुषों की किसी क्षमता या उत्तेजना में वृद्धि करते हैं। मगर सोचने की बात यह है कि तब क्या चाउमिन इतने सस्ते मिलते !? तब लोग महंगे शिलाजीत और महामहंगे वियाग्रा की तरफ़ क्यों भागते !? तब इनपर भी बैन क्यों नहीं होना चाहिए ? जब आदमी का कोई भरोसा ही नहीं है तो वह कुछ भी खाकर कहीं भी कुछ भी कर सकता है। सही बात यह है कि ज़्यादातर घटनाएं इन सब कारकों की अनुपस्थिति में होतीं हैं। दूसरे उदाहरण में, जो राजा हज़ार-हज़ार और पांच-पांच सौ रानियां रखते थे उनमें से कई अपने हरमों में उन रानियों की सेवा के लिए हिजड़ो (आज की सभ्य भाषा में लैंगिक विकलांग) की नियुक्ति करते थे। इससे तो यही समझ में आता है कि वे भी मर्द की सीमित क्षमताओं को जानते थे और अपनी अनुपस्थिति में घट सकने वाली सहज-संभाव्य घटनाओं से बचने की फ़ौरी जुगाड़ करते थे। यानि कि मर्दों की वास्तविक/सीमित क्षमता पर परदा डालने का प्रयत्न करते थे। एक झूठे अहंकार की रक्षा करते थे।
इसमें सोचने की बात यही है कि ऐसे प्रयत्नों से समस्याएं सुलझेंगी कि बढ़ती जाएंगी !?
-संजय ग्रोवर
18-07-2015
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